जैसे-जैसे युवा शक्ति से होने वाला फायदा चरम पर आ रहा है और असमानता बढ़ती जा रही है, विवेक कौल इस कशमकश में हैं कि इससे पहले कि यह अवसर हाथ से निकल जाए, क्या हम 2000 के दशक की शुरुआत की उम्मीदों को फिर से जगा सकते हैं?
2005 के 59वें स्वतंत्रता दिवस के जश्न के कुछ हफ़्ते बाद सितंबर में मूसलाधार बारिश वाले एक दिन, मुझे मुंबई में अपनी पहली नौकरी का मौका मिला. वो मौसम आत्मविश्वास से भरी अकड़ का था. भारत "अगला चीन" था, शेयर बाजार तेजी से चढ़ रहा था और आशावाद मानसून की बारिश से भी तेज से बरस रहा था.
एक दैनिक समाचार पत्र के लिए एक व्यक्तिगत वित्त लेखक के रूप में मैं दूसरों के पैसे का प्रबंधन (OPM) के व्यवसाय से जुड़े लोगों– जिन्हें आम तौर पर फंड मैनेजर कहा जाता है– से मिलता, और उनमें से कोई भी भारत की विकास गाथा के बारे में बातें कहने से खुद को नहीं रोक पाता था.
अगले कुछ वर्षों तक, जितने भी फंड मैनेजरों से मैं मिला, मुझे बार-बार यही बताया कि भारत की विकास गाथा आने वाले दशकों तक मजबूती से चलती रहेगी.
और निश्चित रूप से वे लोग इस बारे में गलत नहीं थे, कम से कम थोड़े समय के लिए तो नहीं: 2005-06 और 2007-08 के बीच, भारतीय अर्थव्यवस्था 9 प्रतिशत प्रति वर्ष (2004-05 के स्थिर मूल्यों पर) से भी तेज़ गति से बढ़ी- एक ऐसी उपलब्धि जो हमारे इतिहास में पहले कभी नहीं देखी गई. देश अजेय लग रहा था.
फिर 2008 का वित्तीय संकट आया, और "अगले चीन" का सपना पलक झपकने से पहले ही बिखर गया. बैंकों के पास 10 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा के डूबे लोन जमा हो गए. मुद्रास्फीति दोहरे अंकों में पहुंच गई. कई कॉर्पोरेट्स ने आपूर्ति की उस क्षमता को खड़ा किया, जिसकी कोई वास्तविक मांग नहीं थी.
इसके बाद नोटबंदी, जल्दबाजी में जीएसटी लागू करना, और कोविड महामारी आई– इन सभी ने अर्थव्यवस्था को उस 9 प्रतिशत के दायरे से और दूर धकेल दिया.
2007-08 से 2024-25 तक, विकास दर औसतन 6 प्रतिशत प्रति वर्ष (2011-12 के स्थिर मूल्यों पर) से थोड़ी ज्यादा रही. जैसा कि आर्थिक विकास का इतिहास हमें बताता है, ये भी काफी अच्छी है, लेकिन 6 प्रतिशत की दर से अर्थव्यवस्था लगभग 12 वर्षों में दोगुनी हो जाती है; 9 प्रतिशत की दर से, इसमें केवल आठ साल लगते हैं.
इसके अलावा, क्या विकास साम्यिक है और पूरे देश में एक सा फैला हुआ है, यह भी बहुत मायने रखता है.
15 अगस्त, 2025 को भारत अपना 79वां स्वतंत्रता दिवस मनाएगा, और हम अपनी स्वतंत्रता के 78 वर्ष पूरे करेंगे. बरसात के उस दिन को लगभग 20 वर्ष बीत चुके हैं, जब मैं उस शहर में पहुंचा जो कभी नहीं सोता, उस शहर में जिसकी एक किंवदंती "आत्मा" है जो इसे हमेशा चलाए रखती है.
जब तक कि आप व्हाट्सएप पर शेयर की जाने वाली हर बात पर भरोसा न करते हों, तो ये स्पष्ट है कि आज दो दशक बाद ये आशावाद घट गया है.
जनसंख्या के जिस लाभांश ने इस अहं को बढ़ावा दिया था, वह अपने चरम पर है– और नौकरियों, शिक्षा, स्वास्थ्य और व्यापार करने में आसानी में तत्काल संस्थागत सुधारों के बिना यह वादा यूं ही हाथ से फिसल सकता है.
वो जोश अभी भी कायम है. पर सवाल यह है– क्या वो दंभ अभी भी बरकरार है?
भारत की विकास गाथा
जटिल तर्क, जिन्हें कुछ शब्दों में संक्षेप में कहा जा सके, ज़्यादा प्रभावी होते हैं.
तो, भारत की विकास गाथा क्या थी/है? सरल शब्दों में, यह मूलतः भारत का जनसंख्या से होने वाला फायदा है. लेकिन भारत के इस लाभांश की बात, भारत की विकास गाथा जितनी मोहक नहीं है.
और जनसंख्या से होने वाला फायदा, या जनसांख्यिकीय लाभांश क्या है?
जनसांख्यिकीय लाभांश किसी देश के जीवन चक्र में कुछ दशकों तक फैली वो अवधि है, जब घटती जन्म दर के चलते आश्रितों- बच्चों और बूढ़ों- की जनसंख्या में हिस्सेदारी कम हो जाती है, जिसकी वजह से कामकाजी उम्र के लोगों, विशेष रूप से युवाओं (15-29 आयु वर्ग के) का अनुपात अपेक्षाकृत बढ़ जाता है.
जैसे-जैसे अधिक युवा देश के काम करने वाले तबके में आएंगे, नौकरियां हासिल करेंगे, आमदनी करेंगे और पैसा खर्च करेंगे, इससे आर्थिक विकास में पहले के मुकाबले तेजी आने की उम्मीद है. यह बदलाव आर्थिक विकास को बढ़ावा दे सकता है, क्योंकि जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा काम करने, खर्च करने, बचत करने और निवेश करने में सक्षम है.
हालांकि, यह लाभांश खुद-ब-खुद नहीं होता है. इसके लाभ पर्याप्त नौकरियां पैदा करने, शिक्षा और कौशल में निवेश करने, स्वास्थ्य मानकों में सुधार लाने और राजनेताओं व नौकरशाहों द्वारा तैयार की गई माकूल आर्थिक नीतियों को लागू करने पर निर्भर करते हैं, जिससे व्यापार करना आसान हो जाता है.
या दूसरे शब्दों में कहें तो, अनुकूल जनसंख्या तेज विकास की संभावनाएं पैदा कर सकती है, लेकिन इसकी गारंटी नहीं देती. सही नीतियों और संस्थागत क्षमता के बिना, यह संभावना आसानी से बर्बाद हो सकती है.
ऐसा क्यों है? आर्थिक विकास का इतिहास हमें दिखाता है कि जो देश अपने जनसांख्यिकीय लाभांश का फायदा उठा सकते हैं, वे ऐसा सबसे पहले निर्यात बाजार के लिए कम कौशल वाली चीज़ों, जैसे कपड़े, खिलौने, जूते, स्नैक्स, इलेक्ट्रॉनिक सामान की असेंबली और साइकिल जैसी साधारण उपभोक्ता वस्तुओं का निर्माण करके करते हैं.
निर्यात के लिए उत्पादन के इस आर्थिक सूत्र से भारत चूक गया है. इतना ही नहीं, जैसा कि मैंने न्यूज़लॉन्ड्री के एक पुराने लेख में बताया था, अगर हम 1980-81 से 2024-25 तक के आंकड़ों पर नज़र डालें, तो भारतीय अर्थव्यवस्था में उत्पादन क्षेत्र की हिस्सेदारी लगभग तीन दशक पहले, 1995-96 में 17.9 प्रतिशत के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई थी. 2024-25 में ये 12.6 प्रतिशत पर थी, जो 1980-81 के बाद सबसे कम है.
डोनाल्ड ट्रंप द्वारा लगाए गए 50 प्रतिशत के आयात शुल्क से अब भारत के सबसे बड़े निर्यात बाजार अमेरिका के लिए उत्पादन करना और भी मुश्किल हो जाएगा.
उत्पादन की अनियमितता
भारत में उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ चार राज्यों- गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और कर्नाटक- में होता है. भारतीय रिज़र्व बैंक की हैंडबुक ऑफ़ स्टेटिस्टिक्स ऑफ़ इंडियन स्टेट्स के आंकड़े बताते हैं कि 2022-23 में, ताजा उपलब्ध पूर्ण डाटा के अनुसार, ये राज्य भारतीय उत्पादन के लगभग आधे हिस्से (वर्तमान मूल्यों के अनुसार, सटीक रूप से 48.6 प्रतिशत) के लिए जिम्मेदार थे.
इन राज्यों के बाद उत्तर प्रदेश पांचवें स्थान पर आता है. लेकिन सिर्फ आंकड़े भ्रामक हो सकते हैं. उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था या राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में उत्पादन क्षेत्र की हिस्सेदारी 2022-23 में लगभग 10.4 प्रतिशत थी.
अगर हम गुजरात को देखें तो यह हिस्सेदारी 30.6 प्रतिशत थी. महाराष्ट्र, तमिलनाडु और कर्नाटक में ये क्रमशः 13.5 प्रतिशत, 18.1 प्रतिशत और 11.9 प्रतिशत थी. बेशक, इन राज्यों में सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र भी बड़े रूप में मौजूद है, जो हालांकि गुजरात में आम तौर पर नहीं है.
भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्यों में से एक, बिहार के मामले में यह अनुपात 6.8 प्रतिशत है. दिलचस्प बात ये है कि उत्पादन क्षेत्र की बात करें तो आंकड़ों के हिसाब से उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश, बिहार से बड़े हैं. मध्य प्रदेश और राजस्थान के लिए यह अनुपात क्रमशः 7.1 प्रतिशत और 10.5 प्रतिशत है.
कुल मिलाकर बात बहुत सीधी है: भारत में रोजगार सृजन की ज्यादातर आर्थिक गतिविधियां देश के पश्चिमी और दक्षिणी हिस्सों, यानी प्रायद्वीपीय भारत में हो रही हैं. और अगर भारत को अपने जनसंख्या घटक का लाभ उठाना है, तो इस आर्थिक असमानता से युद्ध स्तर पर निपटना होगा.
रांची की कहानी- या आर्थिक गतिविधियां कैसे मदद करती हैं
मैं रांची के कांके रोड स्थित एक सार्वजनिक क्षेत्र की कॉलोनी में पला-बढ़ा, जो उस समय बिहार राज्य था. मेरे पिता कोल इंडिया की एक कंपनी में काम करते थे. जिस सड़क पर मैं पला-बढ़ा, उसके पास कोल इंडिया की तीन कॉलोनियां थीं. हम उनमें से एक कॉलोनी में रहते थे.
उस इलाके की पूरी अर्थव्यवस्था किसी न किसी तरह कोयला खोदने वाले पर निर्भर थी: बैंकों से लेकर किराना दुकानों, सब्जी वालों से लेकर सरसों के तेल में पके, रात में हवा में उड़ती अजिनोमोटो (मोनोसोडियम ग्लूटामेट) से सनी सब्ज़ियों की महक वाले चाइनीज़ खाने बेचने वालों तक.
आने वाले सालों में, कोल इंडिया के कई कर्मचारी पहले मकान किराया भत्ता पाने के लिए उस इलाके में बने नए फ्लैटों में रहने चले गए जो उन्हें कॉलोनियों में रहने पर नहीं मिलता था, और बाद में जब वे सेवानिवृत्त होने लगे.
इस तरह आर्थिक गतिविधियां अप्रत्यक्ष रूप से बड़ी अर्थव्यवस्था को फायदा पहुंचाती हैं.
वास्तव में, बेंगलुरु, पुणे, चेन्नई, हैदराबाद और नोएडा जैसे शहरों में यही हुआ है. जैसे-जैसे सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियों ने अपनी जड़ें जमाईं, इसका बहुत बड़ा अप्रत्यक्ष असर हुए. नौकरियों में उछाल आया, और यह सिर्फ़ इंजीनियरों या एमबीए वालों के लिए ही नहीं था, बल्कि ड्राइवरों, रसोइयों, नौकरानियों, आम मजदूरों, बिजली वाला, पाइप वाला, राजमिस्त्रियों, सुरक्षा गार्डों वगैरह के लिए भी था. रियल एस्टेट कंपनियों ने खूब कमाई की. बैंकों, रेस्टोरेंट, गेमिंग आर्केड, मॉल, मल्टीप्लेक्स, ब्यूटी पार्लर, ऐप कैब, क्विक कॉमर्स कंपनियों, वित्तीय सलाहकारों और कई अन्य सेवा के धंधे वाले लोगों ने भी खूब कमाई की.
लेकिन विकास का यह इंजन कुछ राज्यों के कुछ बड़े शहरों तक ही सीमित रह गया है. और इसके कारण यातायात, दफ्तर आने-जाने में लंबा समय, सार्वजनिक स्थानों की कमी, बेहद महंगी प्रॉपर्टी, पर्यावरण का नुकसान जिसके कारण कई शहरों में बाढ़ आती है, महंगे स्कूल वगैरह बढ़ गए हैं.
वास्तव में, अगर भारत को आने वाले सालों में अपनी आर्थिक वृद्धि को और अधिक समतापूर्ण और अच्छे से वितरित करना है, तो उसे इस असमानता को दूर करना होगा. विकास इंजनों को कुछ राज्यों और कुछ शहरों से आगे बढ़कर दूसरे राज्यों, शहरों और कस्बों की ओर बढ़ना होगा.
रांची की बात एक बार फिर से. एक बात जो मैं कभी समझ नहीं पाया, वो ये कि जिस शहर में मैं पला-बढ़ा, वहां सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियां क्यों नहीं खुल पाईं?
यहां 60 साल से भी ज़्यादा वक़्त से एक हवाई अड्डा मौजूद है. रेलवे स्टेशन बड़े शहरों से काफ़ी अच्छी तरह जुड़ा हुआ है. यहां की स्कूली शिक्षा व्यवस्था भी काफी अच्छी है. ये ऐसी चीज़ें हैं जिन पर भावी कर्मचारी और उन्हें काम देने वाले, किसी नए शहर में जाने से पहले विचार कर सकते हैं. (और इन सबसे बढ़कर, एमएस धोनी भी हैं, जो अपनी अपार सफलता के बावजूद वहीं रहते हैं.)
तो तकनीकी कंपनियों को किसने रोका है? क्या यह पुराने बिहार की बदनामी है, जो अभी भी बनी हुई है?
यह तर्क भी दिया जा सकता है कि रांची में बेंगलुरु, पुणे या हैदराबाद जैसे पर्याप्त इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं हैं. लेकिन यह भी तर्क दिया जा सकता है कि इन शहरों में इंजीनियरिंग कॉलेजों की संख्या तकनीकी कंपनियों के आने के बाद ही बढ़ी.
या हो सकता है कि राज्य सरकारों ने इन कंपनियों को आकर्षित करने के लिए इतने सालों में पर्याप्त प्रयास नहीं किए हों? हकीकत में मुझे इसका जवाब नहीं मालूम, इसलिए मैं केवल अंदाज़ा ही लगा सकता हूं, लेकिन यह प्रश्न मुझे परेशान करता रहता है.
अब मेरी ये बात एक ही लकीर पीटने जैसी लग सकती है, लेकिन आर्थिक गतिविधियों को आज की तरह केवल कुछ राज्यों तक ही सीमित न रहकर, सारे राज्यों में फैलाना होगा.
इसका मतलब है कि राज्य और स्थानीय सरकारों को ज्यादा रुचि लेनी होगी, जो फिलहाल प्रतीत नहीं होता है (मैं यहां पूरे भारत की बात कर रहा हूं, न कि केवल रांची और झारखंड सरकार की).
ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि इस तरह के प्रयास आसानी से या तुरंत वोटों में तब्दील नहीं होते, या शायद इन सरकारों के पास इस तरह की जटिल समस्या से निपटने के लिए पर्याप्त प्रशासनिक क्षमता नहीं है.
पिछले कुछ वर्षों में भारतीय सरकारों ने एक साथ बहुत कुछ करने की कोशिश की है, खुद को बहुत अधिक व्यस्त रखा है, जबकि उनके पास असरदार रूप से काम करने के लिए संसाधन या विशेषज्ञता ही नहीं है.
लेकिन जहां तक समाधानों की बात है, तो यही उसका सार है.
बेरोजगारी और श्रम शक्ति
नीचे दिए दोनों चार्ट देखें. पहला चार्ट श्रम शक्ति भागीदारी की दर दिखाता है. दूसरा बेरोजगारी की दर दर्शाता है. ये आंकड़े सरकार के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण से हैं, और सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के आर्थिक परिदृश्य डेटाबेस से लिए गए हैं.
यह सर्वेक्षण सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा साल की जुलाई से अगले साल की जून तक किया जाता है.
तो श्रम बल भागीदारी की दर क्या है? आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के अनुसार, यह "जनसंख्या में श्रम बल (अर्थात काम करने वाले, काम की तलाश में या काम के लिए उपलब्ध) में शामिल व्यक्तियों का प्रतिशत" है. और बेरोजगारी दर क्या है? यह श्रम बल में शामिल व्यक्तियों में बेरोजगार लोगों का प्रतिशत है.
उपरोक्त दोनों चार्टों के अनुसार, पिछले कुछ वर्षों में श्रम बल भागीदारी की दर में बढ़ोतरी हुई है. साथ ही बेरोजगारी की दर में गिरावट आई है, अर्थात ज्यादा लोग श्रम बल का हिस्सा हैं और लाभकारी रोजगार ले रहे हैं.
तो फिर मैं ये लेख क्यों लिख रहा हूं? आखिर चिंता की क्या बात है?
श्रम बल भागीदारी दर में वृद्धि और बेरोजगारी में कमी, मुख्य रूप से अधिक महिलाओं के श्रम बल का हिस्सा बनने और रोजगार पाने की वजह से है.
2017-18 में, महिला श्रम बल भागीदारी दर (15 वर्ष और उससे अधिक) 23.3 प्रतिशत थी. 2023-24 तक यह बढ़कर 41.7 प्रतिशत हो गई. इस अवधि में महिला बेरोजगारी दर 5.6 प्रतिशत से घटकर 3.2 प्रतिशत हो गई.
यह कैसे हुआ? गोल्डमैन सैक्स रिसर्च की चैत्रा पुरुषोत्तम ने हाल ही में "द इकोनॉमिक ऑपर्च्युनिटी ऑफ़ इंडियाज़ वीमेन वर्कर्स" शीर्षक वाले एक शोध पत्र में लिखा है: "भारत के आधिकारिक श्रम आंकड़े भागीदारी की ऊंची दर दिखाते हैं, शायद इसलिए क्योंकि वे घरेलू और अन्य गैर-कृषि गतिविधियों में सहायता करने वाली अवैतनिक महिला श्रमिकों को भी शामिल करते हैं."
शमीम आरा और पुनीत कुमार श्रीवास्तव, जो क्रमशः भारतीय आर्थिक सेवा और राष्ट्रीय श्रम अर्थशास्त्र अनुसंधान एवं विकास संस्थान में कार्यरत हैं, ने इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में इसी तरह की बात कही है. वे अपने व्यक्तिगत आकलन से लिखते हैं: "भारत में महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर (FLFPR) में वृद्धि, मुख्यतः ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की काम में भागीदारी और कृषि एवं असंगठित क्षेत्र में स्वरोजगार गतिविधियों की स्व-खाते और अवैतनिक कार्य श्रेणी में महिलाओं की कार्य भागीदारी से आ रही है."
इसलिए बेरोजगारी में कमी आने की एक वजह इसकी गणना का तरीका है. इसके अलावा, जैसा कि अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया 2023 रिपोर्ट बताती है: "2019 से महिला रोजगार की दरों में वृद्धि हुई है, जिसकी वजह मुसीबत के चलते स्व-रोजगार में हुई बढ़ोतरी है." यह एक और कारक है जिसे ध्यान में रखना जरूरी है.
आइए अब सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के कंज्यूमर पिरामिड्स हाउसहोल्ड सर्वे द्वारा मापी गई श्रम बल भागीदारी की दर पर नज़र डालें.
श्रम बल भागीदारी दर 2016-17 के 46.2 प्रतिशत से गिरकर 2024-25 में 41.1 प्रतिशत हो गई है. 2023-24 में ये 40.4 प्रतिशत थी.
यह आज की दिखने वाली वास्तविकता के ज़्यादा अनुरूप है क्योंकि इसमें नोटबंदी के नकारात्मक आर्थिक असर, जीएसटी कर के गलत लागू करने, कोविड महामारी और इस तथ्य को ध्यान में रखा गया है कि निजी क्षेत्र, भारतीय अर्थव्यवस्था में निवेश को लेकर सही में उत्साहित नहीं है.
श्रम बल का हिस्सा माने जाने के लिए किसी व्यक्ति की आयु कम से कम 15 वर्ष होनी चाहिए, चाहे वह कार्यरत हो या बेरोजगार, और काम के लिए उपलब्ध हो साथ ही सक्रिय तौर पर नौकरी की तलाश में हो.
यहां "सक्रिय तौर पर नौकरी की तलाश" महत्वपूर्ण है. संक्षेप में इसे समझें तो, केवल नौकरी के प्रस्ताव का इंतजार करना सक्रिय रूप से काम की तलाश नहीं माना जाता है, और ऐसा करने वाले व्यक्ति को श्रम बल का हिस्सा नहीं माना जाता है.
श्रम बल भागीदारी की दर में गिरावट को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि जिन लोगों को रोजगार नहीं मिला, उनमें से कई ने शायद तलाश करना ही छोड़ दिया है, और इसलिए श्रम बल से बाहर हो गए हैं.
इस गिरावट की एक और वजह शायद आम भारतीय युवाओं में सरकारी नौकरी पाने का उत्साह है. वे तब तक कोशिश करते रहते हैं जब तक उनकी उम्र उस सीमा को पार नहीं कर जाती जिसके बाद वे इन नौकरियों के लिए आवेदन नहीं कर सकते. इन परीक्षाओं की तैयारी करने वाले युवा दूसरी नौकरियों की तलाश नहीं करते, इसलिए उन्हें श्रम बल का हिस्सा नहीं माना जाता.
कृषि में छिपी बेरोजगारी
नीचे दिए चार्ट पर एक नज़र डालें. यह पिछले कुछ वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि की हिस्सेदारी को दर्शाता है.
पिछले 20 सालों से भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि की हिस्सेदारी 16-17 प्रतिशत पर स्थिर रही है (महामारी के दौरान आई गिरावट को छोड़कर).
2018-19 में कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का 16 प्रतिशत हिस्सा थी. इसने 42.5 प्रतिशत श्रम शक्ति को रोजगार दिया. 2023-24 में, यह अर्थव्यवस्था का 16.2 प्रतिशत हिस्सा थी और इसने 46.1 प्रतिशत श्रम शक्ति को रोजगार दिया.
इस तथ्य से कई मुद्दे उठते हैं.
पहला, अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी नगण्य होने के बावजूद, ज्यादा लोग कृषि क्षेत्र में काम कर रहे हैं. साफ़ तौर पर यह अच्छी बात नहीं है. इसका मतलब है कि या तो उन्होंने दूसरे, ज्यादा फायदेमंद क्षेत्रों में अपनी नौकरियां खो दी हैं या उन्हें खेती के अलावा कोई नौकरी नहीं मिल रही है.
दूसरा, कृषि में छिपी हुई बेरोजगारी बहुत ज्यादा है, यानी बहुत से लोग कृषि से अपनी आजीविका चलाने की कोशिश कर रहे हैं, जो आर्थिक रूप से व्यवहार्य नहीं है.
पहली नज़र में, वे रोजगार में लगे हुए मालूम होते हैं. पर उनका रोजगार पूरी तरह से उत्पादक नहीं है, क्योंकि इनमें से कुछ रोजगार पाए लोगों के काम करना बंद करने पर भी कृषि उत्पादन पर असर नहीं होगा.
तीसरा, आर्थिक विकास का इतिहास हमें दिखाता है कि लोगों को कम उत्पादक कृषि से ज्यादा फलदायक उत्पादन और उद्योग की ओर काम करने को प्रोत्साहन देकर देश विकासशील से विकसित देश बन गए हैं. पर भारत में ऐसा नहीं हो रहा है.
यदि हम उत्पादन, खनन और उत्खनन, और बिजली व जल क्षेत्रों पर विचार करें, तो 2018-19 में इन क्षेत्रों में कार्यरत श्रम शक्ति का अनुपात 13.1 प्रतिशत था. 2023-24 तक यह घटकर 12.1 प्रतिशत रह गया. इन क्षेत्रों और कृषि के बीच का अंतर बहुत बड़ा है.
आने वाले वर्षों में बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान आदि राज्यों में उत्पादन क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधि शुरू करके इस अंतर को कम करने की सख्त जरूरत है. भारत के युवाओं के लिए यही जरूरी है.
राजनीतिक इच्छाशक्ति
जैसा कि रुचिर शर्मा ने "द 10 रूल्स ऑफ़ सक्सेसफुल नेशन्स" में लिखा है: "[जनसांख्यिकीय] 'लाभांश' तभी फलदायी होता है जब राजनीतिक नेता निवेश आकर्षित करने और रोज़गार पैदा करने के लिए अनिवार्य माहौल तैयार करें… भारत… ने मान लिया था कि उसकी बढ़ती जनसंख्या, उसे जनसांख्यिकीय लाभांश देगी, लेकिन अब वो अपने सभी युवाओं के लिए रोजगार पैदा करने के लिए संघर्ष कर रहा है."
भारत के युवा शक्ति से होने वाला फायदे का सही मायने में लाभ उठाने के लिए- जब तक ये अवसर उपलब्ध है तब तक- निर्वाचित राजनेताओं को नारों और टुकड़ों में हस्तक्षेप से आगे बढ़ना होगा.
उन्हें ऐसी मजबूत और पारदर्शी प्रणालियां बनाने की जरूरत है जो शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और व्यापार करने में आसानी के मामले में वर्तमान स्थिति से लगातार बेहतर परिणाम दें. इसका मतलब है स्कूलों और व्यावसायिक प्रशिक्षण की गुणवत्ता में सुधार करना, ताकि युवा वैश्विक स्तर पर रोजगार के लायक और प्रतिस्पर्धी बन सकें. रटंत विद्या, जो शिक्षा प्रणाली का मूल आधार बन गई है, को खत्म करने की ज़रूरत है.
इसका मतलब है यह सुनिश्चित करना कि सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियां, हमारे काम करने वालों को उत्पादक और सुदृढ़ बनाए रखें.
इसका अर्थ नियमों को सुव्यवस्थित करना, लालफीताशाही को कम करना और सक्रिय रूप से निवेश आकर्षित करना भी है. जो एकमुश्त घोषणा के रूप में नहीं, जिसमें भारतीय राज्य सरकारें बहुत अच्छी लगती हैं, बल्कि एक सतत, राज्य-स्तरीय रणनीति के रूप में.
नेताओं को पूंजी के लिए प्रतिस्पर्धा करने, विश्वसनीय सुधारों का प्रदर्शन करने और अपने राज्यों के सामने आने वाली चुनौतियों के बारे में ईमानदार होने के लिए तैयार रहना चाहिए. इसमें कोई शक नहीं कि केंद्र सरकार के पास सत्ता का केंद्रीकरण इस उद्देश्य में मदद नहीं करता.
और यह सब करना कठिन है. सही में बहुत कठिन है. नागरिकों के बैंक खातों में सीधे पैसा ट्रांसफर करना आसान है, जैसा कि इन दिनों निर्वाचित राजनेताओं के बीच चलन बन गया है.
नकद ट्रांसफर
आर्थिक सर्वेक्षण 2022-23 में बताया गया कि दिसंबर 2022 तक, विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा 2,000 से अधिक नकद ट्रांसफर योजनाएं लागू की जा रही थीं.
सर्वेक्षण में उल्लेख किया गया कि तकनीक में प्रगति ने लाभार्थियों की सटीक पहचान और निशानदेही में उल्लेखनीय सुधार किया है, जिससे लीकेज को कम करने और लाभ वितरण की दक्षता को बढ़ाने में मदद मिली है.
नकद ट्रांसफर और अन्य सरकारी सब्सिडी के बेहतर वितरण ने, राजनेताओं को दिखाई देने वाले फायदे के तरीके बदल दिए हैं.
रघुराम जी राजन और रोहित लांबा ने अपनी किताब "ब्रेकिंग द मोल्ड—रीइमेजिनिंग इंडियाज़ इकोनॉमिक फ्यूचर" में इस ओर इशारा किया है: "राज्य या राष्ट्रीय राजधानी का शीर्ष नेतृत्व अब नकद ट्रांसफर, शौचालय, खाद्यान्न, गैस सिलेंडर या शिक्षा ऋण जैसे विशिष्ट लाभ के वितरण से खुद को जोड़ सकता है, और मतदाताओं के साथ सीधे व्यक्तिगत संबंध बना सकता है."
और इससे बड़े राजनेताओं को मदद मिलती है, जो केंद्र स्तर पर या कम से कम किसी विशेष राज्य के स्तर पर काम करते हैं. वे अपनी ब्रांड या छवि को किसी विशेष नकद ट्रांसफर या सब्सिडी से जोड़कर कर बना सकते हैं, जो उनकी सरकार नागरिकों को प्रदान करती है या ऐसा करने की योजना बना रही है.
जैसा कि राजन और लांबा लिखते हैं: "तो, नया भारतीय कल्याणकारी राज्य ज्यादा साफ है, लेकिन यह राजनीतिक नेताओं की शक्ति को और बढ़ाता है, और इस वजह से उन्हें सार्वजनिक सेवाओं के वितरण में और भी ज्यादा कटौती करने, व लक्षित लाभों की ओर झुकने का प्रोत्साहन मिल सकता है."
नौकरियां पैदा करने वाली प्रणालियां बनाने में समय, कोशिश, मानसिक क्षमता, ऊर्जा और राज्य की क्षमता लगती है. लक्षित लाभों का वितरण- नकदी से लेकर विभिन्न प्रकार की सब्सिडी तक- आसान है. हाल के कई राज्य विधानसभा चुनावों में ये बिल्कुल स्पष्ट हो गया है.
इसका मतलब यह नहीं है कि लक्षित लाभ सिरे से खराब हैं - बिल्कुल नहीं. लेकिन जब वे आर्थिक गतिविधि और नौकरियों के सृजन में मदद करने वाली संस्थागत प्रणालियों को बनाने की कीमत पर आते हैं, तो ये साफ तौर पर एक समस्या है. तब वे अवसरों की कीमत पर अपनी लागतों के साथ आते हैं.
इसमें कोई शक नहीं, और जैसा कि मैंने पहले भी बताया है, भारतीय निजी/कॉर्पोरेट क्षेत्र द्वारा अर्थव्यवस्था में किए गए निवेश में कुछ समय से गिरावट आ रही है. यानी इधर से भी कोई खास मदद नहीं मिलती.
दरअसल, इन लक्षित लाभों और सब्सिडी के वित्तपोषण के लिए, सरकारों को ज्यादा कर और टैक्स से इतर राजस्व अर्जित करना जारी रखना होगा.
2021-22 से 2024-25 तक, केंद्र और राज्य सरकारों की कुल उगाही, सकल घरेलू उत्पाद का 29-30 प्रतिशत रही हैं, जो पहले कभी नहीं देखा गया. इसलिए सरकारों को कल्याणकारी राज्य के वित्तपोषण के लिए धन अर्जित करने के नए तरीके खोजने होंगे.
जनसंख्या से मिलने वाले लाभ का चरम
जो बात इसे और भी मुश्किल बनाती है, वो ये है कि भारत में युवाओं (15-29 वर्ष) की संख्या, या सरल शब्दों में कहें तो भारत का जनसांख्यिकीय लाभांश, शायद पहले ही चरम पर पहुंच चुका है. "भारत में युवा 2022" नामक एक सरकारी रिपोर्ट बताती है: "कुल युवा जनसंख्या 1991 में 22.27 करोड़ से बढ़कर 2011 में 33.34 करोड़ हो गई."
रिपोर्ट का अनुमान है कि 2021 में युवाओं की कुल संख्या 37.14 करोड़ के चरम स्तर पर थी. इसमें आगे अनुमान लगाया गया है कि युवाओं की संख्या 2026 में घटकर 36.74 करोड़, 2031 तक 35.66 करोड़ और 2036 तक 34.55 करोड़ रह जाएगी.
साथ ही, जैसा कि रिपोर्ट बताती है: "केरल में यह चरम 1991 में पहुंच गया था… तमिलनाडु में...2001 की तुलना में 2011 में युवा जनसंख्या कम थी और तब से इसमें गिरावट का रुझान दिख रहा है." लेकिन निर्णायक बात ये है: "बिहार और उत्तर प्रदेश में 2021 तक कुल जनसंख्या के अनुपात में युवा जनसंख्या में वृद्धि देखी गई, और उसके बाद इसमें गिरावट शुरू होने की उम्मीद है."
इसलिए, जनसांख्यिकीय लाभांश हमेशा के लिए नहीं रहेगा. और इसका लाभ उठाने का समय अभी अगले कुछ सालों में ही है.
भारत में युवाओं की बढ़ती तादाद कभी भी समृद्धि की गारंटी नहीं रही. यह केवल अवसरों का एक द्वार था. ये द्वार अब छोटा होता जा रहा है, और आने वाले सालों में युवाओं की संख्या में गिरावट आने की संभावना है.
जनसंख्या में युवा शक्ति से होने वाला फायदे का सही अर्थों में लाभ उठाने के लिए, भारत को आर्थिक गतिविधियों और आर्थिक विकास को कुछ राज्यों और शहरों तक ही सीमित नहीं रखना होगा, रोजगार के लिए तैयार प्रतिभाओं को तैयार करने के लिए शिक्षा में तेजी से सुधार लाना होगा, और उत्पादन एवं औद्योगिक निवेश को आकर्षित करना होगा.
ये सभी मुद्दे जटिल हैं. इसलिए राजनीति आसान, वोट-अनुकूल नकद ट्रांसफर और व्हाट्सएप पर फॉरवर्ड के जरिए समस्याओं के हल ढूंढने की ओर झुकी है, जो हमें बरगलाते हैं कि भारत की विकास यात्रा अभी भी बहुत तेजी से आगे बढ़ रही है.
बिना किसी साहसिक और सतत शासन के, हमारी जनसांख्यिकीय शक्ति एक बोझ में बदल सकती है - शायद ये हो भी गया हो. कुछ करने का समय अभी है. लेकिन क्या ऐसा हो पाएगा? निश्चित रूप से व्हाट्सएप पर जरूर होगा, जहां भारत की विकास यात्रा निरंतर फल-फूल रही है.
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विवेक कौल एक आर्थिक टिप्पणीकार और लेखक हैं.