सरकार और सार्वजनिक इकाइयों से मिले धन के चलते, नड्डा परिवार द्वारा संचालित एनजीओ की कामयाबी भाजपा में उनके उभार के समांतर ही आगे बढ़ती रही है.
साल 1982 तक हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय वामपंथ का गढ़ था. लेकिन इसके अगले ही साल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के एक सदस्य ने इसमें सेंध लगा दी.
एबीवीपी के अध्यक्ष पद के उम्मीदवार के रूप में हल्की मूछों वाला कानून का एक 23 वर्षीय छात्र खड़ा था. चुनाव एबीवीपी और वामपंथी संगठन स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) के पक्ष में 562-562 वोटों के साथ बराबरी पर खत्म हुआ. गतिरोध बना रहा. एसएफआई ने फिर से वोटों की जांच की मांग की. उनकी मांग सिर्फ अमान्य वोटों की जांच की थी, ताकि जल्दी से जल्दी गिनती दोबारा की जा सके. ऐसी अफवाह भी फैल रही थी कि एक अमान्य वोट एसएफआई उम्मीदवार के पक्ष में डाला गया था. लेकिन विश्वविद्यालय चुनाव आयोग ने इस पर ढीला-ढाला ही रुख अपनाया, और छात्र संघों द्वारा विरोध प्रदर्शन जारी रहा.
उस समय एसएफआई उम्मीदवार के लिए मतदान एजेंट रहे एक पूर्व विधायक ने बताया, आखिरकार ये फैसला हुआ कि दोनों उम्मीदवारों को "लोकतंत्र की भलाई के लिए" एक साथ अध्यक्ष पद का कार्यकाल पूरा करना चाहिए.
इस तरह से 1970 में बने हिमाचल विश्वविद्यालय में पहली बार एबीवीपी के पास कैंपस में एक छात्र संघ का अध्यक्ष था. एबीवीपी के ये उम्मीदवार जगत प्रकाश नड्डा थे, जो आज भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष हैं और साथ ही स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण तथा रसायन एवं उर्वरक केंद्रीय मंत्री हैं.
नड्डा की ये जीत कोई संयोग नहीं थी. यह एक सोची-समझी रणनीति थी, जिसमें देर रात तक विचार-विमर्श के सत्र और फिर सुबह-सुबह निकल कर एसएफआई के प्रमुख प्रचारकों का पाला बदलकर वामपंथियों को विभाजित करने की योजना शामिल थी.
हालांकि, छात्र राजनीति में ये नड्डा की पहली पारी नहीं थी. स्नातक की पढ़ाई के दौरान, जेपी आंदोलन से प्रेरित होकर उन्होंने पहली बार 1976-79 में पटना विश्वविद्यालय परिसर में एबीवीपी कार्यकर्ता के रूप में चुनावी राजनीति में हिस्सा लिया था. लेकिन वो एचपीयू में मिली सफलता ही थी, जिसने नड्डा को अपना राजनीतिक करियर को धीरे-धीरे ऊपर ले जाने के लिए प्रेरित किया. वह स्कूलों के विकास के लिए एक जन आंदोलन का नेतृत्व करने से लेकर, भाजपा और आरएसएस के युवा संगठनों में अपनी संगठनात्मक भूमिकाओं को पूरी लगन से निभाने तक फैली हुई है.
पार्टी सूत्रों के अनुसार, हिमाचल की राजनीति में नड्डा के तेजी से बढ़ते कद से भाजपा के कुछ दिग्गज नेता नाराज हो गए और 2010 में उन्हें दिल्ली भेज दिया गया. वहां तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के संरक्षण में नड्डा ने राष्ट्रीय महासचिव के तौर पर नई पारी शुरू की. जैसे-जैसे भाजपा का ग्राफ ऊपर चढ़ा, वैसे-वैसे नड्डा का भी ग्राफ ऊपर चढ़ा. उनका करियर 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद चरम पर पहुंचा, जब उन्होंने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के बाद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद संभाला. इस तरक्की का श्रेय नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी को जाता है. मिलनसार और मेहनती नड्डा को पार्टी गलियारों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और शाह के करीबी के रूप में जाना जाता है. और वे बहुत ज्यादा महत्वाकांक्षी भी नहीं हैं.
लेकिन नड्डा के राजनीतिक उत्थान के साथ-साथ उनके परिवार द्वारा संचालित एनजीओ चेतना संस्थान का विकास भी जुड़ा है, जिसे 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद कॉर्पोरेट और सरकार से जुड़ी सीएसआर फंडिंग मिली, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों से मिला चंदा भी शामिल है. बिलासपुर में नड्डा के गांव विजयपुर में उनकी पत्नी मल्लिका नड्डा द्वारा संचालित इस एनजीओ को निजी दवा और रासायनिक कंपनियों के अलावा, कई सार्वजनिक कंपनियों से भी 4 करोड़ रुपये से ज्यादा की राशि सीएसआर फंड के तहत हासिल हुई.
मल्लिका नड्डा, जो पहले हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाती थीं, फिलहाल स्पेशल ओलंपिक भारत की अध्यक्ष भी हैं. उनके 30 वर्षीय बेटे हरीश ने हाई-प्रोफाइल कंपनियों के साथ-साथ सरकार का प्रतिनिधित्व करते हुए अपनी वकालत खड़ी की है. बिलासपुर जिले में परिवार की ठोस मौजूदगी, नड्डा के दिल्ली आने के बाद वहां पर लंबी अनुपस्थिति के बावजूद राजनीतिक मौजूदगी सुनिश्चित करती है.
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