देश में लिंग आधारित हिंसा के सार्थक समाधान के लिए किसी नीति को निर्धारित करते हुए हमें इसकी बारीकियों को समझना होगा.
दबंग जाति समूहों को पुलिस अधिकारियों की शह मिलने के वाकये भी देखने को मिलते हैं. लेकिन प्रशासन के दबाव के कारण थानेदार और पुलिस अधीक्षक यौन अपराधों की शिकायत दर्ज नहीं करते क्योंकि ऐसे मामलों की वजह से उन पर तबादले या निलंबन का खतरा मंडराने लगता है. नौकरशाही के इस डर के कारण ऐसे मामलों की जांच में उदासीन रवैया अपनाया जाता है. भूमि विवाद में बदले के इरादे से औरतों के विरुद्ध हिंसा के दर्ज मामले यौन हमलों के वास्तविक मामलों को अंजाम तक पहुंचाने में बाधक बनते हैं.
इस स्थिति के समाधान का कोई प्रयास अकेले केवल पुलिस सुधार, जातिगत भेदभाव, पितृसत्ता या भूमि स्वामित्व में सुधार पर ही केंद्रित नहीं हो सकता है. हमें ऐसा व्यापक रुख अपनाना चाहिए, जिससे इन सभी मुद्दों के समाधान हो सके.
भूमि स्वामित्व में सुधार की प्रक्रिया में चकबंदी में अनियमितता और समुचित दस्तावेजों के अभाव को दूर किया जाना चाहिए. आबाद और बंजर जमीन पर बने अवैध निर्माणों के बारे में भी सभी संबद्ध पक्षों को ठोस फैसला करना चाहिए. शिक्षा व पेशेगत स्तर पर बड़े पैमाने पर प्रयास तथा स्वास्थ्य सेवा, न्यायपालिका, शिक्षा, मनोरंजन और खेल समेत हर क्षेत्र में निम्न जातियों के सामाजिक जुड़ाव को सुनिश्चित किये बिना जाति के उन्मूलन के लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता है.
भूमि और जाति सुधारों के साथ हमारे समाज में व्याप्त पितृसत्ता का समाधान करना होगा. 'नारी सशक्तीकरण' राजनीति और कॉरपोरेट संस्थानों के लिए एक चर्चित मुहावरा है, लेकिन हमें इन वादों को आलोचनात्मक दृष्टि से देखना होगा. बीते कुछ केंद्रीय बजटों में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने सशक्तीकरण के उद्देश्य से चलाये जा रहे कई कार्यक्रमों के लिए आवंटित धन को खर्च नहीं किया. हमें सत्ता के प्रतिष्ठानों में महिलाओं के लिए अधिक प्रतिनिधित्व की मांग करनी चाहिए तथा यह सांसद, विधायक या विधान परिषद चुनाव, न्यायपालिका और कॉरपोरेट बोर्डों में आरक्षित सीटों के जरिये किया जाना चाहिए.
हमें गुणवत्तापूर्ण यौन शिक्षा और सहमति के बारे में युवाओं को प्रशिक्षित करने पर जोर देना चाहिए. यह केवल यौन हिंसा को रोकने के इरादे से नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि विभिन्न लिंगों के लोगों के बीच स्वस्थ संबंधों को समान व सामान्य बनाने के लिए भी किया जाना चाहिए. हमें उपभोक्ता तकनीक के परिवर्तनकारी और मुक्तिकारी शक्ति तक पहुंच में यौन विषमता को भी दूर करना चाहिए.
(लेखक लोकसभा सदस्य हैं)
दबंग जाति समूहों को पुलिस अधिकारियों की शह मिलने के वाकये भी देखने को मिलते हैं. लेकिन प्रशासन के दबाव के कारण थानेदार और पुलिस अधीक्षक यौन अपराधों की शिकायत दर्ज नहीं करते क्योंकि ऐसे मामलों की वजह से उन पर तबादले या निलंबन का खतरा मंडराने लगता है. नौकरशाही के इस डर के कारण ऐसे मामलों की जांच में उदासीन रवैया अपनाया जाता है. भूमि विवाद में बदले के इरादे से औरतों के विरुद्ध हिंसा के दर्ज मामले यौन हमलों के वास्तविक मामलों को अंजाम तक पहुंचाने में बाधक बनते हैं.
इस स्थिति के समाधान का कोई प्रयास अकेले केवल पुलिस सुधार, जातिगत भेदभाव, पितृसत्ता या भूमि स्वामित्व में सुधार पर ही केंद्रित नहीं हो सकता है. हमें ऐसा व्यापक रुख अपनाना चाहिए, जिससे इन सभी मुद्दों के समाधान हो सके.
भूमि स्वामित्व में सुधार की प्रक्रिया में चकबंदी में अनियमितता और समुचित दस्तावेजों के अभाव को दूर किया जाना चाहिए. आबाद और बंजर जमीन पर बने अवैध निर्माणों के बारे में भी सभी संबद्ध पक्षों को ठोस फैसला करना चाहिए. शिक्षा व पेशेगत स्तर पर बड़े पैमाने पर प्रयास तथा स्वास्थ्य सेवा, न्यायपालिका, शिक्षा, मनोरंजन और खेल समेत हर क्षेत्र में निम्न जातियों के सामाजिक जुड़ाव को सुनिश्चित किये बिना जाति के उन्मूलन के लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता है.
भूमि और जाति सुधारों के साथ हमारे समाज में व्याप्त पितृसत्ता का समाधान करना होगा. 'नारी सशक्तीकरण' राजनीति और कॉरपोरेट संस्थानों के लिए एक चर्चित मुहावरा है, लेकिन हमें इन वादों को आलोचनात्मक दृष्टि से देखना होगा. बीते कुछ केंद्रीय बजटों में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने सशक्तीकरण के उद्देश्य से चलाये जा रहे कई कार्यक्रमों के लिए आवंटित धन को खर्च नहीं किया. हमें सत्ता के प्रतिष्ठानों में महिलाओं के लिए अधिक प्रतिनिधित्व की मांग करनी चाहिए तथा यह सांसद, विधायक या विधान परिषद चुनाव, न्यायपालिका और कॉरपोरेट बोर्डों में आरक्षित सीटों के जरिये किया जाना चाहिए.
हमें गुणवत्तापूर्ण यौन शिक्षा और सहमति के बारे में युवाओं को प्रशिक्षित करने पर जोर देना चाहिए. यह केवल यौन हिंसा को रोकने के इरादे से नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि विभिन्न लिंगों के लोगों के बीच स्वस्थ संबंधों को समान व सामान्य बनाने के लिए भी किया जाना चाहिए. हमें उपभोक्ता तकनीक के परिवर्तनकारी और मुक्तिकारी शक्ति तक पहुंच में यौन विषमता को भी दूर करना चाहिए.
(लेखक लोकसभा सदस्य हैं)