प्रकृति और पर्यावरण के लिए क्या महत्व रखता है आदिवासियों का सरना धर्म

झारखंड विधानसभा के विशेष सत्र में आदिवासियों के लिए अलग से सरना आदिवासी धर्म कोड का प्रस्ताव पारित कर दिया.

WrittenBy:मो. असग़र ख़ान
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देश में लंबे समय से आदिवासी समाज अपनी अलग धार्मिक पहचान की मांग करता आया है. झारखंड इस मांग का केंद्र रहा है और हाल के दिनों में यहां इस मांग ने जोर भी पकड़ा है. यही वजह है कि झारखंड के गठन के बाद पहली बार राज्य सरकार आदिवासियों के लिए अलग से धर्मावलंबी यानी सरना आदिवासी धर्म कोड लाने के लिए तीन नवंबर 2020 को एक प्रस्ताव लेकर आई, जिसे एक हफ्ते के भीतर 11 नवंबर 2020 को झारखंड विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर पारित कर दिया गया. अब यह पारित प्रस्ताव भारत सरकार को भेजा जाएगा.

संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक दुनिया में लगभग 37 करोड़ आदिवासी रहते हैं. 2011 की जनगणना की माने तो सिर्फ भारत में आदिवासियों की 705 जनजतियां हैं और हिस्सेदारी देश की कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है. जो आबादी के लिहाज से करीबन दस करोड़ होती है. झारखंड एक आदिवासी बहुल राज्य है. यहां की कुल आबादी का 27 प्रतिशत आदिवासी समुदाय के लोग हैं, जो संख्या में लगभग 86 लाख हैं. इनमें 60 लाख वैसे आदिवासी हैं जो ‘सरना’ धर्म को मानते हैं जो कि प्रकृतिवाद पर आधारित है. इसमें प्रकृति की उपासना की जाती है. इनकी भाषा, संस्कृति, खान-पान, रहन-सहन, परंपरा आदि अलग होती है. जबकि पेड़-पौधे, पहाड़, प्राकृतिक संपदा आदि इनकी पूजा पद्धति होती है. अगर इन सबको सरना धर्म कोड के तहत अलग धर्म की पहचान मिलती है तो दशकों से चले आ रहे इनके संघर्ष की जीत होगी.

11 नवंबर को जब झारखंड विधानसभा में सरना धर्म कोड को लेकर प्रस्ताव पारित हो रहा था तो उस दौरान झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने सरना धर्म कोड को जल, जंगल, जमीन से जोड़ते हुए इसे पर्यावरण सरंक्षण और आदिवासियों की घटती आबादी के रोकथाम के लिए अहम बताया.

ऐसा मानना आदिवासी समाज का भी है. आदिवासी मामलों के जानकार अश्विनी कुमार पंकज कहते हैं, सरना धर्म कोड अगर अलग धर्म के रूप में स्वीकार होता है तो ये पर्यावरण के संरक्षण के लिए एक भविष्य का बड़ा निवेश होगा. देश की एक बड़ी आबादी जो प्रकृति को मानती है. जिसका जुड़ाव जल, जंगल, जमीन से है, उसे संवैधानिक रूप से पहचान मिलेगी तो जाहिर है कि इसके बाद इनकी प्राकृतिक पहचान का और संवर्धन होगा. जिसका सकारात्मक असर पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन आदि पर पड़ेगा.

सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक ग्लैडन डुंगडुग कहते हैं, "आदिवासियों के लिए अलग से सरना धर्म कोड की मांग पर प्रस्ताव पारित करना मैं समझता हूं कि पर्यावरण और मानवजाति के लिए जरूरी कदम है. प्रकृति एक ऐसी शक्ति है जिसके बिना जीवन की परिकल्पना असंभव है. सरना कोड के तहत अगर आदिवासियों को अलग धार्मिक पहचान मिलेगी, तो यह पर्यावरण संरक्षण के लिए कितना महत्वपूर्ण कदम साबित होगा इसे संयुक्त राष्ट्र की संस्था आईपीसीसी (इंटरगर्वमेंटल पैनल ऑफ क्लामेट चेंज) की जारी रिपोर्ट से भी समझा जा सकता है. जिसमें कहा गया है कि आदिवासियों के रीति-रिवाज, परंपरा और उनका प्राकृति से जो लगाव है, वो एक बड़ा रास्ता है जयवायु परिवर्तन को बचाने के लिए."

वो यह भी कहते हैं कि सात दशकों से जिस तरह विकास के नाम पर आदिवासियों के सरना स्थलों को तोड़ा जा रहा है, उस पर भी रोक लगेगी. हालांकि नियमगिरी जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही कह रखा है कि अनुछेद 25, 26 के तहत अन्य धर्मों को जो पूजा पद्धति की आजादी दी गई है उसी तरह आदिवासी समाज को उनके द्वारा किए जा रहे पूजा पद्धति की आजादी को सुनिश्चित किया जाए.

सरना स्थल आदिवासी के उस पवित्र जगह को कहा जाता है कि जहां आदिवासी अपनी मान्यताओं के अनुसार विभिन्न त्योहारों के मौके पर एकत्रित होकर प्रकृति की पूजा करते हैं. झारखंड में 32 आदिवासी जनजाति पायी जाती हैं. जिसमें आठ आदिम जनजाती कहलाती हैं. इन्हें पीवीटीजी (पर्टिकुलरली वनरेबल ट्राइबल ग्रुप) कहा जाता है. फिलहाल यह सभी जनजाती हिंदू कैटेगरी में आती हैं. दस वर्षों में होने वाले जनगणना में मूल रूप से छह धर्मों का ही उल्लेख होता है और इनके लिए अलग अलग कॉलम होता है. हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध जैन. इन छह धर्मों की 49 उप श्रेणियां हैं. हिंदू धर्म की 23 उप श्रेणियों में अनुछेद 342 के तहत आदिवासी समाज को अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त है. अब इस समाज की मांग है कि 2021 में होने वाले जनगणना से पहले आदिवासियों के लिए सरना धर्म कोड प्रावधान किया जाए.

आदिवासियों के लिए चिंता का सबब यह भी रहा है कि इनकी आबादी लगातार घटती जा रही है. यह चिंता मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी जाहिर कर चुके हैं और उनका कहना है कि आदिवासियों को अलग सरना धर्म कोड दिए जाने के बाद घटती आबादी पर रोक लगेगी. झारखंड सरकार के गृह विभाग द्वारा जारी संकल्प के मुताबिक 1931 से 2011 तक आदिवासियों की आबादी 38.03 प्रतिशत से घटकर 28.02 प्रतिशत हो गई है.

लंबे समय से सरना धर्म कोड की मांग को लेकर आंदोलन करने वाले राजी पड़हा सरना प्रार्थना सभा के धर्मगुरू बंधन तिग्गा का दावा है कि झारखंड में 86 लाख आदिवासियों में 62 लाख सरना आदिवासी हैं. उनका कहना है कि 2011 की जनगनणा के दौरान 49 लाख 57 हजार 467 लोगों ने अपना धर्म सरना धर्म लिखा है. जिसमें 41 लाख 31 हजार 283 झारखंड के हैं. झारखंड में आदिवासियों का धर्मांतरण भी एक मुद्दा रहा है. लोगों का मानना है कि आदिवासियों को अलग धार्मिक पहचान मिल जाने के बाद उनके हो रहे धर्मांतरण भी रूकेंगे.

अश्विनी कुमार पंकज कहते हैं, “ब्रिटिश काल में 1871 से 1921 तक आदिवासियों को अलग अलग समूह या नाम से उन्हें धार्मिक पहचान मिलती रही है. जबकि 1931 में सेंसस कमिश्नर जेएच हटन ने आदिवासी समुदाय की पहचान एक धर्म के तौर पर की. द्वितीय विश्व युद्ध के कारण 1941 में जनगणना नहीं हो पाई और जब आजाद भारत में 1951 में जनगणना हुई तो सरकार में बैठे लोगों का मानना था कि आदिवासी समाज पिछड़े हुए हिंदू हैं. इसलिए उन्होंने इनका धर्म कोड वाला कॉलम हटा दिया जबकि सच्चाई यह है कि कालांतर में आदिवासियों का एक छोटा सा हिस्सा अपने पड़ोसी समाज के धर्मों से प्रभावित हुआ तो उसी को आधार बनाते हुए इन्हें हिंदू धर्म की पिछड़ी आबादी बताया जाने लगा, जो कि गलत है."

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देश में लंबे समय से आदिवासी समाज अपनी अलग धार्मिक पहचान की मांग करता आया है. झारखंड इस मांग का केंद्र रहा है और हाल के दिनों में यहां इस मांग ने जोर भी पकड़ा है. यही वजह है कि झारखंड के गठन के बाद पहली बार राज्य सरकार आदिवासियों के लिए अलग से धर्मावलंबी यानी सरना आदिवासी धर्म कोड लाने के लिए तीन नवंबर 2020 को एक प्रस्ताव लेकर आई, जिसे एक हफ्ते के भीतर 11 नवंबर 2020 को झारखंड विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर पारित कर दिया गया. अब यह पारित प्रस्ताव भारत सरकार को भेजा जाएगा.

संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक दुनिया में लगभग 37 करोड़ आदिवासी रहते हैं. 2011 की जनगणना की माने तो सिर्फ भारत में आदिवासियों की 705 जनजतियां हैं और हिस्सेदारी देश की कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है. जो आबादी के लिहाज से करीबन दस करोड़ होती है. झारखंड एक आदिवासी बहुल राज्य है. यहां की कुल आबादी का 27 प्रतिशत आदिवासी समुदाय के लोग हैं, जो संख्या में लगभग 86 लाख हैं. इनमें 60 लाख वैसे आदिवासी हैं जो ‘सरना’ धर्म को मानते हैं जो कि प्रकृतिवाद पर आधारित है. इसमें प्रकृति की उपासना की जाती है. इनकी भाषा, संस्कृति, खान-पान, रहन-सहन, परंपरा आदि अलग होती है. जबकि पेड़-पौधे, पहाड़, प्राकृतिक संपदा आदि इनकी पूजा पद्धति होती है. अगर इन सबको सरना धर्म कोड के तहत अलग धर्म की पहचान मिलती है तो दशकों से चले आ रहे इनके संघर्ष की जीत होगी.

11 नवंबर को जब झारखंड विधानसभा में सरना धर्म कोड को लेकर प्रस्ताव पारित हो रहा था तो उस दौरान झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने सरना धर्म कोड को जल, जंगल, जमीन से जोड़ते हुए इसे पर्यावरण सरंक्षण और आदिवासियों की घटती आबादी के रोकथाम के लिए अहम बताया.

ऐसा मानना आदिवासी समाज का भी है. आदिवासी मामलों के जानकार अश्विनी कुमार पंकज कहते हैं, सरना धर्म कोड अगर अलग धर्म के रूप में स्वीकार होता है तो ये पर्यावरण के संरक्षण के लिए एक भविष्य का बड़ा निवेश होगा. देश की एक बड़ी आबादी जो प्रकृति को मानती है. जिसका जुड़ाव जल, जंगल, जमीन से है, उसे संवैधानिक रूप से पहचान मिलेगी तो जाहिर है कि इसके बाद इनकी प्राकृतिक पहचान का और संवर्धन होगा. जिसका सकारात्मक असर पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन आदि पर पड़ेगा.

सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक ग्लैडन डुंगडुग कहते हैं, "आदिवासियों के लिए अलग से सरना धर्म कोड की मांग पर प्रस्ताव पारित करना मैं समझता हूं कि पर्यावरण और मानवजाति के लिए जरूरी कदम है. प्रकृति एक ऐसी शक्ति है जिसके बिना जीवन की परिकल्पना असंभव है. सरना कोड के तहत अगर आदिवासियों को अलग धार्मिक पहचान मिलेगी, तो यह पर्यावरण संरक्षण के लिए कितना महत्वपूर्ण कदम साबित होगा इसे संयुक्त राष्ट्र की संस्था आईपीसीसी (इंटरगर्वमेंटल पैनल ऑफ क्लामेट चेंज) की जारी रिपोर्ट से भी समझा जा सकता है. जिसमें कहा गया है कि आदिवासियों के रीति-रिवाज, परंपरा और उनका प्राकृति से जो लगाव है, वो एक बड़ा रास्ता है जयवायु परिवर्तन को बचाने के लिए."

वो यह भी कहते हैं कि सात दशकों से जिस तरह विकास के नाम पर आदिवासियों के सरना स्थलों को तोड़ा जा रहा है, उस पर भी रोक लगेगी. हालांकि नियमगिरी जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही कह रखा है कि अनुछेद 25, 26 के तहत अन्य धर्मों को जो पूजा पद्धति की आजादी दी गई है उसी तरह आदिवासी समाज को उनके द्वारा किए जा रहे पूजा पद्धति की आजादी को सुनिश्चित किया जाए.

सरना स्थल आदिवासी के उस पवित्र जगह को कहा जाता है कि जहां आदिवासी अपनी मान्यताओं के अनुसार विभिन्न त्योहारों के मौके पर एकत्रित होकर प्रकृति की पूजा करते हैं. झारखंड में 32 आदिवासी जनजाति पायी जाती हैं. जिसमें आठ आदिम जनजाती कहलाती हैं. इन्हें पीवीटीजी (पर्टिकुलरली वनरेबल ट्राइबल ग्रुप) कहा जाता है. फिलहाल यह सभी जनजाती हिंदू कैटेगरी में आती हैं. दस वर्षों में होने वाले जनगणना में मूल रूप से छह धर्मों का ही उल्लेख होता है और इनके लिए अलग अलग कॉलम होता है. हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध जैन. इन छह धर्मों की 49 उप श्रेणियां हैं. हिंदू धर्म की 23 उप श्रेणियों में अनुछेद 342 के तहत आदिवासी समाज को अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त है. अब इस समाज की मांग है कि 2021 में होने वाले जनगणना से पहले आदिवासियों के लिए सरना धर्म कोड प्रावधान किया जाए.

आदिवासियों के लिए चिंता का सबब यह भी रहा है कि इनकी आबादी लगातार घटती जा रही है. यह चिंता मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी जाहिर कर चुके हैं और उनका कहना है कि आदिवासियों को अलग सरना धर्म कोड दिए जाने के बाद घटती आबादी पर रोक लगेगी. झारखंड सरकार के गृह विभाग द्वारा जारी संकल्प के मुताबिक 1931 से 2011 तक आदिवासियों की आबादी 38.03 प्रतिशत से घटकर 28.02 प्रतिशत हो गई है.

लंबे समय से सरना धर्म कोड की मांग को लेकर आंदोलन करने वाले राजी पड़हा सरना प्रार्थना सभा के धर्मगुरू बंधन तिग्गा का दावा है कि झारखंड में 86 लाख आदिवासियों में 62 लाख सरना आदिवासी हैं. उनका कहना है कि 2011 की जनगनणा के दौरान 49 लाख 57 हजार 467 लोगों ने अपना धर्म सरना धर्म लिखा है. जिसमें 41 लाख 31 हजार 283 झारखंड के हैं. झारखंड में आदिवासियों का धर्मांतरण भी एक मुद्दा रहा है. लोगों का मानना है कि आदिवासियों को अलग धार्मिक पहचान मिल जाने के बाद उनके हो रहे धर्मांतरण भी रूकेंगे.

अश्विनी कुमार पंकज कहते हैं, “ब्रिटिश काल में 1871 से 1921 तक आदिवासियों को अलग अलग समूह या नाम से उन्हें धार्मिक पहचान मिलती रही है. जबकि 1931 में सेंसस कमिश्नर जेएच हटन ने आदिवासी समुदाय की पहचान एक धर्म के तौर पर की. द्वितीय विश्व युद्ध के कारण 1941 में जनगणना नहीं हो पाई और जब आजाद भारत में 1951 में जनगणना हुई तो सरकार में बैठे लोगों का मानना था कि आदिवासी समाज पिछड़े हुए हिंदू हैं. इसलिए उन्होंने इनका धर्म कोड वाला कॉलम हटा दिया जबकि सच्चाई यह है कि कालांतर में आदिवासियों का एक छोटा सा हिस्सा अपने पड़ोसी समाज के धर्मों से प्रभावित हुआ तो उसी को आधार बनाते हुए इन्हें हिंदू धर्म की पिछड़ी आबादी बताया जाने लगा, जो कि गलत है."

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