हाशिमपुरा का चश्मदीद: 22 मई, 1987 की रात का सच

1987 की रात हाशिमपुरा से उठाकर मारे गए मुसलमानों की कहानी गाजियाबाद के तत्कालीन पुलिस प्रमुख विभूति नारायण राय ने कलमबद्ध की है.

Article image

जीवन के कुछ अनुभव ऐसे होतें हैं जो जिन्दगी भर आपका पीछा नहीं छोड़ते. एक दु:स्वप्न की तरह वे हमेशा आपके साथ चलते हैं और कई बार तो कर्ज की तरह आपके सर पर सवार रहते हैं. हाशिमपुरा भी मेरे लिये कुछ ऐसा ही अनुभव है. 22/23 मई सन 1987 की आधी रात दिल्ली गाजियाबाद सीमा पर मकनपुर गांव से गुजरने वाली नहर की पटरी और किनारे उगे सरकण्डों के बीच टार्च की कमजोर रोशनी में खून से लथपथ धरती पर मृतकों के बीच किसी जीवित को तलाशना- सब कुछ मेरे स्मृति पटल पर किसी हॉरर फिल्म की तरह अंकित है.

उस रात दस-साढ़े दस बजे हापुड़ से वापस लौटा था. साथ में जिला मजिस्ट्रेट नसीम जैदी थे जिन्हें उनके बंगले पर उतारता हुआ मैं पुलिस अधीक्षक निवास पर पहुंचा. निवास के गेट पर जैसे ही कार की हेडलाइट्स पड़ी मुझे घबराया हुआ और उड़ी रंगत वाला चेहरा लिये सब इंसपेक्टर वीबी सिंह दिखायी दिया जो उस समय लिंक रोड थाने का इंचार्ज था. मेरा अनुभव बता रहा था कि उसके इलाके में कुछ गंभीर घटा है. मैंने ड्राइवर को कार रोकने का इशारा किया और नीचे उतर गया.

वीबी सिंह इतना घबराया हुआ था कि उसके लिये सुसंगत तरीके से कुछ भी बता पाना संभव नहीं लग रहा था. हकलाते हुये और असंबद्ध टुकड़ों में उसने जो कुछ मुझे बताया वह स्तब्ध कर देने के लिए काफी था. मेरी समझ में आ गया कि उसके थाना क्षेत्र में कहीं नहर के किनारे पीएसी के जवानों ने कुछ मुसलमानों को मार दिया है. क्यों मारा? कितने लोगों को मारा? कहां से लाकर मारा? स्पष्ट नहीं था. कई बार उसे अपने तथ्यों को दुहराने के लिये कह कर मैंने पूरे घटनाक्रम को टुकड़े-टुकड़े जोडते हुये एक नैरेटिव तैयार करने की कोशिश की.

जो चित्र बना उसके अनुसार वीबी सिंह थाने में अपने कार्यालय में बैठा हुआ था कि लगभग 9 बजे उसे मकनपुर की तरफ से फायरिंग की आवाज सुनायी दी. उसे और थाने में मौजूद दूसरे पुलिस कर्मियों को लगा कि गांव में डकैती पड़ रही है. आज तो मकनपुर गांव का नाम सिर्फ रेवेन्यू रिकार्ड्स में है. आज गगनचुम्बी आवासीय इमारतों, मॉल और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों वाले मकनपुर में 1987 में दूर-दूर तक बंजर जमीन पसरी हुयी थी. इसी बंजर जमीन के बीच की एक चक रोड पर वीबी सिंह की मोटर सायकिल दौड़ी. उसके पीछे थाने का एक दारोगा और एक अन्य सिपाही बैठे थे. वे चक रोड पर सौ गज भी नहीं पहुंचे थे कि सामने से तेज़ रफ्तार से एक ट्रक आता हुआ दिखायी दिया. अगर उन्होंने समय रहते हुये अपनी मोटर सायकिल चक रोड से नीचे न उतार दी होती तो ट्रक उन्हें कुचल देता. अपना संतुलन संभालते-संभालते जितना कुछ उन्होंने देखा उसके अनुसार ट्रक पीले रंग का था और उस पर पीछे 41 लिखा हुआ था, पिछली सीटों पर खाकी कपड़े पहने कुछ लोग बैठे हुये दिखे. किसी पुलिसकर्मी के लिये यह समझना मुश्किल नहीं था कि पीएसी की 41 वीं बटालियन का ट्रक कुछ पीएसी कर्मियों को लेकर गुजरा था.

पर इससे गुत्थी और उलझ गयी. इस समय मकनपुर गांव में पीएसी का ट्रक क्यों आ रहा था? गोलियों की आवाज के पीछे क्या रहस्य था? वीबी सिंह ने मोटर सायकिल वापस चक रोड पर डाली और गांव की तरफ बढा. मुश्किल से एक किलोमीटर दूर जो नजारा उसने और उसके साथियों ने देखा वह रोंगटे खडा कर देने वाला था मकनपुर गांव की आबादी से पहले चक रोड एक नहर को काटती थी. नहर आगे जाकर दिल्ली की सीमा में प्रवेश कर जाती थी. जहां चक रोड और नहर एक दूसरे को काटते थे वहां पुलिया थी. पुलिया पर पहुंचते- पहुंचते वीबी सिंह के मोटर सायकिल की हेडलाइट जब नहर के किनारे उगे सरकंडे की झाड़ियों पर पड़ी तो उन्हें गोलियों की आवाज का रहस्य समझ में आया. चारों तरफ खून के धब्बे बिखरे पड़े थे. नहर की पटरी, झाड़ियों और पानी के अन्दर ताजा जख्मों वाले शव पड़े थे. वीबी सिंह और उसके साथियों ने घटनास्थल का मुलाहिजा कर अन्दाज लगाने की कोशिश की कि वहां क्या हुआ होगा? उनकी समझ में सिर्फ इतना आया कि वहां पड़े शवों और रास्ते में दिखे पीएसी की ट्रक में कोई संबन्ध जरूर है.

साथ के सिपाही को घटनास्थल पर निगरानी के लिये छोड़ते हुये वीबी सिंह अपने साथी दारोगा के साथ वापस मुख्य सडक की तरफ लौटा. थाने से थोडी दूर गाजियाबाद-दिल्ली मार्ग पर पीएसी की 41वीं बटालियन का मुख्यालय था. दोनो सीधे वहीं पहुंचे. बटालियन का मुख्य द्वार बंद था. काफी देर बहस करने के बावजूद भी संतरी ने उन्हें अंदर जाने की इजाजत नहीं दी. तब वीबी सिंह ने जिला मुख्यालय आकर मुझे बताने का फैसला किया. जितना कुछ आगे टुकड़ों-टुकड़ों में बयान किए गए वृतांत से मैं समझ सका उससे स्पष्ट हो ही गया था कि जो घटा है वह बहुत ही भयानक है और दूसरे दिन गाजियाबाद जल सकता था.

पिछले कई हफ्तों से बगल के जिले मेरठ में सांप्रादायिक दंगे चल रहे थे और उसकी लपटें गाजियाबाद पहुंच रहीं थीं. मैंने सबसे पहले जिला मजिस्ट्रेट नसीम जैदी को फोन किया. वे सोने ही जा रहे थे. उन्हें जगने के लिये कह कर मैंने जिला मुख्यालय पर मौजूद अपने एडिशनल एसपी, कुछ डिप्टी एसपी और मजिस्ट्रेटों को जगाया और तैयार होने के लिये कहा. अगले चालीस-पैंतालीस मिनटों में सात-आठ वाहनों में लदे-फंदे हम मकनपुर गांव की तरफ लपके. नहर की पुलिया से थोड़ा पहले हमारी गाडियां खड़ी हो गयीं. नहर के दूसरी तरफ थोड़ी दूर पर ही मकनपुर गांव की आबादी थी लेकिन तब तक कोई गांव वाला वहां नहीं पहुंचा था. लगता था कि दहशत ने उन्हें घरों में दुबकने को मजबूर कर दिया था. थाना लिंक रोड के कुछ पुलिसकर्मी जरूर वहां पहुंच गये थे. उनकी टार्चों की रोशनी के कमजोर वृत्त नहर के किनारे उगी घनी झाडियों पर पड़ रहे थे पर उनसे साफ देख पाना मुश्किल था. मैंने गाड़ियों के ड्राइवरों से नहर की तरफ रुख करके अपने हेडलाइट्स ऑन करने के लिये कहा. लगभग सौ गज चौड़ा इलाका प्रकाश से नहा उठा. उस रोशनी में मैंने जो कुछ देखा वह वही दु;स्वप्न था जिसका जिक्र मैंने शुरु में किया है.

गाड़ियों की हेडलाइट्स की रोशनियां झाड़ियों से टकरा कर टूट-टूट जा रहीं थीं. इसलिये टार्चों का भी इस्तेमाल करना पड़ रहा था. झाड़ियों और नहरों के किनारे खून के थक्के अभी पूरी तरह से जमे नहीं थे, उनमें से खून रिस रहा था. पटरी पर बेतरतीबी से शव पड़े थे- कुछ पूरे झाडियों में फंसे तो कुछ आधे तिहाई पानी में डूबे. शवों की गिनती करने या निकालने से ज्यादा जरूरी मुझे इस बात की पड़ताल करना लगा कि उनमें से कोई जीवित तो नहीं है. सबने अलग-अलग दिशाओं में टार्चों की रोशनियां फेंक-फेंक कर अन्दाजा लगाने की कोशिश की कि कोई जीवित है या नहीं. बीच बीच में हम हांक भी लगाते रहे कि यदि कोई जीवित हो तो उत्तर दे. हम दुश्मन नहीं दोस्त हैं. उसे अस्पताल ले जाएंगे. पर कोई जवाब नहीं मिला. निराश होकर हममें से कुछ पुलिया पर बैठ गए. मैंने और जिलाधिकारी ने तय किया कि समय खोने से कोई लाभ नहीं है. हमें दूसरे दिन की रणनीति बनानी थी इसलिए जूनियर अधिकारियों को शवों को निकालने और जरूरी लिखा-पढ़ी करने के लिये कह कर हम लिंक रोड थाने के लिये मुड़े ही थे कि नहर की तरफ से खांसने की आवाज सुनायी दी. सभी ठिठक कर रुक गये. मैं वापस नहर की तरफ लपका. फिर मौन छा गया.

स्पष्ट था कि कोई जीवित था लेकिन उसे यकीन नहीं था कि जो लोग उसे तलाश रहें हैं वे मित्र हैं. हमने फिर आवाजें लगानी शुरू कीं, टार्च की रोशनी अलग-अलग शरीरों पर डालीं और अंत में हरकत करते हुये एक शरीर पर हमारी नजरें टिक गई. कोई दोनो हाथों से झाडियां पकडे आधा शरीर नहर में डुबोये इस तरह पड़ा था कि बिना ध्यान से देखे यह अन्दाज लगाना मुश्किल था कि वह जीवित है या मृत. दहशत से बुरी तरह वह कांप रहा था और काफी देर तक आश्वस्त करने के बाद यह विश्वास करने वाला कि हम उसे मारने नहीं बचाने वाले हैं, जो व्यक्ति अगले कुछ घंटे तक हमे इस लोमहर्षक घटना की जानकारी देने वाला था, उसका नाम बाबूदीन था. गोली उसे छूते हुये निकल गयी थी. भय से वह निश्चेष्ट होकर झाड़ियों में गिरा तो भाग दौड़ में उसके हत्यारों को यह जांचने का मौका नहीं मिला कि वह जीवित है या मर गया.

दम साधे वह आधा झाड़ी और आधा पानी में पड़ा रहा और इस तरह मौत के मुंह से वापस लौट आया. उसे कोई खास चोट नहीं आयी थी और नहर से चलकर वह गाड़ियों तक आया. बीच में पुलिया पर बैठकर थोड़ी देर सुस्ताया भी. लगभग 21 वर्षों बाद जब हाशिमपुर पर एक किताब लिखने के लिये सामग्री इकट्ठी करते समय मेरी उससे मुलाकात हुयी, जहां पीएसी उसे उठा कर ले गयी थी तो उसे याद था कि मैंने पुलिया पर बैठे उसे किसी सिपाही से मांग कर बीड़ी दी थी.

बाबूदीन ने जो बताया उसके अनुसार उस दिन अपरान्ह तलाशियों के दौरान पीएसी के एक ट्रक पर बैठाकर चालीस पचास लोगों को ले जाया गया तो उन्होंने समझा कि उन्हें गिरफ्तार कर किसी थाने या जेल ले जाया जा रहा है. मकनपुर पहुंचने के लगभग पौन घण्टा पहले एक नहर पर ट्रक को मुख्य सड़क से उतारकर नहर की पटरी पर कुछ दूर ले जाकर रोक दिया गया. पीएसी के जवान कूद कर नीचे उतर गये और उन्होंने ट्रक पर सवार लोगों को नीचे उतरने का आदेश दिया. अभी आधे लोग ही उतरे थे कि पीएसी वालों ने उनपर फायर करना शुरु कर दिया. गोलियां चलते ही ऊपर वाले गाड़ी में ही दुबक गये. बाबूदीन भी उनमें से एक था. बाहर उतरे लोगों का क्या हुआ वह सिर्फ अनुमान ही लगा सकता था. शायद फायरिंग की आवाज आस पास के गांवों में पहुंची जिसके कारण आस पास से शोर सुनायी देने लगा और पीएसी वाले वापस ट्रक में चढ़ गये. ट्रक तेजी से बैक हुआ और वापस गाजियाबाद की तरफ भागा. यहां वह मकनपुर वाली नहर पर आया और एक बार फिर सबसे उतरने के लिये कहा गया. इस बार डर कर ऊपर दुबके लोगों ने उतरने से इंकार कर दिया तो उन्हें खींच-खींच कर नीचे घसीटा गया. जो नीचे आ गये उन्हें पहले की तरह गोली मारकर नहर में फेंक दिया गया और जो डर कर ऊपर दुबके रहे उन्हें ऊपर ही गोली मारकर नीचे ढकेला गया. बाबूदीन जब यह विवरण बता रहा था तो हमने पहले घटनास्थल का अन्दाज लगाने की कोशिश की.

किसी ने सुझाव दिया कि पहला घटनास्थल मेरठ से गाजियाबाद आते समय रास्ते में मुरादनगर थाने में पड़ने वाली नहर हो सकती है. मैंने लिंक रोड थाने के वायरलेस सेट से मुरादनगर थाने को कॉल किया तो स्पष्ट हुआ कि हमारा सोचना सही था. कुछ देर पहले ही मुरादनगर थाने को भी ऐसी ही स्थिति से गुजरना पड़ा था. वहां भी कई मृत शव नहर में पड़े मिले थे और कुछ लोग जीवित थाने लाये गये थे.

इसके बाद की कथा एक लंबा और यातनादायक प्रतीक्षा का वृतांत है जिसमें भारतीय राज्य और अल्पसंख्यकों के रिश्ते, पुलिस का गैर पेशेवराना रवैया और घिसट-घिसट कर चलने वाली उबाऊ न्यायिक प्रणाली जैसे मुद्दे जुड़े हुए हैं. मैंने 22 मई, 1987 को जो मुकदमें गाजियाबाद के थाना लिंक रोड और मुरादनगर में दर्ज कराये थे वे पिछले 21 वर्षों से विभिन्न बाधाओं से टकराते हुये अभी भी अदालत में चल रहे हैं और अपनी तार्किक परिणति की प्रतीक्षा कर रहे हैं.

(विभूति नारायण राय का यह लेख मूल रूप से हिंदी समय डॉट कॉम पर प्रकाशित हुआ था. लेख में लगा फोटो इंडियन एक्सप्रेस के असिस्टेंट फोटो एडिटर प्रवीण जैन ने लिया है. जैन के फोटो हाशिमपुरा केस में सबसे बड़े सबूत के तौर पर दर्ज हुए)

Comments

We take comments from subscribers only!  Subscribe now to post comments! 
Already a subscriber?  Login


You may also like