पत्रकारिता जब कई मोर्चों पर संघर्षरत है तब महिला पत्रकारों ने अनजाने-अनपेक्षित कोनों से उम्मीद की मशालें जला दी हैं.
इसे शब्दशः सिद्ध किया तनुश्री पाण्डेय जैसी निडर महिला रिपोर्टरों ने. हाथरस की वह काली रात सबके ज़हन में लगभग ताज़ा ही होगी जब बलात्कार पीड़िता मनीषा बाल्मीकि की लाश को रातोरात जला दिया गया था. एक सवर्ण मुख्यमंत्री के प्रदेश में जहां स्त्रियों की पीड़ा की सुनवाई का बचा-खुचा माहौल भी समाप्ति की ओर अग्रसर था, तनुश्री एक पितृसत्तात्मक चक्रव्यूह का भेदन कर पूरे मुआमले को सामने लेकर आयी और साथ ही साथ उन्होंने यह यकीन भी पुख्ता किया कि स्त्रियां स्त्रियों के लिए हमेशा आवाज़ उठायेंगी. निश्चित रूप से यह आसान नहीं रहा होगा तनुश्री के लिए. ख़ासतौर पर तब जब सत्ता सिंचित सांप्रदायिक और वैमनस्यकारी ख़बरिया चैनल और वेबसाइटें लगातार तनुश्री की ट्रोलिंग को हवा दे रहे थे. उनके स्वर को दबाने की कोशिश कर रहे थे.
तनुश्री अकेली नहीं हैं जिन्हें इस तरह की अश्लील-अनुचित हरकतों का सामना करना पड़ा है. शिलॉन्ग टाइम्स की संपादक और उत्तर-पूर्व की मुखर पत्रकार पैट्रिशिया मुखीम की स्वतंत्र आवाज़ को भी कई बार दबाने की कोशिश की गयी है. फिर भी ये स्त्रियां लिख रहीं हैं, बोल रहीं और और अपनी आवाज़ को दबने नहीं दे रही हैं.
इन सभी महिला पत्रकारों के बारे में सोचते हुए मुझे अनायास ही ‘महिला पत्रकारों’ के विषय में जानकारी इकट्ठा करते हुए कम्प्यूटर की स्क्रीन पर उभर आये कुछ और चेहरे याद हो आये. स्मिता प्रकाश, रुबिका लियाक़त, श्वेता सिंह और अंजना ओम कश्यप... टीवी पर मेकअप से लकदक चेहरे. शोर मचाती हुई उनकी आवाज़ कि मापना पड़ जाए, इस आवाज़ की आवृत्ति मनुष्यों द्वारा सुने जा सकने वाले डेसिबल के अन्दर ही है अथवा उससे बाहर है. मुझे ये चेहरे लुभाते हैं. चेहरों से अधिक उनका और उनके स्वरों का भोलापन.
बड़ी प्रचलित उक्ति है, ‘रोम जब जल रहा था, नीरो बांसुरी बजा रहा था.’ मुझे हमेशा लगता रहा है, यह कहानी आधी ही है. रोम जब जल रहा था, नीरो अकेला बांसुरी नहीं बजा रहा होगा. उसके साथ ज़रूर होगी दरबारियों की फ़ौज. मैं एक नज़र अपने देश के हालात पर डालती हूं और दूसरी नज़र टीवी के इन लकदक चेहरों पर. मैं नीरो के दरबारियों के चेहरों का खाका तैयार करने लग जाती हूं.
बात यहीं रुकती, अरमां यहीं नहीं संभलते... मैं थोड़ा और आगे बढ़ती हूं. श्वेता सिंह का ट्विटर अकाउंट चेक करती हूं. पिन किये हुए ट्वीट में उनकी मोहक तस्वीर को क्षण भर निहारते हुए आगे बढ़ती हूं. अगला ट्वीट देखती हूं और बिहार के शहर बख्तियारपुर पर उनकी इतिहासपरक ग्राउंड रिपोर्ट का ज़िक्र देखती हूं. मुझे लगता है पत्रकारिता को बस यहीं से यू टर्न ले लेना चाहिए. खैर, हिम्मत को एक और बूस्टर देते हुए मैं रुबिका लियाक़त के ट्वीटर प्रोफाइल तक पहुंचती हूं. उनकी सुन्दर, आग से लपलपाती हुई विडियो देखकर ख़बरदार होशियार हो जाती हूं. मैं आगे किसी भी अन्य प्रोफाइल पर जाने का इरादा त्याग देती हूं. टीवी पर ख़बर देखना तो जाने कब का छोड़ दिया है. इन बातों के मद्देनजर मैं सोचती हूं भारतीय पत्रकारिता को सींचने वाले शुरूआती लोग फिलवक्त होते तो इस दूसरी तरह की पत्रकारिता को देखकर क्या कहते?
क्या यह पत्रकारिता है? क्या पत्रकारिता की परिभाषा केवल सरकार की हां में हां मिलाना रह गयी है और अफवाह का बाज़ार गर्म करना भर? इस भाषा के पत्रकारों की ख़ातिर सब है, सत्ता का साथ और शोर भी. सरोकार की पत्रकारिता करने वाली तनु श्री, फाये डी’सूजा, पैट्रिशिया मुखीम, आरफा सरीखी लड़कियों की ख़ातिर बची है धमकी और डिजिटल ट्रोलिंग...
इसे शब्दशः सिद्ध किया तनुश्री पाण्डेय जैसी निडर महिला रिपोर्टरों ने. हाथरस की वह काली रात सबके ज़हन में लगभग ताज़ा ही होगी जब बलात्कार पीड़िता मनीषा बाल्मीकि की लाश को रातोरात जला दिया गया था. एक सवर्ण मुख्यमंत्री के प्रदेश में जहां स्त्रियों की पीड़ा की सुनवाई का बचा-खुचा माहौल भी समाप्ति की ओर अग्रसर था, तनुश्री एक पितृसत्तात्मक चक्रव्यूह का भेदन कर पूरे मुआमले को सामने लेकर आयी और साथ ही साथ उन्होंने यह यकीन भी पुख्ता किया कि स्त्रियां स्त्रियों के लिए हमेशा आवाज़ उठायेंगी. निश्चित रूप से यह आसान नहीं रहा होगा तनुश्री के लिए. ख़ासतौर पर तब जब सत्ता सिंचित सांप्रदायिक और वैमनस्यकारी ख़बरिया चैनल और वेबसाइटें लगातार तनुश्री की ट्रोलिंग को हवा दे रहे थे. उनके स्वर को दबाने की कोशिश कर रहे थे.
तनुश्री अकेली नहीं हैं जिन्हें इस तरह की अश्लील-अनुचित हरकतों का सामना करना पड़ा है. शिलॉन्ग टाइम्स की संपादक और उत्तर-पूर्व की मुखर पत्रकार पैट्रिशिया मुखीम की स्वतंत्र आवाज़ को भी कई बार दबाने की कोशिश की गयी है. फिर भी ये स्त्रियां लिख रहीं हैं, बोल रहीं और और अपनी आवाज़ को दबने नहीं दे रही हैं.
इन सभी महिला पत्रकारों के बारे में सोचते हुए मुझे अनायास ही ‘महिला पत्रकारों’ के विषय में जानकारी इकट्ठा करते हुए कम्प्यूटर की स्क्रीन पर उभर आये कुछ और चेहरे याद हो आये. स्मिता प्रकाश, रुबिका लियाक़त, श्वेता सिंह और अंजना ओम कश्यप... टीवी पर मेकअप से लकदक चेहरे. शोर मचाती हुई उनकी आवाज़ कि मापना पड़ जाए, इस आवाज़ की आवृत्ति मनुष्यों द्वारा सुने जा सकने वाले डेसिबल के अन्दर ही है अथवा उससे बाहर है. मुझे ये चेहरे लुभाते हैं. चेहरों से अधिक उनका और उनके स्वरों का भोलापन.
बड़ी प्रचलित उक्ति है, ‘रोम जब जल रहा था, नीरो बांसुरी बजा रहा था.’ मुझे हमेशा लगता रहा है, यह कहानी आधी ही है. रोम जब जल रहा था, नीरो अकेला बांसुरी नहीं बजा रहा होगा. उसके साथ ज़रूर होगी दरबारियों की फ़ौज. मैं एक नज़र अपने देश के हालात पर डालती हूं और दूसरी नज़र टीवी के इन लकदक चेहरों पर. मैं नीरो के दरबारियों के चेहरों का खाका तैयार करने लग जाती हूं.
बात यहीं रुकती, अरमां यहीं नहीं संभलते... मैं थोड़ा और आगे बढ़ती हूं. श्वेता सिंह का ट्विटर अकाउंट चेक करती हूं. पिन किये हुए ट्वीट में उनकी मोहक तस्वीर को क्षण भर निहारते हुए आगे बढ़ती हूं. अगला ट्वीट देखती हूं और बिहार के शहर बख्तियारपुर पर उनकी इतिहासपरक ग्राउंड रिपोर्ट का ज़िक्र देखती हूं. मुझे लगता है पत्रकारिता को बस यहीं से यू टर्न ले लेना चाहिए. खैर, हिम्मत को एक और बूस्टर देते हुए मैं रुबिका लियाक़त के ट्वीटर प्रोफाइल तक पहुंचती हूं. उनकी सुन्दर, आग से लपलपाती हुई विडियो देखकर ख़बरदार होशियार हो जाती हूं. मैं आगे किसी भी अन्य प्रोफाइल पर जाने का इरादा त्याग देती हूं. टीवी पर ख़बर देखना तो जाने कब का छोड़ दिया है. इन बातों के मद्देनजर मैं सोचती हूं भारतीय पत्रकारिता को सींचने वाले शुरूआती लोग फिलवक्त होते तो इस दूसरी तरह की पत्रकारिता को देखकर क्या कहते?
क्या यह पत्रकारिता है? क्या पत्रकारिता की परिभाषा केवल सरकार की हां में हां मिलाना रह गयी है और अफवाह का बाज़ार गर्म करना भर? इस भाषा के पत्रकारों की ख़ातिर सब है, सत्ता का साथ और शोर भी. सरोकार की पत्रकारिता करने वाली तनु श्री, फाये डी’सूजा, पैट्रिशिया मुखीम, आरफा सरीखी लड़कियों की ख़ातिर बची है धमकी और डिजिटल ट्रोलिंग...