छत्तीसगढ़ में नक्सली आत्मसमर्पण का गोरखधंधा

सालों से होटल चला रहे, खेती-बाड़ी कर रहे ग्रामीण पुलिस की नक्सल आत्मसमर्पण सूची में.

WrittenBy:प्रतीक गोयल
Date:
Article image
  • Share this article on whatsapp

16 जून 2020 की तारीख थी. सुबह के लगभग 11 बज रहे थे, दंतेवाड़ा जिले के समेली गांव के रहने वाले गंगा कोडोपी अपने चाय-नाश्ते के होटल पर थे. अचानक होटल के सामने एक चारपहिया गाड़ी आकर रुकी, उसमें से कुछ पुलिसवाले उतरे. उन्होंने हाथ में कुछ पोस्टर (सूचनापत्र) ले रखा था. होटल पर मौजूद गंगाराम और कुछ ग्राहकों ने जब पुलिसवालों से सूचनापत्र के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि यह सूचनापत्र सरकार और पुलिस की लोन वर्राटू (लोन वर्राटू गोंडी का शब्द है जिसका हिंदी में मतलब होता है घर वापस आइये) मुहिम के तहत गांवों में चिपकाए जा रहे हैं.

इन सूचनापत्रों में नक्सलियों के नामों की फेहरिस्त थी जिनसे अपील की गई थी कि वे आत्मसमर्पण कर मुख्यधारा से जुड़े. होटल पर मौजूद लोगों को यह सब बताने के बाद पुलिस वहां से चली गयी. लेकिन जब गंगा ने अपने होटल पर चिपकाए उस पोस्टर को ध्यान से देखा तो उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गयी हो. उस पोस्टर में नक्सलियों की जो फेहरिस्त थी उसमें सबसे ऊपर गंगा कोडोपी का नाम लिखा था.

पुलिस वालों ने यह सूचनापत्रक गांव में और भी कई जगहों पर लगाया. थोड़ी ही देर बाद पता चला कि लोन वर्राटू के तहत आत्मसमर्पण करने के लिए पुलिस ने समेली गांव से जिन 13 नक्सलियों का नाम उस फेहरिस्त में लिखा था,उनमे से पांच आम ग्रामीण थे जिनका नक्सलवाद से कोई संबंध नही था.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute
बाएं से दाएं- जोगा कोडोपी, कोसा कोडोपी, गंगा कोडोपी, भीमा मड़काम, भीमाराम मंडावी

जब से इन ग्रामीणों का नाम उस सूचनापत्रक में आया है तभी से यह पांचों लोग दहशत में जी रहे हैं. ग्रामीणों के मुताबिक़ ये लोग अब बहुत बड़ी मुश्किल में फंस गए हैं.इन लोगों का डर यह है कि अगर इन्होंने नकली आत्मसमर्पण किया तो नक्सली इन्हें यह कहकर निशाना बनाएंगे कि तुमने फर्जी काम किया है और अगर इन्होंने नकली आत्मसमर्पण नहीं किया तो पुलिस इन्हें कभी भी उठाकर जेल में डाल देगी.

न्यूज़लॉन्ड्री ने इन सभी पांच ग्रामीणों गंगा कोडोपी, भीमा मड़काम, भीमाराम मंडावी, कोसा कोडोपी और जोगा कोडोपी से बात की है. उस सूचनापत्र में इन सभी लोगों का ओहदा नक्सल संगठन के कमेटी सदस्य का लिखा गया है.

यह सूचनापत्र लोन वर्राटू की मुहीम के तहत चिपकाए जा रहे हैं दन्तेवाड़े जिले के गांवों में

31 साल के गंगाराम न्यूज़लॉन्ड्री से बातचीत के दौरान कहते हैं, "मैं पिछले सात साल से समेली गांव में होटल चला रहा हूं. उसके पहले मैंने तक़रीबन 5-6 साल तक किरंदुल के गुप्ता होटल में काम किया था. मैं वहां समोसे, खाना वगैरह बनाता था. जब मैं किरंदुल में था तभी मैंने सोच लिया था कि मैं अपने गांव जाकर अपना चाय-नाश्ते का होटल खोलूंगा. पूरी ज़िन्दगी में मेरा नक्सलियों से कोई सम्बन्ध नहीं रहा है.लेकिन पुलिस की लिस्ट में मेरा नाम डाल दिया है. अपना नाम देखकर मैं भौचक्का रह गया था.हमारे गांव के भी चार और लोगों के नाम उस फेहरिस्त में हैं. मुझे समझ नहीं आता कि मेरा नाम कैसे उस लिस्ट में आ गया. चाहे कुछ हो जाए मैं यह झूठा आत्मसमर्पण नहीं करूंगा. जब मैं नक्सली हूं ही नहीं तो मैं नक्सली बनकर क्यों आत्मसमर्पण करूं.”

18 जुलाई को एक पंचायत सदस्य के कहने पर गंगा कोडोपी, कोसा कोडोपी और भीमाराम मंडावी नक्सलियों की उस सूची में से अपना नाम हटवाने के लिए अरनपुर पुलिस थाने भी गए थे.

गंगा कहते हैं,"हम जब थाने गए तो वहां मौजूद पुलिस वालों ने हमसे कह दिया कि हमारा नाम यहां से नहीं कटेगा. अगर हमें नाम कटवाना है तो हमें दंतेवाड़ा जाना होगा. फिर अगले दिन दो पुलिसवाले गांव आये थे और हमें अपने साथ चलने के लिए बोल रहे थे. मैंने उनके साथ जाने से मना कर दिया था. मैंने उनको यह भी कहा था कि पुलिस ने बेवजह हमारा नाम बदनाम कर दिया है. जब हम नक्सली हैं ही नहीं तो हम आत्मसमर्पण क्यों करें. इसके बाद वो लोग वापस चले गए थे.”

जोगा कोडोपी और उनका परिवार

34 साल के भीमा मड़काम कहते हैं, "मैं बहुत छोटी उम्र से खेती-बाड़ी करता आ रहा हूं. आजतक किसी भी नक्सल गतिविधि में मैं शामिल नहीं हुआ हूं. मेरे परिवार में मेरी पत्नी है,पांच छोटे बच्चे हैं और एक विकलांग भाई. मेरा पूरा परिवार खेती-किसानी के दम पर ही पलता है.अगर मैं नहीं रहूंगा तो मेरा परिवार कौन संभालेगा. जब से मेरा नाम नक्सलियों की फेहरिस्त में आया है मेरे परिवार के लोग भी परेशान हो गए हैं."

भीमा कहते हैं कि उनका नाम नक्सलियों की सूची में शामिल है इस बारे में उन्हें गांव के लोगों ने बताया.वह कहते हैं, "पुलिस वाले पंचायत में भी पोस्टर लगाकर गए थे.जब मुझे इस बात का पता चला तो मैं हैरान था क्योंकि मैंने आजतक कभी भी नक्सलवादियों से किसी भी तरह का कोई भी सम्बन्ध नहीं रखा हैं. भले ही मैं मर जाऊं लेकिन नकली नक्सली बनकर झूठा आत्मसमर्पणनहीं करूंगा.जब मैंने कोई गलती की ही नहीं तो मैं उसे क्यों मानूं. हो सकता है पुलिस मुझे जेल में डाल दे लेकिन मैं फिर भी यह फर्जी आत्मसमर्पण नहीं करूंगा."

भीमा मड़काम अपने परिवार के साथ

एक अन्य ग्रामीण 35 वर्षीय भीमाराम मंडावी, जिनका नाम भी उस सूचनापत्र में था कहते हैं, "मेरा अब तक का जीवन खेती-बाड़ी में गुज़रा है और आगे भी मैं वही करूंगा. मेरा कभी नक्सलियों से कोई सम्बन्ध नहीं रहा है.हां जब नक्सली पूरे के पूरे गांव को बुलाते थे तो मजबूरन हर गांव वाले को जाना पड़ता था. उस सूचनापत्र में बेवजह हमारा नाम नक्सली बता कर लिख दिया है. मुझे समझ नहीं आ रहा कि इस मुसीबत से हम लोग अब कैसे बचेंगे.क्योंकि अगर हम नकली नक्सली बनकर आत्मसमर्पण करेंगे तो नक्सली मारेंगे और अगर हम आत्मसमर्पण नहीं करेंगे तो पुलिस मारेगी.”

भीमाराम मंडावी अपने परिवार के साथ

वो आगे बताते हैं, “पिछले साल समेली के सीआरपीएफ कैंप में पुलिस वाले मुझे उठा कर ले गए थे. बहुत मारा था और यही कह रहे थे कि मैं नक्सलियों का साथ काम करता हूं. तब भी मैंने यही कहा था कि नक्सलियों से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है. मारपीट करने के बाद फिर उन्होंने मुझे छोड़ दिया था."

30 साल के कोसा कोडोपी कहते हैं,"मैं,गंगा और भीमाराम अरनपुर पुलिस थाने गए थे नाम कटवाने लेकिन उन्होंने बोला कि शासन से नाम आया है, दंतेवाड़ा जाकर ही नाम कटेगा. हम नकली आत्मसमर्पण तो नहीं करेंगे. मुझे दिन रात यही डर रहता है कि पुलिस हमें उठा कर ले जायेगी. रात को भी ठीक से सो नहीं पाता हूं क्योंकि मन में डर लगा रहता है कि पुलिस आकर पकड़ ले जायेगी."

कोसा आगे कहते हैं, "मेरा जीवन खेती-किसानी का है ना कि नक्सलवाद का लेकिन फिर भी मुझे बेवजह नक्सली घोषित कर आत्मसमर्पण करवाना चाहते हैं."

जोगा कोडोपी भी किसानी करते हैं. वो कहते हैं, "मेरे परिवार के लोग कहते हैं अगर पुलिस को मुझे पकड़ कर ले ही जाना है तो वह घर से आकर ले जाए, लेकिन मैं झूठा आत्मसमर्पण नहीं करूंगा. गांव के सभी लोगों को पता है कि हम नक्सली नहीं हैं और वो हमारे समर्थन में हैं.पुलिस ने हाट में, बाज़ारों में, सड़कों पर सब जगह हमारे नाम का पोस्टर लगा दिया है, जिससे मेरी बदनामी हो रही है.”

कोसा कोडोपी अपने परिवारजनों के साथ

समेली गांव की सरपंच सुकड़ी कुंजाम कहती हैं, "हमारे गांव के जिन पांचलोगों का लोन वर्राटू में नाम है उनमे से कोई भी नक्सली नहीं है और ना ही उनका पहले कभी नक्सलियों से सम्बन्ध था.इस सम्बन्ध में गांववालों की बैठक भी हुयी थी. सभी गांव के लोग इस मामले में एकमत हैं और इन पांचों के साथ हैं. बैठक में यह चर्चा भी हुयी थी कि इन पांचों ने आज तक किसी के साथ कोई भी गलत हरकत नहीं की है, इसलिए गांव वाले इसका बात का पूरा ध्यान रखेंगे कि इनके साथ अन्याय ना हो. हम पुलिस अधीक्षक के पास जाकर इस मामले में शिकायत करना चाहते हैं."

कुंजाम आगे कहती हैं, "नक्सली जब बैठक बुलाते थे तो गांव के एक-एक आदमी को उसमें जाना ही पड़ता था.उस बैठक में जाने से मना नहीं किया जा सकता था.वह काम करने के लिए ज़बरदस्ती भी करते थे. लेकिन 2013 से जब से सीआरपीएफ कैंप आया है, नक्सली गांव में नहीं आते हैं."

गंगा कोडोपी अपने चाय- नाश्ते के होटल पर

लोन वर्राटू अभियान को शुरू हुए ज़्यादा समय नहीं हुआ है. इस मुहिम की शुरुआत जून के पहले हफ्ते में हुयी थी और इसे खासतौर से दंतेवाड़ा में चलाया जा रहा है. दंतेवाड़ा पुलिस के अनुसार दंतेवाड़ा जिले के लगभग 55 गांवों में तकरीबन 1600 नक्सली है.

न्यूज़लॉन्ड्री ने इस मामले के बारे में दंतेवाड़ा के पुलिस अधीक्षक अभिषेक पल्लव से बात की. उन्होंने कहा, "अगर किसी को लगता है कि उनका नाम गलती से नक्सलियों की फेहरिस्त में आ गया है तो वह हमें आवेदन दे सकता है. हम इस बात से पूरी तरह से इत्तेफ़ाक़ रखते है कि अगर कोई नक्सली नहीं है और उसका नाम सूचनापत्र में आ जाता है तो उसकी बदनामी तो होती ही है. इसके अलावा अगर वह नक्सली ना होने के बावजूद आत्मसमर्पण करता है तो वह नक्सलियों के निशाने पर भी आ सकता है. हालांकि ऐसे लोग बहुत कम हैं और गलतियों की गुंजाइश कम है क्योंकि यह फेहरिस्त काफी पूछताछ करने के बाद बनायी गयी है. लेकिन अगर हमारे पास कोई आवेदन लेकर आएगा तो हम उसका नाम काट देंगे.

वो आगे बताते हैं, “ऐसे लोग सरपंच के ज़रिये, किसी स्थानीय नेता के ज़रिये या किसी भी सम्मानित व्यक्ति के ज़रिये आवेदन दे सकते हैं. अब तक कुछ 10-12 ऐसे आवेदन आये हैं जिनके हमने नाम काट दिए हैं. उन्हें आवेदन में बस इतना लिखना है कि शासन-प्रशासन की मदद करते हुए हम लोग गांव में खेती-बाड़ी करते हुए अपना जीवन व्यतीत करेंगे और कोई भी गैरकानूनी काम नहीं करेंगे. लेकिन अगर उनके नाम पर अपराध नामजद होगा तो उनको आत्मसमर्पण करना ही होगा. वैसे अब तक इस मुहिम के तहत 71 नक्सली आत्मसमर्पण कर चुके हैं."

पल्लव आगे कहते हैं, "हमने अभी यह मुहिम सिर्फ दंतेवाड़ा में शुरू की है और अगर यह कामयाब रही तो हम इसे बाकी जगहों पर शुरू करेंगे. कोई भी नयी दवाई के कुछ साइड इफेक्ट्स भी हो सकते हैं इसीलिए हमने इस मुहिम को पूरे बस्तर में एक साथ शुरू नहीं किया. हमने लगभग 250 आत्मसमर्पित नक्सलियों के द्वारा बताई गयी जानकारी के आधार पर दो तरफा पड़ताल करके यह फेहरिस्त बनायी है, लेकिन फिर भी इसमें गलतियां निकल सकती हैं. हम उन्हें ठीक करने तैयार है. हम हर तीन महीने बाद इस सूची का संशोधित संस्करण निकालेंगे.

समेली गांव के अलावा एक अन्य गांव में भी पुलिस ने नोटिस चपकाया है.

पल्लव बताते हैं, "पहले इस बात को लेकर भी चर्चा चल रही थी कि जो भी आत्म-समर्पण करेगा उसकी नक्सली हत्या कर देंगे लेकिन अभी तक ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ है. दूसरी बात यह कि आत्मसमर्पण कर चुके नक्सलियों में से किसी को भी हर बार की तरह एसपीओ नहीं बनाया है.उनके लिए खेती-बाड़ी, बकरी पालन और अन्य रोज़गार की व्यवस्था कराई गयी है.”

न्यूज़लॉन्ड्री ने इस बारे में बस्तर रेंज के महानिरीक्षक (इंस्पेक्टर जनरल ऑफ़ पुलिस) पी सुंदरराज से भी बात की. वो कहते हैं, "इस सूची में उन्हीं लोगों का नाम शामिल होता है जो माओवादियों/ नक्सलियों के लिए या तो भूमिगत रूप से काम करते हैं या उनके फ्रंटल ऑर्गनाइज़ेशन के लिए काम करते हैं. यह लोग गांव में ही रहते है और छद्म संगठनों जैसे कि दंडकारण्य आदिवासी किसान मजदूर संघ,चेतना नाट्य मंडली आदि के लिए काम करते हैं. हमारे पास उनके तमाम रिकॉर्ड (अभिलेख) हैं. लेकिन अगर किसी व्यक्ति को ऐसा लगता है कि वह बेगुनाह है और उनका नाम गलती से उस फेहरिस्त में आ गया तो उन्हें पूरा अधिकार है कि वह हमारे पास आकर अपनी बेगुनाही साबित करें. हम पूरी तरह से उनकी मदद करेंगे और अगर वह नक्सली नहीं होंगे तो हम अपने रिकार्ड्स में भी उसका सुधार करेंगे. यह अभियान आत्मसमर्पण का है ना कि गिरफ्तारी का."

हालांकि छत्तीसगढ़ पुलिस के अधिकारी इस बात का दावा कर रहे हैं कि इस मुहीम के तहत बनने वाली फेहरिस्तों में नक्सलियों के नाम बड़ी जाँच-पड़ताल करने के बाद जोड़े गए हैं. मगर ऐसा लगता नही है. अगर ऐसा होता तो नक्सली मामलो में बेवजह जेल काटने के बाद बाइज़्ज़त बरी होने वाले बेगुनाह लोगों के नाम लोन वर्राटू अभियान में नही आते.

गौरतलब है कि पोटाली गाँव के मिर्चीपारा की रहने वाली देवे माड़वी का नाम भी लोन वर्राटू के एक सूचनापत्र में आ गया है, बावजूद इसके कि अदालत ने उनको एक साल से भी ज़्यादा पहले उन पर चल रहे मुकदमे में बाइज़्ज़त बरी कर दिया था.

इस मामले में जब हमने देवे का मुकदमा लड़ चुके वकील क्षितिज दुबे से बात की, तो वह कहते हैं," देवे को नक्सली मामले के तहत पुलिस ने लगभग चार साल पहले गिरफ्तार किया था. वह लगभग दो साल तक जगदलपुर जेल में कैद थी.लेकिन लगभग डेढ़ साल पहले अदालत ने उन्हें उन पर लगाये गए मामलों में बेगुनाह पाया था और उन्हें बाइज़्ज़त बरी कर दिया था.

इस मामले में दंतेवाडा की जिला पंचायत अध्यक्ष तुलिका कर्मा कहती हैं," जो लोग निर्दोष है उनके साथ हम कसी भी तरह का अन्याय नहीं होने देगे. अगर कोई नक्सली नहीं है और उनका नाम लिस्ट में है तो वह हमारे पास आएं हम उनकी मदद करेगें.

कांग्रेस नेता और छत्तीसगढ़ सरकार के प्रवक्ता रविंद्र चौबे से इस गड़बड़ी के बारे में पूछने पर उनका जवाब मिला, "हमारी सरकार ऐसे मामलों के लेकर बहुत संवेदनशील है. अगर ऐसा कही भी हो रहा होगा तो हम इस पर कार्रवाई करेंगे और गांववालों के पक्ष में फैसला कराएंगे. गृहमंत्रीजी और डीजीपी के संज्ञान में भी हम इस बात को लाएंगे. यह स्थिति सिर्फ एक गांव की बात नहीं है बल्कि कई गांवों की है. हमें बखूबी इस बात का अंदाज़ है कि दक्षिण बस्तर में पुलिस और नक्सलियों के बीच में हमारे आदिवासी भाई पिस रहे हैं. इसके अलावा यहां ऐसे भी लोग हैं जो नक्सली नहीं हैं और जेलों में कैद हैं. जेल में कैद ऐसे लोगों को रिहा करने करने के लिए हमारी सरकार ने एक कमेटी भी बनायी है और उन्हें रिहा भी कर रही है."

Also see
article imageग्राउंड रिपोर्ट: सुक्का, देवा, बुधरी, लकमा और आंदा जो बताते हैं कि सुकमा में नक्सली नहीं निर्दोष आदिवासी मारे गए
article imageछत्तीसगढ़ पार्ट 4: सलवा जुडूम ने कर दिया कभी न मिटने वाला बंटवारा
subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like