सेना में अल्पकालिक कार्यकाल से लेकर टीवी योद्धा बनने तक का गौरव आर्य का सफर दिखाता है कि सूचना और मनोरंजन के घालमेल के इस युग में साख कैसे बनाई जा सकती है.
1997 का साल, भारत-चीन सीमा पर स्थित शिपकी ला पोस्ट पर सर्द हवा में एक युवा कंपनी कमांडर एक चट्टान से लगभग 400 फीट नीचे गिरता है. उसका शरीर हिमालय की हड्डियां जमा देने वाली बर्फ में दब जाता है. दूर तक फैली हुई सफेद बर्फ की चादर के बीच सिर्फ उसका सिर एक काले टीके की तरह दिखाई दे रहा है. उसके साथी, वक्त और ठंडे तापमान के से मुकाबला करते हुए हुए नीचे उतरते हैं, ताकि वे अपने अफसर को प्रकृति की बर्फीली जकड़ से जल्दी बाहर निकाल सकें.
यह गौरव आर्य का खुद का दिया हुआ विवरण है, जिसमें उन्होंने अपने फेफड़ों के संक्रमण की शुरुआत के बारे में बताया था. जो उनकी गिरती सेहत की वजह बना. साथ ही बाद में इसी के चलते उन्होंने अपने सैन्य करियर को अलविदा भी कहा. यहीं से उस रास्ते की शुरुआत हुई, जिसने उन्हें भारतीय सेना के अनुशासित तौर-तरीकों से टेलीविजन वाली चिल्लम चिल्ली की दुनिया में तो पहुंचाया. साथ ही यहां उनकी छवि भी बनाई.
चेन्नई स्थित ऑफिसर्स ट्रेनिंग अकादमी में जेसामी कंपनी के जेंटलमैन कैडेट के रूप में सधी हुई वर्दी में मार्च करने से लेकर टेलीविजन और खुद के डिजिटल प्लेटफॉर्म पर तथ्य-रहित भाषण देने तक, आर्य की पेशेवर ज़िंदगी ने एक दिलचस्प मोड़ लिया है. इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण नौसेना द्वारा कराची बंदरगाह पर हमला करने को लेकर अपुष्ट रिपोर्टों का जश्न मनाने वाली उनकी टिप्पणियां और ईरान के विदेश मंत्री अब्बास अरागची को "सूअर" कहने वाली उनकी हालिया टिप्पणी है, जिसने भारतीय राजनयिकों को होने वाली हानि को बचाने व उसकी भरपाई के लिए नीतिगत पैंतरों को अपनाने के लिए मजबूर किया.
गौरव आर्य के विवादास्पद बयानों का रिकॉर्ड इससे भी काफी लंबा है.
एक मौके पर उन्होंने दावा किया था कि फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ की पेंशन 1971 के युद्ध के बाद बंद कर दी गई थी, और उसकी बहाली उनकी मृत्युशय्या पर ही की गई - तत्पश्चात इस दावे को कई सैन्य इतिहासकारों ने खारिज कर दिया था. आर्य ने अक्सर सेना के अभियानों के बारे में अतिरंजित या तथ्यात्मक रूप से गलत जानकारी दी है. 2019 में उन्होंने दावा किया था कि बीबीसी द्वारा श्रीनगर के सौरा में एक विरोध प्रदर्शन पर की गई रिपोर्ट झूठी थी. आर्य ने जोर देकर कहा कि कोई अशांति नहीं थी और इलाके में सब कुछ ठीक था. जबकि सच्चाई ये है कि गृह मंत्रालय ने भी इस विरोध की पुष्टि की थी.
क्या वो सही में मेजर के पद पर थे?
53 वर्षीय गौरव आर्य मध्य प्रदेश कैडर के 1960 बैच के एक सम्मानित आईपीएस अधिकारी के बेटे हैं. आर्य ने दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज में इतिहास की शिक्षा ली और 1993 में शॉर्ट सर्विस कमीशन के रास्ते भारतीय सेना में शामिल हुए. इसके बाद वो ऑफिसर्स ट्रेनिंग अकादमी में दाखिल हुए और फिर उन्हें 5 मार्च, 1994 को 17 कुमाऊं रेजिमेंट में कमीशन मिला.
आर्य की सूरतगढ़, गुरदासपुर और जम्मू-कश्मीर सहित अनेक जगहों पर तैनाती हुई. उनके ब्लॉग पोस्ट के अनुसार, 1997 में शिपकी ला में गश्त के दौरान गिरने के बाद उन्होंने सेना छोड़ दी, जिसकी वजह कथित तौर पर लंबे समय तक बर्फ में धंसे रहने के कारण फेफड़ों में गंभीर जटिलताओं का पैदा होना थी. उनके कथनानुसार, उन्होंने सेना छोड़ने का फैसला किया - एक ऐसा फैसला जिसका उन्हें "हमेशा मलाल रहेगा".
लेकिन सेना छोड़ने के बाद आर्य ने सार्वजनिक रूप से मेजर (सेवानिवृत्त) की उपाधि का इस्तेमाल किया - अपने ब्लॉग में खुद को "मेजर गौरव आर्य (वेटेरन)" के रूप में संबोधित किया.
सैन्य सूत्रों का मानना है कि सम्भवतः यह केवल एक कार्यकारी रैंक रही होगी, जो कि फील्ड में सेवा के दौरान दी जाने वाली एक अस्थायी पदवी होती है, जबकि एक मौलिक पदवी (सब्सटेंटिव रैंक) एक सैन्य अधिकारी की वास्तविक और स्थायी पदवी होती है.
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