दिन ब दिन की इंटरनेट बहसों और खबरिया चैनलों के रंगमंच पर संक्षिप्त टिप्पणी.
पिछले हफ्ते इमरजेंसी की सालगिरह पर ढोल-नगाड़े के साथ चैनलों पर झांकियां निकली. अखबारों ने पचास साल पुरानी कहानियों से पन्ने के पन्ने रंग डाले. जो खबरिया चैनल साल के तीन सौ चौसठ दिन सांप्रदायिक नफरत, झूठ फरेब कर संविधान की हत्या करते हैं, उन्होंने 25 जून को संविधान बचाने का दम भरा.
यह देख सुन कर देश की जनता को दो तरह के अहसास हुए. पहला ये संतोष कि चलो आज आपातकाल के खिलाफ देश जागरूक है. मीडिया इसको याद कर रहा है. दूसरा इस बात की तल्खी कि जो लोग आज इमरजेंसी की बरसी पर नागरिक और मीडिया आधिकारों के हनन की कहानियां सुना रहे हैं वो स्वयं क्या आज सरकार से सवाल पूछ पा रहे हैं?
इमरजेंसी के वक्त कुछ मीडिया और पत्रकार ऐसे थे जो सरकार के सामने तन कर खड़े थे. लेकिन आज जो लोग पत्रकारों के अड़ने की कहानी जो लोग सुना रहे हैं वो लोग आज खुद सरकार के सामने सीधे खड़े हो पा रहे हैं क्या?