उत्तर प्रदेश: 236 मुठभेड़ और एक भी दोषी नहीं, ‘एनकाउंटर राज’ में एनएचआरसी बना मूकदर्शक

यूपी में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के ट्रैक रिकॉर्ड का विस्तार से अध्ययन करने पर पता चलता है कि आयोग केवल उस अस्पष्टता को ही दोहरा रहा है, जिसे दूर करने का उसका मकसद है.

WrittenBy:प्रत्युष दीप
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यह रिपोर्ट पुलिस ज्यादतियों पर आधारित हमारी खोजी श्रृंखला का हिस्सा है. पिछली रिपोर्ट्स को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

5 सितंबर, 2021 को उत्तर प्रदेश के देवबंद में आधी रात को घर में बैठे ज़ीशान हैदर का फ़ोन बजा. इस 50 साल के किसान ने अपनी पत्नी से कहा कि उसे बाहर जाना है. उसे पुलिस ने कथित तौर पर पूछताछ के लिए बुलाया था. आधे घंटे बाद उसका फोन बंद हो गया. सुबह तक, ज़ीशान की सांसें भी बंद हो गई थीं.

सरकारी बयान के अनुसार, थिथकी गांव के जंगलों में रात के समय "गौ तस्करों" के खिलाफ एक पुलिस ऑपरेशन चलाया गया, जहां मुठभेड़ में ज़ीशान को जांघ में गोली लगी और अधिक खून बहने के कारण उनकी मौत हो गई.

लेकिन उसके परिवार को पुलिस का बयान रास नहीं आया.

शुरुआत में दो पुलिसकर्मियों ने परिजनों को बताया था कि ज़ीशान घायल हैं और उन्हें देवबंद के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया है. जब परिजन वहां पहुंचे, तो उन्हें सहारनपुर जिला अस्पताल भेजा गया, जहां ज़ीशान की लाश मिली.

गौर करने वाली बात यह है कि ज़ीशान के पास दो लाइसेंसी रायफलें थीं और उनका कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं था. लेकिन मौत वाले दिन ही उनके खिलाफ हत्या, हत्या की कोशिश, दंगा और शस्त्र अधिनियम समेत चार एफआईआर दर्ज की गईं, जिनमें पांच अन्य लोगों के नाम भी थे.

जीशान की पत्नी अफ़रोज़ ने इस मामले में न्याय की उम्मीद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) से की, जो सुप्रीम कोर्ट के 2014 के PUCL बनाम भारत सरकार के ऐतिहासिक फैसले के तहत फर्ज़ी मुठभेड़ों की निष्पक्ष जांच के लिए अधिकृत है.

लेकिन गहन और समयबद्ध जांच के बजाय, अफ़रोज़ को कामकाजी देरी का सामना करना पड़ा. यह मामला लगभग 14 महीने तक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सामने रहा, जिसके बाद आयोग ने पुलिस के बयान को मानते हुए इसे खारिज कर दिया. हालांकि, बाद में एक अदालत ने पुलिस के बयान को "हास्यास्पद" करार दिया.

यह मामला कोई अनोखा मामला नहीं है.

उत्तर प्रदेश में कथित न्यायेतर हत्याओं की जांच में अक्सर देरी होती है और पुलिस के बयानों पर जरूरत से ज्यादा भरोसा किया जाता है.

उत्तर प्रदेश में मुठभेड़ से जुड़े मामलों से निपटने के एनएचआरसी के तरीके का विश्लेषण एक चिंताजनक पैटर्न उजागर करता है. आयोग अक्सर स्वतंत्र जांच किए बिना, घटनाओं के लिए पुलिस के बयानों और कार्यकारी मजिस्ट्रेटों द्वारा तैयार की गई मजिस्ट्रेट जांच रिपोर्टों पर ही निर्भर रहता है. यह सब उस राज्य में हो रहा है जो ‘एनकाउंटर राज’ के लिए कुख्यात है.

2017 और 2024 के बीच एनएचआरसी ने दो अलग-अलग श्रेणियों में, कुल कम से कम 236 मुठभेड़ संबंधी मामलों की समीक्षा की.

सूचना के अधिकार अधिनियम के माध्यम से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, इनमें से कम से कम 161 मामले राज्य में पुलिस मुठभेड़ में हुई 157 हत्याओं को लेकर थे. ये मामले ज्यादातर राज्य पुलिस द्वारा आयोग को रिपोर्ट किए गए थे, जैसा कि एनएचआरसी और सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों के तहत आवश्यक है. इनमें से किसी भी मामले में एनएचआरसी इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा कि मामले में कोई गड़बड़ी थी. केवल 10 मामलों में एनएचआरसी की जांच टीमों द्वारा मौके पर जांच की गई, और इनमें भी, आयोग को पुलिस के कथानक में कोई गड़बड़ी नहीं मिली. इन 161 मामलों में से कम से कम 34 में, एनएचआरसी ने यह कहते हुए दखल देने से इनकार कर दिया कि उत्तर प्रदेश राज्य मानवाधिकार आयोग ने पहले ही मामले का संज्ञान ले लिया है.

आरटीआई के जवाब में, एनएचआरसी ने "कथित फर्जी मुठभेड़ों" के 69 पीड़ितों के बारे में 75 शिकायतों की एक अलग सूची भी दी. लेकिन इन 75 मामलों में से केवल दो में ही मुआवजे की सिफारिश की गई है, और किसी में भी पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश नहीं की गई है.

आयोग के एक सूत्र ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि यह वर्गीकरण केवल "आंतरिक" इरादों के लिए है.

न्यूज़लॉन्ड्री ने इससे पहले एक रिपोर्ट में बताया था कि कैसे एनएचआरसी पिछले कुछ सालों में बिना उचित जांच के शिकायतों का निपटारा करता रहा है, और अक्सर उन्हें "यथोचित अधिकारियों" को भेज देता है. इस प्रवृत्ति के साथ-साथ उसकी सिफारिशों का पालन न करने के मामलों में भी तेजी से बढ़ोतरी हुई है. लंबित मामले 2010-11 में 36 प्रतिशत से बढ़कर 2019-20 में 74 प्रतिशत हो गए, जो 2015-16 में 90 प्रतिशत के शिखर पर पहुंच गए थे. 2017 में, सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर में मुठभेड़ के मामलों को ऐसे ही बंद करने के लिए एनएचआरसी की आलोचना की थी, और उसे "दंतहीन बाघ" कहा था. सालाना लगभग एक लाख शिकायतें मिलने के बावजूद ज्यादातर शुरुआती चरण में ही खारिज कर दी जाती हैं.

इस रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश में एनएचआरसी (राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग) को भेजे गए मुठभेड़ से जुड़े मामलों के एक बड़े डेटासेट में से कुछ चुनिंदा उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं. ये केस स्टडीज़ पूरी तस्वीर नहीं दिखातीं, लेकिन इनमें बार-बार सामने आने वाले पैटर्न को दर्शाती हैं और आयोग द्वारा ऐसे मामलों से निपटने के तरीके में प्रणालीगत खामियों को उजागर करती हैं.

दो शिकायतों की कहानी

उत्तर प्रदेश में कथित न्यायेतर हत्याओं की जांच में अक्सर देरी होती है और पुलिस के बयानों पर जरूरत से ज्यादा भरोसा किया जाता है.

उदाहरण के लिए, जीशान मामला, जिसकी कार्यवाही नवंबर, 2021 में एनएचआरसी के पहले नोटिस जारी करने के बाद शुरू हुई. जनवरी, 2022 में सहारनपुर के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ने जीशान के खिलाफ कई आपराधिक मामलों की सूची वाली एक रिपोर्ट सौंपी, जिसमें आयोग ने लखनऊ के पुलिस डीआईजी से और जानकारी मांगने का निर्देश दिया और देरी होने पर मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 की धारा 13 के तहत दंडात्मक कार्रवाई की चेतावनी दी. इसके बावजूद अप्रैल में जाकर सहारनपुर के पुलिस उप महानिरीक्षक और राज्य पुलिस मुख्यालय, दोनों से रिपोर्ट आई. इसके बाद एनएचआरसी ने उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक से एक नई रिपोर्ट मांगी और निर्देश दिया कि ये दस्तावेज़ अफ़रोज़ के साथ भी साझा किए जाएं, ताकि वो इन पर टिप्पणियां कर सकें. लेकिन अगस्त, 2022 तक कोई नई रिपोर्ट नहीं आई और अफ़रोज़ ने कोई टिप्पणी नहीं दी, जिसके चलते उन्हें एक और रिमाइंडर भेजना पड़ा.

नवंबर 2022 में, एसएसपी सहारनपुर, डीआईजी यूपी और डीआईजी सहारनपुर द्वारा तीन अलग-अलग रिपोर्ट प्रस्तुत की गईं, लेकिन आयोग ने एक बार फिर अफ़रोज़ की ओर से कोई टिप्पणी न मिलने की बात रखी, परिवार ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि उनसे कभी संपर्क ही नहीं किया गया. लगभग इसी दौरान, एनएचआरसी ने यह भी नोट किया कि वर्तमान शिकायत से एक महीने पहले अफ़रोज़ द्वारा दायर की गई एक अन्य शिकायत पर कार्यवाही चल रही थी. तो उसने वर्तमान फ़ाइल को बंद कर दिया और पहले वाली फाइल को आगे बढ़ाने का विकल्प चुना.

उस मामले में भी निष्क्रियता का जाना-पहचाना ढर्रा अपनाया गया. पहली सुनवाई नवंबर 2021 में हुई थी और जुलाई 2022 तक पुलिस की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई. अक्टूबर में एक आखिरी तकाज़े के बाद एनएचआरसी ने मानवाधिकार अधिनियम की धारा 13 (ए) लागू की और एसएसपी को दिसंबर में व्यक्तिगत रूप से पेश होने के लिए समन भेजा. आखिरकार 20 जनवरी, 2023 को एक रिपोर्ट आई, जिसमें कहा गया कि जीशान के खिलाफ चार एफआईआर दर्ज की गई हैं, जिनमें से दो में आरोप पत्र दायर किए गए हैं.

एनएचआरसी ने इस कथन को पूरी तरह स्वीकार करते हुए दूसरी शिकायत को बंद करने के लगभग दो महीने बाद, यह कहते हुए मामला बंद कर दिया कि "संबंधित पुलिस अधिकारी द्वारा उचित कार्रवाई की गई है". लेकिन ज़ीशान के परिवार के अनुसार एनएचआरसी ने पूरी प्रक्रिया के दौरान उनसे कभी संपर्क नहीं किया, जिससे उनकी ओर से कथित तौर पर चलाए जा रहे मामले से वो खुद ही बाहर कर दिए गए.

एनएचआरसी द्वारा मामला बंद करने के ठीक दो दिन बाद, सहारनपुर में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत ने 22 जनवरी, 2023 को जीशान की मौत में शामिल 12 पुलिसकर्मियों पर मामला दर्ज करने का आदेश दिया. पुलिस की कहानी को एक और झटका देते हुए उसी अदालत ने मार्च, 2025 में पुलिस द्वारा प्रस्तुत क्लोजर रिपोर्ट को खारिज कर दिया, और मामले की दोबारा जांच करने का निर्देश दिया.

अदालत ने पुलिस के कथन में कई विसंगतियों की ओर इशारा किया. अदालत ने कहा, "यह बेहद हैरान करने वाला है कि पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए जाने के बावजूद, एक अवैध बंदूक कथित तौर पर लंबे समय तक आरोपी के कब्जे में रही और इसी हथियार से अचानक गोलीबारी हुई, जिससे वह घायल हो गया. यह दावा कि सह-आरोपी एक साथ थे जबकि पुलिस दल दूसरी दिशा में तैनात था, और आरोपियों ने अपने ही हथियारों से एक-दूसरे को गोली मार दी, हास्यास्पद और अविश्वसनीय लगता है."

अदालत ने यह भी कहा कि आरोपी के खिलाफ सभी एफआईआर उसकी मृत्यु के दिन दर्ज की गई थीं, जो याचिकाकर्ता के इस तर्क को प्रथम दृष्टया पुष्ट करता है कि ये एफआईआर उसकी मृत्यु के बाद दर्ज की गईं ताकि पुलिस की कार्रवाई को सही ठहराया जा सके और मृतक को, जिसे ज़िला मजिस्ट्रेट द्वारा बंदूक का लाइसेंस जारी किया गया था और जिसका कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं था, उसकी हत्या के बाद अपराधी के रूप में चित्रित किया जा सके.

जीशान के रिश्तेदार ईशान रज़ा ने आरोप लगाया, "उन्होंने उसे मार डाला और फिर उसे अपराधी घोषित कर दिया.”

न्यूज़लॉन्ड्री ने सहारनपुर के एसएसपी से संपर्क किया, जिन्होंने कहा कि जांच की वर्तमान स्थिति की जानकारी केवल अदालत से ही मिल सकती है. सहारनपुर जिले की अपराध शाखा वर्तमान में संबंधित पुलिसकर्मियों के खिलाफ मामले की जांच कर रही है. लेकिन उन 10 मामलों का क्या हुआ जिनकी 2017 से 2024 के बीच एनएचआरसी ने मौके पर जांच की थी?

एक मामले में एनएचआरसी द्वारा यह स्वीकार करने के बाद भी कि मौत एक फर्जी मुठभेड़ थी, वह जांच अधिकारियों की गंभीर कामकाजी खामियों के लिए जवाबदेही नहीं तय करा सका.

स्पष्ट खामियां

नूर मोहम्मद के परिवार ने बताया कि 30 दिसंबर, 2017 को उसने अपनी पत्नी शहाना को कहा कि पुलिस ने उसकी बहन को हिरासत में लिया है और उसे मेरठ के एक पुलिस थाने जाना होगा. यह कहकर वह अपने ससुराल से निकला और अपनी करिज़्मा मोटरसाइकिल पर रवाना हो गया लेकिन यह उसकी जिंदगी का आखिरी सफर साबित हुआ. 

अगली सुबह, शहाना को खबर मिली कि नूर मोहम्मद एक पुलिस मुठभेड़ में मारा गया है. पुलिस के मुताबिक, नूर एक हिस्ट्रीशीटर था और वह उन बाइक सवार बदमाशों में शामिल था जिन्होंने पुलिस पर गोली चलाई थी.

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने इस मामले की जांच के लिए पोस्टमार्टम रिपोर्ट, एफएसएल रिपोर्ट, घटनास्थल का निरीक्षण, और आयोग की जांच शाखा द्वारा जुटाए गए अन्य रिकॉर्ड की समीक्षा की. करीब एक साल की जांच के बाद आयोग ने इसे "वास्तविक मुठभेड़" मानते हुए मामला बंद कर दिया.

हालांकि, 2021 में एक मानवाधिकार संगठन की रिपोर्ट ने इस निष्कर्ष पर गंभीर सवाल उठाए. उस रिपोर्ट में नूर मोहम्मद की मौत समेत 17 मामलों का जिक्र था, जिनमें आरोप लगाया गया कि एनएचआरसी ने पुलिस के बयानों में मौजूद स्पष्ट खामियों और विरोधाभासों की अनदेखी की और बिना स्वतंत्र जांच के ही पुलिस की कहानी को मान लिया.

यूथ फ़ॉर ह्यूमन राइट्स डॉक्यूमेंटेशन द्वारा प्रकाशित "कानून और जीवन का उन्मूलन: उत्तर प्रदेश राज्य में पुलिस हत्याएं और लीपापोती" शीर्षक वाली रिपोर्ट में एनएचआरसी पर शिकायतकर्ताओं की बार-बार की गई अपीलों को नज़रअंदाज़ करने का आरोप भी लगाया गया था.

एनएचआरसी की कार्यवाही ने नजदीक से या हिरासत में गोली मारे जाने की संभावना को खारिज कर दिया था. मानवाधिकार समूह की रिपोर्ट में दावा किया गया कि यह बात तब भी सच थी जब पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में मृतक के घावों पर टैटू होने की पुष्टि हुई थी, जो नजदीक से गोली मारे जाने का स्पष्ट संकेत है. इसके अतिरिक्त, नूर और छह अन्य के मामले में, समूह द्वारा आरटीआई के माध्यम से प्राप्त फोरेंसिक रिकॉर्ड से पता चला कि पुलिस द्वारा अपराध स्थल से बरामद हथियारों पर मृतक के उंगलियों के निशान नहीं पाए गए थे.

रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया था कि अदालती जांच में फोरेंसिक या बैलिस्टिक विश्लेषण जैसे वैज्ञानिक साक्ष्य शामिल नहीं थे. रिपोर्ट में दावा किया गया है कि अदालती जांच में आग्नेयास्त्र (बंदूक) लॉग बुक, बंदूकों के फोरेंसिक विश्लेषण या बैलिस्टिक रिपोर्ट का भी जिक्र नहीं किया गया, जिन्हें यह निर्धारित करने में महत्वपूर्ण माना जाता है कि शवों से बरामद गोलियां पुलिस द्वारा इस्तेमाल किए गए हथियारों से मेल खाती हैं या नहीं.

अदालती जांच में छह पुलिस अधिकारियों और तीन डॉक्टरों सहित नौ लोक सेवकों से पूछताछ की गई, लेकिन किसी भी सरकारी गवाह से पूछताछ नहीं की गई.

मानवाधिकार वकील मंगला वर्मा ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि एनएचआरसी स्वयं 1997 से, जब उसने मुठभेड़ों पर अपने पहले दिशानिर्देश जारी किए थे, तब से ही कार्यकारी मजिस्ट्रेटों द्वारा की जाने वाली जांच की खराब गुणवत्ता की आलोचना करता रहा है. "यह मुद्दा लंबे समय से चल रहा है. लेकिन पीयूसीएल का फैसला इस पर कोई स्पष्टता नहीं दे पाया. यही वजह है कि ये भ्रम आज तक बना हुआ है."

मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और वकीलों ने आरोप लगाया कि एनएचआरसी की कार्यवाही में पीड़ित परिवार की भागीदारी अक्सर डर की वजह से नहीं होती है. दिल्ली के एक वकील अकरम अख्तर चौधरी ने दावा किया कि मुठभेड़ स्थलों का दौरा करने और परिवार के सदस्यों से मिलने की एनएचआरसी की प्रक्रिया में स्थानीय प्रशासन और पुलिस शामिल होती है. “मसलन, अगर उन्हें किसी परिवार से मिलना होता है तो वे सबसे पहले स्थानीय प्रशासन और पुलिस को सूचित करते हैं. इससे पीड़ित परिवार के लिए स्थिति और भी नाजुक हो जाती है, जो पहले से ही डरे होते हैं.”

अकरम ने दावा किया कि मानवाधिकारों की रक्षा करने वाले के तौर पर अपने काम के लिए उन्हें भी उत्पीड़न का सामना करना पड़ा. पर एनएचआरसी ने उनकी शिकायत पर भी ज़्यादा कुछ नहीं किया. उन्होंने आरोप लगाया, "मैंने एनएचआरसी में शिकायत दर्ज कराई और उन्होंने बस सर्किल ऑफिसर को इस बारे में पूछताछ करने का निर्देश दिया. इसके बाद एक हवलदार ने मुझसे पूछा कि क्या हुआ था. लेकिन उसके बाद कुछ नहीं हुआ."

पर उन मामलों का क्या, जहां एनएचआरसी न्यायेतर हत्या की पुष्टि करता है?

हितों का टकराव?

एक मामले में एनएचआरसी द्वारा यह स्वीकार करने के बाद भी कि मौत एक फर्जी मुठभेड़ थी, वह जांच अधिकारियों की गंभीर कामकाजी खामियों के लिए जवाबदेही नहीं तय करा सका. इसमें सुमित गुज्जर का मामला शामिल था.

3 अक्टूबर, 2017 को, उत्तर प्रदेश के नोएडा में गुज्जर कथित तौर पर एक पुलिस मुठभेड़ में मारा गया था. ढाई साल की जांच के दौरान, एनएचआरसी की कार्यवाही में पुलिस के बयान में कई विसंगतियां सामने आईं, जैसे कि विरोधाभासी प्रेस नोट, कॉल डिटेल रिकॉर्ड का अभाव, घाव पर कालापन जो नजदीक से हुई गोलीबारी का संकेत देता है और किसी भी स्वतंत्र गवाह का अभाव. इसे "फर्जी मुठभेड़" करार देने के बावजूद, आयोग ने अपनी प्रतिक्रिया को गुज्जर के परिवार को 5 लाख रुपये के मुआवजे की सिफारिश तक ही सीमित रखा. इसमें शामिल किसी भी पुलिस अधिकारी के खिलाफ कोई दंडात्मक कार्रवाई की सिफारिश नहीं दी गई.

28 सितंबर, 2018 को लखनऊ में मारे गए एप्पल कर्मचारी विवेक तिवारी के मामले में भी ऐसा ही मामला सामने आया. तिवारी को कथित तौर पर तब गोली मारी गई जब पुलिस द्वारा अपनी कार रोकने के लिए कहने पर उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया. अगले दिन, हत्या के एक मामले में दो कांस्टेबलों को गिरफ्तार कर लिया गया. 19 दिसंबर को आरोपपत्र दाखिल किया गया.

एनएचआरसी को 3 अक्टूबर, 2018 को एक शिकायत मिली. उसने पहली सुनवाई 10 अक्टूबर, 2018 को और अगली सुनवाई अप्रैल 2019 में की. जुलाई 2020 में अपनी चौथी सुनवाई में एनएचआरसी ने 5 लाख रुपये के मुआवजे की सिफारिश की. पुलिस द्वारा मुआवजा राशि देने पर सहमति जताने के बाद जनवरी में मामला बंद कर दिया गया. आयोग ने किसी भी स्तर पर मामले में शामिल पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई पर विचार नहीं किया.

गुज्जर के मामले पर करीब से नजर रखने वाली वर्मा ने कहा, "मुआवजा देने का मतलब है कि एनएचआरसी मानवाधिकारों के उल्लंघन की बात स्वीकार करता है. लेकिन आयोग कभी भी अभियोजन की सिफारिश नहीं करता, जबकि उसके पास ऐसा करने का कानूनी अधिकार है."

उन्होंने बताया कि हालांकि बाद में गुज्जर का मामला सीबीआई को सौंप दिया गया था, लेकिन एजेंसी ने पुलिस द्वारा कोई गलत काम न करने की बात कहते हुए एक क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर दी. उन्होंने कहा, "एनएचआरसी ने अपने अंतिम आदेश में इसे केवल एक तथ्य के रूप में दर्ज किया, यह उल्लेख किया कि मुआवजा दिया गया था और बिना किसी हस्तक्षेप के मामले को बंद कर दिया. यहां तक कि जिन मामलों में एफआईआर दर्ज की जाती हैं, वे आमतौर पर मुठभेड़ में मारे गए लोगों या अज्ञात व्यक्तियों के खिलाफ दर्ज की जाती हैं, न कि सीधे तौर पर शामिल पुलिसकर्मियों के खिलाफ."

उन्होंने सबूत जुटाने के दौरान पीयूसीएल दिशानिर्देशों के नियमित उल्लंघन पर भी रोशनी डाली. उन्होंने कहा, "किसी स्वतंत्र एजेंसी द्वारा जांच किए जाने के बजाय, अक्सर मुठभेड़ में शामिल उसी पुलिस स्टेशन के अधिकारियों द्वारा सबूत इकठ्ठा किए जाते थे. कुछ मामलों में निष्पक्षता का दिखावा करने के लिए मामले को दूसरे स्टेशन पर स्थानांतरित कर दिया जाता था."

यूथ फॉर ह्यूमन राइट्स डॉक्यूमेंटेशन की 2021 की रिपोर्ट में उल्लेखित एनएचआरसी द्वारा बंद किए गए 17 मुठभेड़ मामलों में से 11 में हितों के इस टकराव को कोई तवज्जो नहीं दी गई.

इस पूरे मामले में एक और गंभीर और गहराई तक जुड़ा हुआ संरचनात्मक मुद्दा सामने आता है: राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के अपने जांच विभाग का नेतृत्व भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के अधिकारियों द्वारा किया जाता है. 

गौरतलब है कि जुलाई 2017 से अप्रैल 2018 के बीच मेरठ के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एसएसपी) के पद पर तैनात एक आईपीएस अधिकारी, जिनके कार्यकाल के दौरान नूर मोहम्मद की हत्या समेत कई संदिग्ध और विवादास्पद मुठभेड़ें हुई थीं, बाद में एनएचआरसी में एसएसपी के पद पर नियुक्त किए गए. इसके बाद उन्हें आयोग में उप महानिरीक्षक (डीआईजी) के पद पर पदोन्नति भी मिली. 

न्यूज़लॉन्ड्री ने एनएचआरसी और गृह मंत्रालय से उन मानदंडों के बारे में पूछा, जो यह सुनिश्चित करते हैं कि पैनल की जांच में हितों का टकराव न हो. जवाब मिलने पर इस रिपोर्ट को अपडेट किया जाएगा.

पिछले साल, ग्लोबल अलायंस ऑफ नेशनल ह्यूमन राइट्स इंस्टीट्यूशन्स (जीएएनएचआरआई) ने एनएचआरसी की मान्यता स्थगित कर दी और यह संस्था के इतिहास में तीसरी बार है.

गुमनामी की दुनिया में

163 मामलों में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) की कार्यवाही के विश्लेषण से एक बेहद चिंताजनक पैटर्न सामने आता हैय यह विश्लेषण दर्शाता है कि आयोग ने बार-बार ऐसे महत्वपूर्ण फोरेंसिक संकेतों की अनदेखी की है, जो किसी भी पुलिस मुठभेड़ की सच्चाई का आकलन करने के लिए आवश्यक होते हैं.  

इनमें कॉल डिटेल रिकॉर्ड (सीडीआर) का गायब होना और पीड़ितों के हाथों पर गनशॉट रेसिड्यू (जीएसआर) यानी गोली चलाने के सबूत न मिलना, जैसे संकेत शामिल हैं. ये दोनों ही पहलू यह तय करने में अहम भूमिका निभाते हैं कि क्या मुठभेड़ वास्तव में आत्मरक्षा में की गई थी या उसे एकतरफा फर्ज़ी मुठभेड़ के रूप में अंजाम दिया गया. 

उदाहरण के लिए 6 जून, 2019 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ में एक कथित पुलिस मुठभेड़ में मारे गए मोहम्मद तौकीर का मामला लीजिए.  एनएचआरसी के रिकॉर्ड के मुताबिक, तौकीर को "हिस्ट्रीशीटर" घोषित किया गया था और पुलिस का दावा था कि उन्हें खुफिया सूचना मिली थी, जिसके आधार पर उसे गिरफ्तार करने के लिए एक अभियान चलाया गया. इसी अभियान के दौरान, पुलिस के अनुसार, मुठभेड़ हुई और तौकीर को गोली मार दी गई.

हालांकि, पोस्टमार्टम रिपोर्ट कुछ और ही कहानी बयां करती है. रिपोर्ट के मुताबिक, तौकीर की मौत का कारण "मृत्युपूर्व बंदूक की चोटों से हुआ सदमा और अत्यधिक रक्तस्राव" था. उसके शरीर पर दो गोली लगने के घाव थे- दो प्रवेश करने वाले और दो निकलने वाले- जिनमें से एक घाव के आसपास कालापन पाया गया. यह कालापन इस बात का संकेत है कि गोली बहुत नजदीक से मारी गई थी.

आयोग ने 26 मई, 2021 के अपने अंतिम आदेश में लिखा, “पुलिस ने इस मामले में आत्मरक्षा के अपने अधिकार का उचित रूप से प्रयोग किया है. तदनुसार, मामले को बंद करने की अनुशंसा की जाती है.” 

सहारनपुर के एक अन्य मामले में अदनान नाम का एक व्यक्ति 16 सितंबर, 2019 को पुलिस मुठभेड़ में इसी तरह मारा गया था. एनएचआरसी की कार्यवाही में दर्ज किया गया है कि पुलिस ने दावा किया कि अदनान और उसके साथी अधिकारियों पर “अंधाधुंध गोलीबारी” कर रहे थे, जिससे उन्हें जवाबी कार्रवाई करनी पड़ी. लेकिन बैलिस्टिक रिपोर्ट में कहा गया है: “मृतक के हैंडवॉश के स्वाब में कोई जीएसआर नहीं पाया गया.” इस विरोधाभास के बावजूद एनएचआरसी को कोई गड़बड़ी नहीं मिली.

दोनों मामलों से अच्छी तरह वाकिफ वर्मा ने कहा, “गनशॉट रेसिड्यू (जीएसआर) परीक्षण बेहद अहम होता है, क्योंकि पुलिस अकसर मुठभेड़ों को आत्मरक्षा में की गई कार्रवाई बताकर हत्याओं को सही ठहराने की कोशिश करती है. लेकिन अगर पीड़ित के हाथों पर जीएसआर के कोई निशान नहीं मिलते, तो यह पूरी पुलिस कहानी की बुनियाद को कमजोर कर देता है. इसके बावजूद, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग बार-बार इन महत्वपूर्ण कमियों की गंभीरता से जांच करने में विफल रहा है.”

मानवाधिकार व्यवस्था की विफलता

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) की कार्यप्रणाली पर सवाल केवल देश के भीतर ही नहीं उठे हैं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी उसकी विफलताएं चिन्हित की गई हैं. मानवाधिकार संस्थानों के लिए तय अंतरराष्ट्रीय मानकों जैसे पेरिस सिद्धांतों का पालन न करने के कारण, एनएचआरसी की साख को गंभीर नुकसान पहुंचा है. 

पिछले साल, ग्लोबल अलायंस ऑफ नेशनल ह्यूमन राइट्स इंस्टीट्यूशन्स (जीएएनएचआरआई) ने एनएचआरसी की मान्यता स्थगित कर दी और यह संस्था के इतिहास में तीसरी बार है. जीएएनएचआरआई ने इसके लिए कई कारण गिनाए जैसे आयोग में नियुक्तियों में राजनीतिक हस्तक्षेप, मानवाधिकार उल्लंघनों की जांच में पुलिस की संलिप्तता, और नागरिक समाज संगठनों के साथ बेहद कमजोर सहयोग.

न्यूज़लॉन्ड्री ने पहले भारत की कमजोर होती मानवाधिकार व्यवस्था और उसके नेतृत्वहीन राज्य मानवाधिकार आयोगों पर रिपोर्ट किया था.

प्रमुख मानवाधिकार कार्यकर्ता हेनरी टिफाग्ने ने कहा, "हम एक ऐसी संस्था की बात कर रहे हैं जिसे अब मानवाधिकार संस्थाओं के अपने ही वैश्विक गठबंधन द्वारा पेरिस सिद्धांत का पालन न करने के कारण दर्जा घटा दिया गया है. इसका मतलब है कि ये स्वतंत्र नहीं है, विविधतापूर्ण नहीं है, पारदर्शी नहीं है और प्रभावी नहीं है."

हेनरी के अनुसार, ये आंकड़े विनाशकारी हैं. "यातना से जुड़े सबसे ताजा आंकड़े बताते हैं कि एनएचआरसी में 20,000 से ज्यादा मामले दर्ज हैं. इनमें से सिर्फ़ 998 मामलों में ही मुआवज़ा मिला. 998 में से सिर्फ 28 मामलों में ही अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश की गई. दुर्भाग्य से, हमें इस संस्था के बारे में तब तक बात करने की ज़रूरत नहीं है जब तक संस्था के प्रमुख यह न दिखाएं कि वह इस संस्था में आमूल-चूल परिवर्तन चाहते हैं."

एक आरटीआई में न्यूज़लॉन्ड्री ने एनएचआरसी से अलग से पूछा कि 2019 से अब तक उसे कितने पुलिस मुठभेड़ के मामले मिले हैं, उसने कितनी जांचें कीं, कितनी जमीनी रिपोर्ट तैयार की, परिवारों से मुलाकात की और कितने मामले राज्य मानवाधिकार आयोग को भेजे गए. जवाब में एनएचआरसी ने बताया कि इस दौरान 114 मुठभेड़ में मौतें हुईं और दो मामले राज्य मानवाधिकार आयोग को स्थानांतरित किए गए.

हालांकि, इसने जांच के विवरण साझा करने से इनकार कर दिया और कहा कि प्रत्येक मामले का विवरण दे पाना और "इतनी बड़ी मात्रा में" जानकारी इकठ्ठा करना "व्यवहार्य" नहीं है, जिससे संसाधनों का "अनुपातहीन" बंटवारा हो सकता है और आयोग के नियमित कामकाज में "बाधा" आ सकती है. हालांकि, उसने यह भी कहा कि "प्रत्येक मामले का विवरण hrcnet.nic.in पर केस नंबर दर्ज करके देखा/जांचा जा सकता है".

न्यूज़लॉन्ड्री ने टिप्पणी के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक और गृह मंत्रालय से संपर्क किया और उन्हें एक प्रश्नावली भेजी. यदि कोई प्रतिक्रिया मिलती है तो इस रिपोर्ट को अपडेट किया जाएगा.

मूल रूप से अंग्रेजी में प्रकाशित रिपोर्ट को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

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