रसभरी: ‘स्लीवलेस ब्लाउज़’ में अटकी मर्दों की कुंठा से साक्षात्कार

रसभरी के बहाने स्वरा पर हमले असल में मर्दवादी हिन्दू राष्ट्रवाद के खिलाफ मुखर होने की कीमत है जो उन्हें अदा करनी पड़ रही है.

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रसभरी को लेकर दर्शकों की सामान्य प्रतिक्रियाएं बहुत अच्छी नहीं मिल रही हैं. स्वरा भास्कर को घेरने के लिए एक मौके की तलाश में बैठे लोगों को इस बेव सीरीज ने जैसे उत्साहित कर दिया है. स्वरा पर तरह-तरह से छींटाकशी हो रही है जो सिरीज के मूल सरोकार का ही वास्तविक विस्तार है. सिरीज फिर भी एक काल्पनिक कथानक है लेकिन स्वरा पर जो कीचड़ उछाला जा रहा है वह सच्चाई है जिसका जीवित व्यक्तियों, ज़्यादातर मर्दों से सीधा संबंध है, महज़ इत्तेफाक नहीं. प्रसून जोशी और आईटी सेल के लंपटों का रसभरी के बहाने स्वरा पर हमले असल में मर्दवादी हिन्दू राष्ट्रवाद के खिलाफ मुखर होने की कीमत है जो उन्हें अदा करनी पड़ रही है.

रसभरी के बहाने स्वरा न केवल इस सीरीज में निभाए चरित्र के तौर पर ताने झेल रही हैं बल्कि वह मर्दों की फैंटेसी और इक्कीसवीं सदी की एक ‘स्मार्ट औरत’ को लेकर दिमाग में घर कर चुकी फैंटेसी का पर्दाफाश हो जाने से उपजे मनोविकारों की भी अभिव्यक्ति हैं. स्वरा को इन आलोचनाओं को ऐसे ही देखना चाहिए.इत्मिनान की बात है कि वो इन्हें ऐसे ही न केवल देख रहीं हैं बल्कि ट्विटर वार में पूरे आत्मविश्वास के साथ बढ़त बनाए हुए हैं.

यह बेव सीरीज दो स्तरों पर चर्चा में है. एक जो इस सीरीज पर केन्द्रित है और दूसरी जो इसके मुख्य पात्र और उसे निभाने वाली अभिनेत्री पर केन्द्रित है. दोनों ही स्तरों पर अभिनेत्री कुंठित मर्दवादी समाज की यौन कुंठाओं और उससे उपजी हिंसा को उकसा रही है. उन्हें सतह पर ला रही हैं.

इस संदर्भ में देखें तो इस सीरीज के अंदर स्वरा भास्कर शानू बंसल मैडम और रसभरी के चरित्रों को जी रही हैं और बाहर वो स्वरा भास्कर और रसभरी की ज़िंदगी जी रही हैं. यानी रील और रियल लाईफ में अगर स्वरा भास्कर के साथ ‘रसभरी’ जैसी प्रदत्त (दी गयी) छवि चस्पा है तो ये स्वरा की कामयाबी ही है कि वो खुद को इक्कीसवीं सदी की एक कामयाब, मुखर, बौद्धिक और स्पष्ट राजनैतिक रुझानों को लेकर चलती हैं.

सीरीज का कमजोर पक्ष ये है कि ये शुरुआत में बहुत दिलचस्प नहीं बन पाई है. यह शुरूआत से दर्शकों को बांध नहीं पाती है. ऐसे में वो दर्शक जो ‘लिफ़ाफ़ा देखकर मज़मून’ देखने में माहिर और प्रशिक्षित हैं, इसे देखना बंद कर देते हैं और इसके खिलाफ प्रतिक्रियाएं देने लगते हैं.

मुझे भी शुरुआती दो एपिसोड देखने पर यही लगा. मैंने यह सोचा और कहा भी कि स्वरा ने पता नहीं क्यों इस सीरीज को चुना.लेकिन जब सीरीज आगे बढ़ती है तो उसका शुरुआती ‘हल्कापन’ धीरे धीरे तह के नीचे बैठने लगता है और सतह पर आते हैं वो जरूरी सवाल जो इस मर्दवादी समाज में औरत को अपनी फंतासियों में गढ़ते हैं और आनंदित होते हैं.

वो दृश्य याद करें जब केबल का कनेक्शन लगाने गया बंदा चटखारे लेकर अपने दोस्तों को शानू बंसल मैडम के घर पर हुयी घटना का ज़िक्र कर रहा है. जिसे उसके बगल की टेबिल पर बैठा स्कूल का टीचर सहकर्मी सुन रहा है और अगले दिन वो शानू बंसल मैडम को स्टाफ रूम में अन्य शब्दों में सेक्स करने की पेशकश कर देता है.घटनाओं का चटखारे लेकर वर्णन करने का यही आनंद शानू बंसल मैडम का एक ‘बरक्स’ इस सीरीज में रचता है जो महज़ एक काल्पनिक पात्र है. शानू बंसल मैडम का रसभरी में रूपांतरण का मुख्य घटक मर्दों की यौन फंतासियां ही हैं.

‘रसभरी’ मर्दों की कल्पना का एक सजीव पात्र है.सीरीज के अंत तक भी हमारे पास कुछ अटकलें हैं जो नन्द के मार्फत हम तक पहुंचती हैं और वो ये कि ‘संभव है कि शानू बंसल मैडम ही रसभरी हों’. इसे पुख्ता तौर पर कहने की गुंजाइश इस सीरीज में है नहीं.

“जाकी रही भावना जैसी,प्रभु मूरत देखी तिन तैसी” तुलसी दास ने यूं ही तो नहीं लिखा था और यूं हीं उन्हें कालजयी नहीं कहा जाता. रसभरी वस्तुत: एक भावना ही है. जो मेरठ शहर के मर्दों के मन में पैदा होती है और उससे पहले जो भावना हापुड़ शहर के मर्दों में पैदा हुई थी शानू बंसल मैडम को देखकर.

इन्हीं फंतासियों के प्रभाव में कैद हैं‘नन्द’ जो मैडम के बारे में सुने हुए किस्सों के आधार मैडम को चूम लेता है और उल्टा उन्हें ही कहता है कि मेरे साथ आपको क्या दिक्कत है और इसी संवाद में वो उन सबके नाम गिनाता है जिनसे उसने रसभरे किस्से सुने हुए हैं.

रसभरी की सफलता इसमें है कि वो मेरठ शहर में भले ही एक सनसनी बना दी जाती है पर अंतिम दृश्य में सारे मर्द उसके लहराते दुपट्टे के पीछे पागल हुए दिखलाए जाते हैं और अंत में खुद को एक ऐसे शख़्स के सामने खड़ा पाते हैं जिसे लेकर मर्द असहज हो जाते हैं. यह अंतिम दृश्य अगर कहानी का उपसंहार है तो यहीं आकर सीरीज स्टीरियोटाइप का शिकार भी हो जाती है.

शहर के मर्द अपनी पत्नियों से छिपकर शानू बंसल मैडम की क्लास की लालच में पागल हुए एक जगह पहुंचते हैं. एक लहराते दुपट्टे का प्राणपन से पीछा करते हैं जो एक घर में विलुप्त हो जाता है. उस घर से एक ट्रांस जेंडर बाहर निकलता है जिसका सामना होने से मर्दों का उत्साह ठंडा हो जाता है. यहां एक फूहड़ हास्यबोध रचा गया है जो घनघोर ढंग से अश्लील है. इसमें ट्रांस का सोद्देश्य मज़ाक का पात्र बनाया गया है. अगर प्रसून जोशी वास्तव में एक लोकतान्त्रिक समझ के व्यक्ति होते तो उन्हें इस दृश्य पर आपत्ति उठाना चाहिए थी.

छोटे शहरों की घरेलू औरतों का हास्य बनाने के लिए जो सामान्यीकरण किया गया है वो भी एक कमजोर पक्ष है. पूरे माहौल को इस कदर स्टीरियोटाइप बनाकर कथानक से किसी बड़े प्रगतिशील उपसंहार की उम्मीद बेमानी हो जाती है.क्या वाकई छोटे शहरों की औरतें इतनी ही दकियासूनी, शक्की और परपीड़कहैं?

इक्कीसवीं सदी का तमाम खुलापन और बेबाकी और दूसरे को जगह का लोकतान्त्रिक अभ्यास और प्रशिक्षण केवल शहरी, अंग्रेज़ीदा, स्मार्ट, स्लीवलेस ब्लाउज़ पहनने वाली औरतों के हिस्से ही आया है?शानू बंसल मैडम की क्लास में नन्द की सहपाठी और बाद में उसकी प्रेमिका प्रियंका और उसकी सहेलियों की अम्माएं भी क्या इसी श्रेणी में आएंगीं? यहां फिर से सीरीज छोटे शहरों की औरतों की छवि रचने की जबरन कोशिश करती हैं जिससे थोड़ा हास्य तो पैदा होता है और कहानी को गति भी देती है लेकिन अंतत: कहानी के उस व्यापक उद्देश्य के खिलाफ ही जाता है जिसे लेकर ‘शायद’ यह सीरीज बनाई गयी.

छोटी बच्ची के रूप में खुद शानू बंसल मैडम जब एक पारिवारिक अवसर पर डांस करती है और उसका पिता उसे रोक देता है और शायद जिसकी गहरी चोट शानू बंसल के बालमन पर पड़ती है और ताउम्र उसके साथ रहती है. शायद इस घटना का प्रभाव ही है जिसे शानू बंसल मैडम का पति ‘पर्सनालिटी डिसॉर्डर’ बताता है.

इसी दृश्य पर ‘आपमें एक फकीरी देखी है’ जैसा अंतरराष्ट्रीय स्तर का संवाद लिखने वाले औसत गीतकार लेकिन सत्ता के सम्मुख नतमस्तक बड़े इवेंट मैनेजर प्रसून जोशी को गंभीर आपत्ति है. जिसे उन्होंने स्वरा भास्कर पर कीचड़ उछालने के उद्देश्य से अपने ट्विटर पर शाया किया है.जिसका जवाब स्वरा ने बहुत गहरे राजनैतिक अर्थों से दिया है- वो बच्ची सामान्य ढंग से डांस कर रही है जिसे उसके पिता के दोस्त इसको ‘सेक्सुलाइज्ड’ कर देते हैं. इसमें उस बच्ची का क्या दोष? प्रसून ने उस दृश्य को अश्लील कह दिया है. शायद उन्हें वह साक्षात्कार याद नहीं है जो उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका में एक भव्य समारोह में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से किया था और जिसे इतिहास में लंबे समय तक अश्लीलतम कहा जाने वाला है. बहरहाल.

यह सीरीज बाहर से जो दिखाई देती है उससे ज़्यादा ये मन के अंदर की कार्यवाहियों से संचालित है. इसे इसलिए नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि घर में फुर्सत है. अमेज़न प्राइम पर उपलब्ध है और सोशल मीडिया पर इसका प्रचार है. इसे इसलिए भी नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि इसमें स्वरा भास्कर हैं. बल्कि इसलिए देखा जाना चाहिए कि जो नज़रें और नज़ारे आपने ‘चमन बहार’ में देखे हैं उनका आंतरिक विश्लेषण यहां बहुत बारीकी से हुआ है.

अब ‘चमन बाहर’आप चाहें तो पहले देख लें या ये देखने के बाद देखें आपको एक संबंध इनके कथानक में मिलेगा और संभव है कि उनके बीच एक घनिष्ठता भी आपको दिखलाई पड़े. हालांकि इसमें भी छोटे कस्बों पर सिनेमाई शगल गालिब कर दिये गए हैं जो न तो ठीक से हास्य पैदा कर पाते हैं और न ही प्रामाणिकता की कसौटी पर खरे उतरते हैं.

ठीक है कुछ दिन यही शौक चर्राया है नए-नए निर्देशकों को तो यही सही. बाकी छोटे शहर इतने भी छोटे नहीं होते कि एक महिला को लेकर इस तरह की कुंठित फंतासियांरचें और उसमें पूरा शहर ही किसी एक महिला की बेइज्जती पर उतारू हो जाये.

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