मोतिहारी की चीनी मिल, जिसे नेता सुविधा से याद करते और भूल जाते हैं

चीनी मिल खुलने और अपनी बकाया राशि मिलने का मज़दूर और किसान सालों से इंतज़ार कर रहे हैं, लेकिन यह पूरा होना लगभग असंभव दिखता है.

WrittenBy:बसंत कुमार
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यहीं हमारी मुलाकात राम विनोद प्रसाद से हुई. फ़टी हुई बनियान पहने प्रसाद हमारे सामने आए. प्रसाद बताते हैं सिर्फ उनका चीनी मिल पर करीब 20 लाख रुपए का बकाया है. चीनी मिल के बंद होने के कारणों का जवाब देते हुए रामविनोद प्रसाद बताते हैं, ‘‘इसके बंद होने में सरकार और कंपनी मालिक दोनों की गलती थी. मालिक विमल कुमार रुपानी कंपनी के नाम पर सरकार से लोन लेकर अपने ऊपर खर्च करते गए. शुरू में सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया और कर्ज बढ़ता गया जिसके बाद धीरे-धीरे यह बंद हो गया. जब यह बंद हुआ तो लालू प्रसाद यादव का शासन था. उसके बाद नीतीश कुमार आए उन्होंने भी ध्यान नहीं दिया. बीजेपी के लोग भी आए लेकिन उन्होंने ने भी कोई पहल नहीं किया.’’

राम विनोद प्रसाद आगे कहते हैं, ‘‘यहां सैकड़ों आदमी खाना और दवाई के अभाव में मर गए. हाल फ़िलहाल एक और आदमी की चिंता से मौत हो गई. लोगों के पास पैसा नहीं है. ज़िंदगी भर की कमाई यहीं पर बकाया है. बच्चे बड़े हैं. बेटी की शादी करनी है. वो कहां से करें. हम लोग नीतीश कुमार, सुशील मोदी और लालू प्रसाद के पास गए. मैं खुद गया लेकिन किसी ने हमारी बात नहीं सुनी. हम लोग सरकार से यही मांग करेंगे की हमारा जो बकाया है वो मिल जाए.’’

राम विनोद प्रसाद और शशिभूषण कुमार जैसे कई मिल मज़दूर हमें यहां मिलते हैं जिनके लाखों रुपए मिल पर बकाया है. सिर्फ मज़दूर ही नहीं आस पास के किसानों का भी लाखों का बकाया मिल के ऊपर है.

यहां हमारी मुलाकात शंभु शाह से हुई. शंभु शाह बड़े किसान हैं और लम्बे समय तक गन्ने की खेती करते रहे हैं. मिल बंद होने के बाद गन्ने की खेती कम हो गई. न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए शाह कहते हैं, ‘‘हम मिल में गन्ना दिए थे. जिसका रसीद तो हमें दिया गया लेकिन पैसे नहीं मिले. हम इस उम्मीद में गन्ना गिराते रहे कि आज या कल पैसा तो मिल ही जाएगा. ऐसा सोचते-सोचते करीब 10 से 12 लाख रुपया बकाया हो गया. हम साल 2000 से लगातार मांग कर रहे हैं. मेरे जैसे हज़ारों किसानों का मिल पर लगभग 9 करोड़ का बकाया है. रसीद को बचाकर रखे हुए हैं शायद किसी रोज किसी सरकार की नींद खुले और हमारी मेहनत पसीने की कमाई हमें दिला दे. कई किसान तो रसीद बचाते-बचाते मर गए अब उनके बच्चे बचा रहे हैं.’’

मिल का गेट अब भी बंद है

मिल मज़दूरों के संगठन के सचिव परमानंद ठाकुर बताते हैं, ‘‘मिल के ऊपर किसानों का 17 करोड़ 41 लाख रुपए और मज़दूरों का 65 करोड़ बाकी है.’’

दो मज़दूरों ने किया आत्मदाह तब भी नहीं बदली स्थिति

इस विधानसभा चुनाव में मोतिहारी का चीनी मिल राजनीति के केंद्र में आ गया है. हाल ही में राष्ट्रीय जनता दल के नेता और महागठबंधन के मुख्यमंत्री के उम्मीदवार तेजस्वी यादव ने प्रधानमंत्री पर निशाना साधते हुए कहा था, ‘‘2014 में मोतिहारी के चीनी मिल शुरू करने की बात कह गए थे. उस पर क्या किया जिसके चीनी की चाय पीना चाहते थे.’’ वहीं कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी चीनी मिल का मुद्दा उठाया था.

आज भले ही तमाम दल चीनी मिल के मुद्दे उठा रहे हों लेकिन इस मिल को खोलने और मज़दूरों-किसानों को उनका बकाया दिलाने के संघर्ष ने दो परिवारों की खुशियां छीन ली.

मज़दूर यूनियन के तत्कालीन ज्वाइंट सेक्रेटरी सूरज बैठ और जनरल सेक्रेटरी नरेश श्रीवास्तव ने लम्बे समय तक संघर्ष के बाद आत्मदाह कर लिया था. 10 अप्रैल, 2017 को चीनी मिल के सामने किए गए आत्मदाह की रात को ही नरेश श्रीवास्तव की मौत हो गई वहीं अगले नौ दिनों तक जिन्दा रहने के बाद सूरज बैठा भी पटना के पीएमसीएच में अंतिम सांस लिए.

सूरज बैठा का परिवार इन दिनों बड़का बडियारपुर में रहता हैं. हम उनके घर पहुंचे तो दरवाजे पर एक तस्वीर लगी दिखी. यह तस्वीर सूरज बैठा और उनकी पत्नी माया देवी की थी. माया देवी की स्थिति तो मिल बंद होते ही खराब होने लगी लेकिन कम से कम सूरज बैठा कहीं रंगाई पोताई या कुछ भी करके खाने-पीने का इंतज़ाम कर देते थे. उनकी मौत ने माया देवी पर जिम्मेदारियों को बोझ बढ़ा दिया. वो कहती हैं, ‘‘छोड़ के चले गए. वो प्रदर्शन कर रहे थे यह तो मालूम था. आत्मदाह करने की बात भी सुनी थी लेकिन उसी दिन कर लेंगे यह पता होता तो भेजती ही नहीं, रोक लेती. छोटे-छोटे बच्चे बेसहारा हो गए. सबसे बड़ा बेटा बृजेश ही है. यह भी तब छोटा ही था. अब तो मेहनत मज़दूरी करके कुछ कमाने लगा है.’’

इतना कहने के बाद माया देवी रोने लगती है. मिल पर इनका भी 15 लाख से ज़्यादा का बकाया है.

माया देवी

सूरज बैठा का परिवार उस आत्मदाह को शक की निगाह से देखता है. उनके बड़े बेटे बृजेश बताते हैं कि उनके पिता की साजिश के तहत हत्या हुई है. इसमें स्थानीय प्रशासन, मिल यूनियन के कुछ लोग और कंपनी के मालिक शामिल हैं.

बृजेश एक और सवाल उठाते हैं. वो कहते हैं, ‘‘मेरे पिता कम जले थे. वो ठीक भी हो गए थे. बातचीत करने लगे थे. उनपर 164 का बयान दर्ज कराने का दबाव बनाया जा रहा था. उनका कहना था कि मैं अपना बयान कोर्ट में दर्ज कराऊंगा. यह सब चल रहा था तभी मोतिहारी से डॉक्टर की टीम पीएमसीएच पहुंचीं. हमें बताया गया कि उनके इलाज के लिए आए हैं. जब मोतिहारी में बेहतर डॉक्टर थे तो उन्हें पटना क्यों रेफर किया गया. मोतिहारी के डॉक्टर्स के आने के अगले दिन उनकी मौत हो गई. क्या यह महज इत्तफ़ाक़ था.

हमने सीबीआई जांच की मांग की थी लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया. आखिर एक सुशांत सिंह की मौत पर इतना बवाल हो सकता है तो मेरे पिता और उनके साथी की मौत की जांच क्यों नहीं हुई? उस वक़्त राधा मोहन सिंह मेरे यहां आए थे. उन्होंने हर तरह से मदद करने की बात बोली थी. तब बिहार में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की सरकार थी. कुछ महीने बाद बीजेपी सरकार में वापसी की लेकिन हमारा कुछ नहीं हुआ. सरकार से महज 4.15 लाख रुपये मिले थे वो भी स्वामी अग्निवेश के दबाव बनाने के बाद. मुझे पैसे नहीं चाहिए लेकिन न्याय तो मिले.’’

बृजेश के साथ तत्कालीन कृषि मंत्री राधामोहन सिंह

सूरज बैठा की पत्नी बेसहरा हुई, पर उनके बच्चे धीरे-धीरे अपने पैर पर खड़ा हो रहे हैं. लेकिन नरेश श्रीवास्तव की पत्नी पूर्णिमा देवी दर-दर की ठोकरें खा रही है. उनका कोई बच्चा नहीं है. मिल में मिले उनके कमरे पर नरेश के परिजनों ने कब्जा जमाया हुआ है जिसके कारण कभी इस रिश्तेदार के घर तो कभी उस रिश्तेदार के घर वो रह रही है. न्यूज़लॉन्ड्री ने पूर्णिमा से मुज़फ़्फ़रपुर में मुलाकात की. पूर्णिमा बताती हैं, ‘‘उन्हें कई बार खरीदने की कोशिश की गई. जब नहीं खरीद सके तो उन पर हमला कराया गया. इस पर भी वे नहीं डरे और मज़दूरों-किसानों के लिए संघर्ष करते रहे. उनकी एक ही चाहत थी कि सबको बकाया मिल जाए.’’

पूर्णिमा बताती हैं, ‘‘जिस रोज यह घटना हुई मैं अपने मायके में बीमार पिता को देखने आई थी. मुझे इसकी जानकारी ही नहीं थी कि वे लोग ऐसा कर सकते हैं. प्रदर्शन तो वे लम्बे अरसे से करते आ रहे हैं. घटना की शाम पांच बजे के करीब मेरे एक रिश्तेदार ने फोन करके बताया. हम फटाफट पटना पहुंचे. उनकी स्थिति एकदम खराब हो चुकी थी. सब जल चुका था. मेरी उनसे कोई बात नहीं हो पाई. उसी रात चार बजे के करीब उनकी मौत हो गई. आज मैं इधर-उधर रहकर जिंदगी काट रही हूं.’’

नरेश श्रीवास्तव

हाल ही में उत्तर प्रदेश के हाथरस में कथित तौर पर बलात्कार पीड़िता का शव पुलिस के दबाव में बिना परिजनों के जलाने का मामला सामने आया था. जिसके बाद यूपी पुलिस की कड़ी आलोचना हुई लेकिन ठीक ऐसा ही नरेश के मामले में बिहार में हुआ. पूर्णिमा बताती हैं, ''जब उन्होंने लिखित में आत्मदाह की बात की थी तो किसी ने ध्यान नहीं दिया लेकिन जब आत्मदाह के बाद उनकी मौत हुई चीनी मिल के आसपास के इलाके को छावनी में तब्दील कर दिया गया. बिजली काट दी गई. रात चार बजे उनकी मौत हुई और पोस्टमार्टम करते-करते अगले दिन भी शाम हो गई. देर रात को उनका शव लेकर पुलिस पहुंची. पुलिस ही सारा इंतज़ाम कर रही थी. रात में ही उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया. हमारा कोई रिश्तेदार नहीं आया. हम चाहते थे कि उनका अंतिम संस्कार चीनी मिल के सामने हो ताकि आगे चलकर हम उनकी याद में प्रतिमा बनवा सके लेकिन पुलिस ने ऐसा होने नहीं दिया.’’

पूर्णिमा देवी

माया देवी की तरह ही पूर्णिमा भी स्वामी अग्निवेश के साथ दिल्ली के जंतर मंतर पर प्रदर्शन करने पहुंचीं. प्रदर्शन और स्वामी अग्निवेश के दबाव के बाद इन्हें भी सरकार से सिर्फ 4 लाख रुपए की मदद मिली. वो कहती हैं, ‘‘मेरे पति का कंपनी पर लाखों का बकाया है. वो नहीं मिला. कुछ पैसे ज़रूर मिले है, लेकिन पैसे धीरे-धीरे खत्म हो गए.’’

घटना के बाद पूर्णिमा देवी ने एक एफआईआर दर्ज कराया था. जिसमें श्रीहनुमान शुगर मिल के मालिक विमल कुमार नोपानी और मिल के तत्कालीन मैनेजर आरपी सिंह एंव अज्ञात उपद्रवियों को आरोपी बनाया गया. यह एफ़आईआर आईपीसी की धारा 147, 148, 149, 341, 324, 326, 307, 302 समेत कई धाराओं में की गई थी.

इस मामले में क्या करवाई हुई, इस सवाल के जवाब में परमानंद ठाकुर बताते हैं, ‘‘पूर्णिमा देवी की तरफ पुलिस ने अपने मन से मामला दर्ज कर दिया था. इसके खिलाफ हमने कोर्ट में पत्र दिया और बताया कि पुलिस ने खुद के बचाव के लिए मनमाने ढंग से मामला बनाया है. कोर्ट के हस्तक्षेप से नया मामला दर्ज हुआ. एक दो तारीख तक मामला चला था कि मैनेजर की मौत हो गई. वहीं मालिक विमल पटना में जमानत ले लिए. अब तो उनकी भी मौत हो चुकी है.’’

अब कोई आशा बची नहीं….

बिहार के इस चुनाव में रोजगार एक बड़ा मुद्दा है. यहां रोजगार की समस्या तो पहले से ही थी, लेकिन कोरोना के समय हुए लॉकडाउन में देश के अलग-अलग हिस्सों से लौटे मज़दूरों ने इसकी पोल और खोल दी. बिहार में आज ज़्यादातर चीनी मिलें और दूसरे रोजगार के साधन बंद पड़े हुए हैं. विपक्ष में रहते हुए तमाम लोग खुलवाने का दावा करते रहे लेकिन सत्ता में आते ही भूल गए.

स्थानीय विधायक और बिहार सरकार के मंत्री प्रमोद कुमार भी कभी चीनी मिल के मज़दूर यूनियन से जुड़े हुए थे. स्थानीय लोग बताते हैं कि उनकी भी मांग रहती थी कि मिल ठीक से चले और मज़दूरों को समय पर वेतन मिले. सत्ता में आने के बाद वे भी इसे भूल गए. जब न्यूजलॉन्ड्री ने मिल बंद होने और मज़दूरों को उनका बकाया नहीं मिलने को लेकर कुमार से सवाल किया तो वे टाल-मटोल करते रहे. कुमार नरेंद्र मोदी के साल 2014 में किए वादे पर कहते हैं, ‘‘उन्होंने ऐसा कोई वादा किया ही नहीं था. किसी प्राइवेट कंपनी को चलाने का वादा वो कैसे कर सकते हैं.’’

चीनी मिल

हालांकि जिसे प्रमोद कुमार आज प्राइवेट कंपनी बताकर पल्ला झाड़ रहे हैं. साल 2017 में जब मज़दूरों के आत्मदाह का मामला सामने आया था तब राधामोहन सिंह ने बिहार सरकार को सुझाव दिया था कि बिहार सरकार इसका अधिग्रहण करके इसे चलाए लेकिन महज कुछ महीने बाद राजद-जदयू का गठबंधन टूट गया और बीजेपी सरकार में आ गई लेकिन इस सुझाव पर कोई काम नहीं हुआ. जब मज़दूरों की मौत हुई थी तो सुशील कुमार मोदी भी मोतिहारी पहुंचे थे. सरकार पर निशाना साधा था, लेकिन सत्ता में आने के बाद वे खुद भी भूल गए.

स्थानीय वरिष्ठ पत्रकार आनंद प्रकाश इस पूरे मामले पर कहते हैं, ‘‘जब बीजेपी विपक्ष में थी तो चीनी मिल उनके लिए मुख्य मुद्दा हुआ करता था लेकिन जैसे ही राधामोहन सिंह कृषि मंत्री बने तो यह उनके एजेंडे से गायब हो गया. चंपारण सत्याग्रह के समय एक तरफ जहां सरकार जश्न की तैयारी कर रही थी वहीं दूसरी तरफ अपने बकाया के लिए प्रदर्शन कर रहे दो मज़दूरों ने आत्मदाह कर लिया. आज चीनी मिल की जमीन औने-पौने दाम में बेची जा रही है. जिसका यहां लगातार विरोध हो रहा है इसकी जानकारी सरकार के लोगों है लेकिन कोई सुनने को तैयार नहीं है.’’

मज़दूरों के क्वार्टर में मिले संजय कुमार बताते हैं, ‘‘परेशान मज़दूर यूनियन इस मामले को लेकर पटना हाईकोर्ट पहुंचा. वहां मज़दूरों और किसानों को उनका बकाया देने के लिए लिखित में आदेश दिया. उसमें कहा गया कि चीनी मिल की जो भी संपत्ति है उसे बेचकर इनका बकाया दिया जाए. लेकिन आज मिल के गेट तक की जमीन बिक गई. वहां घर बन रहे हैं, लेकिन किसी को भी एक रुपया नहीं मिला. लोग अपने ही कमाई का इंतज़ार करते करते मर गए. अब तो चीनी मिल के खुलने की आशा भी नहीं बची.’’

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