‘दिव्यांगों के लिए फंड है, कानून है, भाषण भी हैं लेकिन एक्सेसिबिलिटी का क्या?

विश्व विकलांग दिवस पर भारत के आंकड़ों के पीछे की असलियत.

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जिमी* की उम्र 19 साल है और वो नागपुर के एक सरकारी कॉलेज में पढ़ते हैं. उसे शार्को-मैरी-टूथ (सीएमटी) बीमारी है. यह एक डीजेनेरेटिव नर्व डिसऑर्डर यानी ऐसी बीमारी है. जिसमें समय के साथ इंसान की तंत्रिकाएं, और इस वजह हाथ-पैर कमजोर होते जाते हैं. जिमि के कैंपस में विकलांग छात्रों के लिए एक मोटर चालित बग्गी उपलब्ध है. लेकिन ये बग्गी बुलाने पर या तो देर से आती है, या कभी-कभी पहुंचती ही नहीं.

रैंप बने तो हुए हैं, लेकिन मेन रैंप के बिलकुल बीच में सीमेंट की एक चौकोर ब्रेकरनुमा अड़चन है. जिमि के शब्दों में “एक ऐसा रैंप जो रैंप के मकसद को ही खत्म कर देता है”. लिफ्ट “अगर मन करे तो” काम करती हैं. ब्रेल लिपि में लिखे संकेतक गायब हैं. आने-जाने के आम रास्ते संकरे, ऊबड़-खाबड़ हैं, या फिर व्हीलचेयर इस्तेमाल करने वालों के लिए उपयोगी ही नहीं हैं. जिमि के डिपार्टमेंट और हॉस्टल के बीच की दूरी लगभग एक किलोमीटर है. कागज़ी अनुमान से इतनी दूरी में आसानी से पैदल जाया जा सकता है. पर असलियत ये है कि वो अक्सर साइकिल पर चलने वाले अपने दोस्तों पर निर्भर रहता है. वो कहते हैं कि कई रोज़ उसे तब तक इंतज़ार करना पड़ता है, जब तक किसी और को याद नहीं आता.

वो कहता है, “मुझे लोगों के भरोसे रहना पसंद नहीं, लेकिन मेरे पास कोई चारा नहीं है.”

जिमी की जगह खड़े होकर देखें तो शहर छोड़ना भी एक दिक्क्त का काम है. रेलवे स्टेशन पर कोई एस्केलेटर या लिफ्ट नहीं है. रैंप इतने खड़े हैं, कि व्हीलचेयर को किसी दूसरे इंसान को धक्का देकर ले जाना पड़ता है. जिमी ने बताया कि वह रोलेटर के सहारे चलते हैं, तो उसे किसी और को थमाकर फिर रेलिंग पकड़कर ऊपर चढ़ते हैं, साथ ही मन में दुआ करते रहते हैं कि कहीं पैर न फिसल जाए.

एक बार, ट्रेन में चढ़ते हुए वो प्लेटफॉर्म और कोच के बीच की खली जगह में लगभग गिर ही गए थे, क्योंकि ट्रेनें भी ऐसे लोगों के लिए नहीं बनी हैं जो तीन सीधी खड़ी सीढ़ियां नहीं चढ़ सकते. वो रूखेपन से कहते हैं, “मदद मिल तो सकती है. लेकिन तभी जब वो इंसान आ जाए.”

जिमि के जीवन में ये परेशानियां एक शहर में रहने और एक सरकारी कॉलेज में पढ़ने के बावजूद हैं – एक ऐसा संस्थान जिसे स्कीम फॉर इम्प्लीमेंटेशन ऑफ द राइट्स ऑफ पर्सन्स विद डिसेबिलिटीज एक्ट यानी विकलांग व्यक्तियों के लिए एक बाधा-मुक्त वातावरण प्रदान करना, या (एसआईपीडीए) के ज़रिए विकलांग लोगों को सुविधाएं (एक्सेसिबिलिटी) प्रदान के लिए सरकार से धन मिलता है. यह एक ऐसा कानून है जिसके तहत सभी सरकारी और निजी इमारतों, ट्रांसपोर्ट और सूचना तंत्र की उपलब्धता को सुगम बनाना ज़रूरी है.

लेकिन कानून के तहत जारी फंड लगभग ना के बराबर खर्च हो रहे हैं. जबकि भारत का कुल खर्च सिर्फ पांच सालों में दो-तिहाई बढ़ गया है, विकलांग बजट कम होता गया है. लगातार चार सालों में, केंद्र ने अपने सालाना विकलांग बजट के कुल 851.66 करोड़ रुपये में से सिर्फ 354.21 करोड़ रुपये ही जारी किए. इतना ही नहीं, जारी की गई रकम का भी काफी हिस्सा बिना इस्तेमाल हुए ही रह गया.

2022-23 में, एसआईपीडीए फंड की 72 फीसदी राशि लैप्स हो गई. 2024-25 में दिसंबर तक, विकलांगों के लिए तय बजट का सिर्फ 25 फीसदी ही खर्च हुआ था. विकलांगों को दी जाने वाली पेंशन, 80 साल से कम उम्र के सभी वयस्क विकलांगों के लिए आज भी 300 रुपये प्रति महीने पर ही अटकी हुई है.

बजट की उलझन, सोच की समस्या

2020-21 से 2023-24 तक के बजट डाटा से पता चलता है कि असल में केंद्र का खर्च सालाना एसआईपीडीए बजट से बहुत कम था, जिसमें किसी भी साल में सबसे बड़ा लैप्स 2022-23 में 72.7 प्रतिशत रहा. 2020-21 में, बजट के संशोधित अनुमान में 148.07 करोड़ रुपये (बजटीय अनुमान या बजट एस्टीमेट का 58.9 प्रतिशत), 2021-22 में 101.33 करोड़ रुपये (BE का 48.3 प्रतिशत), 2022-23 में 174.8 करोड़ रुपये (BE का 72.7 प्रतिशत) और 2023-24 में 73.21 करोड़ रुपये (BE का 48.8 प्रतिशत), की कमी आई. साथ ही, दिसंबर 2024 तक 2024-25 के बजट की नीत राशि का केवल 25 फीसदी ही खर्च हुआ था.

केंद्र सरकार की विकलांगजन सशक्तिकरण विभाग की सालाना रिपोर्ट से मिले डाटा से पता चलता है कि चार सालों में, कुल बजट रकम का सिर्फ़ 41.6 फीसदी ही जारी हुआ, और ज़मीन पर तो उससे भी कम खर्च हुआ.

इस विश्व विकलांग दिवस पर, जिसकी इस साल की अवधारणा, सामाजिक प्रगति के लिए विकलांगों को शामिल करने वाले समाजों को बढ़ावा देना है - इस विषय पर भारत में इच्छाशक्ति की बहुत बड़ी कमी दिखाई पड़ती है.

ऑटिज्म पर काम करने वाली एक नॉन-प्रॉफिट संस्था, एक्शन फॉर ऑटिज्म में रिसर्च और ट्रेनिंग की डायरेक्टर डॉ. निधि सिंघल का कहना है कि सरकार की सोच की कमी, उसके इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी से ज़्यादा बड़ी है. सरकारी कर्मचारियों की ट्रेनिंग देने वाले प्रयासों का हिस्सा होने के नाते, उन्होंने दावा किया कि सरकारी जगहों पर सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षा कर्मचारियों को बेसिक ट्रेनिंग की कमी है.

उन्होंने कहा, “दो सिस्टम हैं. एक ठोस सिस्टम बजट, स्कीम, इंफ्रास्ट्रक्चर का. और दूसरा सोच का सिस्टम– विकलांगता के बारे में हमारी साझा सोच.” उन्होंने विकलांगों के लिए स्वास्थ्य बीमा की ओर इशारा किया. भारत में एक सरकारी स्कीम है, निरामय, जिसमें “मुश्किल से 1-2 लाख रुपये का कवर” है. उन्होंने कहा कि प्राइवेट इंश्योरेंस कंपनियां या तो “पहले से मौजूद” नुक्ते का हवाला देकर मानसिक स्वास्थ्य, और न्यूरोडेवलपमेंटल कंडीशन यानी तंत्रिका विकास संबंधी बीमारियों के लिए मना कर देती हैं, या भुगतान के वक्त रफूचक्कर हो जाती हैं. “यहां तक ​​कि जो परिवार सही इंश्योरेंस का खर्च उठा सकते हैं, उनके पास भी यह ऑप्शन नहीं होता.”

डॉ. सिंघल ने कुछ ऐसे संस्थानों के बारे में भी बताया जहां बच्चों को अभी भी जकड़ा जाता है, बांधा जाता है, या स्कूल बैग में रेत की बोरियां और पत्थर भरकर उन पर लाद दिए जाते हैं, ताकि वे “भागें नहीं”. गांव या बहुत गरीब इलाकों में माता-पिता अक्सर बच्चों को बेरहमी से नहीं बल्कि इसलिए बांधते हैं क्योंकि वे गुजारे के लिए काम करते हुए, भटकते बच्चे का पीछा नहीं कर सकते.

मूलभूत ढांचे की कमी

डॉ. प्रियांशु, जो खुद भी सीएमटी से पीड़ित हैं, कहते हैं कि “लोग विकलांगों को इंसान नहीं समझते. वे हमें झेला जाने वाला बोझ समझते हैं, ऐसी चीज़ जिसपर तरस खाया जाता है, या कुछ तो दिव्य और दूर की चीज़ समझते हैं.”

दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 ने पहले के 1995 के कानून की जगह ली थी, और विकलांगता की पहचान को 7 से बढ़ाकर 21 कैटेगरी तक कर दिया था - जिसमें ऑटिज्म, सेरेब्रल पाल्सी, मस्कुलर डिस्ट्रॉफी और कई तरह की विकलांगता पैदा करने वाली परिस्थितियां शामिल हैं. लेकिन डॉक्टर प्रियांशु के मुताबिक, सीएमटी के लिए कोई नेशनल रजिस्ट्री नहीं है. उन्होंने बताया कि कोई आधिकारिक नंबर नहीं हैं, मतलब कोई क्लिनिकल ट्रायल नहीं, कोई मैपिंग नहीं और कोई जेनेटिक रिकॉर्ड भी नहीं है.

प्रियांशु कहते हैं कि इस रजिस्ट्री का होना, कॉन्ट्रा-इंडिकेटेड दवाओं की वजह से ज़रूरी है. ये दवाएं आमतौर पर दूसरी बीमारियों के लिए दी जाती हैं लेकिन सीएमटी वाले लोगों के लिए नुकसानदायक होती हैं क्योंकि उनकी तंत्रिकाएं नाज़ुक होती हैं, और ये दवाएं सीएमटी वाले लोगों में नकारात्मक, कभी-कभी नुकसानदायक लक्षण पैदा करती हैं. मसलन, एक साधारण एंटीबायोटिक मांसपेशियों की कमजोरी को और बिगाड़ सकती है. कुछ ऑपरेशन के दौरान बेहोश करने वाली दवाएं गंभीर दिक्कतें पैदा कर सकती हैं. यहां तक कि कुछ स्टेरॉयड भी नुकसान को और तेज़ी से कर सकते हैं.

जिस देश में कोई रजिस्ट्री नहीं है, वहां डॉक्टर को कैसे पता चलेगा कि क्या दवा नहीं लिखनी है?

डॉ. प्रियांशु के मुताबिक एक समस्या उपकरणों की भी है. सीएमटी के मरीजों को अक्सर कार्बन-फाइबर एंकल-फुट ऑर्थोसिस यानि हल्के ब्रेसेस की जरूरत होती है, जो संतुलन और चलना-फिरना बनाए रखने में मदद करते हैं. विकसित देशों में ऐसे ब्रेसेस, एक साधारण मानक की तरह होते हैं. पर भारत में, सरकारी अस्पताल अभी भी पोलियो के ज़माने के डिज़ाइन किए गए कैलिपर बनाते हैं.

एक मुद्दा डाटा का भी है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुमान से दुनिया की लगभग 15 फीसदी आबादी किसी न किसी तरह की विकलांगता के साथ जी रही है. वहीं भारत सरकार का आधिकारिक दावा है कि औसतन 2.1 फीसदी भारतीय ही विकलांग हैं.

सालों की बनी पॉलिसी के बावजूद विकलांगों का सामाजिक समावेश बहुत पीछे रह गया है. दिव्यांगजन सशक्तिकरण विभाग ने पीएम-दक्ष नाम का एक पोर्टल लॉन्च किया है, जो विकलांग लोगों को संभावित काम देने वालों से जोड़ता है. लेकिन एचआर और डीईआई फर्म ‘मार्चिंग शीप’ द्वारा बुधवार को जारी की गई एक रिपोर्ट कथित तौर पर एक जरूरी रिक्तता पर रोशनी डाली. दरअसल, 59 सेक्टरों की 876 कंपनियों को कवर करने वाली इस सूची के मुताबिक, लिस्टेड भारतीय कंपनियों में 1 प्रतिशत से भी कम में दिव्यांगजनों (विकलांगों) का प्रतिनिधित्व था, जिसमें से 37.9 प्रतिशत कंपनियों में कोई स्थाई दिव्यांग कर्मचारी नहीं था. 

इस बीच, नेशनल पॉलिसी के मुकाबले निजी हॉस्पिटैलिटी सेक्टर विकलांगजनों को लेकर ज्यादा तेज़ी से अपने में बदलाव करता दिखता है. हमने वेबसाइट ट्रिप-एडवाइजर पर डिसेबिलिटी के बारे में लोगों की जानकारी का स्तर जानने के लिए एक साधारण तरीका अपनाया. साथ ही दिल्ली के सभी लिस्टेड होटलों को व्हीलचेयर की उपलब्धता के लिए फ़िल्टर किया. पता चला कि लगभग 5.68 फीसदी प्राइवेट होटल व अन्य रुकने के ठिकानों में संभावित विकलांग ग्राहकों के लिए सुविधाएं उपलब्ध हैं. ये सरकार के 2 फीसदी के आंकड़े के मुकाबले दोगुनी से भी ज्यादा है.

न्यूज़लॉन्ड्री ने दिव्यांगजन सशक्तिकरण विभाग को एक प्रश्नावली भेजी है. इस विभाग सामाजिक न्याय एवं आधिकारिता मंत्रालय के अधीन है. जिस पर भारत में विकलांग लोगों के मुद्दों पर ध्यान देने की ज़िम्मेदारी है. अगर विभाग की ओर से कोई जवाब मिलता है तो उसे इस कॉपी को अपडेट कर दिया जाएगा.

गौरतलब है कि पिछले साल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि उनकी सरकार “दिव्यांगजन” के लिए एक समावेशी भारत बनाने के लिए प्रतिबद्ध है. लेकिन जब तक मूलभूत ढांचे कानून से कदम मिलाकर नहीं चलते, तब तक देश के विकलांग नागरिक ऐसे तंत्र में जीते रहेंगे, जो उनपर यदा-कदा ही नज़र डालता है. 

*पहचान सुरक्षित रखने के लिए नाम बदला गया है.

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