बिना किसी खास एक्शन प्लान के, सिर्फ मौसम के सहारे बैठना हमें हर साल स्माग रिटर्न की भेंट देता रहेगा.
एनसीआर की हवा में प्रदूषण एक बार फिर खराब स्तर पर लौट रहा है. खराब स्तर की हवा भी हमारे लिए अब सुकून की बात है. इस साल भी हमने न केवल स्मॉग बल्कि स्माग रिटर्न भी देखा और भोगा है. ऑड-इवेन (सम-विषम) योजना और पराली की बहस में यह साल पार हो रहा है. मौसम ने साथ दिया और पराली में आई कमी ने दिल्ली-एनसीआर को बीच में थोड़ी सी राहत बख्शी है. यह कितनी टिकाऊ होगी, भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है. क्योंकि ठंड आने के साथ ही कभी भी धुंध और धुएं का मिश्रण यानी स्मॉग लौट सकता है.
ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान (ग्रेप) के मुताबिक यदि पीएम 2.5 का स्तर 48 घंटे तक लगातार 300 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर या उससे ऊपर बना रहता है तो दिल्ली-एनसीआर में स्कूल बंद करने, उद्योग, निर्माण आदि को बंद करने का निर्णय लेना पड़ता है. सवाल यही है कि आखिर हवा के गंभीर स्तर में दाखिल होने के बाद 48 घंटे का इंतजार क्यों करना.
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने भी इस प्रक्रिया पर सवाल उठाया था, लेकिन इस पर पुनर्विचार नहीं हो पाया. चीन में पीएम 2.5 का स्तर 24 घंटे के सामान्य स्तर 60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से जैसे ही 100 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर को पार करता है वहां अलर्ट जारी कर दिया जाता है. जबकि भारत में अभी हवा के गंभीर स्तर में दाखिल हो जाने के बाद 48 घंटे तक इंतजार करना पड़ता है. तीन वर्षों के भीतर (2017-19) दिल्ली में तीन बार आपात स्थितियों की घोषणा हो चुकी है. इसमें सम-विषम वाहन योजना भी शामिल है. इसके बावजूद दिल्ली-एनसीआर की हवा में सुधार नहीं हो पाया है. इस पर विचार किए जाने की जरूरत है. बीते दिनों के हवा में उतार-चढ़ाव के अध्याय को हमें गंभीरता से समझना होगा.
18 नवंबर को पराली जलाए जाने की घटनाएं कम होने और मौसम में सुधार के बाद दिल्ली समेत एनसीआर का एक्यूआई गंभीर स्तर से नीचे लुढ़ककर खराब स्तर पर पहुंच चुका है. लेकिन दो-चार दिन पीछे का हिसाब-किताब भी हमें लेते रहना चाहिए. इस वर्ष दिवाली के बाद खराब होने वाली हवा 9 नवंबर से दुबारा खराब हो गई. वहीं 12 नवंबर को फिर से गंभीर स्तर में दाखिल हो गई. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के केंद्रीय निगरानी कक्ष ने बताया था कि खतरनाक और नुकसानदेह पार्टिकुलेट मैटर 2.5 का स्तर 12 नवंबर को 12 बजे इमरजेंसी लेवल (300 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर) को पार कर गया था.
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक 24 घंटों के आधार पर 12 नवंबर को दिल्ली का वायु गुणवत्ता सूचकांक 425 रहा. 401 से 500 का एक्यूआई स्तर का अर्थ होता है गंभीर प्रदूषण. यही हाल दिल्ली से लगे यूपी और हरियाणा के शहरों का भी था. यूपी में नोएडा का एक्यूआई 440 , ग्रेटर नोएडा का 436, गाजियाबाद का 453 रिकार्ड किया गया. वहीं, हरियाणा में फरीदाबाद 406, फतेहाबाद 403, गुरुग्राम 402, हिसार 445, जींद 446, मानेसर 410, पानीपत का एक्यूआई 458 मापा गया था. यह सभी माप 24 घंटे के औसत एक्यूआई माप थी.
केंद्रीय पृथ्वी मंत्रालय के अधीन वायु प्रदूषण की निगरानी करने वाली एजेंसी सफर ने आगाह किया था कि 03 नवंबर को सबसे ज्यादा पराली जलाई गई थी और इसी दिन दिल्ली-एनसीआर में सबसे ज्यादा प्रदूषण रिकॉर्ड किया गया था तब प्रदूषण में पराली जलाए जाने की हिस्सेदारी 25 फीसदी थी. 12 नवंबर को भी आपात स्तर के प्रदूषण के दौरान दिल्ली-एनसीआर में पराली जलाए जाने की हिस्सेदारी 25 फीसदी ही मापी गई थी. जबकि दिवाली के बाद केंद्रीय कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक 09 नवंबर से तीनों राज्यों में पराली जलाने की घटनाओं में जबरदस्त बढोत्तरी हुई है.
आंकड़ों बता रहे हैं कि एक बार फिर से बीते तीन दिनों में तीनों राज्यों में खूब पराली जलाई गई है, जिसका असर दिल्ली-एनसीआर की हवा पर भी देखा जा सकता है. तीनों राज्यों में 09 नवंबर को पराली जलाने की 2,298 घटनाएं दर्ज हुईं जबकि 10 नवंबर को 2,344 घटनाएं दर्ज की गईं. 11 नवंबर को 1,035 घटनाएं ही पराली जलाने की दर्ज की गई हैं. यानि 09 और 10 नवंबर को पराली जलाने का स्तर बहुत ऊपर चला गया था. अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा की सेटेलाइट तस्वीरों से यह पता चलता है कि सिर्फ उत्तर ही नहीं बल्कि मध्य और दक्षिण भारत की तरफ भी खेतों में आग लगाने की घटनाएं दर्ज हो रही हैं. किसानों के पास अब खेत खाली करने के लिए बहुत थोड़ा वक्त बचता है. वहीं जहां पर खेती देर से हुई वहां देर से पराली जलाई जा रही है. एक अक्तूबर से लेकर 11 नवंबर तक इन तीन राज्यों में कुल 53,873 घटनाएं पराली जलाने की दर्ज हो चुकी हैं. इनमें सबसे ज्यादा पंजाब में पराली जलाई गई. अकेले पंजाब में ही 45,691 खेतों में आग लगने या पराली जलाने की घटनाएं दर्ज हुयीं. जबकि हरियाणा में 5,793 और यूपी में 2,443 घटनाएं हुईं.
यह आंकड़ा स्पष्ट तौर पर दर्शाता है कि पराली जलाए जाने से दिल्ली-एनसीआर की हवा प्रभावित होती है. लेकिन पराली का दोष किसानों के मत्थे नहीं मढ़ा जा सकता. सरकार यदि अपनी योजनाएं और पराली से निपटने संबंधी नई व्यवस्थाएं किसानों तक पहुंचाती तो शायद बात यहां तक नहीं पहुंचती. केंद्रीय एजेंसी सफर के मुताबिक दिल्ली की हवा में प्रदूषण बढ़ने का कारण मौसम भी है. जब प्रदूषण बढ़ता है तब आर्द्रता और मंद गति वाली हवा और साथ ही उत्तर-पश्चिम से आने वाली हवाएं प्रमुख कारक के तौर पर दिखाई देती हैं. सिर्फ मौसम के सहारे बैठना हमें हर साल स्माग रिटर्न की भेंट देता रहेगा.
(लेख डाउन टू अर्थ की फीचर सेवा से साभार)