चार दशक, 'हिरासत में हुई सैकड़ों मौतें', हत्या का कोई मामला साबित नहीं: महाराष्ट्र की अनोखी हकीकत

हिरासत में होने वाली मौतों के मामले में भारत के सबसे खतरनाक राज्य के अंदर न्याय की टूटी हुई राह पर एक नज़र.

WrittenBy:प्रतीक गोयल
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एक चित्र जिसमें महाराष्ट्र के लाल मानचित्र के साथ जेल का खुला हुआ द्वार दिखाया गया है.

यह रिपोर्ट पुलिस ज्यादतियों पर आधारित हमारी खोजी श्रृंखला का हिस्सा है. पिछली रिपोर्ट्स को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

ज़रीना येलामाटी की ज़िंदगी 1993 की एक बरसाती जून की रात में हमेशा के लिए बदल गई. उस वक्त वो सिर्फ 27 साल की थीं और दो बच्चों की मां बन चुकी थीं, जब पुलिस दरवाजा तोड़कर घुस आई. तब वह नागपुर के एक साधारण रेलवे क्वार्टर में अपने पति के बगल में सो रही थीं. 

पुलिस ने दावा किया कि वे एंथनी नाम के एक डकैती के संदिग्ध की तलाश कर रहे हैं. लेकिन जब वो नहीं मिला तो उन्होंने उनके पति, जॉइनस एडम येलामाटी पर हमला कर दिया. एडम एक डीजल मैकेनिक थे और कभी एक पुराने मामले में संदिग्ध थे. 

सुबह तक उनके पति की मौत हो चुकी थी. उन्हें हिरासत में यातनाएं दी गईं. इस वाकये ने उन्हें न्याय की एक ऐसी लड़ाई में धकेल दिया गया, जिसमें उनकी आधी जिंदगी निकल गई. 

जॉइनस को प्रताड़ित करने वाले पुलिस अधिकारियों को अंततः दोषी ठहराने में 25 साल और तीन अलग-अलग अदालतों का लंबा समय लगा. हालांकि, उन्हें हत्या का दोषी नहीं ठहराया गया लेकिन सितंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें सात साल कैद की सजा सुनाई.

यह एक दुर्लभ फैसला था. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आंकड़ों का हवाला देते हुए, स्टेट ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट 2025 के अनुसार, देश भर में ऐसे मामलों में दोष साबित होने की दर शून्य से एक प्रतिशत के बीच है.

सच्चाई तो यह है कि दशकों में बहुत कुछ नहीं बदला है. 1994 में, सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय पुलिस अकादमी द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चला था कि 1985 और 1994 के बीच भारत भर में दर्ज 415 हिरासत में मौतों में से केवल तीन में ही इल्जाम साबित हुए थे.

ये आंकड़े विभिन्न स्रोतों में अलग-अलग हैं, लेकिन भारत में, विशेष रूप से महाराष्ट्र में ऐसे मामले एक ही प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हैं.

2022 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आंकड़ों का हवाला देते हुए लोकसभा में एक सवाल के जवाब में जनवरी 2021 से फरवरी 2022 तक हिरासत में 155 मौतों का उल्लेख किया गया. इनमें से 21 मामलों में अनुशासनात्मक कार्रवाई की गई लेकिन किसी में भी अभियोग दाखिल नहीं हुआ. लोकसभा में दिए मंत्रालय के जवाब के अनुसार, अकेले 2021-22 में पुलिस हिरासत में 29 मौतों के साथ महाराष्ट्र इस सूची में सबसे ऊपर है. 

स्टेट ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट 2025 के अनुसार, महाराष्ट्र में एनएचआरसी के समक्ष दर्ज पुलिस हिरासत में हुई मौतों और बलात्कार के सबसे ज्यादा मामले हैं, 1994 से 2022 तक हर साल औसतन 21 मामले दर्ज होते हैं. 1999 से 2017 के बीच राज्य में हिरासत में हुई 404 मौतों में से केवल 53 मामलों में ही प्राथमिकी दर्ज की गई और केवल 38 में आरोपपत्र दायर किए गए.

लेकिन संक्षेप में कहें तो सार्वजनिक रूप से उपलब्ध जानकारी के अनुसार, कम से कम पिछले चार दशकों में महाराष्ट्र में ऐसे मामलों में हत्या के आरोपों में एक में भी अपराध साबित नहीं हुआ है. और, इन आंकड़ों के पीछे न्याय के लिए लगातार संघर्ष कर रहे परिवार हैं.

उस रात बाद में, उन्हें एक होटल ले जाया गया. ज़रीना और बच्चे वैन में इंतज़ार कर रहे थे, जबकि जॉइनस को अंदर ले जाया गया. जब वह वापस लौटा तो उसे जरा भी होश नहीं था. उसे बिना कोई मामला दर्ज किए रानी कोठी के एक लॉकअप में डाल दिया गया. सुबह तक उसकी मौत हो चुकी थी.

नागपुर: एक दुर्लभ सज़ा

आज, 59 साल की ज़रीना नागपुर के रेलवे मेडिकल क्लिनिक में अटेंडेंट के तौर पर चुपचाप अपना काम कर रही हैं. लेकिन उनके शांत स्वभाव के पीछे 1993 और उसके बाद के वर्षों की दर्दनाक कहानी छिपी है.

ज़रीना ने 24 जून, 1993 की घटना को याद करते हुए कहा, "मेरे पति काम से लौटे थे और हमेशा की तरह उन्होंने अपना ड्यूटी रजिस्टर भरा. हम सब सो रहे थे- हमारे बच्चे सिर्फ आठ और नौ साल के थे- जब पुलिस ने जबरदस्ती घर में घुस आई. उन्होंने कोई सवाल नहीं पूछा. बस उन्हें पीटना शुरू कर दिया."

उन्होंने बताया कि पुलिस वालों ने घर में तोड़फोड़ की और तलाशी के बहाने उनके साथ छेड़छाड़ की. "वे मेरे पति को घसीटकर बाहर ले गए, उन्हें बिजली के खंभे से बांध दिया और लाठियों से पीटते रहे. मेरे बच्चे डरे हुए थे. मैंने उन्हें अपने सीने से लगा लिया था जिससे वो और ना घबराएं, लेकिन हम सब डरे हुए थे"

परिवार को पुलिस वैन में ठूंस दिया गया. मारपीट यहीं रुकी नहीं. उन्होंने बताया, “वैन के अंदर वो मेरे शरीर को छूते रहे और मुझे चिमटी काट (नोच) रहे थे. क्राइम ब्रांच ऑफिस में… उन्होंने जॉइनस को एक कमरे में घसीटा और उसे नंगा कर दिया. दस मिनट बाद उन्होंने मुझे अंदर बुलाया. वह अभी भी नंगा था. एक अधिकारी ने मुझे मारा और फिर मेरी साड़ी के अंदर हाथ डालने की कोशिश की और मेरा मजाक उड़ाया. उसने कहा- 'अपनी निकर मुझे दो, मैं तुम्हारे पति को पहना दूंगा.' मैं आज भी उस रात को नहीं भूली हूं.”

उस रात बाद में, उन्हें एक होटल ले जाया गया. ज़रीना और बच्चे वैन में इंतज़ार कर रहे थे, जबकि जॉइनस को अंदर ले जाया गया. जब वह वापस लौटा तो उसे जरा भी होश नहीं था. उसे बिना कोई मामला दर्ज किए रानी कोठी के एक लॉकअप में डाल दिया गया. सुबह तक उसकी मौत हो चुकी थी.

ज़रीना ने कहा, "मुझे अगले दिन तक पता ही नहीं चला कि उसकी मौत हो गई है," उन्होंने आगे बताया कि उनके पति टीबी के मरीज थे. "वे उसे पूरी रात पीटते रहे… वो एक रेलवे कर्मचारी था. हर दिन, वो ड्यूटी पर जाता और हाजिरी रजिस्टर पर दस्तखत करता. पुलिस उस रजिस्टर की जांच करके पुष्टि कर सकती थी कि वो काम पर था या बाहर कोई अपराध कर रहा था. लेकिन उन्होंने जरा भी परवाह नहीं की."

“सदर पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज हुई. लेकिन ये तो बस शुरुआत थी. एक साल तक मेरे रिश्तेदारों ने चर्च से मेरे लिए चंदा इकट्ठा किया ताकि मैं अपने बच्चों का पेट भर सकूं. मैं 27 साल की थी, विधवा थी और मेरे दो बच्चे थे. मुझे रेलवे में सफाईकर्मी की नौकरी मिल गई क्योंकि जॉइनस रेलवे कर्मचारी था. मैंने 18 साल तक वो नौकरी की और मुकदमा लड़ा.”

लेकिन उनकी लड़ाई सिर्फ अदालत तक सीमित नहीं रही. “एक दिन, कुछ लोग मेरे घर आए और मुझे धमकाया. मुझे गवाही न देने को कहा… मैंने अपने वकील डी. बैसटियन को बताया… तो मुझे पुलिस सुरक्षा मिल गई.”

लेकिन दबाव यहीं खत्म नहीं हुए. उन्होंने दावा किया, “पुलिस ने मुझे खरीदने की भी कोशिश की. मुझे 25-30 लाख रुपये की पेशकश की. मैंने कहा कि मैं उनसे पैसे लेने के बजाय मरना पसंद करूंगी.”

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निचली अदालत में पुलिस वालों को सिर्फ तीन साल की सजा सुनाई गई. पर ज़रीना ने हार नहीं मानी. वह हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट गईं. उन्होंने कहा, "मुझे मुआवजा भी नहीं मिला. लेकिन मुझे पता था कि मुझे आगे बढ़ते रहना है."

2018 में सुप्रीम कोर्ट ने दोषियों को सात साल की जेल की सजा सुनाई.

"मेरी आधी जिंदगी इस लड़ाई में चली गई. लेकिन कम से कम वे जेल तो गए. इससे मुझे थोड़ी शांति मिलती है."

मुंबई: प्रक्रिया में अटके

मुंबई में 64 वर्षीय लियोनार्ड वलदारिस, वडाला स्थित सेंट जोसेफ चर्च की अपनी रोज़ाना की तीर्थयात्रा जारी रखे हुए हैं. हर सुबह वो अपनी बुजुर्ग मां के लिए नाश्ता लेने से पहले दो घंटे प्रार्थना में बिताते हैं. हर शाम वह उस शांति की तलाश में लौटते हैं जो उन्हें अब तक मिल नहीं पाई है. उन्होंने कहा, "चर्च में बैठने से मुझे थोड़ी शांति और उम्मीद मिलती है, हालांकि, मैं हर गुज़रते दिन के साथ दोनों खो रहा हूं."

पिछले 11 सालों से लियोनार्ड अपने बेटे एग्नेलो वलदारिस के लिए न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं. जिसकी कथित तौर पर पुलिस हिरासत में यातना देकर हत्या कर दी गई थी. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद मुकदमा अभी तक शुरू भी नहीं हुआ है.

15 अप्रैल, 2014 को सरकारी रेलवे पुलिस के जासूस लियोनार्ड के घर पहुंचे और संदिग्ध चेन-स्नैचरों की तलाश में उनके बेटे के बारे में पूछताछ की. वह उन्हें धारावी स्थित अपने माता-पिता के घर ले गए जहां 25 वर्षीय एग्नेलो उस रात ठहरा हुआ था.

लियोनार्ड ने दावा किया, "जैसे ही हम घर में दाखिल हुए, पुलिस वाले उस पर टूट पड़े और उसे पीटना शुरू कर दिया. वे तभी रुके जब मैंने उनसे कहा कि मैं ऊपर के अधिकारियों से शिकायत करूंगा."

लियोनार्ड ने दावा किया कि ये "आखिरी बार" था जब उन्होंने अपने बेटे को "सामान्य सेहत" में देखा था. एग्नेलो और उसके तीन दोस्तों को वडाला जीआरपी पुलिस स्टेशन ले जाया गया. जहां उन्हें कथित तौर पर आठ से नौ घंटे तक यातनाएं दी गईं. इन दोस्तों में एक 15 साल का नाबालिग भी शामिल था. 

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कथित तौर पर उन सभी को नंगा कर दिया गया, ग्राइंडर बेल्ट से पीटा गया और उल्टा लटका दिया गया. कथित तौर पर एग्नेलो के एक दोस्त को उस पर और नाबालिग पर यौन क्रियाएं करने के लिए भी मजबूर किया गया. हालांकि बाकी तीन लोगों को आखिरकार 16 अप्रैल को अस्पताल ले जाया गया पर एग्नेलो को थाने पर कथित तौर पर और भी ज्यादा प्रताड़ित किया गया.

17 अप्रैल को जब एग्नेलो को अदालत में पेश नहीं किया गया तो लियोनार्ड ने मजिस्ट्रेट के सामने यह मुद्दा उठाया, जिन्होंने पुलिस को उसे पेश करने का आदेश दिया. जब पुलिस ने आदेश नहीं माना तो लियोनार्ड अदालत का आदेश सीधे वडाला जीआरपी पुलिस थाने ले गए. जहां अधिकारियों ने दावा किया कि एग्नेलो को "मामूली मरहम पट्टी" के लिए सायन अस्पताल ले जाया गया था.

लियोनार्ड ने दावा किया, "मैं अस्पताल भागा और जैसे ही मेरे बेटे ने मुझे देखा, वह फूट-फूट कर रोने लगा और मुझसे उसे बचाने की भीख मांगने लगा. उसके रोते हुए, डरे हुए चेहरे की वह तस्वीर आज भी मुझे सताती है. वह एक मजबूत और प्यार करने वाला लड़का था, लेकिन वह चोटों से भरा हुआ था और चल भी नहीं पा रहा था."

लियोनार्ड ने आरोप लगाया कि उन्हें एक बयान पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया था, जिसमें दावा किया गया था कि उनके बेटे की चोटें खुद की वजह से लगी थीं. उन्होंने धमकी दी कि जब तक एग्नेलो उनकी बात नहीं मान लेता उन्हें अदालत में पेश नहीं किया जाएगा.

लियोनार्ड ने दावा किया, "एग्नेलो ने मुझे बार-बार कुछ भी लिखने या हस्ताक्षर करने से मना किया था लेकिन मुझे अपने बेटे की जान की चिंता थी और मैंने वही लिखा जो पुलिस ने कहा था."

उसी रात 8.30 बजे एग्नेलो को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई. यह आखिरी बार था जब लियोनार्ड अपने बेटे को जिंदा देख पाए.

अगले दिन जब पुलिस एग्नेलो को फिर से अदालत में पेश करने में विफल रही तो लियोनार्ड की पूछताछ में एक चौंकाने वाला खुलासा हुआ. पुलिस ने दावा किया कि एग्नेलो ने हिरासत से भागने की कोशिश की थी और ट्रेन के आगे कूदकर आत्महत्या कर ली थी.

30 अप्रैल, 2014 को एक प्राथमिकी दर्ज करने और पुलिस अधिकारियों द्वारा सबूतों से छेड़छाड़ का आरोप लगाते हुए सीबीआई जांच कराने के बावजूद, यह मामला कामकाजी देरी में उलझा हुआ है.

सीबीआई ने 2016 में आठ अधिकारियों के खिलाफ कथित आपराधिक साजिश, सबूतों से छेड़छाड़, अवैध हिरासत और शारीरिक हिंसा के आरोप में आरोपपत्र दाखिल किया था, लेकिन हत्या के आरोप में नहीं. जब लियोनार्ड ने हत्या के आरोप शामिल करने के लिए बॉम्बे हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया, तो अदालत को 2019 में सीबीआई को आईपीसी की धारा 302 जोड़ने का आदेश देने में तीन साल लग गए. लेकिन तब भी, कार्रवाई आगे नहीं बढ़ी.

वलदारिस परिवार का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील पयोशी रॉय ने कहा, "आरोपियों ने इसे सुप्रीम कोर्ट में फिर चुनौती दी, जिसने निचली अदालत को मामले की नए सिरे से सुनवाई करने का निर्देश दिया. इसे फिर से चुनौती दी गई, इस बार हाईकोर्ट में.”

आठ आरोपी अधिकारियों को अलग-अलग बेंचों में स्थानांतरित किया गया. जिसके अलग-अलग नतीजों ने और देरी की. धारा 302 के तहत आरोपित सात अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा 2019 से रुका हुआ है, जब तक कि हाईकोर्ट यह फैसला नहीं सुना देता कि मुख्य आरोपी जितेंद्र राठौड़ पर हत्या के आरोप लगाए जाने चाहिए या नहीं.

रॉय ने दावा किया, "गहरा आर्थिक और शक्ति असंतुलन इन मामलों को ख़ास तौर पर मुश्किल बनाता है… पीड़ितों के परिवार बेहद गरीब हैं, जबकि पुलिस अधिकारियों के पास लंबे और महंगे मुकदमे चलाने के संसाधन हैं.”

इस बीच आरोपी पुलिसकर्मियों को उनकी नौकरी पर बहाल कर दिया गया है. लियोनार्ड ने दावा किया, "वे अपनी ज़िंदगी में वापस आ गए हैं. और मैं अभी भी मेहनत कर रहा हूं, हर दिन अपनी उम्मीद को थोड़ा-थोड़ा मरते हुए देख रहा हूं."

न्यूज़लॉन्ड्री ने इंस्पेक्टर जितेंद्र राठौड़ से टिप्पणी के लिए संपर्क किया. जो घटना के समय वडाला जीआरपी थाने के प्रभारी थे और अब ठाणे कमिश्नरेट की ट्रैफिक यूनिट में तैनात हैं. जवाब मिलने पर इस रिपोर्ट को अपडेट किया जाएगा.

परभणी में असिया का 22 साल पुराना धरना

परभणी जिले में 80 वर्षीय असिया बेगम अपने बेटे की मौत के लिए न्याय पाने के लिए 22 साल से धरना दे रही हैं. यह एक ऐसी लड़ाई है जो उनके पति के जीवन से भी ज़्यादा समय तक चली है और उन्हें लगता है कि यह उनके मरने के बाद भी जारी रह सकती है.

अदालतों में बिताए दो दशकों की थकान के साथ वह कहती हैं, "इस गति से, मुझे शक है कि मेरे जाने के बाद भी यह मामला किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाएगा."

उनका बेटा ख्वाजा यूनुस, एक 27 वर्षीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर था. जिसे दिसंबर 2002 में घाटकोपर बम विस्फोट के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था. एक महीने से भी कम वक्त बीतने के बाद मुंबई पुलिस ने दावा किया कि वह औरंगाबाद स्थानांतरण के दौरान भाग गया था.

यूनुस के पिता की याचिका के बाद सीआईडी जांच में बाद में पता चला कि यूनुस की मौत घाटकोपर पुलिस स्टेशन में हिरासत में यातना की वजह से हुई थी. उसका शव आज तक गायब है.

पांच साल पहले उम्र संबंधी बीमारियों के बावजूद असिया हर सुनवाई में मौजूद रहीं. "मैं पिछले 18 सालों से हर रोज नियमित रूप से अखबार पढ़ती रही हूं. इस उम्मीद में कि कोई हेडलाइन दिखे जिसमें लिखा हो कि मेरे बेटे के हत्यारे को आखिरकार सजा मिल गई… अब सोचती हूं कि क्या वो दिन कभी आएगा?"

सीआईडी ने 2003 में ख्वाजा यूनुस की हिरासत में हुई मौत की जांच में 14 पुलिसकर्मियों को नामजद किया था, लेकिन महाराष्ट्र सरकार ने केवल चार पर मुकदमा चलाने की मंजूरी दी थी: सब इंस्पेक्टर सचिन वाज़े और कांस्टेबल राजेंद्र तिवारी, सुनील देसाई और राजाराम निकम. चारों को 2004 में निलंबित कर दिया गया था, और वाज़े ने बाद में 2007 में इस्तीफा दे दिया था. आरोपों के बावजूद, तत्कालीन पुलिस आयुक्त परमबीर सिंह के नेतृत्व वाली एक समीक्षा समिति की सिफारिश के बाद उन्हें जून 2020 में मुंबई पुलिस में बहाल कर दिया गया.

यूनुस की मौत के छह साल बाद, 2009 में ही इस मामले को औपचारिक रूप से सुनवाई के लिए स्वीकार किया गया था. अधिकारियों पर मुकदमा चलाने की आधिकारिक मंजूरी मिलने तक वास्तविक कार्यवाही मई 2017 में शुरू हुई. आखिरकार 2018 की शुरुआत में विशेष लोक प्रॉसिक्यूटर धीरज मिराजकर के नेतृत्व में सुनवाई शुरू हुई. लेकिन बाद में मिराजकर को हटा दिया गया क्योंकि उन्होंने अन्य पुलिसकर्मियों को आरोपी बनाने की कोशिश की. उनके हटने के बाद सरकार द्वारा उनकी जगह पर किसी और को नियुक्त न करने के चलते मुकदमा लगभग चार साल तक रुका रहा.

सत्र न्यायालय ने मामले की धीमी गति और सरकार के व्यवहार की बार-बार आलोचना की. फिर कहीं जाकर जून 2022 में नए प्रॉसिक्यूटर प्रदीप घराट की नियुक्ति हुई. इसके बाद सुनवाई फिर से शुरू हुई. हालांकि, उसके बाद के दो वर्षों में केवल एक गवाह ने गवाही दी है. यूनुस की मृत्यु के दो दशक से भी ज्यादा वक्त बीतने के बाद भी, मुकदमा अभी भी चल रहा है.

ख्वाजा यूनुस के भाई सैय्यद हुसैन का दावा है, "जिन पुलिसकर्मियों ने मेरे भाई की हत्या की वे आजादी से जिंदगी जीते रहे, अपनी जवानी का भरपूर आनंद लेते रहे और उन्हें कोई सज़ा नहीं मिली जबकि मेरे परिवार को तकलीफें झेलनी पड़ रही हैं. मेरे पिता न्याय की प्रतीक्षा में चल बसे. मेरी मां अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर हैं. मुझे नहीं पता कि न्याय कब मिलेगा या मैं इसे देखने के लिए जिंदा भी रह पाऊंगा या नहीं."

न्यूज़लॉन्ड्री ने इस मामले में राज्य सरकार द्वारा नियुक्त विशेष सरकारी वकील प्रदीप घराट से संपर्क किया. "सचिन वाज़े मुकदमे में बाधा डालने के लिए एक के बाद एक आवेदन दायर कर रहे हैं. उन्होंने एक गवाह से पूछताछ के बाद भी आरोपमुक्त करने का आवेदन दायर किया. यह स्पष्ट रूप से कार्यवाही में देरी करने की एक कोशिश है. मैंने अदालत से उनके वकील को नोटिस जारी करने का आग्रह किया है, जिसमें पूछा जाए कि इस समय ऐसा आवेदन किस आधार पर दायर किया जा सकता है और यह भी कि इसे अवैध क्यों नहीं माना जाना चाहिए."

वाज़े इस समय जेल में हैं. उनके वकील से टिप्पणी के लिए संपर्क नहीं हो सका.

महाराष्ट्र की नई नीति में खामियां?

15 अप्रैल को एक कैबिनेट बैठक के दौरान, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने हिरासत में मौतों के लिए निश्चित मुआवजा देने वाली एक नई नीति की घोषणा की. इसके मुताबिक, "अप्राकृतिक" मौतों के लिए 5 लाख रुपये और आत्महत्या के लिए 1 लाख रुपये दिए जाएंगे. मुख्यमंत्री कार्यालय के अनुसार, "अप्राकृतिक" में चिकित्सा लापरवाही, दुर्घटना, जेल कर्मचारियों के हमले या कैदियों की हिंसा से होने वाली मौतें शामिल हैं.

फडणवीस ने दावा किया कि यह नीति राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के दिशानिर्देशों के अनुरूप है लेकिन एनएचआरसी के अधिदेश के प्रमुख पहलू- जैसे जवाबदेही तय करना और लापरवाह अधिकारियों पर मुकदमा चलाना आदि इसमें शामिल नहीं थे.

हिरासत में मौतों के मामले में महाराष्ट्र के खराब रिकॉर्ड को देखते हुए यह चूक विशेष रूप से चिंताजनक है.

इस रिपोर्ट में पहले उल्लेखित, सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय पुलिस अकादमी द्वारा 1994 में किए गए अध्ययन ने पुलिस द्वारा हिरासत में मौतों और यातना की घटनाओं को छिपाने के व्यवस्थित प्रयासों की ओर इशारा किया था. आम तौर पर मामलों को छिपाने के तरीकों में शिकायत दर्ज न करना, व्यक्ति की हिरासत से इनकार करना, पोस्टमार्टम में हेराफेरी करना, रिकॉर्ड से छेड़छाड़ करना, गवाहों को धमकाना और आंतरिक जांच का काम उसी यूनिट के अधिकारियों को सौंपना शामिल था. अध्ययन में डॉक्टरों और मजिस्ट्रेटों की मिलीभगत का भी उल्लेख किया गया, जो मेडिकल रिपोर्ट में हेराफेरी करके या सबूतों को दबाकर इन प्रयासों में मदद करते पाए गए.

पुलिस अक्सर हिरासत में हुई मौतों का कारण आत्महत्या, बीमारी, दिल का दौरा, दुर्घटना या भागने की कोशिश बता देती थी, तब भी जब हालात गड़बड़ी की ओर इशारा करते थे. कई मामलों में उन्होंने व्यक्ति के हिरासत में ही होने से इनकार किया और झूठा दावा किया कि मौत सशस्त्र मुठभेड़ों के दौरान हुई थी. पीड़ितों के परिवारों ने बताया कि उन्हें प्राकृतिक कारणों से हुई मौत का कारण बताने वाले बयानों पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया और कई बार चुप रहने के लिए रिश्वत की पेशकश की गई. कई हद से पार जाने वाले मामलों में पुलिस ने आगे की जांच या शवों को निकालने से रोकने के लिए कथित तौर पर शवों का गुप्त रूप से निपटारा किया.

रिपोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि यातना का व्यापक उपयोग, कोई सजा न मिलने की संस्कृति से उपजा है जो गहरी जड़ें जमाए हुए है, जहां पुलिस इस भरोसे के साथ काम करती है कि उसे कोई नतीजा नहीं भुगतना पड़ेगा.

मूल रूप से अंग्रेजी में प्रकाशित रिपोर्ट को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

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