झारखंड के 77 लाख आदिवासी मतदाताओं का क्या होगा मत?

झारखंड में अब तक तीन चरण में संपन्न हुए मतदान में 64.38, 65.99 और 65 प्रतिशत वोट पड़े हैं. ऐसा माना जा रहा है कि तीनों फेज़ में आदिवासियों-वनवासियों ने बढ़-चढ़कर मतदान किया है.

WrittenBy:मो. असग़र ख़ान
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लोकसभा में जो मुद्दे देश के हैं वही प्रदेश के, पर झारखंड के कुछेक मुद्दे जो आम चुनाव को प्रभावित कर सकते हैं उनमें आदिवासियों की एक बड़ी आबादी अहम मुद्दा है. जिस तरह हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा देश के दस लाख आदिवासी एवं एक लाख अन्य परंपरागत वन-निवासी यानी लगभग 11 लाख लोगों को वनभूमि से बेदखल करने का आदेश दिया गया, उसके बाद से सियासी समीकरण बदलने के संकेत मिल रहे हैं. हालांकि आदेश के विरोध में हुए आंदोलन-प्रदर्शन के बाद केंद्र सरकार ने इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट में दखल दिया और कोर्ट ने 28 फरवरी को अपने आदेश पर 24 जुलाई तक के लिए रोक लगा दी. लेकिन इस बीच आदिवासियों में जो असमंजस की स्थिति पैदा हुई, वो यह है कि अगर कोर्ट ने सरकार की नहीं सुनी तो लाखों लोग एक झटके में बेघर हो जायेंगे.

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झारखंड की 14 लोकसभा सीटों पर चुनाव चार चरणों में हो रहे हैं, जिनमें से तीन चरणों में 11 सीटों पर मतदान हो चुका है. राजनीतिज्ञों और वन अधिकार कार्यकर्ताओं का मानना है कि वनवासियों का मुद्दा झारखंड में आम चुनाव को प्रभावित कर सकता है.

झारखंड में अब तक तीन चरण में संपन्न हुए मतदान में 64.38, 65.99 और 64.46 प्रतिशत वोट पड़े हैं. ऐसा माना जा रहा है कि तीनों फेज़ में आदिवासियों-वनवासियों ने बढ़-चढ़कर मतदान किया है.

रोष ने बढ़ाया मतदान का प्रतिशत

झारखंड जंगल बचाओ आंदोलन के संस्थापक और वन अधिकार कानून के जानकार संजय बसु मल्लिक कहते हैं, “ग्रामीण इलाकों में वोट प्रतिशत का बढ़ना इस बात का संकेत है कि जंगलों में निवास करने वालों की एक बड़ी आबादी ने उत्साह-पूर्वक मतदान किया है. ये वही लोग हैं जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सरकार की चुप्पी को लेकर सड़कों पर उतरे थे और उनमें काफी रोष था. जिन 11 सीटों पर मतदान हुए हैं, उनमें पलामू, खूंटी, कोडरमा, चतरा और हजारीबाग जैसे लोकसभा क्षेत्र हैं जहां काफ़ी तादाद में लोग वनों पर निर्भर करते हैं. मेरा मानना है कि यहां लोगों ने वन अधिकार कानून और सुप्रीम कोर्ट के द्वारा जंगलों से बेदखल करने फैसले के मद्देनज़र मतदान किया है.”

झारखंड के वनवासियों को लेकर पिछले माह झारखंड वन अधिकार मंच और इंडियन स्कूल ऑफ बिज़नेस (आईएसबी) हैदराबाद ने संयुक्त रूप से एक रिपोर्ट जारी की है. इसमें बताया गया है कि झारखंड के कुल 2 करोड़ 23 लाख 63083 वोटरों में लगभग 77 लाख वैसे वोटर हैं जो वन अधिकार कानून 2006 के तहत वनभूमि के हकदार हैं. यह रिपोर्ट कम्युनिटी फॉरेस्ट राइट लर्निंग एडवोकेसी (सीएफआरएलए) के डाटा के आधार पर तैयार की गयी है और इसके अधितकर आंकड़े साल 2011 की जनगणना पर आधारित हैं. सीएफआरएल के शोधकर्ता तुषार दास ने बताया कि सर्वे में जंगलों में रहने वाले और वनभूमि पर जिनकी आजीविका निर्भर है, उन लोगों की संख्या को बताया गया है. ये समुदाय आदिवासी एवं अन्य परंपरागत वनवासी हैं, जो वन अधिकार कानून 2006 के तहत लाभार्थी हैं.

‘पार्लियामेंट्री कांस्टीटूएंसी एनालिसिस ऑफ झारखंड ऑन फॉरेस्ट राइट एक्ट (एफआरए)-2006’ नामक 18 पेज की बुकलेट वाली रिपोर्ट में झारखंड के किन सीटों पर कितने वन अधिकार के हकदार लोग हैं और कितने मतदाता हैं, इन सबकी विस्तृत जानकारी दी गयी है.

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रिपोर्ट के मुताबिक झारखंड में कुल 32,112 गांवों में 14850 गांव जंगलों से लगे हैं. कुल 18,82,429.02 हेक्टेयर वनभूमि है, जिसपर ग्रामीणों का वन अधिकार कानून के तहत सामुदायिक और व्यक्तिगत हक बनता है.

एसटी-एससी वोटर बनेंगे निर्णायक?

संजय बसु मल्लिक का यह कहना है कि जंगलों से बेदखल वाले मुद्दों को लेकर राज्य में काफी विरोध प्रदर्शन हुआ है और इसलिए आम चुनाव में वनवासियों का वोटर निर्णायक साबित होगा.

वन अधिकार कानून 2006 के तहत खारिज दावा पत्रों के आलोक में सुप्रीम कोर्ट ने जिन 11 लाख वनवासियों को वनभूमि से बेदखल करने आदेश दिया था, उसमें झारखंड के 29 हजार परिवार शामिल हैं. न्यायालय के आदेश से झारखंड में अधिकतर एसटी-एससी परिवार प्रभावित हुए हैं.

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इसी के बाद चतरा, पलामू, हजारीबाग और रांची में बीते दिनों बड़ी संख्या में ग्रामीणों ने सड़कों पर उतकर विरोध प्रदर्शन किया था. इसमें मुख्य है, 20 फरवरी को नेशनल अलायंस फॉर पीस एंड जस्टिस के बैनर तले हजारीबाग से सैकड़ों लोगों का फैसले के ख़िलाफ़ पदयात्रा कर रांची पहुंचना और नौ मार्च को वन अधिकार रक्षा मंच झारखंड, के बैनर तले रांची के राजभवन के पास विभिन्न सामाजिक संगठनों का इकट्ठा होना. इन दोनों में सरकार के विरुद्ध लोग आक्रोशित दिखे. इसी तरह देश और राज्यों में भी प्रदर्शन-धरना हुआ, पर बावजूद इसके भारतीय जनता पार्टी के संकल्प (घोषणा पत्र) पत्र में यह मुद्दा नदारद दिखा.

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भाजपा के ख़िलाफ़ मतदान

कांग्रेस, झारखंड मुक्ति मोर्चा और राष्ट्रीय जनता दल ने अपने घोषणा पत्रों में वन अधिकार कानून का सही से क्रियान्वयन करने और वनआश्रितों को उनका अधिकार दिलाने की बात कही है, लेकिन भाजपा के संकल्प पत्र से यह गायब क्यों दिखा?

इस पर झारखंड भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता प्रवीन प्रभाकर उदाहरण देते हुए कहते हैं, “देखिये, हम प्रधानमंत्री आवास बांट रहे हैं, तो उसे संकल्प पत्र में शामिल करने का कोई मतलब नहीं. हां, अगर वन अधिकार पर कोई कानून लाना होता तो उसे संकल्प पत्र शामिल करते. वन अधिकार कानून पहले से ही है.”

प्रभाकर अपनी बात पूरी करते हुए कहते हैं, “इस मुद्दे पर सरकार का स्टैंड साफ़ है. सरकार वनों में रहने वाले आदिवासियों और अन्य वनवासियों की रक्षा करने को लेकर प्रतिबद्ध है. कोर्ट में लंबित मामले को वन अधिकार कानून के साथ-साथ उसे मानवता के दायरे में भी हल किया ये जायेगा. हम पहले ही कोर्ट में हलफ़नामा दायर कर चुके हैं और हमारे ही दखल के बाद कोर्ट ने अपने आदेश पर रोक लगाया है.”

भाजपा के अनुसार पार्टी ने भले ही इसे अपने मेनिफेस्टो में शामिल नहीं किया है, मगर पार्टी की नज़र में यह मुद्दा प्रमुखता रखता है.

इधर संजय बसु मल्लिक भाजपा के इस मत से असमहत हैं. इनके मुताबिक तीन चरणों के हुए मतदान में वनवासियों ने जंगल के मुद्दे पर भाजपा के ख़िलाफ़ मतदान किया है.

वो कहते हैं, “भाजपा सरकार ने इतने बड़े मामले पर पहले चुप्पी साधे रखी, फिर इसे अपने संकल्प यानी घोषणा पत्र में भी शामिल नहीं किया. वनवासियों के मामले में भाजपा की अब तक की पॉलिसी गलत रही है. मेरे हिसाब से इसको मुद्दा बनाते हुए ही वनवासियों ने वोट किया है और आगे भी करेंगे. चुनाव के माहौल के मुताबिक लगता है वनवासियों के एक बड़े हिस्से ने भाजपा के ख़िलाफ़ मतदान किया है.”

झारखंड की 14 लोकसभा सीटों में पांच सीटें एसटी, एक एससी के लिए रिज़र्व हैं और आठ अनारक्षित हैं. संथाल परगना की दो (दुमका, राजमहल) और सिंहभूम की सीट आदिवासी आबादी की वजह से काफ़ी महत्वपूर्ण मानी जा रही है. शेड्यूल ट्राइब के लिए आरक्षित इन तीनों सीटों में से दुमका और राजमहल से वर्तमान सांसद झामुमो के हैं, जो एक बार फिर से पार्टी प्रत्याशी हैं. जबकि सिंहभूम से सांसद और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण फिर से चुनावी मैदान में हैं.

सर्वे रिपोर्ट के अनुसार इन सीटों पर वैसे 3935 गांव हैं, जो वन अधिकार कानून के तहत वनभूमि और उस पर उपजी फसल के लाभार्थी हैं. इन गांवों में वन अधिकार के हक़दार तकरीबन 25 लाख मतदाता हैं. इसमें एसटी के 78511 और एससी के 37953 वोटर हैं. इसके अलावा गोड्डा, धनबाद, जमशेदपुर, गिरिडीह में भी इन वोटरों की संख्या काफ़ी है, जो परिणाम को प्रभावित कर सकती है.

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इन आंकड़ों को जारी करने वाली संस्था झारखंड वन अधिकार मंच के सुधीर पाल कहते कि “उन्हें नहीं पता कि क्यों भारतीय जनता पार्टी ने वन अधिकार जैसे ज्वलंत मुद्दे को अपने मेनिफेस्टो में शामिल नहीं किया. जबकि कई बार बैठक कर सभी राजनीतिक दलों के साथ कंसल्टेशन किया, जिसमें भाजपा के नेता भी शामिल हुए थे.”

वो कहते हैं, “77 लाख वोटर मैटर करता है. यह वो वोटर हैं जो जंगलों में कई पीढ़ी से रहते आ रहे हैं और वन अधिकार कानून 2006 के तहत वनभूमि पर उनका अधिकार बनता है. इसमें अधिकतर आदिवासी एवं अन्य परंपरागत समुदाय के वोटर हैं. हमारी संस्था और हम लोगों ने इन्हें जागरूक किया है और आग्रह किया है कि आप उसी को वोट दें, जो जल, जंगल, जमीन पर आपका अधिकार देने को तत्पर हों और उम्मीद करते हैं वो ऐसा करेंगे भी”.

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