कांग्रेस पार्टी की अनुकंपा तले गहरे दबे हिंदुस्तान टाइम्स और उसके मालिकान बिरला परिवार की बेरुखी की कहानी.
19 अप्रैल को अंग्रेजी अख़बार हिन्दुस्तान टाइम्स ने इतिहासकार रामचंद्र गुहा का पाक्षिक कॉलम छापने से मना कर दिया. द वायर पर लिखे अपने स्पष्टीकरण में रामचंद्र गुहा ने कहा है कि अखबार ने उनसे कहा कि इस लेख के बदले कुछ और लिखकर दें. गुहा के मुताबिक उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया. उस लेख को द वायर ने जस का तस छापा है.
उस लेख में नरेन्द्र मोदी की ‘हजारों ख्वाहिशों’ में सबसे नयी ख्वाहिश सेन्ट्रल विस्टा परियोजना का आंशिक रूप से विरोध किया गया था. गुहा के अनुसार देश के इस माहौल में इस लोकतांत्रिक सरकार को यह शोभा नहीं देता है कि इस परियोजना पर इतना पैसा खर्च करे. रामचंद्र गुहा के इस पूरे लेख को पढ़ने से वैसा कहीं से भी नहीं लगता है कि यह लेख प्रधानमंत्री के छह साल के क्रियाकलाप पर कोई गंभीर सवाल उठा रहा है, बल्कि इस लेख का मतलब कुछ इस तरह से निकलता है कि सेन्ट्रल विस्टा परियोजना कोई बढ़िया काम नहीं है.
रामचन्द्र गुहा अपने लेख में न्यूज़लॉन्ड्री पर अल्पना किशोर के लिखे एक लेख का जिक्र करते हैं, जो तथ्यात्मक रूप से इस परियोजना का विरोध करता है. उस लेख में यह बताया गया है कि कैसे इंग्लैंड की सरकार साढ़े तीन सौ साल पुराने संसद भवन को तोड़कर नया संसद भवन बनवा रही है. हकीकत यह है कि रामचंद्र गुहा के इस लेख से ज्यादा गंभीर अल्पना किशोर का लेख है. फिर भी, हिन्दुस्तान टाइम्स ने उस लेख को छापने से मना कर दिया. वैसे, राम गुहा ने अपने लेख में यह डिसक्लेमर जरूर दिया है कि अखबार ने उनसे कहा है कि अगर अपना कॉलम जारी रखना चाहते हैं तो वह आगे भी लिख सकते हैं.
मतंव्य बहुत ही स्पष्ट है कि उन्हें वैसा ही लिखना होगा जो मोदी सरकार के खिलाफ न हो. कुल मिलाकर राम गुहा सचिन तेंदुलकर के स्ट्रेट डाइव, सुनील गावास्कर के क्रिकेट के ऐतिहासिक पलों का विस्तार से वर्णन करते रहें, बस मौजूदा सरकार के खिलाफ कुछ न बोलें.
वैसे भी, रामचन्द्र गुहा जैसे इंटेलेक्चुअल उस श्रेणी में आते हैं जो सामान्यतया राजसत्ता के खिलाफ न्यूनतम सवाल उठाते हैं. ये वही रामचन्द्र गुहा हैं जिन्होंने सबसे पहले कहा था कि नरेन्द्र मोदी फासिस्ट नहीं हैं. वह 2014 के पहले का दौर था जब मोदी को इस तरह के सर्टिफिकेट की बहुत ज़रूरत थी.
बहरहाल इस बहाने मीडिया का हाल समझने के लिए पिछली कुछ घटनाओं की कवरेज पर गौर करना चाहिए. 16 अप्रैल को कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने एक प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित किया था. वह प्रेस कांफ्रेंस लगभग एक घंटे से अधिक चली थी लेकिन अगले दिन देश के दो सबसे बड़े अखबारों ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ (टीओआई) और ‘द हिन्दुस्तान टाइम्स’ (एचटी) ने उनकी खबर को छापने से लगभग पल्ला झाड़ लिया.
हिन्दुस्तान टाइम्स ने अगले दिन राहुल गांधी की उस प्रेस कांफ्रेंस को पेज नंबर 4 पर कोरोना नोट्स कॉलम में 132 शब्दों में छापा है जबकि टाइम्स ऑफ इंडिया ने पेज 6 पर 136 शब्दों में छापा. एचटी की उस रिपोर्ट की सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी है कि ज़ूम एप से संबोधित उस प्रेस कांफ्रेंस में कांग्रेस कवर करने वाले पत्रकार ने भी सवाल पूछा था, फिर भी उस ख़बर को प्राथमिकता के आधार पर नहीं छापा गया. देश की मुख्य विपक्षी पार्टी के नेता की प्रेस कॉन्फ्रेंस को इतनी भर तरजीह दे पाए दोनों बड़े अखबार.
जिस किसी ने भी राहुल गांधी की उस दिन की प्रेस कांफ्रेंस को देखा था वह कह सकता है कि राहुल गांधी ने उस दिन प्रधानमंत्री मोदी को पूरी तरह समर्थन दिया था. राहुल गांधी ने कहा था कि आज के दिन जो हालात हैं, वैसे हालात में प्रधानमंत्री का समर्थन करना ही पड़ेगा. फिर भी मुख्यधारा के दोनों बड़े अखबारों ने इसे रत्ती भर वरीयता नहीं दी.
अन्य देशों की तरह हमारे देश में भी मीडिया को ‘फोर्थ एस्टेट’ कहा जाता है लेकिन हमारे देश में मीडिया घरानों के साथ परेशानी यह है कि अपवादों को छोड़कर सभी मीडिया घराने सरकार से उपकृत होते रहे हैं और सरकारी अनुकम्पा से ही फले-फूले हैं. उदाहरण के लिए, हिन्दुस्तान टाइम्स को लिया जा सकता है.
इस अखबार और इसके मालिकान को आजादी से पहले कांग्रेस पार्टी ने बड़ा बनाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है. घनश्याम दास बिड़ला को महात्मा गांधी के नजदीकी होने का बहुत लाभ मिला. इसका परिणाम हुआ कि बिड़ला ग्रुप लंबे समय तक देश का सबसे बड़ा औद्योगिक समूह बना रहा. इसी नजदीकी के कारण केके बिड़ला को कांग्रेस पार्टी ने तीन बार राज्यसभा में भी भेजा. बाद में 2006 में केके बिड़ला की बेटी शोभना भरतिया को भी राज्यसभा में भेजा गया. वही इन दिनों एचटी मीडिया की कर्ताधर्ता हैं.
जब देश के हालात इतने खराब हैं तो कायदे से मीडिया घरानों को विपक्षी दलों के साथ खड़ा होने की जरूरत है, लेकिन हमारे देश के लगभग सभी मीडिया घराने सरकार के सामने नतमस्तक हैं. कुछेक ही घराने हैं जो खानदानी रूप से विशुद्ध पत्रकारिता में होने के नाते अब तक अपवाद बने हुए हैं, जैसे दिल्ली प्रेस, जो कारवां पत्रिका निकालता है. इस बात को सामान्यतया सभी लोग समझते हैं कि लोकतंत्र में ही, चाहे वह समाजवादी हो या पूंजीवादी, कोई भी व्यापार ठीक से फलेगा, न कि तानाशाही व्यवस्था में. फिर सवाल उठता है कि क्या कारण है कि हर पूंजीपति वर्ग सरकार के सामने झुक जाता है और वही करने के लिए बाध्य होता है जो सरकार चाहती है?
बिड़ला घराना ही नहीं बल्कि देश के किसी भी औद्योगिक घराने की राष्ट्र निर्माण में कितनी भूमिका रही है, इस पर आज तक ठीक से सवाल नहीं उठाये गये हैं. अगर इस पर सवाल उठाये जाएंगे तो इसका जवाब कोई भी उद्योगपति इतनी आसानी से नहीं दे पाएगा. लेकिन उद्योग घरानों पर सरकारों के जरिए देश ने जितनी मेहरबानी की है इसके सारे सबूत सरकारी रिकार्ड में जगह-जगह भरे पड़े हैं. उदाहरण के लिए बिड़ला घराने को फिर से लिया जा सकता है.
इस बात पर किसी को शक नहीं होगा कि बिड़ला के यहां जब महात्मा गांधी ठहरते थे तो इसका अप्रत्यक्ष लाभ उस घराने को मिलता था, लेकिन उसी बिड़ला सदन में जब 30 जनवरी,1948 को नाथूराम गोडसे ने गांधीजी की गोली मारकर हत्या कर दी तब उसे गांधी स्मृति बनाने के लिए बिड़लाजी ने तमाम अड़ंगे डाले. सरकार से 18 वर्षों की लंबी सौदेबाजी के बाद बिड़ला ने 1966 में वह संपत्ति सरकार को सौंपी, लेकिन उसके बदले में उन्होंने भारत सरकार से बाजार दर पर मोटी रकम वसूली. महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी ने अपनी किताब ‘लेट अस किल गांधी’ में इस बात का विस्तार से जिक्र किया है कि उस ज़मीन को सरकार को सौंपने के लिए बिड़ला ने कितना मुनाफा कमाया.
तुषार गांधी के अनुसार 1966 में उस संपत्ति के बदले बिड़ला ने 5.4 मिलियन (54 लाख) रुपये लिए और उस ज़मीन के बदले लुटियन्स जोन में ही सात एकड़ जमीन अलग से ली. इतना ही नहीं, बिड़ला परिवार ने वहां मौजूद आम, अमरूद, खीरा, टमाटर और यहां तक कि मिर्ची के पौधों तक के पैसे भारत सरकार से वसूले. ये वो बिड़ला परिवार था जिसने गांधीजी के जीते-जीउनसे निकटता का हरलाभ उठाया और उनकी हत्या के बाद भी उठाते रहे.
हमारे देश में उद्योगपतियों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे बिना सरकारी अनुकम्पा के चल ही नहीं सकते. इससे भी बड़ी समस्या यह है कि इनका इकलौता ‘धंधा’ मीडिया नहीं है (दिल्ली प्रेस और ट्रिब्यून को छोड़कर). इसका परिणाम यह होता है कि मीडिया समूह के कई धंधों में होने से सरकार उसे कई तरह से बाध्य करती है कि वह उसके सामने घुटने टेके.
देश के कई मीडिया समूह तो वैसे हैं जिन्होंने अपने व्यापार को सुरक्षित रखने के लिए मीडिया में पूंजी निवेश किया जबकि कुछ मीडिया समूह वैसे भी हैं जो मीडिया में आने के बाद दूसरे व्यापार में घुसे. इसलिए मीडिया घराने सरकार के सामने नतमस्क रहते हैं, भले ही कोई भी सरकार हो. इसका सबसे बढ़िया उदाहरण बिड़ला औद्योगिक समूह का एचटी मीडिया है.
1930 के दशक में डॉक्टर आंबेडकर ने पत्रकारिता के बारे में बहुत कायदे की बात कही थीः
“भारत में पत्रकारिता पहले एक पेशा थी. अब वह एक व्यापार बन गयी है. अख़बार चलाने वालों को नैतिकता से उतना ही मतलब रहता है, जितना कि किसी साबुन बनाने वाले को. पत्रकारिता स्वयं को जनता के ज़िम्मेदार सलाहकार के रूप में नहीं देखती. भारत में पत्रकार यह नहीं मानते कि बिना किसी प्रयोजन के समाचार देना, निर्भयतापूर्वक उन लोगों की निंदा करना– जो ग़लत रास्ते पर जा रहे हों– फिर चाहे वे कितने ही शक्तिशाली क्यों न हों, पूरे समुदाय के हितों की रक्षा करने वाली नीति को प्रतिपादित करना उनका पहला और प्राथमिक कर्तव्य है.”