आंकड़े चाहे कुछ भी हों, भाजपा बिहार चुनाव बुरी तरह से हार चुकी है

पहले चरण की वोटिंग को अब महज़ 48 घंटे बचे हुए हैं. प्रदेश में बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को भी तुरुप के इक्के के रूप में प्रयोग कर लिया है. हालांकि इसके बावजूद भी एनडीए की स्थिति मजबूत नहीं दिख रही है. साफ तौर पर कहें तो इस बार जमीन खिसक रखी है.

WrittenBy:विभ्रांत कुमार
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बिहार विधानसभा का वर्तमान चुनाव भाजपा के लिए अश्लीलतम और सबसे महंगा चुनाव है. अगर हम ‘क्लिशे’ को छोड़ दें, तो ये सभी जानते हैं कि चुनाव में लोकतंत्र के महापर्व होने जैसा कोई गुण नहीं है. खासकर, बात अगर बिहार की हो तो ‘मुद्दाविहीन’ इस चुनाव में जाति के समीकरण बिठाने और केवल ‘ब्लाइंड’ खेलने के अलावा कोई भी राजनैतिक दल कुछ भी नहीं कर रहा, बस हरेक को अपना दांव ‘लह’ जाने का इंतज़ार है.

चुनाव के पहले चरण की वोटिंग को अब महज़ 48 घंटे बचे हुए हैं और यह कहने में कहीं से कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि गणितीय आंकड़े चाहे कुछ भी हों, भाजपा यह चुनाव बुरी तरह से हार चुकी है और बिल्कुल नग्न होकर अपने शारीरिक सौष्ठव का प्रदर्शन कर रही है. इसके कई कारण हैं और सबसे पहला कारण तो यही है कि इसने 15 वर्षों के अपने शासनकाल का जिक्र करने के बजाय लालू प्रसाद यादव के 15 वर्षों के जंगलराज को याद दिलाकर वोट मांगे हैं. यानी, यह उस तेजस्वी यादव को प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी के बरक्स खड़ा कर चुका है, जिसे खुद आरजेडी के कई नेता अंदरखाने बउआ-बुतरू समझते हैं.

आप अगर बीजेपी-बिहार के सोशल मीडिया टाइमलाइन पर नज़र डालेंगे तो देखेंगे कि भोजपुरी के दो गीत ऐसे हैं, जिसमें पीएम नरेंद्र मोदी और सीएम नीतीश कुमार के बखान के साथ जब प्रतिद्वंद्वियों में दम नहीं होने की बात कही जाती है, तो वहां तेजस्वी यादव का चेहरा नमूदार होता है. यह तेजस्वी के लिए स्वर्ण पदक पाने से कम नहीं है और भाजपाई भगवाइयों के लिए डूब मरने से कम की घटना नहीं है.

भाजपा ने इस चुनाव में बहुत कुछ झोंक दिया है. इस पर हालांकि, बचाव करते हुए मुख्यालय में बैठे हुए ‘भाईसाब’ कहते हैं, ‘देखिए, ये तो भाजपा का स्टाइल है. चाहे चुनाव कहीं का हो, लड़ती पूरी भाजपा ही है और यह अमित शाहजी के अध्यक्ष होने के समय से ही चला आ रहा है.’ जब यह रिपोर्टर उनसे बिहार के चुनाव से ‘चाणक्य’ की पूरी तरह अनुपस्थिति पर प्रश्न करता है, तो भाईसाब एक गहरी सांस और लंबी मुस्कान छोड़कर चुप हो जाते हैं. मोटाभाई के इस प्रकार चुनाव से दूर रहने की एक वजह तो संघ को ही बताया जा रहा है, चूंकि नड्डा इस बार बिहार चुनाव के स्टार-प्रचारक हैं और यह जगजाहिर है कि वह अमित शाह की पसंद नहीं थे, वह तो भूपेंद्र यादव को लाना चाहते थे, लेकिन संघ की लंगड़ी से वह गणित नहीं चल सका, तो अमित शाह शायद बिहार चुनाव में संघ को जताना चाहते हैं कि उनकी अहमियत क्या है.

भाजपा ने पीएम को इस दंगल में उतार कर साबित कर दिया है कि उसके पास बचाने को तुरुप का इक्का ही मात्र है. वैसे भी, बिहार में नीतीश कुमार और सुशील मोदी के खिलाफ जबरदस्त गुस्से का अंडरकरंट चल रहा है. यह अंडरकरंट इतना बड़ा है कि लोग अपना नुकसान कर तेजस्वी को भी बर्दाश्त करने को तैयार दिख रहे हैं. सुशील मोदी को सचमुच का कोरोना हुआ है या उनकी सभाओं में उमड़ी ‘अपार भीड़’ का कमाल है कि उन्हें क्वारंटाइन कर दिया गया है, इस पर भाजपा मुख्यालय में जबरदस्त चुप्पी है.

भाजपा के लिए यह चुनाव अश्लीलतम इसलिए भी है कि पीएम को उतारने के साथ ही उसे अनुच्छेद 370, राम मंदिर और सीएए जैसे मसले भी उतारने पड़े हैं. इसमें सीएए का शायद थोड़ा-बहुत बिहार से लेना भी हो (दो-तीन देशों से सीमा लगने की वजह से) लेकिन बाकी किसी भी मसले का सीधा संबंध बिहार चुनाव से नहीं है. जब देश के पीएम शिकायती लहजे में कहते हैं कि विरोधी हरेक राष्ट्रीय मुद्दे का विरोध कर रहे हैं औऱ वे अनुच्छेद 370 को फिर लाने का वायदा कर रहे हैं, तो दरभंगा में स्मार्टफोन से लैस भाजपा का ही एक कार्यकर्ता सवालिया लहजे में पूछता है, ‘त अहां की ओल छीलि रहल छी?’ (यानी, वह जानना चाहता है कि देश के पीएम होकर मोदी कर क्या रहे हैं, हमेशा राहुल-महबूबा वगैरह की शिकायत क्यों करते हैं, उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई क्यों नहीं करते).

भाजपा यह बात भूल चुकी है कि वह केंद्र में छह वर्षों से और राज्य में 15 वर्षों से शासन में है. वह यह भी भूल चुकी है कि निर्मला सीतारमण से लोगों को अर्थ के मसले पर कुछ सुनने की उम्मीद है, पंजाब में बिहार की बच्ची के साथ हो रही हैवानियत पर राहुल को घेरने वाली प्रेस-कांफ्रेंस में दिलचस्‍पी नहीं है.

भाजपा ने बिहार जैसे गरीब राज्य में चाणक्य होटल में अपना मीडिया सेंटर बनाया है, इसके अलावा दिल्ली से उसकी पूरी टीम उतरी है, जो ऐसे ही चार-सितारा होटल में ठहरी हुई है. उसके सोशल मीडिया के राष्ट्रीय हेड अमित मालवीय भी बीते सप्ताह से पटना में ही हैं, लेकिन ये वही मालवीय हैं जो फेक-न्यूज परोसने के मामले में खासे कुख्यात हैं. यह सब कुछ राज्य की जनता देख रही है और उसे यह सबकुछ अश्लील मज़ाक लग रहा है.

भाजपा यह नहीं समझ पा रही है कि अगर तेजस्वी के 10 लाख के वायदे को आप अव्यावहारिक, बेतुका और मज़ाक योग्य बताकर अपने संकल्प-पत्र में 19 लाख नौकरियों का वादा करेंगे, तो सुशील मोदी भले ही पूरे कॉन्फिडेंस से यह झूठ बोलें, लेकिन लोग आपको धूर्त समझने में देरी नहीं करेंगे.

बिहार चुनाव अपने पहले चरण के चुनाव के पहले ठीक वही हो चुका है, जो इसे होना था. हिंदू-मुस्लिम और जात-पांत तक यह सिमट कर रह गया है. तेजस्वी अपनी सभाओं में उमड़ती भीड़ से गदगद हैं, लेकिन लोगों को उनके पूज्य पिताजी अब तक याद हैं. वह अभिवादन का एक नया ढंग और आत्मविश्वसा से दीप्त वाणी भले ले आए हैं, लेकिन जनता को उनके मामा साधु और सुभाष याद हैं, शिल्पी गौतम याद हैं. तेजस्वी ने भले ही रात के अंधेरे में सिंबल बांटे हों, लेकिन रेपिस्ट की पत्नी और सजाशुदा लोगों से सजी उनकी टीम को बिहार की जनता पहचान तो चुकी ही है.

ओवैसी अपने साथ मौलानाओं की भीड़ लेकर सीमांचल को विषाक्त कर रहे हैं, लेकिन जानकार बताते हैं कि ओवैसी, पप्पू यादव, उपेंद्र कुशवाहा जैसे लोग भाजपा के पे-रोल पर हैं. जब देश के पीएम और गृहमंत्री राम-मंदिर का मसला इस चुनाव में उठा रहे हैं, तो दूसरा पक्ष अगर भड़काऊ बयानबजी पर आमादा है, तो क्या ही आश्चर्य?

बिहार के इस चुनाव को अगर एक वाक्य में कहना चाहें, तो इस चुनाव में न तो मुद्दा ही है, न ही विकल्प. बिहारी जनता के पास कुएं और खाई वाला ही चुनाव है.

(जनपथ से साभार)

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