बहुजन राजनीति में आज़ाद दस्तक

क्या चन्द्रशेखर आजाद नई पार्टी के जरिए मायावती और बसपा के लिए बड़ी चुनौती बन सकते हैं?

WrittenBy:बसंत कुमार
Date:
Article image

9 अक्टूबर, 2017 को बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के संस्थापक कांशीराम की दसवीं पुण्यतिथि के मौके पर लखनऊ में मायावती ने एक विशाल रैली का आयोजन किया था.

रैली में हज़ारों की संख्या में देश के अलग-अलग हिस्से से लोग लखनऊ पहुंचे थे. वहीं मेरी मुलाकात कांशीराम के साथ काम कर चुके बीएसपी के कई बुजुर्ग नेताओं और कार्यकर्ताओं से हुई जो कांशीराम की वजह से अब तक पार्टी में बने हुए थे.

उन बुजुर्ग कार्यकर्ताओं में मायावती से सख्त नाराज़गी थी. उनका मानना था कि मायावती अब कांशीराम के आंदोलन और मिशन को भूल गई हैं. आज वो दलित की बेटी नहीं, दौलत की बेटी बन गई हैं.

बलिया के रहने वाले अधिवक्ता राम सरिक (68 वर्षीय) शुरू से कांशीराम से जुड़े हुए थे. उन्होंने तब कहा था, ‘‘पहली बार कांशीरामजी को बलिया लाने का काम मैंने ही किया था. पार्टी के शुरूआती दिनों के छह साल तक बलिया में पार्टी कार्यालय मेरे अपने मकान में था. धीरे-धीरे पार्टी पर पैसे वालों का कब्जा होता गया. आज पार्टी में दलितों-गरीबों को कोई नहीं पूछने वाला. मायावती पैसे वालों को टिकट दे रही हैं.’’

बीते 15 मार्च को कांशीराम के जन्मदिन पर युवा दलित नेता चन्द्रशेखर आजाद ने ‘आज़ाद समाज पार्टी’ का गठन कर लिया. जिसमें बीएसपी के कई पूर्व नेता शामिल हुए. आजाद भी उसी कांशीराम और आंबेडकर की विचारधारा को आगे ले जाने की बात करते नज़र आते हैं जिनकी बात बीएसपी करती रही है. पार्टी के निर्माण के बाद आजाद ने नारा दिया.

साहब कांशीराम तेरा मिशन अधूरा

आज़ाद समाज पार्टी करेगी पूरा.

मायावती और चन्द्रशेखर

मायावती ने कई दफा चन्द्रशेखर पर तीखा हमला किया है. उन्हें आरएसएस का एजेंट तक बताया, लेकिन चन्द्रशेखर ने इस मामले में सावधानी बरतते हुए अब तक उनको लेकर एक चुप्पी ओढ़े रखी है. लेकिन पार्टी के निर्माण के बाद चन्द्रशेखर ने सीधे रूप से बीएसपी और मायावती पर सवाल उठाया है.

पार्टी के निर्माण के बाद इंडियन एक्सप्रेस में चन्द्रशेखर आजाद ने एक लेख लिखकर बताया कि आखिर आजाद पार्टी की ज़रूरत क्यों पड़ी. इस लेख में आजाद लिखते हैं, ‘‘कांशीरामजी ने हमें सिखाया कि हमें अपने अधिकारों के लिए कैसे लड़ना है. लेकिन उनका सपना अब भी अधूरा है. हमारा उद्देश्य उस सपने को पूरा करना और शोषितों और बहुजनों को सत्ता दिलाना है. नए राजनीतिक दल के गठन का प्राथमिक उद्देश्य और एजेंडा यह सुनिश्चित करना है कि संविधान को बेहतर तरीके से लागू किया जाय.’’

आज़ाद ने अपने लेख में लिखा,‘‘बीएसपी बहुजनों के हित के लिए लड़ती रही हैं, लेकिन कांशीरामजी का मिशन पूरा होना अभी बाकी है. दुर्भाग्य से, कांशीरामजी की मृत्यु के बाद बसपा ने अपने सिद्दांतों से समझौता किया. पार्टी में दलित-बहुजन की भूमिकाओं को कम किया गया और उच्च जातियों, पैसेवालों को सत्ता के पदों पर पहुंचाया जाने लगा. इससे बसपा का चुनावी पतन हुआ. आज बीएसपी को लेकर बहुजन समाज में गहरा असंतोष है.’’

क्या बीएसपी से दलितों का मोहभंग हुआ?

साल 2014 में नरेंद्र मोदी का सितारा केंद्रीय राजनीति में चमकने के बाद से कई तरह के जातीय समीकरण टूटते नज़र आए हैं, उनमें से एक मिथक दलित वोटों का बीएसपी के प्रति एकमुश्त झुकाव का भी टूटा है. एक दौर में उत्तर प्रदेश में दलितों के वोटों पर अपना एकाधिकारी समझने वाली बीएसपी 1984 में अपने गठन के बाद 1997 तक आते-आते एक राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा पा चुकी थी.

साल 2009 के लोकसभा चुनाव में 21 सीटें जितने वाली बहुजन समाज पार्टी साल 2014 के लोकसभा चुनाव में अपना खाता तक नहीं खोल पाई. 2014 लोकसभा चुनाव के तीन साल बाद यूपी में विधानसभा का चुनाव हुआ तो बीएसपी के महज 19 विधायक विधानसभा पहुंचे और वोट प्रतिशत गिरकर 22 पर आ गया.

साल 2007 के विधानसभा चुनाव में जब बहुजन समाज पार्टी को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ था तब उसे पूरे प्रदेश का 30.4 प्रतिशत वोट मिला था. तब बीएसपी ने रिकॉर्ड 206 सीटें जीती थी. वही बीएसपी पांच साल बाद 2012 में 80 सीटों पर आ गई. उसे प्रदेश में सिर्फ 25.91 प्रतिशत वोट हासिल हुआ. 2017के विधानसभा चुनाव में 22.2 फीसदी वोट के साथ बीएसपी महज 19 सीटों पर सिमट गई. इसके बाद से बीएसपी के अस्तित्व पर सवाल खड़े होने लगे हैं. विशेषकर भविष्य के नेतृत्व को लेकर अस्पष्टता और मायावती की आत्मकेंद्रित राजनीति ने लोगों का पार्टी से मोहभंग तेज़ किया है.

अस्तित्व के संकट से दो-चार बीएसपी ने साल 2019 के लोकसभा चुनाव में अपना सबसे बड़ा दांव खेला. लम्बे समय से शत्रु पार्टी सपा से गठबंधन कर मैदान में उतरी. सीटों के मामले में जरूर बीएसपी शून्य से 10 के आंकड़े तक पहुंच गई लेकिन वोट प्रतिशत में आई गिरावट ने उसकी कलई खोल दी. उसका वोट 19.3% तक गिर गया. यह बात साफ हो गई कि दलित वोटों पर जिस एकाधिकार का दावा मायावती करती रही हैं, वह भी अब उनके कहने-सुनने में नहीं रहा.

लोकसभा में उनकी सीटें भले ही दस हो गई हों लेकिन इसमें सपा के साथ हुए गठबंधन की बड़ी भूमिका है. इस चुनाव में सपा को भी काफी नुकसान का सामना करना पड़ा. अखिलेश यादव के परिवार के ही कई लोग चुनाव हार गए.

उत्तर प्रदेश के 80 लोकसभा सीटों में से 17 एसी-एसटी के लिए आरक्षित हैं. 2014 लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने सभी 17 सीटों पर कब्जा कर लिया था. 2019 लोकसभा चुनाव में बसपा का सपा से गठबंधन रहा तब इसमें से दो सीटें बीएसपी जीत पाई थी. बाकी पंद्रह सीटों पर बीजेपी का ही कब्जा रहा था.

नरेंद्र मोदी के उभार के बाद से बीएसपी लगातार सिकुड़ रही है. ये स्थितियां निश्चित तौर पर बीएसपी का स्थान रिक्त होते जाने का संकेत करती हैं, लिहाजा दलित अस्मिता और पहचान आधारित राजनीति के लिए उत्तर प्रदेश में थोड़ा ही सही, एक ज़मीन तो मौजूद है.

मायावती के लिए आजाद एक चुनौती

दलितों पर देश के अलग-अलग हिस्सों में हुए अत्याचार पर मायावती का चुप रहना हो या केंद्र की बीजेपी सरकार के हर फैसले पर उसका समर्थन करना हो. जमीन पर उतरकर सरकार का विरोध करने की बजाय कभी-कभार ट्वीट करके विरोध जताने आदि कई आरोप बीएसपी प्रमुख मायावती पर लगते रहे हैं.

जिन मसलों पर मायावती चुप रहीं उन मामलों पर चन्द्रशेखर लगातार सड़कों पर उतरते रहे, जेल जाते रहे. उन्हें कई बार योगी सरकार ने जेल में डाला. उन्हें रासुका के तहत जेल में रखा गया. दिल्ली में डीडीए द्वारा रविदास मंदिर तोड़ने के खिलाफ चन्द्रशेखर ने बड़ा आंदोलन किया. जिसके बाद उन्हें महीनों जेल में बिताना पड़ा. गुजरात में जब दलितों पर हमले हुए तो चन्द्रशेखर वहां भी गए और कड़ा विरोध जताया.

चन्द्रशेखर ना सिर्फ दलितों के लिए सड़क पर उतरे बल्कि सीएए कानून बनने और एनआरसी लाने के सरकार के फैसले के खिलाफ जब मुस्लिम समुदाय सड़क पर उतरा तो चन्द्रशेखर जामा मस्जिद पर धरना देने भी गए. यहां दिल्ली पुलिस ने उन्हें हिरासत में ले लिया.

दूसरी तरफ 2014 से अब तक बीएसपी के कई बड़े नेता पार्टी से नाराज़ होकर अलग हो गए या बाहर कर दिए गए. वे आज बीजेपी और कांग्रेस में हैं. कहीं ना कहीं बीएसपी जमीन पर काम करने वाले नेताओं की कमी से जूझ रही है. बीते दिनों में मायावती के भीतर एक और बदलाव दिखा है परिवारवाद का. मायावती कार्यकर्ताओं को जिम्मेदारी देने के बजाय अपने भाई और भतीजे को पार्टी के बड़े ओहदों पर बिठा चुकी हैं.

ऐसे में चन्द्रशेखर आजाद ने नई दलित अस्मिता की पार्टी बनाकर मायावती को एक बड़ी चुनौती दे दी है. आजाद की नज़र भी उसी दलित और मुस्लिम वोट बैंक की तरफ है जिसपर बीएसपी की पकड़ रही है. और जिसके सहारे मायावती उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी हैं.

दलित वोटों में बंटवारा?

कांशीराम की जीवनी लिख चुके बद्रीनारायण कहते हैं, ‘‘चन्द्रशेखर के पार्टी बनाने से दलित वोटों में बंटवारा शुरू होगा जिसका शुरुआती फायदा बीजेपी को होगा. देखना होगा कि चन्द्रशेखर दलित वोटरों को अपनी पक्ष में कितना खींच पाते हैं. अगर वे ऐसा कर लेते हैं तो वे दलित राजनीति के नेता के तौर पर उभरेंगे. अगर नहीं खींच पाए तो दोनों एक दूसरे का वोट काटेंगे और उसका फायदा दूसरी पार्टियों को होगा.’’

चन्द्रशेखर ने इंडियन एक्सप्रेस के अपने लेख में बीएसपी पर नेतृत्व में बहुजनों की भूमिका कम करने का आरोप लगाया है. वहीं बीच-बीच में बीएसपी पर सवर्णों को टिकट देने का आरोप भी लगता रहा है. ऐसे आरोप पर बद्रीनारायण कहते हैं, ‘‘दलित वोट अगर एक जगह इकठ्ठा हो भी जाए तब भी उत्तर प्रदेश विधानसभा में 60-65 सीटें ही जीत सकता है. उससे ज्यादा पाने के लिए अलग-अलग समुदाय के लोगों का वोट जोड़ना ही पड़ेगा. उसे किसी ना किसी समुदाय का साथ लेना ही पड़ेगा चाहे ओबीसी से ले या सवर्णसे ले.’’

इंडिया टुडे पत्रिका के पूर्व संपादक दिलीप मंडल ‘द प्रिंट’ वेबसाइट पर लिखे अपने लेख में कहते हैं, ‘‘बेशक चंद्रशेखर मनुवाद से लड़ने की बात कर रहे हैं लेकिन उनकी असली कोशिश मायावती के मुकाबले खुद को विश्वसनीय दलित-बहुजन नेता के तौर पर पेश करने की है.’’

जो बात मंडल कह रहे हैं वही आज़ाद की सियासी कसौटी बनेगी. विश्वसनीयता और लंबे समय तक संघर्ष करने का माद्दा ये दोनों चीजें आज़ाद को अभी अर्जित करना बाकी है.

बीएसपी के होते आजाद समाज पार्टी का बनना क्या दलित वोटों को दो हिस्सों में नहीं बांट देंगा. जिस तरफ बद्रीनारायण इशारा कर रहे हैं. इस सवाल के जवाब में दिलीप मंडल कहते हैं, ‘‘दलितों की आबादी इस देश में 16 प्रतिशत से ज्यादा है, वहीं यूपी में लगभग 20 प्रतिशत है. यह एक बड़ी संख्या है. ये संख्या अपने लिए सबसे उचित पार्टी का चयन करे इसके लिए ज़रूरी है कि उसके पास विकल्प हों. उस विकल्प में बीएसपी बेहतर सबित हो या कोई और पार्टी हो.’’

दिलीप मंडल आगे कहते हैं, ‘‘दलितों की इस देश में एक से ज्यादा पार्टियों की गुंजाइशहै. इस देश में सवर्णों के नेतृत्व वाली कई पार्टियां हैं जिसमें से मुख्य रूप से कांग्रेस, बीजेपी और लेफ्ट है. उनमें से कोई ग्रुप अपने लिए बेहतर विकल्प चुनता है वैसे ही दलितों के लिए कई विकल्प हों तो इसमें कोई दिक्कत नहीं है. और दूसरी बात यह है कि कोई पार्टी जब ढलान पर होती है तो उसका वोट इधर-उधर छिटकता है. ये दुनिया में हर पार्टी के साथ होता है. अगर बीएसपी का कुछ वोट प्रतिशत इधर-उधर छिटक रहा है तो वो कहीं ना कहीं तो जा रहा है. अगर वह छिटककर एक दलित पार्टी के पास जाता है तो मेरे ख्याल से यह बेहतर स्थिति होगी.’’

दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर लक्ष्मण यादव, आज़ाद द्वारा पार्टी बनाने के निणर्य को ठीक बताते हैं. वो कहते हैं,‘‘दलित समुदाय के लोग अम्बेडकर के बाद किसी को अपने करीब पाते हैं तो वो कांशीराम है. कांशीराम के साथ काम करने और उनकी विरासत संभालने की वजह लोग मायावती के भी करीब गए. यूपी में हम देखते हैं कि दलित समुदाय में जो पुरानी पीढ़ी है वो अभी भी मायावती से भावना के स्तर पर जुड़ी हुई है. पूर्वी उत्तर प्रदेश के नौजवानों में भी मायावती की पकड़ है लेकिन प्रदेश के बाकी जगहों पर चन्द्रशेखर की पकड़ युवाओं में साफ़ देखी जा सकती है. खासकर पश्चिमी यूपी में.’’

प्रोफेसर यादव आगे कहते हैं, ‘‘अभी जो राजनीतिक निर्णय मायावती ले रही है. उस स्थिति में मायावती का कमजोर होना दलितों के लिए फायदेमंद होगा. चन्द्रशेखर हर मामले पर खुलकर बोल रहे हैं. दलितों के लिए लड़ रहे हैं तो ऐसे भी उनके आगे बढ़ने में कोई दिक्कत नहीं है.’’

चन्द्रशेखर का भविष्य

चन्द्रशेखर के भविष्य को लेकर बद्रीनारायण कहते हैं, ‘‘चन्द्रशेखर लगातार काम कर रहे हैं. हर वक़्त दिखाई पड़ते हैं. मेहनती है. लेकिन उनकी राजनीति अभी पश्चिमी यूपी, दिल्ली और पंजाब तक ही सीमित है. अभी वे बिहार, पूर्वी यूपी समेत कई इलाकों में गए भी नहीं है. तो अभी इनको अपने को फैलाना है.

चंद्रशेखर के भविष्य को लेकर दिलीप मंडल कहते हैं, ‘‘मैं उन्हें भारतीय राजनीति की संभावना के रूप में देखता हूं. उनका भविष्य क्या होगा इसपर कुछ नहीं कह सकता.’’

लक्ष्मण यादव चन्द्रशेखर के भविष्य को लेकर कहते हैं, ‘‘चन्द्रशेखर ने अपनी पार्टी की घोषणा करते हुए कहा कि हम कांशीराम के विचारों को लेकर आगे चलेंगे. कांशीराम 85 प्रतिशत बहुजन की बात करते थे. जिस समय ओबीसी नेता मुलायम सिंह यादव मंडल कमिशन पर बोल नहीं रहे थे उस वक़्त में कांशीराम ने छह सौ रैलियां मंडल कमीशन लागू कराने के लिए की थी. कांशीराम ओबीसी, दलित मुस्लिम सबको साथ लेकर चलने की बात करते थे. ठीक वैसे ही जैसे चन्द्रशेखर मुस्लिम-दलित गठजोड़ की बात कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि हम सिर्फ मुस्लिम और दलित गठजोड़ को लेकर ही नहीं चलेंगे बल्कि ओबीसी को भी साथ लेंगे. अगर इस लाइन पर चन्द्रशेखर चलते हैं तो उनका भविष्य बेहतर हो सकता है. क्योंकि उनके पास एक विजन है. जिसमें मायावती फ़िलहाल असफल दिख रही हैं.’’

Comments

We take comments from subscribers only!  Subscribe now to post comments! 
Already a subscriber?  Login


You may also like