मोदी सरकार किसानों को किसी तरह की छूट देने के मूड में नहीं!

इतिहास बताता है कि सरकार चाहे जो भी हो एक बार जब कोई बिल पास करवा लेती है या फिर वैसा कोई निर्णय ले लेती है तो उससे पीछे नहीं हटती है, भले ही जनता जो भी मांग करती हो या फिर विपक्षी दल उसका जिस रूप में भी विरोध कर रहे हों.

Article image
  • Share this article on whatsapp

सरकार हर उस बेज़ा तरीके का इस्तेमाल कर रही थी जो पूरी तरह गैरकानूनी था. मेधा पाटकर के साथ-साथ सात अन्य आंदोलनकारियों ने 7 जनवरी 1991 को भूख हड़ताल शुरू कर दी. वैसे सरकार जो भी चाहे, लेकिन देशी मीडिया आज की तरह बंधक नहीं बनी थी, इसलिए इस आंदोलन की देश-विदेश में बहुत ज्यादा पब्लिसिटी हुई और 28 जनवरी को विश्व बैंक ने नर्मदा घाटी परियोजना को फंड मुहैया कराने से मना कर दिया. फिर भी गुजरात की सरकार टस से मस नहीं हुई. मध्य प्रदेश, गुजरात व महाराष्ट्र में कई सरकारें आईं और गईं, लेकिन परिणाम कुछ नहीं निकला.

इसी से मिलता जुलता उदाहरण पश्चिम बंगाल के सिंगुर व नन्दीग्राम का है. राज्य सरकार ने राज्य की सबसे बेहतर जमीन का अधिग्रहण टाटा को फैक्ट्री लगाने के लिए कर लिया. पश्चिम बंगाल में सरकार तो वामपंथी दलों की थी लेकिन एक उद्योगपति को जमीन मुहैया कराने के लिए गरीबों और किसानों की जमीन पर कब्जा जमाने का फैसला कर लिया. पूरे राज्य में सरकार के इस फैसले के खिलाफ आंदोलन शुरू हुआ. आंदोलन छोटा से बड़ा होता चला गया, लेकिन बुद्धदेव भट्टाचार्य की सरकार ने अपना फैसला वापस नहीं लिया.

इस विरोध प्रदर्शन का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि सरकार के इस फैसले का विरोध सीपीएम के एकाध बुद्धिजीवी को छोड़कर अधिकांश नामी-गिरामी वामपंथी बुद्धिजीवी कर रहे थे, फिर भी सरकार ने अपना फैसला वापस नहीं लिया. इस फैसले को तब बदला गया जब सीपीएम को हराकर ममता बनर्जी सत्ता पर काबिज हुईं. ठीक इसी तरह नर्मदा पर बांध के मामले में विश्‍वनाथ प्रताप सिंह ने पांच दिन के धरने के बाद खुद कहा था कि वे इस मामले पर विचार करेंगे, इसके बावजूद उन्‍हीं की पार्टी के चिमनभाई पटेल ने उनकी बात नहीं मानी. मौजूदा किसान आंदोलन को देखें तो इस बार केंद्रीय सत्‍ता को संचालित कर रहे राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के भीतर से किसानों के समर्थन की एक आवाज़ तक नहीं आयी है. गोंविदाचार्य इस मामले में अपवाद हैं, हालांकि वे संघ की सक्रिय राजनीति से दो दशक पहले ही अवकाश ले चुके हैं.

ऐसे में किसानों के साथ जिस बेअदबी से मोदी सरकार पेश आ रही है, इसका कारण सिर्फ यही रह जाता है कि किसी भी चुनी हुई सरकार के लिए जनता या जनता का हित कई वर्षों से सर्वोपरि नहीं रह गया है. सरकार की पहली प्राथमिकता हर हाल में कॉरपोरेट घरानों के हितों की सुरक्षा करना रह गया है. हां, जब वही पार्टियां सत्ता से बाहर होती हैं तो उनका टोन अलग होता है, लेकिन सत्ता में आते ही वे वही फैसले लेती हैं जिसके खिलाफ वे पहले रही थीं. या फिर जब कोई पार्टी सत्ता में आती है तो अपने संघर्ष के अतीत से मुक्त होती है और विश्व बैंक, आईएमएफ और कॉरपोरेट घरानों के हितों की रक्षा में लग जाती है.

अन्यथा क्या कारण है कि गुजरात में जनता दल की सरकार के मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल बड़े-बड़े बांध का समर्थन करते हैं और बाबा आम्टे व मेधा पाटकर जैसे बड़े समाजसेवियों को अपने राज्य की सीमा में घुसने नहीं देते हैं! इसी तरह गरीबों, किसानों व छोटे-मोटे बटाईदारों का हित देखने वाली वामपंथी पार्टी सीपीएम उन्हीं गरीब किसानों व मजदूरों की जमीन हड़पकर टाटा जैसे बड़े कॉरपोरेट को कार की फैक्ट्री लगाने के लिए दे देती है!

फिर सवाल उठता है कि किसान आंदोलन से हमें क्या सीख मिलती है? और दूसरा, क्या किसानों को इसी तरह वर्षों दिल्ली की सीमाओं पर बैठकर अपनी जिंदगी गुजारनी होगी जिसमें अभी तक ढाई सौ से ज्यादा लोग आज तक मारे जा चुके हैं?

इसका जवाब खोजना इतना भी आसान नहीं है, लेकिन दीवार पर लिखी इबारत यह बता रही है कि किसानों के इस आंदोलन ने विपक्षी दलों को यह सुनहरा अवसर दे दिया है कि वे सत्ताधारी दलों के खिलाफ पूरे देश में जनजागरण अभियान चलाएं और जिन चार राज्यों में अगले दो महीने चुनाव हो रहे हैं उसे केन्द्र सरकार बनाम किसान की ही नहीं बल्कि केन्द्र बनाम जनता की लड़ाई बना दें!

वैसे यह तो तय है कि मोदी सरकार किसी भी परिस्थिति में इन तीनों कानूनों को वापस नहीं लेने जा रही है. ऐसा क्यों न हो कि सभी विपक्षी दल मोदी सरकार के खिलाफ व्यापक गोलबंदी करके उसे सत्ताच्युत कर दें. विपक्षी दलों के लिए पंजाब व हरियाणा के किसानों ने तो यह अवसर मुहैया करा ही दिया है.

(साभार- जनपथ)

सरकार हर उस बेज़ा तरीके का इस्तेमाल कर रही थी जो पूरी तरह गैरकानूनी था. मेधा पाटकर के साथ-साथ सात अन्य आंदोलनकारियों ने 7 जनवरी 1991 को भूख हड़ताल शुरू कर दी. वैसे सरकार जो भी चाहे, लेकिन देशी मीडिया आज की तरह बंधक नहीं बनी थी, इसलिए इस आंदोलन की देश-विदेश में बहुत ज्यादा पब्लिसिटी हुई और 28 जनवरी को विश्व बैंक ने नर्मदा घाटी परियोजना को फंड मुहैया कराने से मना कर दिया. फिर भी गुजरात की सरकार टस से मस नहीं हुई. मध्य प्रदेश, गुजरात व महाराष्ट्र में कई सरकारें आईं और गईं, लेकिन परिणाम कुछ नहीं निकला.

इसी से मिलता जुलता उदाहरण पश्चिम बंगाल के सिंगुर व नन्दीग्राम का है. राज्य सरकार ने राज्य की सबसे बेहतर जमीन का अधिग्रहण टाटा को फैक्ट्री लगाने के लिए कर लिया. पश्चिम बंगाल में सरकार तो वामपंथी दलों की थी लेकिन एक उद्योगपति को जमीन मुहैया कराने के लिए गरीबों और किसानों की जमीन पर कब्जा जमाने का फैसला कर लिया. पूरे राज्य में सरकार के इस फैसले के खिलाफ आंदोलन शुरू हुआ. आंदोलन छोटा से बड़ा होता चला गया, लेकिन बुद्धदेव भट्टाचार्य की सरकार ने अपना फैसला वापस नहीं लिया.

इस विरोध प्रदर्शन का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि सरकार के इस फैसले का विरोध सीपीएम के एकाध बुद्धिजीवी को छोड़कर अधिकांश नामी-गिरामी वामपंथी बुद्धिजीवी कर रहे थे, फिर भी सरकार ने अपना फैसला वापस नहीं लिया. इस फैसले को तब बदला गया जब सीपीएम को हराकर ममता बनर्जी सत्ता पर काबिज हुईं. ठीक इसी तरह नर्मदा पर बांध के मामले में विश्‍वनाथ प्रताप सिंह ने पांच दिन के धरने के बाद खुद कहा था कि वे इस मामले पर विचार करेंगे, इसके बावजूद उन्‍हीं की पार्टी के चिमनभाई पटेल ने उनकी बात नहीं मानी. मौजूदा किसान आंदोलन को देखें तो इस बार केंद्रीय सत्‍ता को संचालित कर रहे राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के भीतर से किसानों के समर्थन की एक आवाज़ तक नहीं आयी है. गोंविदाचार्य इस मामले में अपवाद हैं, हालांकि वे संघ की सक्रिय राजनीति से दो दशक पहले ही अवकाश ले चुके हैं.

ऐसे में किसानों के साथ जिस बेअदबी से मोदी सरकार पेश आ रही है, इसका कारण सिर्फ यही रह जाता है कि किसी भी चुनी हुई सरकार के लिए जनता या जनता का हित कई वर्षों से सर्वोपरि नहीं रह गया है. सरकार की पहली प्राथमिकता हर हाल में कॉरपोरेट घरानों के हितों की सुरक्षा करना रह गया है. हां, जब वही पार्टियां सत्ता से बाहर होती हैं तो उनका टोन अलग होता है, लेकिन सत्ता में आते ही वे वही फैसले लेती हैं जिसके खिलाफ वे पहले रही थीं. या फिर जब कोई पार्टी सत्ता में आती है तो अपने संघर्ष के अतीत से मुक्त होती है और विश्व बैंक, आईएमएफ और कॉरपोरेट घरानों के हितों की रक्षा में लग जाती है.

अन्यथा क्या कारण है कि गुजरात में जनता दल की सरकार के मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल बड़े-बड़े बांध का समर्थन करते हैं और बाबा आम्टे व मेधा पाटकर जैसे बड़े समाजसेवियों को अपने राज्य की सीमा में घुसने नहीं देते हैं! इसी तरह गरीबों, किसानों व छोटे-मोटे बटाईदारों का हित देखने वाली वामपंथी पार्टी सीपीएम उन्हीं गरीब किसानों व मजदूरों की जमीन हड़पकर टाटा जैसे बड़े कॉरपोरेट को कार की फैक्ट्री लगाने के लिए दे देती है!

फिर सवाल उठता है कि किसान आंदोलन से हमें क्या सीख मिलती है? और दूसरा, क्या किसानों को इसी तरह वर्षों दिल्ली की सीमाओं पर बैठकर अपनी जिंदगी गुजारनी होगी जिसमें अभी तक ढाई सौ से ज्यादा लोग आज तक मारे जा चुके हैं?

इसका जवाब खोजना इतना भी आसान नहीं है, लेकिन दीवार पर लिखी इबारत यह बता रही है कि किसानों के इस आंदोलन ने विपक्षी दलों को यह सुनहरा अवसर दे दिया है कि वे सत्ताधारी दलों के खिलाफ पूरे देश में जनजागरण अभियान चलाएं और जिन चार राज्यों में अगले दो महीने चुनाव हो रहे हैं उसे केन्द्र सरकार बनाम किसान की ही नहीं बल्कि केन्द्र बनाम जनता की लड़ाई बना दें!

वैसे यह तो तय है कि मोदी सरकार किसी भी परिस्थिति में इन तीनों कानूनों को वापस नहीं लेने जा रही है. ऐसा क्यों न हो कि सभी विपक्षी दल मोदी सरकार के खिलाफ व्यापक गोलबंदी करके उसे सत्ताच्युत कर दें. विपक्षी दलों के लिए पंजाब व हरियाणा के किसानों ने तो यह अवसर मुहैया करा ही दिया है.

(साभार- जनपथ)

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like