तेजस्वी यादव की चुनावी सभाओं में न केवल नीतीश कुमार, बल्कि 1990 के दौर के लालू प्रसाद से भी अधिक भीड़ उमड़ रही है और इस से जनता की मनोदशा का कुछ संकेत मिलने लगा है.
बिहार विधानसभा चुनाव 2020 के परिदृश्य अब धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगे हैं. कुछ लोग अपने-अपने स्तर से भविष्यवाणियां भी करने लगे हैं. सभी पक्षों की ओर से प्रचार-कार्य जोरों पर चल रहा है. चीलों की तरह आसमान में हेलीकॉप्टर उड़ रहे हैं और पूर्वानुमान के विपरीत, कोरोना के तमाम भय को चीर कर जनता चुनावी रैलियों में हिस्सा ले रही है. मैं पहले से ही कहता रहा हूं कि बिहार के लोगों को राजनीति में स्वाभाविक रूप से मन लगता है. ये चुनावों को उत्सव बना देते हैं. हर बार की तरह इस बार का यह चुनाव भी उत्सव बनता जा रहा है. जनता पूरे उत्साह के साथ इसमें दिलचस्पी ले रही है. गांव से लेकर शहर तक हर चौपाल-चायखाना और दूसरे सार्वजनिक ठिकाने राजनीतिक चर्चा के केंद्र बने हुए हैं.
जो दिख रहा है, दो पक्ष आमने सामने हैं- नीतीश कुमार के चेहरे के साथ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग या एनडीए) और तेजस्वी प्रसाद यादव के चेहरे के साथ महागठबंधन. एनडीए में भारतीय जनता पार्टी और जनता दल (युनाइटेड) मुख्य रूप से और विकासशील इंसान पार्टी और हिंदुस्तानी अवाम पार्टी गौण रूप से शामिल हैं. महागठबंधन में राष्ट्रीय जनता दल, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और तीनों कम्युनिस्ट पार्टियां (सीपीआइ-एमएल, सीपीआइ और सीपीएम) शामिल हैं. एनडीए में सबसे अधिक सीटों (115 ) पर जनता दल (युनाइटेड) चुनाव लड़ रही है. उसके बाद भाजपा (110 ) है. विकासशील इंसान पार्टी 11 और हिंदुस्तानी अवाम पार्टी सात सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं. महागठबंधन में राष्ट्रीय जनता दल 144 , कांग्रेस 70, सीपीआई एमएल 19 सीपीआई छह और सीपीआई (एम) चार सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं. इन दो पक्षों के अलावा कुछ और लोग हैं जो चुनाव में हैं. इनमें चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी 135 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. चिराग के अनुसार उनकी पार्टी भाजपा के विरुद्ध कोई उम्मीदवार नहीं देगी, लेकिन जेडीयू, हिंदुस्तानी अवाम पार्टी और विकासशील इंसान पार्टी के खिलाफ वह चुनाव लड़ने जा रही है. फिर बहुजन समाज पार्टी, ओवैसी की पार्टी और उपेंद्र कुशवाहा की लोक समता पार्टी का एक मोर्चा है, जो एक गठबंधन के तौर पर लड़ रहे हैं.
जैसा कि बताया जा रहा है और बहुत कुछ दिख भी रहा है, लड़ाई आमने-सामने और जोरदार है. 15 साल पुराने एक 70 वर्षीय मुख्यमंत्री और 30 साल के एक युवा नेता के बीच कांटे की टक्कर है. तेजस्वी कुल 22 महीने नीतीश कुमार के साथ उपमुख्यमंत्री के रूप में काम कर चुके हैं. उनके पिता और राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद फ़िलहाल जेल में हैं. नतीजतन प्रचार की पूरी कमान तेजस्वी ने सम्भाल रखी है. उनकी चुनावी सभाओं में न केवल नीतीश कुमार, बल्कि उन्नीस सौ नब्बे के दौर के लालू प्रसाद से भी अधिक भीड़ उमड़ रही है और इस से जनता की मनोदशा का कुछ संकेत मिलने लगा है. शायद यही कारण है कि दिल्ली स्थित विकासशील समाज अध्ययन पीठ, जिसे संक्षिप्त रूप में सीएसडीएस कहा जाता है, के एक अध्ययन में यह बात उभर कर आई है कि एनडीए फ़िलहाल आगे तो है, लेकिन वह बहुत आगे नहीं हैं. उसके बहुत करीब महागठबंधन है.
अध्ययन के अनुसार नीतीश और तेजस्वी (लालू सहित) की लोकप्रियता में केवल एक फीसदी का अंतर है. दोनों के वोटों में छह फीसद का. ध्यान देने की बात यह है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में एनडीए और महागठबंधन के वोट में कोई 22 फीसदी का अंतर था. अध्ययन के अनुसार कोई 14 फीसदी मतदाताओं ने अपना रुख स्पष्ट नहीं किया है. यह लगभग एक सप्ताह पहले यानी 16 अक्टूबर का अध्ययन है.
प्रधानमंत्री मोदी की चार रैलियां हो चुकी. वह आठ रैलियां और करेंगे. भाजपा और एनडीए को उम्मीद है कि प्रधानमंत्री मोदी की चुनाव सभाओं के बाद एनडीए की स्थिति बेहतर होगी. मेरा अनुमान इसके विपरीत है. इसके आधार हैं. 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने 40 चुनावी सभाओं को सम्बोधित किया था और एनडीए बुरी तरह पराजित हुआ था. तब मोदी आज की अपेक्षा अधिक लोकप्रिय नेता थे. कई कारणों से उनकी लोकप्रियता में इन दिनों काफी कमी आई है. इसलिए मेरा मानना है कि मोदी की सभाओं के बाद एनडीए की स्थिति अधिक ख़राब होने वाली है.
कल हुई उनकी रैलियां बेजान और उत्साहहीन नजर आईं. सीएसडीएस के अनुसार अभी छह फीसदी वोटों का अंतर दिख रहा है, लेकिन सीएसडीएस यदि आज ईमानदार अध्ययन करें तो नतीजा अलग आ सकता है. पिछले अध्ययन में दिखाए गए 14 फीसदी तटस्थ मतदाताओं को सत्ता विरोधी मनोदशा का ही माना जाना चाहिए. इसलिए मेरे अनुसार बिहार एनडीए अपने थकान-बिंदु पर आकर ठहर गया है; दूसरी तरफ महागठबंधन धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है.
महागठबंधन और एनडीए की अपनी-अपनी समस्याएं हैं. महागठबंधन में कांग्रेस ने लड़-झगड़ कर इतनी अधिक सीटें ले ली हैं कि इससे एनडीए को सुकून मिला. कांग्रेस के पास तो कई जगह लड़ाने लायक उम्मीदवार भी नहीं थे. पहले से ही इस बात की चर्चा हैं कि कांग्रेस में नीतीश कुमार के सहयोगी कब्जा जमाए हुए हैं. बिहार कांग्रेस में आज भी पुराने मिजाज के चुके हुए नेताओं का बोलबाला है, जिनकी अपनी राजनीतिक जमीन और क्षमता नहीं के बराबर है. पिछड़े और दलित तबके के कार्यकर्ताओं और नेताओं का यहां पूरा अभाव है, लेकिन महागठबंधन के साथ धन पक्ष सीपीआई माले का उनके साथ होना है. वह 19 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. लगभग 50 दूसरे क्षेत्रों में उसके कारण तेजस्वी के राजद को इतने मतों का लाभ मिल सकेगा, जिससे वह जीत हासिल कर सकें. तीनों कम्युनिस्ट पार्टियों को साथ रखने से राजद को हर बाजार-हाट में बोलने वाले कार्यकर्त्ता मिल गए हैं, जो एनडीए की वैचारिकता पर तीखा हमला कर रहे हैं. इसके कारण महागठबंधन को एक वैचारिक स्वरूप मिल रहा है.
यह चुनाव कुछ और मामलों में भिन्न मिजाज का दिख रहा है. बिहार में हमेशा जाति और वर्ग एक प्रमुख मुद्दा होता था. जातिगत गोलबन्दियां और इसके इर्द-गिर्द राजनीतिक सक्रियता बिहार के चुनावों की खास पहचान होती थी. ऐसा नहीं है कि इस चुनाव में जाति के सवाल बिलकुल गायब हैं, लेकिन पहले की तरह इसे लेकर कोई उन्माद नहीं है. जाति के सवाल को राजनीति से नत्थी करने के लिए हाल के वर्षों में सब से अधिक आलोचना लालू प्रसाद की होती थी, लेकिन इस चुनाव में अचरज भरा परिदृश्य यह उभरा है कि तेजस्वी के नेतृत्व वाले महागठबंधन ने राजनीति के जातिवादी अवयवों से पूरी तरह कन्नी काट ली है. बिहार में जाति-केंद्रित कुछ राजनीतिक दल हैं, जिसमें ‘मल्लाह-पुत्र’ का विरुद पाले हुए मुकेश साहनी की पार्टी विकाशसील इंसान पार्टी, पूर्व मुख्यमंत्री और दलितों के एक खास हिस्से की पहचान के रूप में प्रचारित किए जाने वाले जीतनराम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम पार्टी, उपेंद्र कुशवाहा की लोक समता पार्टी और चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी है. अस्मितावादी मिजाज वाले इन राजनीतिक समूहों को एक-एक जाति का दल माना जाता रहा है. तेजस्वी ने चुनाव के पूर्व ही जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश को महागठबंधन छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया. आश्चर्यजनक यह है कि इनमें से मांझी और मुकेश आज अपने को अधिक जातिनिरपेक्ष बतलाने वाले एनडीए के साथ हैं. चिराग भी अप्रत्यक्ष रूप से एनडीए का ही हिस्सा हैं, लेकिन तेजस्वी के राष्ट्रीय जनता दल के नेतृत्व में जो महागठबंधन है, उसमें कांग्रेस और तीनों कम्युनिस्ट पार्टियां हैं. यही कारण है कि अपने चरित्र में महागठबंधन अधिक जातिनिरपेक्ष दिख रहा है. राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाने वाली भाजपा ने जिस तरह मुकेश साहनी को तरजीह दी और नीतीश कुमार जिस तरह जीतनराम मांझी को ऊंची कीमत पर अपने साथ ले आये, उससे पता चलता है कि जातिवादी अवयवों को राजनीति में कौन प्रोत्साहित कर रहा है.
महामारी की हायतौबा के बीच हो रहे चुनाव में कोरोना का भय सब के मन मिजाज पर छाया हुआ है. एनडीए के साथ इसे लेकर एक उदास करने वाली खबर यह है कि उसके मतदाता नगर केंद्रित अधिक हैं. गांवों में भी तथाकथित संपन्न लोग बच कर चल रहे हैं. यह संभवतः उनके वोट को प्रभावित कर सकेगा. वे चुनावी सभाओं में जाने में भी संकोच कर रहे हैं. इसके विपरीत राजद और कम्युनिस्ट समर्थक वोटर ग्रामीण और मेहनतक़श हैं. उन्हें महामारी से उतना डर नहीं लग रहा. वे पूरे उत्साह से चुनावी सभाओं में भी जा रहे हैं. मतदान केंद्रों पर भी उनके इसी उत्साह के साथ जाने की उम्मीद है. इस तथ्य को कम ही समझा गया है.
इन सब के साथ एक बड़ी, लेकिन मौन भूमिका उन मजदूरों की होने जा रही है जो लॉकडाउन के पहले दौर में ही रोजगार की जगहों से भाग कर अपने घर आना चाहते थे और नीतीश कुमार उन्हें लगातार न आने की धमकी दे रहे थे. लगभग 25-30 लाख की संख्या में आए ये प्रवासी मजदूर नीतीश और उनके एनडीए के खिलाफ सक्रिय हैं. चुनावी सभाओं में इनकी खास तौर पर हिस्सेदारी हो रही है.
एक अच्छी बात यह है कि इस बार जाति-बिरादरी से अधिक आर्थिक मुद्दे चर्चा में हैं. तेजस्वी ने 10 लाख लोगों को रोजगार देने की घोषणा कर के अगड़ा-पिछड़ा की लड़ाई को हाशिये पर धकेलने और राजनीतिक बहस को आर्थिक आधार देने की कोशिश की है. यह बात नौजवानों को पसंद आ रही है. नीतीश कुमार ने इस पर एक आपत्तिजनक टिप्पणी करके स्वयं को हास्यास्पद ही बनाया है. मेहनत और मुश्किल से तेजस्वी ने बिहार की राजनीति को जाति केंद्रित की जगह मुद्दा-केंद्रित करने की कोशिश की है. लालू प्रसाद से वह कई मायनों में अलग दिख रहे हैं. वह अपनी बात समग्रता में रख रहे हैं. वह बहुत कुछ सफल दिख रहे हैं. उनकी दूसरी कोशिश बिहार की राजनीति को पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी की तरफ खींच लाने की है. लगभग इसी काम में चिराग भी लगे हैं. यदि इस चुनाव में नीतीश कुमार सत्ता में नहीं लौटते हैं, तो बिहार की राजनीति निश्चित रूप से पुरानी और बूढ़ी-थकी पीढ़ी से बाहर आ जाएगी, चाहे सरकार जिस किसी की भी बने.
(साभार- जनपथ)