1989 में वीपी सिंह की सरकार बनने के बाद से रामविलास पासवान देश की लगभग हर सरकार में मत्री रहे, लेकिन उन्होंने अपनी ऐसी कोई छाप नहीं छोड़ी जिसे लोग बाद में याद करें.
भारत में मौत के बाद मृतक के बारे में अच्छी-भली बातों की ही उम्मीद की जाती है. इसमें भी जातीय हाइरार्की के हिसाब से बातें तय होती हैं, नेता अगर सवर्ण, ब्राह्मण हुआ तो उसकी तारीफों और संवेदनाओं का स्तर एक अदद ऊपर दिखेगा. अगर सामाजिक पायदान पर थोड़ा नीचे है तो उसका मखौल उड़ाने की प्रवृत्ति है. मसलन रामविलास पासवान के राजनीतिक मौसम विज्ञानी होने की बात उनकी मौत के बाद माहौल में छायी हुई है.
सार्वजनिक जीवन में पांच दशक बिताने वाले एक राष्ट्रीय स्तर के नेता की उपलब्धियां क्या सिर्फ इन छोटे पैमानों से तय की जा सकती हैं. मेरा मानना है नहीं. जाहिर है रामविलास पासवान के सुदीर्घ राजनीतिक जीवन को भी इसी तरह से आंकना होगा. मैं कभी रामविलास पासवान से नहीं मिला, ना ही हमारे बीच किसी तरह की कहने को भी जान-पहचान थी. इसके बावजूद रामविलास पासवान की मौत पर यह लेख लिख रहा हूं. यह विशुद्ध उनकी राजनीति चाल-ढाल के नजरिए से लिखा गया लेख है. आप इसे न तो स्मृतिशेष के दायरे में रख सकते हैं ना ही तथाकथित श्रद्धांजलि के सीमित फरमे में रख सकते हैं.
यह लेख किसी मृतक के बारे में अच्छी-भली बातों की प्रचलित धारणा से भी मुक्त है, क्योंकि सार्वजनिक जीवन में इतना लंबा वक्त बिताने वाले किसी नेता का जीवन पूरी तरह से अच्छा या पूरी तरह से बुरा नहीं हो सकता. उसका कामकाज, उसकी राजनीति ने किस तरह के समाज को, किस तरह की राजनीति को आकार दिया, क्या वह एक समरस समाज की राजनीति थी या विभाजनकारी राजनीति थी. इस तरह के तमाम पक्षों से निर्मित होता है किसी नेता का व्यक्तित्व, उसकी विरासत.
एक नेता द्वारा छोड़ी गई विरासत उसके मूल्यांकन का सबसे अहम सूत्र है. उत्तर उदारीकृत भारत के लगभग हर दिल्ली दरबार में रामविलास पासवान मौजूद रहे. लगभग हर सरकार से उनका सरोकार रहा. चाहे वह मध्यमार्गी कांग्रेस रही हो, वाममार्गी संयुक्त मोर्चा की सरकार रही हो या दक्षिणपंथी भाजपा. 1989 में वीपी सिंह की सरकार बनने के बाद से वो देश की लगभग हर सरकार में मत्री रहे, नरसिंहा राव और यूपीए 2 को छोड़कर. यह तथ्य रामविलास पासवान की राजनीति में विचारधारा के सवाल को हल कर देता है. मूलत: समाजवादी विचारधारा से राजनीति शुरू करने वाले पासवान ने जीवन के अंतिम आधे हिस्से में वैचारिक राजनीति को तिलांजलि देकर राजनीति की. लिहाजा उनकी राजनीति को अगर वैचारिक वाद के लिहाज से देखें तो इसमें सिर्फ अवसरवाद और परिवारवाद प्रबलता से दिखाई देता है. पासवान सबके साथ अपने कुनबे का विकास करते रहे.
पासवान दलितों के नेता बनकर उभरे थे. यह उनकी राजनीतिक पहचान का अहम हिस्सा था. एक समय में हाजीपुर से उनके नाम सबसे बड़े अंतर से लोकसभा का चुनाव जीतने का कीर्तिमान दर्ज था. अपने क्षेत्र से वो लगातार जीतते रहे. लेकिन जिस दलित पहचान से उनकी राजनीतिक पहचान जुड़ी थी, उस राजनीति को भी वो कोई खास मुकाम दे पाए हों ऐसा नहीं कहा जा सकता.
दलित राजनीति के दयार में कर्पूरी ठाकुर या कांशीराम जैसी विरासत तो उनकी कभी नहीं रही. उत्तर प्रदेश में दलित पिछड़ा राजनीति के दो बड़े ध्रुव मुलायम सिंह यादव और मायावती के रूप में खड़ा हुए. इस लिहाज से हम बिहार की राजनीति को देखें तो वहां लालू, नीतीश जैसे समकक्षों के मुकाबले पासवान कभी उस तरह की दलित राजनीति का सामूहिक चेहरा नहीं बन पाए जैसा कि उत्तर प्रदेश में कुछ वक्त के लिए मायावती थी. यह पासवान की राजनीति की सीमा थी.
पासवान कभी बिहार के मुख्यमंत्री नहीं बने. अपनी इस सीमा को शायद पासवान समय रहते अच्छी तरह से समझ गए थे. नीतीश कुमार और लालू यादव के बीच उनकी राजनीति अटक गई थी. इसीलिए उन्होंने अपनी राजनीति का टेंट पटना की बजाय दिल्ली में स्थापित किया. दिल्ली की राजनीति में सौदे के लिए जरूरी राजनीतिक पूंजी उनके पास पर्याप्त मात्रा में थी. उनके पास अपना बनाया एक राजनीतिक दल था लोकजनशक्ति पार्टी, हाजीपुर की लोकसभा सीट थी जहां से वो सबसे बड़े अंतर से जीत चुके थे.
लेकिन पासवान के पास इस राजनीति पूंजी को व्यापक फलक देने वाला विज़न और इच्छाशक्ति नहीं थी. उनके अंदर कांशीराम जैसी संगठनिक क्षमता और इच्छा न थी, न ही मायावती जैसी सख्त प्रशासनिक योग्यता थी. जबकि उत्तर प्रदेश के मुकाबले बिहार में वैकल्पिक दलित राजनीति की संभावनाएं कहीं ज्यादा थीं. मुफीद स्थितियों के बावजूद लोकजनशक्ति पार्टी पासवान की सीमाओं के चलते तमाम क्षेत्रीय दलों की तरह परिवार की पब्लिक लिमिटेड कंपनी ही बन पायी. उनके बेटे चिराग पासवान फिलहाल पार्टी के चश्मेचिराग हैं. उनकी राजनीतिक दक्षता की परीक्षा होनी अभी बाकी है.
एक समय में अपने दो भाइयों को विधायक, सांसद बनवाने की चिंता उनकी राजनीति के केंद्र में थी. इसके बाद बेटे चिराग पासवान का फिल्मी कैरियर ठहरने पर उसे राजनीति में स्थापित करने की चिंता प्रबल हो गई. संतान, दामाद, समधी को राजनीति में खड़ा करने की चिंताएं भी कम नहीं थीं. परिवार से बाहर समाज से जुड़े किसी नेता को उन्होंने तैयार नहीं किया. पार्टी का कोई दूसरी लाइन का नेतृत्व उभर नहीं सका और पार्टी का प्रभाव भी क्षेत्र विशेष तक सीमित रहा.
इस लिहाज से पासवान की दलित राजनीति का फलक बहुत सीमित था जो एक सीमा से आगे नहीं बढ़ सकता था. इसकी वजह बिहार के राजनीतिक हालात भी रहे. उत्तर प्रदेश के मुकाबले अगर आप बिहार में लालू यादव और नीतीश कुमार की राजनीति को देखें तो उसमें खुद ही काफी हद तक पिछड़ों, दलितों के साथ महादलितों का प्रमुखता से स्थान था. यह उनकी राजनीति का अहम पहिया था. इसलिए भी पासवान की राजनीति ज्यादा दलित उन्मुखी नहीं रही.
बतौर एडमिनिस्ट्रेटर पासवान कैसे थे. लंबे समय तक केंद्रीय मंत्री रहे पासवान ने नीतिगत स्तर पर क्या ऐसा कुछ किया जिसका व्यापक असर आम लोगों के ऊपर पड़ा हो. दो घटनाओं का जिक्र यहां करना ठीक रहेगा. 2004 से 2009 के बीच केंद्रीय रसायन और उर्वरक मंत्री रहते हुए उन्होंने निजी क्षेत्र की कंपनियों में आरक्षण की बहस छेड़ी थी. हालांकि वो इस बहस को किसी मुकाम तक नहीं ले जा सके. कुछ दिन बाद यह बहस दम तोड़ गई. अगर इस दिशा में पासवान कुछ कर पाते तो निश्चित रूप से इतिहास में दर्ज हो जाते. इसके अलावा उसी समय में इन्होंने जीवन रक्षक दवाओं की कीमतों की सीमा तय करने का प्रस्ताव दिया था लेकिन वह भी किसी सिरे नहीं चढ़ा.
इन तमाम परिस्थितियों, घटनाओं और करतबों से मिलकर पासवान का सियासी व्यक्तित्व बना है. पांच दशक लंबे सफर में फुटनोट में दर्ज होने लायक उपलब्धियां भी नहीं हैं, यही दुख है. सामाजिक न्याय का ज्यादातर राजनीतिक लैंडस्केप इसी अभिशाप से पस्त है.