मोदी सरकार मनरेगा कानून को वापस लेने जा रही है. रीतिका खेरा ने ‘रेवड़ी या हक’ किताब में बीते दशक में मनरेगा को धीरे-धीरे ‘खत्म’ किए जाने पर विस्तार से लिखा है. उसका एक अंश.
महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना यानि मनरेगा साल 2005 में अस्तित्व में आया. दस साल बाद साल 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में चर्चा के दौरान कांग्रेस पर निशाना साधते हुए कहा, “मेरी राजनीतिक सूझबूझ कहती है कि मनरेगा कभी बंद मत करो.. मैं ऐसी गलती नहीं कर सकता हूं, क्योंकि मनरेगा आपकी विफलताओं का जीता जागता स्मारक है. इसलिए मेरी राजनीतिक सूझबूझ पर आप शक मत कीजिए, मनरेगा रहेगा, आन-बान-शान के साथ रहेगा और गाजे-बाजे के साथ दुनिया में बताया जाएगा.”
सदन को दिए इस आश्वासन के 10 साल बाद अब 2025 नरेंद्र मोदी की सरकार मनरेगा कानून को वापस लेने की योजना बना चुकी है. मनरेगा की जगह एक नया कानून लेगा. जिसका नाम विकसित भारत-गारंटी फॉर रोजगार एंड आजीविका मिशन (ग्रामीण) लेगा, जिसे संक्षिप्त रूप में वीबी- जी-राम-जी कहा जा रहा है.
मनरेगा के आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि देश के 741 जिलों में इस योजना के तहत कुल 26 करोड़ से ज्यादा वर्कर रजिस्टर्ड हैं. बीते 5 सालों (2020-21 से 2025-26) में इस योजना पर हुए केंद्र के खर्च को देखें तो यह 1 लाख करोड़ से घटकर 68 हजार करोड़ तक आ गया है.
तो क्या सिर्फ खर्च ही घटा है या फिर और भी बदलाव इस योजना में बीते 10 सालों में आए हैं. इस सवाल का जवाब हमें रीतिका खेरा की किताब से मिल सकता है. खेरा ने इस योजना में बीते दशक में आए बदलावों और चुनौतियों पर अपनी किताब रेवड़ी या हक़ में लिखा है. यहां नीचे उसी हिस्से का एक अशं है.
दूसरे दशक (2014 से 2024) के राजनीतिक बदलाव
2014 में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में बनी राजग की सरकार के सत्ता में आने के बाद, मनरेगा को मुश्किलें कई गुना बढ़ गईं. 2014 के बाद, मनरेगा पर राजनीतिक प्रहार भी होने लगे. फरवरी, 2015 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संसद में मनरेगा को यूपीए सरकार की विफलता का ‘जीता-जागता स्मारक’ बताया था. दूसरी ओर, राजस्थान की मुख्यमंत्री ने इसकी जरूरत पर ही सवाल उठा दिया था (उनका कहना था कि “कानून की क्यों जरूरत है, केवल योजना से काम क्यों नहीं चल सकता”). यही नहीं, ग्रामीण विकास मंत्री ने प्रस्ताव रखा कि इसे 600 में से मात्र 200 जिलों में चलाया जाए.
मनरेगा को दो सौ जिलों तक सीमित करने का वह सरकारी प्रस्ताव समझदारी से परे था. अगर मनरेगा को कुछ ही जिलों तक सीमित कर दिया जाता तो जिलों और प्रखंडों के चयन में पक्षपात होना तय था जो मनरेगा के ‘सेल्फ-सिलेक्शन’ डिजाइन की खूबी को खत्म करने का काम करता. कुछ लोग कहते हैं कि बेहतर परिस्थितियों वाले इलाकों में मनरेगा की कोई मांग नहीं है. लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और है. जैसा कि हमने देखा, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे विकसित राज्यों ने मनरेगा को बहुत अच्छे से लागू किया है.
साथ ही, यह लोगों के अधिकारों में कटौती होती. वह कार्यक्रम जो लोगों को अधिकार देते हैं, उनकी मंशा लोगों को सुरक्षा देनी की होती है लेकिन अगर ऐसे अधिकार एकतरफा तरीके से वापस लिये जाते हैं तो कानून का मकसद ही बेमानी हो जाएगा. इस अध्याय की शुरुआत में जिक्र किया था कि कुछ लोगों ने सवाल उठाए कि केवल योजना से काम क्यों नहीं चला लेते, रोजगार गारंटी कानून की क्या जरूरत है. जब 2014-15 में मनरेगा पर राजनीतिक प्रहार होने लगे, तब कानून होने का फ़ायदा अच्छे से समझ आने लगा- दोनों प्रस्ताव कुछ दिन बाद ठंडे पड़ गए क्योंकि नई सरकार ने इसे संसद में लाने की हिम्मत ही नहीं की.
मनरेगा का तकनीकीकरण: आधार और अन्य दिक्कतें
संशोधन तो नहीं हुए, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि ‘मनरेगा’ का भविष्य सुरक्षित हो गया. दूसरी ओर, सारी गलती ताजा सरकार की ही नहीं है. यूपीए-दो (2009-2014) के कार्यकाल में, 2010 से मनरेगा को एक के बाद दूसरा ग्रहण लगने लगा. मनरेगा के मूल उद्देश्यों (काम मांगने पर मजदूरी, समय पर भुगतान, आदि) को मजबूत करने के बजाय इस पर कन्जर्व्स, स्वच्छता, स्वयं सहायता समूह, फाइनेंशल इन्क्लूजन जैसे कई तरह के लक्ष्यों को थोप दिया गया. हालांकि यह कानून के उद्देश्य में शामिल नहीं है. कानून में लिखा है कि इसे ‘जीविका सुरक्षा’ करने के मकसद से लागू किया जा रहा है.
2010 से मनरेगा 2.0 का मुख्य लक्षण टेक्नोक्रेट द्वारा इसका ‘अधिग्रहण’ था. ग्रामीण विकास मंत्रालय टेक्नोक्रेट का अड्डा बन गया, जो मानते थे कि रियल-टाइम ई-(इलेक्ट्रॉनिक) से मनरेगा की सभी समस्याओं का समाधान हो सकता है. ई-मस्टर रोल (eMRS), ई-फंड मैनेजमेंट सिस्टम (e-FMS) और GPS-सक्षम बायोमेट्रिक्स उपस्थिति से लेकर जियो-टैग की गई मनरेगा सम्पत्तियों तक, ग्रामीण मंत्रालय एक तकनीकी-तांडव का स्थल बन गया.
मजदूरों के लिए प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए प्रौद्योगिकी को तैनात करने के बजाय, टेक्नोक्रेट अपने स्वयं के जीवन को आसान बनाने के लिए इसका उपयोग करने लगे. प्रशासकों को इसके कार्यान्वयन की निगरानी के लिए गांवों का दौरा करने की आवश्यकता नहीं रही: वे केवल मनरेगा रीयल-टाइम पोर्टल पर नजर डालते, जिससे ‘आल इज वेल’ की तसल्ली मिल जाती. श्रमिकों और उनके अधिकारों की परवाह किसी को नहीं रही.
मनरेगा 2.0 पर आधार को और से ग्रहण लगा. मजदूरों को डराया गया कि यदि वह आधार नहीं बनवाएंगे तो आगे उन्हें काम नहीं मिलेगा. फिर धमकाया गया कि उसे मनरेगा जॉबकार्ड से जोड़ना होगा. अगला शिकार भुगतान प्रणाली थी. अगर आधार नम्बर जॉबकार्ड या बैंक खाते से लिंक नहीं थे तो भुगतान रोक दिया जाता था (द हिन्दू, 2021). ग्रामीण विकास मंत्रालय ने चुपके से मनरेगा बैंक खातों को आधार संख्या से जोड़ना अनिवार्य कर दिया.
आधार को अपने शुरुआती वर्षों में नामांकन संख्या बढ़ाने के लिए रेडीमेड डेटाबेस की आवश्यकता थी. कमजोर और अपने अधिकारों की खोने के बारे में चिंतित श्रमिक, नामांकन के लिए लाइनों में लग गए. सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट निर्देशों के बावजूद, ग्रामीण विकास मंत्रालय ने आधार को अनिवार्य बनाने के गुप्त तरीके ढूंढे. उदाहरण के लिए, जब ब्लॉक कार्यालय में सॉफ्टवेयर में ‘काम की मांग’ दर्ज की जाती थी, तो यह केवल उन श्रमिकों को लेता जिन्होंने अपना आधार नम्बर जमा किया हो.
केंद्रीकरण की समस्या
किसी न किसी रूप में, केंद्रीकरण की समस्या मनरेगा में शुरू से रही है. शुरुआती दिनों में तब के ग्रामीण मंत्री चाहते थे कि मनरेगा के तहत राजीव गांधी भारत निर्माण सेवा केंद्रो को बनाने की अनुमति दी जाए. कुछ लोगों का मानना था कि चूंकि मनरेगा की मजदूरी से चोरी करना मुश्किल हो रहा है तो, लोग चाहते थे कि मनरेगा में ज़्यादा सामग्री वाले काम जोड़े जाएं. तब, कार्यों की सूची के केंद्रीकरण का जमकर विरोध हुआ, क्योंकि मनरेगा कानून के तहत इस सूची को ग्राम पंचायत द्वारा बनाया जाना चाहिए. लेकिन उन सालों में ऐसी स्थिति पैदा हुई कि केंद्रीय मंत्रालय से कार्यों की सूची सुझाई जाने लगी. कभी-कभी तो कार्य की लम्बाई-चौड़ाई-गहराई भी केंद्र द्वारा निर्धारित की जातीं! इस तरह के केंद्रित टारगेट-आधारित संसाधन पैदा करने के प्रयास से नुकसान होने के संकेत आने लगे.
टेक्नोलॉजी, जो शुरुआती सालों में मनरेगा की सबसे अच्छी दोस्त रही, आज उसकी सबसे बड़ी दुश्मन बन गई है. आज वो ही मनरेगा पुराने जमाने के
कागजी-काम और नये जमाने की डिजिटल मांगों का मिला-जुला ‘डिजिटल रेड
टेप’ बन गया है. टेक्नोलॉजी के सामने मनरेगा लगभग घुटने टेक चुका है.
वित्तीय ग्रहण
मनरेगा पर अकेला तकनीकी ग्रहण ही नहीं लगा, भारी वित्तीय ग्रहण भी रहा है, जो सीधे-सीधे राजनीतिक समर्थन की कमी से जुड़ा है. वास्तविकता यह है कि कानून के प्रावधानों के बावजूद, मनरेगा को कभी भी डिमांड आधारित बजट नहीं मिला.
पिछले कई सालों से, मनरेगा में एक घातक पैटर्न दोहराया जाता रहा है. नए साल में आवंटित पैसे उस वित्तीय वर्ष के अक्टूबर तक खर्च हो जाते हैं; नवंबर के बाद काम करनेवालों की मजदूरी बकाया रहने लगती है, तब तक जब तक सरकार संशोधित बजट या अगले साल के बजट में आवंटन नहीं बढ़ाती. अगले साल के बजट का बड़ा हिस्सा पिछले साल की बकाया मजदूरी पूरी करने में खर्च हो जाता है; फिर से अक्टूबर तक बजट की राशि खत्म हो जाती है और नवंबर के बाद की मजदूरी बकाया रहने लगती है.
यह घातक क्यों है इसे समझना मुश्किल नहीं. यदि आपकी तनख्वाह महीने तक बकाया रहेगी, तो आप भी दूसरी नौकरी ढूंढने लगेंगे. मनरेगा मजदूर सबसे कमजोर आर्थिक वर्ग (आम तौर पर भूमिहीन या लघु और सीमांत कृषि) से आते हैं. उनके लिए नियमित रूप से मजदूरी मिलना बहुत जरूरी है.
सरकार ने इस पैटर्न को सुधारने की एक भी बार कोशिश नहीं की. सुधारना तो दूर, कभी-कभी मनरेगा का बजट पिछले साल से भी कम कर दिया गया. लोगों के मन में यह अवधारणा है कि मनरेगा का बजट बहुत बड़ा है. लेकिन ऐसा नहीं है. असल में यह जीडीपी का मात्र 0.2-0.5 फीसदी तक ही रहा है.
कम बजट को लेकर सरकार का जवाब है कि जहां मनरेगा का बजट घटा है, वहां प्रधानमंत्री आवास योजना का बजट बढ़ा है. यह तर्क स्वीकारना मुश्किल है क्योंकि आवास योजना का बड़ा हिस्सा मैटीरियल (सामग्री) पर खर्च होता है और वैसे भी लेबर का बड़ा हिस्सा पहले से मनरेगा से ही आ रहा है.
वित्तीय संकट का एक और चेहरा है ‘डबल इंजन’ की सरकार. इन राज्यों में सबसे भयावह उदाहरण है, पश्चिम बंगाल. वहां साल 2019 में जो हुआ उसके बाद भ्रष्टाचार के आरोपों की आड़ में केंद्र ने ना केवल आगे का बजट रोक दिया, बल्कि हजारों मजदूरों की बकाया मजदूरी भी रिलीज नहीं की. भ्रष्टाचार मजदूरों ने नहीं किया, जिन्होंने किया उन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई, लेकिन दंडित मजदूरों को किया गया.
मनरेगा की समस्याएं
इन मुश्किलों के साथ-साथ मनरेगा में जो पुरानी कमियां थीं, उनमें से अभी तक दो ऐसी समस्याएं हैं, जिन्हें तुरंत सुधारने की जरूरत है. जैसे कि मजदूरी की दरों में ठहराव. कहने को तो हर साल मजदूरी की दरें महंगाई के अनुसार बढ़ाई जाती हैं, लेकिन यह काम बहुत असंतोषजनक तरीके से होता है. 2016 में मई दिवस पर झारखंड में मनरेगा मजदूरों की बढ़ोतरी के मुद्दे पर नाराज होकर प्रधानमंत्री को लौटाने का फैसला किया.
उस वर्ष सरकार ने झारखंड के लिए मनरेगा मजदूरी 5 रुपये प्रतिदिन बढ़ाई थी. (देवरिया, 2016). जबसे सरकार ने यह माना कि हर साल महंगाई के अनुसार मजदूरी दर को बढ़ाया जाएगा, तबसे रियल टर्म्स में मजदूरी दर नहीं बढ़ी है. दूसरी ओर, मनरेगा मजदूरी, बाजार में कम-से-कम कमाने वाले खेतिहर मजदूर से भी कम है फिर भी मजदूरी बढ़ाने पर कोई चर्चा नहीं हो रही.
मजदूरी भुगतान में देरी भी 2009 के आसपास से चली आ रही पुरानी बीमारी है (जिसका जिक्र पहले भी हुआ है) जब मनरेगा भुगतान को बैंक खातों से जोड़ा गया. दो या तीन राज्यों के अलावा सभी राज्यों में भुगतान 15 दिनों में नहीं हो पा रहा है. तकनीकीकरण और केंद्रीयकरण से स्थिति और खराब हुई है. जैसा कि पहले जिक्र किया गया है, कर्नाटक और झारखंड में कुछ मनरेगा मजदूर जो काम कर चुके थे, लेकिन भुगतान होना बाकी था, उनके नाम मनरेगा एमआईएस से हटा दिये गए. बाद में पता चला कि चूंकि डेटा एंट्री ऑपरेटर पर दबाव था कि वो शत-प्रतिशत ‘आधार-सीडिंग’ करे, अपना टारगेट प्राप्त करने के लिए उसने उनके नाम डिलीट कर दिये.
प्रायः मनरेगा पर लगे विभिन्न ग्रहणों में से मजदूरी से जुड़ी समस्याएं सबसे घातक हैं, क्योंकि जब मजदूरी कम होगी और उसे पाने की कोई गारंटी नहीं होगी, या फिर मजदूरी देरी से मिलेगी, तो मजदूर हारकर दूसरे विकल्प ढूंढेंगे. इस तरह से मनरेगा रोजगार की डिमांड ख़त्म कर दी जाएगी.
जाते-जाते
मनरेगा में फिर से जान फूंकना बहुत मुश्किल नहीं- हर पंचायत में कम-से-कम एक कार्यस्थल हो, ताकि जिस किसी को भी काम करना हो, उसे बिना किसी शर्त के, बिना आवेदन के, काम मिले. मनरेगा को टेक्नो-ब्यूरोक्रेटिक प्रणाली से मुक्ति दी जाए, प्रक्रियाओं का सरलीकरण (उदाहरण के तौर पर, नेशनल मोबाइल मॉनिटरिंग सिस्टम को हटाया जाए), मजदूरी की दर को बढ़ाया जाए और समय पर भुगतान सुनिश्चित हो, इस तरह मनरेगा को बचाया जा सकता है.
रीतिका खेरा से उनकी किताब ‘रेवड़ी या हक़’ पर विस्तार से बातचीत सुनने के लिए यहां क्लिक करें.
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