सोशल मीडिया के लिए भले ही नीतीश कुमार आउटडेटेड नेता हों लेकिन बिहार में अपनी राजनीतिक चतुराई से उन्होंने एक बड़ा वोट बैंक तैयार किया है. जो उनके ही साथ रहा.
पटना में तीनों प्रमुख पार्टियों- राष्ट्रीय जनता दल, भाजपा और जदयू के कार्यालय एक ही सड़क पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर स्थित हैं. शुक्रवार दोपहर भाजपा और जदयू के कार्यकर्ता जश्न मनाते हुए एक कार्यालय से दूसरे कार्यालय के बीच आते-जाते दिखाई दे रहे थे. इसी दौरान मिले बीजेपी कार्यकर्ता संजय दुबे बातचीत में कहते हैं, “इतनी सीटों की उम्मीद तो भाजपा ने भी नहीं की थी. हमारा अनुमान था कि एनडीए को लगभग 140-150 सीटें मिलेंगी.”
संजय ही नहीं, बल्कि दर्जनों जदयू और भाजपा कार्यकर्ताओं ने भी न्यूज़लॉन्ड्री से बातचीत में यही बात कही.
सुबह आठ बजे से मतदान की गिनती शुरू हुई. शुरुआती रुझान में ही एनडीए ने बड़ी बढ़त ली जो बाद में नतीजों में भी तब्दील हुई. 243 सीटों में से 202 सीटें एनडीए गठबंधन ने जीत ली हैं. इसमें बीजेपी को 89, जदयू को 85, लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) को 19, हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा को पांच और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक मोर्चा को चार सीटें आई हैं.
महागठबंधन के हिस्से में महज 35 सीटें आई. इसमें राष्ट्रीय जनता दल की 25, कांग्रेस की छह, सीपीआई (एमएल) की दो, इंडियन इन्क्लूसिव पार्टी (आईआईपी) और सीपीआई (एम) को एक- एक सीटों पर जीत मिली है.
बाकी बची 6 सीटों में से पांच एआईएमआईएम और एक बसपा जीतने में कामयाब रही.

एनडीए की जीत में महिलाओं की बड़ी भूमिका
नीतीश कुमार साल 2005 से बिहार के मुख्यमंत्री बने हुए हैं. लेकिन उनके खिलाफ कहीं कोई नाराजगी नजर नहीं आती है. सोशल मीडिया में भले उन्हें लेकर तमाम तरह की अटकलें हो लेकिन बिहार की एक बड़ी आबादी का अभी भी उन पर भरोसा कायम है. जातीय समीकरणों के के इर्द-गिर्द घूमने वाली बिहार की राजनीति में कम आबादी वाली जाति से आने के बावजूद कुमार ने बहुत ही चतुराई से अपना वोट बैंक तैयार किया है. जो उनके साथ लगातार बना हुआ है. यह महिलाओं का वोट है. इस चुनाव के परिणाम में भी पहली नजर में यही लगता है.
एनडीए की इस बड़ी जीत में महिला वोटरों की भूमिका सबसे अहम मानी जा रही है. साल 2005 में सत्ता में आने के बाद से ही नीतीश कुमार ने महिलाओं को ध्यान में रखते हुए कई योजनाएं शुरू कीं. लड़कियों को साइकिल वितरण, पंचायत चुनावों में महिलाओं के लिए आरक्षण, शराबबंदी आदि. इन कदमों ने महिलाओं में उनकी मजबूत पकड़ बनाई.
चुनाव की घोषणा से ठीक कुछ दिनों पहले जीविका से जुड़ी महिलाओं को कारोबार के लिए 10-10 हजार रुपये दिए गए. इससे पहले उन्हें ब्याज पर ही ऋण मिलता था, लेकिन पहली बार यह राशि बिना ब्याज के और वापस न करने की शर्त के साथ वितरित की गई. यह कदम चुनाव में एनडीए के लिए ‘मास्टर स्ट्रोक’ साबित हुआ.
पुरुषों की तुलना में महिलाओं ने इस बार भी मतदान में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया. जहां 62.98 प्रतिशत पुरुषों ने ही मतदान किया वहीं 71.78 प्रतिशत महिलाएं मतदान के लिए बूथ तक पहुंची.

बिहार के कुछ इलाकों में महिलाओं ने यह भी कहा कि नमक मोदी-नीतीश का खा रहे हैं. उससे नमक-हरामी नहीं करेंगे. अक्सर यह माना जाता है कि पुरुषों के कहने पर महिलाएं वोट देती हैं लेकिन कई पुरुषों की शिकायत है कि महिलाओं ने उनके कहे के बाहर जाकर एनडीए को वोट किया है.
हालांकि, महागठबंधन ने भी जीविका से जुड़ी महिलाओं को 30 हजार रुपये देने का वादा किया था. साथ ही माई-बहिन सम्मान योजना समेत कई आर्थिक मदद देने समेत कई वादे किए थे. लेकिन हमें रिपोर्टिंग के दौरान मिली कई महिलाओं ने बताया कि तेजस्वी यादव तो देने अभी वादा कर रहे हैं जबकि नीतीश तो दे ही रहे हैं.
महिलाओं का तर्क सुनकर लगता है कि उन्होंने हाथ में आई मदद पर ज्यादा भरोसा किया न कि भविष्य के वादे पर. झारखंड के चुनावों में भी हमें इसकी एक बानगी देखने को मिली थी.
बिहार में कुल 3.51 करोड़ महिला वोटर हैं. इसमें से 1.20 करोड़ के आसपास जीविका से जुड़ीं महिलाओं के खाते में 10-10 हजार रुपये भेजे गए. जीविका से जुड़ीं महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा एनडीए के पक्ष में गया ही. इसके साथ ही जीविका की महिलाओं ने ग्राउंड में एनडीए के दलों के लिए वोट भी जुटाया. उनकी रैलियों में भीड़ का हिस्सा भी बनी.
आर्थिक मदद के अलावा महिलाओं का वोट एनडीए के पक्ष में जाने के पीछे सुरक्षा भी एक बड़ा कारण रहा. ऐसा लगता है कि राजद कार्यकाल के ‘जंगलराज’ का डर अभी भी लोगों के मन से निकला नहीं है. और जिन लोगों ने उस दौर को नहीं देखा है, इस बार एनडीए के नेता अपनी रैलियों में बार-बार उसकी याद दिलाते नजर आए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगभग हर सभा में ‘जंगलराज’ दोहराते थे. दैनिक भास्कर की एक रिपोर्ट के मुताबिक नरेंद्र मोदी ने 16 रैलियों में 300 बार ‘जंगलराज’ और 90 बार ‘कट्टा’ शब्द का जिक्र किया. उन्होंने कथित तौर पर राजद के समर्थन में बने गाने को भी मंच से सुनाया.
सुरक्षा का मुद्दा बिहार की महिला वोटरों का एनडीए के प्रति रुझान बढ़ाने में अहम कारक साबित हुआ नजर आ रहा है. महिलाओं के अलावा पुरुषों में भी यही बात देखने को मिली.
बिहार के पूर्णिया में एक रात ग्यारह बजे मैं बस का इंतजार कर रहा था. वहीं, एक दुकान चलाने वाले अभिजीत दास से बातचीत हो रही थी. उन्होंने कहा, ‘‘हमारा देखा हुआ है. रात को सात बजे के बाद यहां कोई नजर नहीं आता था. आते-जाते लोगों की गाड़ियां छीन ली जाती थीं. सड़कों की हालत भी खराब थी. नीतीश कुमार के सत्ता में आने के बाद, सड़कों की हालत सुधरी और सुरक्षा भी बढ़ी है. अब हम तीन से चार घंटे में पटना पहुंच जाते हैं. देर रात को भी कहीं आ-जा सकते हैं. इंसान को और क्या चाहिए? सरकार कोई भी आए, हमें तो कमा कर ही खाना है, लेकिन काम करने के लिए तो माहौल नीतीश राज में ही मिला है.’’
पटना में भी इस तरह की बातें करते आपको लोग मिल जायेंगे.

इसके अलावा चुनाव से कुछ महीने पहले वृद्धा पेंशन को लेकर नीतीश कुमार ने एक बड़ा कदम उठाया. 400 रुपये की जो राशि पहले बुजुर्गों को मिलती थी, उसे बढ़ाकर 1100 रुपये कर दिया गया है.
बिहार के बड़े तबके को राशन मिल ही रहा था. वहीं, एनडीए सरकार ने चुनाव से पहले कई ‘‘मुफ्त योजनाओं’’ की घोषणा की. जिससे एक बड़े तबके को फायदा मिला. जो नीतीश कुमार मुफ्त में बिजली देने का विरोध करते थे, उन्होंने 125 यूनिट मुफ्त बिजली देने की घोषणा की.
इन तमाम योजनाओं की तरह ही तेजस्वी यादव ने भी दर्जनों घोषणाएं की. लेकिन मानो जनता ने उसपर भरोसा नहीं किया. जैसे कि यादव ने कहा कि हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी दी जाएगी. इस वादे पर जगह-जगह लोग सवाल उठाते नजर आए कि इतनी नौकरिया लाएंगे कहां से.
वहीं, कई गांवों में हमने देखा कि उनकी घोषणाएं भी लोगों तक पहुंच नहीं पाई थी.
महागठबंधन की कमजोरी
बिहार में एक तरफ जहां एनडीए के घटक दल एकजुट होकर चुनाव लड़ते नजर आए. वहीं महागठबंधन में चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान भी खींचतान साफ दिखती रही. यहां तक कि इसे ‘फ्रेंडली फाइट’ तक का नाम दिया गया. नामांकन के आखिरी दिन तक सीट शेयरिंग की कोई स्पष्ट घोषणा नहीं थी. कई जगहों पर महागठबंधन से जुड़े दलों ने अपना-अपना उम्मीदवार उतार दिया. कुछ ने नामांकन वापस लिया लेकिन 9 विधानसभा सीटों में महागठबंधन के उम्मीदवार आमने-सामने लड़े.
एक दिलचस्प घटना और देखने को मिली. दरभंगा के गौरा‑बौराम विधानसभा क्षेत्र से वीआईपी पार्टी से संतोष सहनी चुनाव लड़ने वाले थे. यहां से राजद से अफजल अली खान मैदान में थे. खुद राजद ने पहले खान को टिकट दिया था लेकिन वीआईपी के खाते में सीट जाने के बाद खान को नाम वापस लेने के लिए कहा गया, जो उन्होंने नहीं लिया. पार्टी ने उन्हें निष्काषित कर दिया. यहां चुनाव से पहले तेजस्वी यादव ने वीडियो जारी कर संतोष साहनी को वोट देने की अपील की. उसी शाम साहनी चुनाव से बाहर हो गए और अफजाल खान को समर्थन दे दिया. हालांकि, अफजाल खुद भी यह चुनाव हार गए हैं. इस तरह महागठबंधन में तालमेल की भारी कमी दिखी.

बिहार में चुनाव प्रचार के दौरान बारिश हुई. खराब मौसम के चलते हेलीकाप्टर नहीं उड़ सकता था. ऐसे में तेजस्वी यादव समेत महागठबंधन के कई स्टार प्रचारक, प्रचार के लिए नहीं पहुंचे. वहीं, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सड़क मार्ग से अलग-अलग जिलों में जाकर अपने उम्मीवारों के लिए वोट मांगते नजर आए.
2020 की तुलना में तेजस्वी ने लगभग आधी संख्या में चुनावी सभाएं की हैं. राहुल गांधी भी चुनाव में कम ही दिखे. जबकि अमित शाह लगातार कई दिनों तक पटना में ही डेरा डाले रहे. बीजेपी को जिस सीट में थोड़ी बहुत हार की संभावना दिख रही थी, वहां उसके वरिष्ठ नेता खुद जाकर दूसरे उम्मीदवारों को चुनाव से हटाने की कोशिश करते नजर आए. जैसा कि दानापुर और बक्सर में हुआ.
बीजेपी ने तो हर जिले में अपने सांसदों और विधायकों को जिम्मेदारी दी हुई थी. किशनगंज में हमें दिल्ली बीजेपी के विधायक नजर आए जो पार्टी के लिए प्रचार कर रहे थे.
वीआईपी पार्टी के प्रमुख मुकेश सहनी ने जहां चुनाव से पहले दबाब बनाकर खुद को उपमुख्यमंत्री घोषित करा लिया लेकिन नतीजों में उनका खाता तक नहीं खुला. सहनी को उपमुख्यमंत्री की घोषणा के बाद मुस्लिम वोटरों में नाराजगी देखने को मिली. सोशल मीडिया में यह चलने लगा कि तीन प्रतिशत वोटर वाली जाति को उपमुख्यमंत्री का पद और 18 प्रतिशत मुस्लिम को कुछ नहीं. मुस्लिम तबका राजद का लंबे समय से वोटर है. संभवतः इस नाराजगी का भी खामियाजा महागठबंधन को भुगतना पड़ा. कई मुस्लिम बाहुल्य वोटरों वाली सीट महागठबंधन हार गई.
पालीगंज से पटना शहर आते हुए हमारी मुलाकात रंजन शाह से हुई. शाह रोजगार को लेकर परेशान दिखे. उन्होंने बताया कि तेजस्वी को वोट तो देना चाहते हैं लेकिन इसलिए नहीं दे रहे कि यादवों का मन बढ़ जाएगा. उन्होंने कहा कि अभी तो ये जीते भी नहीं कि कहना शुरू कर दिया है कि सरकार आने दो ठीक कर देंगे. ऐसा हमें कई जगह सुनने को मिला.
राजद का बड़ा वोटर यादव समाज से ताल्लुक रखने वाला है. चुनाव के दौरान उनका उग्र व्यवहार अन्य जातियों को राजद के करीब जाने से रोकता है. ऐसे में देखें तो राजद अन्य जातियों को जोड़ भी नहीं पा रही है. 2020 में राजद का वोट प्रतिशत 23.11 था जो इस बार भी 23 प्रतिशत के करीब ही पहुंचा है. यानी राजद का वोट घट रहा है.
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