उदारीकरण के बाद उत्पादन में तेज़ वृद्धि का रिश्ता रोजगार में वृद्धि के साथ नहीं रहा.
1990 के दशक की शुरुआत से लेकर 2012 तक भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में उच्च वृद्धिदर के दौरान मुझे चिली (1973) में दक्षिणपंथियों के कब्जे के बाद से सीआईए की शह पर दक्षिणी अमेरिकी देशों की सत्ता में काबिज होने वाले तमाम सैन्य तानाशाहों में से एक के बारे में में सुनी गयी एक कहानी अक्सर याद आती थी. यह कहानी मैंने मैक्सिकों में सुनी थी. उस सैन्य तानाशाह की संयुक्त राज्य अमेरिका की नियमित रिपोर्टिंग यात्राओं के दौरान एक बार उनसे अमेरिकी राष्ट्रपति ने उनके देश के हालात के बारे में पूछा. उनका जवाब था- “अर्थव्यवस्था तो ठीक चल रही है, लेकिन जनता नहीं.”
उनकी यह टिप्पणी कमोबेश भारतीय अर्थव्यवस्था के उच्च विकास वाले दौर पर भी सटीक बैठती है. तेज विकास के उन वर्षों के दौरान भारतीय जीडीपी सात फीसदी की दर से बढ़ती हुई विश्व के औसत से दोगुनी हो गई, फिर भी, नियमित रोजगार सरकारी आंकड़ों के अनुसार एक फीसदी से भी कम की दर से बढ़ रहा था. उदारीकरण से पूर्व (1991 से पहले) की अवधि में औसत उत्पादन दर उक्त दर की लगभग आधी (3.5–4 फीसदी) थी, लेकिन रोजगार 2 फीसदी की दर से बढ़ रहा था, जो कि नए दौर के मुकाबले दोगुना था.
उदारीकरण के बाद उत्पादन में वृद्धि का रिश्ता रोजगार में वृद्धि के साथ तेजी से खत्म होता गया है. इसकी वजह मशीनीकरण के चलते जहां कामकाज विहीन श्रमिक बढ़ता गया है वहीं इस किस्म के औद्योगीकरण के तहत संगठित उद्योग में श्रमिकों को खपाने के लिए सृजित किये गये कुल रोजगार की तुलना में ग्रामीण क्षेत्र के गरीबों की आजीविका कही अधिक मात्रा में नष्ट हुई है.
वैश्वीकरण के तहत अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा को लेकर एक सनकी पूर्वाग्रह ने इन मजबूरियों को जन्म दिया. लिहाजा, इस चरण के दौरान कई बड़े निगमों की भांति, जहां उत्पादन में वृद्धि होती रही, वहीं नौकरीशुदा लोगों की संख्या में गिरावट आती गयी. व्यापार तथा विदेशी मुद्रा विनियमन के क्षेत्र में उदारीकरण की प्रक्रिया ने विदेशी वस्तुओं तक पहुंच को आसान बनाया, जिससे मध्यम वर्ग खुश हुआ, और “पुलिस-इंस्पेक्टर राज” के कई दमघोंटू नियमों के खात्मे का व्यापार जगत व आम लोगों द्वारा स्वागत किया गया. उद्योगपति अपेक्षाकृत अधिक खुश थे क्योंकि उदारीकरण ने कारगर तरीके से औद्योगीकरण की लगाम उनके हाथों में थमा दी.
इस प्रक्रिया ने लाखों लोगों, जिनमें आदिवासियों एवं दलितों की तादाद सबसे अधिक थी, की आजीविका को नष्ट कर उन्हें प्रोत्साहन के तौर पर भूमि, जल-निकायों, नदियों, पहाड़ों, जंगलों तथा समुद्र के किनारे के इलाके लगभग मुफ्त उपहार में दिया. मेरे एक निजी मोटे आकलन के हिसाब से इन वंचित समुदायों के विस्थापित होने की संभावना लगभग तीन गुना अधिक थी. फिर भी बड़े निजी व्यावसायिक घरानों ने आर्थिक विकास को बढ़ाते हुए जहां अपना कारोबार जारी रखा, वहीं मीडिया खुशी से झूमती रही. अमीर और गरीब के बीच की खाई गहरी होने की बात का शायद ही कभी उल्लेख किया गया, जबकि विशेषज्ञ इस बहस में उलझे रहे कि वास्तव में घोर गरीबी में उल्लेखनीय कमी आई है या नहीं.
और अब, अर्थव्यवस्था एक अंधेरे गड्ढे में गिरती जा रही है. यहां तक कि सरकार भी यह कहने का साहस नहीं जुटा पा रही है कि अर्थव्यवस्था ठीक चल रही है. इसके बजाय वह अधिक से अधिक यह कर सकती है कि आधिकारिक आंकड़ों को दबाए रहे और पेड न्यूज़ के जरिए इन झटकों को कमतर दिखा सके. गरीब तबके के लोग, जिनमें से अधिकांश असंगठित क्षेत्र में दिहाड़ी मजदूर थे, अचानक किये गये नोटबंदी के झटकों से स्तब्ध थे. उनकी आमदनी गिर गयी. बाजार में उनकी क्रय–शक्ति अचानक से हवा में विलीन हो गयी. नोटबंदी के जरिए ‘कालाधन’ के नाश के दावों के साथ–साथ बरामद काले धन से प्रत्येक भारतीय के खाते में 15 लाख रुपए जमा करने के चुनावी वायदे जल्द ही एक क्रूर मजाक की तरह लगने लगे. लिहाजा, वर्तमान गृहमंत्री व तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष ने लोगों को आश्वस्त किया कि यह एक चुनावी जुमला था, न कि कोई वादा.
इसी किस्म के अन्य जुमले हर दूसरे दिन सरकार द्वारा गरीबों के लिए किये जा रहे महान कामों के बारे में घोषणा की एक श्रृंखला के साथ जारी हैं. दरअसल, ऐसे वायदे इस सरकार की पहचान बन गए हैं. जमीनी स्तर की रिपोर्टिंग के आधार पर इन दावों पर सवाल उठाने वाले संवाददाता पूरी तरह से उनकी दयादृष्टि से बाहर हैं और कभी पूरा न किए जा सकने वाले राष्ट्र निर्माण के भारी-भरकम खोखले दावों के खिलाफ जाने वाले संदिग्ध और देशद्रोही घोषित कर दिए जाते हैं.
उदाहरण के लिए, उस पत्रकार विशेष की, जिसने किसानों की आय दोगुनी करने के वायदे के निराशाजनक नतीजों का खुलासा किया था, उसकी नौकरी छीन ली गई. इस तरह के पत्रकार नायक नहीं, बल्कि यथोचित रूप से ईमानदार माने जाते हैं. लेकिन ऐसा बने रहना अब तेजी से मुश्किल होता जा रहा है. ऐसे माहौल में ज्यादातर लोगों को यह समझने में देर नहीं लगी कि किस पाले में रहकर अपना हित साधा जा सकता है.
सरकार एवं अधिकांश मीडिया पर मालिकाना हक़ रखने वाले बड़े व्यावसायिक घराने इस लालच का स्रोत हैं जो अपनी शर्तों पर चलने के लिए समाचार चैनलों को चारा फेंकते हैं, बशर्ते चैनल उनके कहने पर चलें. उदाहरण के लिए, चीन, पाकिस्तान, शहरी नक्सलियों, यहां तक कि जेएनयू के छात्रों, सीएए के विरोध में उतरने वाले प्रदर्शनकारियों, संक्षेप में कहें तो विरोध करने वाले हर व्यक्ति से हमारे राष्ट्रवाद को होने वाले कथित खतरे को बारंबार, पूरे समर्पण के साथ दोहराया जाना.
आज्ञाकारी समाचार चैनल को राष्ट्रीय सदभाव के लिए राम मंदिर और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए राफेल जेट विमानों के विलक्षण महत्व पर जोर देना होगा, बढ़ती बेरोजगारी, सरकारी बैंकों से मोटी उधारी लेकर फरार हो चुके मुट्ठी भर लोगों, ठेकेदारों एवं उद्योगपतियों की मदद पहुंचाने के लिए जानबूझकर पर्यावरण को बर्बाद करने वाली असुविधाजनक खबरों को छोड़ने की जरुरत होगी. हमारे अधिकांश मीडिया संस्थान इस मामले में बेहद आज्ञाकारी शिष्य की तरह अपना पाठ सीखते हैं, उन्हें सरकार के पापों की अनदेखी करने में महारत हासिल है.
जब एक महामारी का राक्षस दरवाजे पर दस्तक दे रहा था, केंद्र सरकार ट्रम्प की आगवानी करने, नागरिकता कानून में संशोधन करने और 2020 के मार्च में राज्यों में विपक्षी सरकारों को गिराने में व्यस्त थी. केरल को छोड़कर कहीं भी कोरोना पर कायदे से ध्यान नहीं दिया गया.
फिर, नोटबंदी की तर्ज पर, चार घंटे के नोटिस पर सख्त तालाबंदी की अचानक घोषणा हुई. जिस तरह ये सरकार अपने वायदे पूरा नहीं करने के लिए मशहूर है बिल्कुल उसी तरह देशवासियों पर आकस्मिकता थोपना भी इसकी खास शैली है.
तालाबंदी की आकस्मिकता ने अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया. यह अब धीमी वृद्धि, बल्कि नकारात्मक विकास का भी सवाल नहीं है. बल्कि सवाल तो बस यह है अर्थव्यवस्था कितना नीचे गिरेगी. तथाकथित प्रवासी मजदूर इसका पहला शिकार बने. अर्थव्यवस्था के संगठित क्षेत्र में नियमित नौकरियों की कुल संख्या में तेजी से गिरावट शुरू हो गई है. नवीनतम आंकड़ों के हिसाब से नियमित वेतनभोगी नौकरियों में पहली बार ऐसी भारी कमी दिखी है जो आज से पहले कभी देखी नहीं गई. यह मध्यवर्ग को सबसे ज्यादा प्रभावित करेगा.
अब जबकि गरीबों के सामने अभूतपूर्व रूप से बढ़ती हुई खुली एवं छुपी बेरोजगारी है, कुछ आंकड़े यह दिखा रहे हैं कि तालाबंदी में ढील के बाद असंगठित और अर्ध-औपचारिक अर्थव्यवस्था के छोटे मझोले उद्यमों में कुछ नौकरियां वापस आ रही हैं. सबसे सरल व्याख्या आमतौर पर विशेषज्ञों से हम सबसे आखिर में सुनते हैं. छोटे उद्यम, जिनकी सारी जमा पूंजी तालाबंदी के दौरान खत्म हो गयी, वे बंद रहने का जोखिम नहीं उठा सकते. दैनिक मजदूर छिटपुट कामों में कुछ कमाने के अपने रोजमर्रा के प्रयास के बिना जीवित नहीं रह सकते. गरीब बेरोजगार होने का जोखिम नहीं उठा सकते, इसलिए उस श्रेणी में बेरोजगारी के आंकड़े बेहद कम हैं.
मुझे एक भारतीय आंकड़ा याद आता है, जिसमें सबसे कम शिक्षित भूमिहीनों के बीच बेरोजगारी की दर सबसे कम है, जबकि कक्षा 12 और उससे अधिक शिक्षा पाने वालों के बीच बेरोजगारी की दर सबसे अधिक है. यह अमेरिका के ठीक उलट है. भारत में इसका कारण सिर्फ यह है कि अधिक शिक्षित आमतौर पर उच्च आय वर्ग से आते हैं और वे स्वीकार्य रोजगार की तलाश में अधिक समय तक इंतजार कर सकते हैं. असली गरीब लोग बेरोजगार होने का जोखिम नहीं उठा सकते. अगर कभी विस्तृत आंकड़े उपलब्ध हों, तो वे उन्हें समय-वार और भी अधिक नियोजित दिखा सकते हैं, लेकिन आमदनी के लिहाज से वे प्रति घंटे के हिसाब से बेहद ही कम आय के साथ नौकरी करते हैं.
फिर भी, उदारीकरण एक खेल है. दरअसल, यह शहर का एकमात्र ऐसा खेल है जिसे यह सरकार बड़े उद्योगपतियों को लगातार समर्थन देते हुए खेलना जारी रखना चाहती है. तालाबंदी हो या महामारी, वह उद्योग जगत की मदद के लिए श्रम एवं पर्यावरण कानूनों को बदल देती है. उसने उद्योगों को पूर्व-निश्चित सरकारी राजस्व के संदर्भ में टैक्स से छूट दे दिया, जो आज मनरेगा पर खर्च होने वाली कुल धनराशि से लगभग दोगुना है. वह सरकारी बैंक के पैसों के ज्ञात
लुटेरों को क्षमा कर देती है. आपने प्रधानमंत्री से काले धन के बारे में सुना, क्या आपने उनसे कभी यह स्पष्ट रूप से सुना है कि भारतीय बैंकिंग व्यवस्था के बीमार होने की वजह क्या है?
मीडिया, जो एक अभिनेता की आत्महत्या और सामाजिक कार्यकर्ताओं के आतंकवादी कनेक्शन के बारे में शुद्ध अटकलबाजियों को हवा देता है वह खुले आम सामने आये उन 28 ज्ञात नामों के बारे में चुप रह जाता है जिन्होंने सरकारी बैंकों को दस लाख करोड़ का चूना लगाया है. (उनमें से अधिकतर गुजरात से हैं, विजय माल्या को छोड़कर)
भारतीय अर्थव्यवस्था अभूतपूर्व निराशा की स्थिति में है. सरकार बहुत पहले ही राहत पैकेज शुरू कर सकती थी. ऐसे समय में जब हमारे अनाज का भंडार भरा हुआ है, कृषि उत्पादन अच्छा रहा है, और खाद्य पदार्थों की कीमतें और महंगाई बढ़ने का डर भी नहीं था, तब सरकार ग्रामीण इलाकों में मांग को पुनर्जीवित करने के लिए अगर बैंकों से लूटे गए इस धन के आधी रकम के बराबर राशि भी गरीब बेरोजगारों में पहुंचाती तो हालात बदल जाते. यहां इस तरह के पैकेज के बारे में विस्तृत चर्चा करने की जरुरत नहीं है, क्योंकि यह दुखद रूप से अप्रासंगिक है.
सरकार की अर्थव्यवस्था में कोई दिलचस्पी नहीं है. इसके बजाय सरकार अपने चुनिंदा उद्योगपति मित्रों के हितों की रक्षा करने और उन्हें आगे बढ़ाने में रुचि रखती है. बदले में ये उद्योगपति मित्र चुनाव के समय उसकी मदद करेंगे. विशाल बहुमत की अर्थव्यवस्था की तुलना में शेयर बाजार अधिक महत्वपूर्ण है. आप खुद को इस बात के लिए मूर्ख न बनायें कि यह सरकार कम चालाक है या कि उसे समझ में नहीं आ रहा है कि क्या किया जाना चाहिए. इसके बजाय इस तथ्य का सामना करें कि वह चाहती है कि भविष्य के हिंदू राष्ट्र में उसके चुने हुए उद्योगपति मित्रों के बीच देने और लेने का यह एकमात्र खेल हो.
(भूतपूर्व एमेरिटस प्रोफेसर, जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, जेएनयू)