नार्लीकर ने विज्ञान को एक जनभाषा दी. वे केवल विज्ञान के व्याख्याता नहीं थे, वे उसके कवि थे. उनकी विज्ञान फंतासी कहानियां विज्ञान को मनोरंजन नहीं, बल्कि विमर्श बनाती थीं.
अशोक की छाया में कोई बच्चा विज्ञान पढ़ रहा है. हवा में गणनाओं की गंध है, और दूर कहीं एक तारा अपने गुरुत्व को खो रहा है. आज, 20 मई 2025 को जयंत नार्लीकर फिर एक नई दुनिया में प्रवेश कर चुके हैं.
भारत में विज्ञान की कथा कहना, उसे रोचक बनाना और फिर उसमें कल्पना की उड़ान भर देना, यह कोई आसान काम नहीं था. लेकिन जिस तरह एक सितारा अपनी खुद की ऊर्जा से जगमगाता है, उसी तरह जयंत विष्णु नार्लीकर ने विज्ञान को भाषा और साहित्य की ज़मीन पर लाकर बिठा दिया.
जब यह खबर मिली कि नार्लीकर साहब नहीं रहे, तो एक झुरझुरी सी आई, मानो बचपन की किसी दीवार पर टंगी विज्ञान की कोई तस्वीर गिर पड़ी हो. उनकी कहानियां, उनके लेख, उनकी कल्पनाएं, जैसे हमारे भीतर की किसी झील में प्रतिबिंब की तरह हमेशा थिरकते रहे. वे मराठी में लिखते थे, लेकिन उनकी पहुंच भाषाओं से परे थी.
एक विरासत का आरंभ
जयंत विष्णु नार्लीकर का जन्म 19 जुलाई 1938 को कोल्हापुर में हुआ था. पिता एक गणितज्ञ, मां संस्कृतज्ञ, घर में ही तारों और छंदों की दोहरी परंपरा बहती थी. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से गणित में स्नातक किया. वहां के घाटों पर उन्होंने जिस तारों को देखा होगा, वही शायद उन्हें कैम्ब्रिज तक ले गए. कैम्ब्रिज में उन्होंने महान खगोलविद फ्रेड हॉयल के साथ मिलकर गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांतों पर शोध किया. इस दौरान स्टीफन हॉकिंग उनके सहपाठी थे. लेकिन अगर आप ध्यान से देखें, तो पाएंगे कि नार्लीकर की लेखनी में हॉकिंग की उदासी नहीं, बल्कि एक गहरी भारतीय जिज्ञासा है. जैसे वे यह जानना चाहते हों कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति के पहले कौन सा प्रश्न पूछा गया था.
भारत में खगोलशास्त्र का पुनर्जागरण
1972 में, नार्लीकर टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) में प्रोफेसर बने. 1988 में, उन्होंने इंटर-यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजिक्स (IUCAA) की स्थापना की, जो आज भारत में खगोलशास्त्र और खगोल भौतिकी के अध्ययन का प्रमुख केंद्र है. उनका उद्देश्य था कि विज्ञान केवल प्रयोगशालाओं तक सीमित न रहे, बल्कि आम जनता तक पहुंचे.
विज्ञान को कहानियों में ढालना
नार्लीकर ने विज्ञान को एक जनभाषा दी. वे केवल विज्ञान के व्याख्याता नहीं थे, वे उसके कवि थे. उनकी विज्ञान फंतासी कहानियां विज्ञान को मनोरंजन नहीं, बल्कि विमर्श बनाती थीं. "वामन परत न आला"— जिसे अंग्रेज़ी में "The Return of Vaman" के नाम से जाना गया. इसकी कथा ही नहीं, उसका संरचनात्मक सौंदर्य भी अद्वितीय है. यह कथा नहीं, एक प्रतीक है. विज्ञान यहां केवल पृष्ठभूमि नहीं, बल्कि नायक बन जाता है.
"टाइम मशीन ची किमया", "प्रेषित", "यक्षांची देणगी", "अभ्यारण्य", और उनकी चर्चित पुस्तकें Virus तथा A Tale of Four Cities, हर एक किताब में उनकी दृष्टि के अलग-अलग कोण नज़र आते हैं. ये कहानियां भविष्य की आशंकाओं, वर्तमान की जटिलताओं और अतीत की स्मृतियों को जोड़ती हैं.
जब विज्ञान भी साहित्य बनता है
2014 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित A Tale of Four Cities उनके लेखन का चरम था. राजकमल प्रकाशन ने इस पुस्तक को हिंदी पाठकों तक पहुंचाया, जिससे एक नई पीढ़ी को नार्लीकर की अद्भुत कल्पनाशक्ति से परिचय मिला. उनके लिए विज्ञान केवल डेटा नहीं था, वह एक अनुभव था. जिस तरह कोई कवि कविता में स्मृति की सिलवटें खोलता है, उसी तरह नार्लीकर विज्ञान में संभावना की परतें उघाड़ते थे.
उनका लेखन एक सेतु था, प्रशिक्षित वैज्ञानिकों और जिज्ञासु बच्चों के बीच. वे मराठी में लिखते थे, लेकिन उनकी भाषा में एक ऐसी पारदर्शिता थी, जो किसी भी भाषा की दीवार को पार कर पाठकों के हृदय तक पहुंच जाती थी. उनके शब्दों में विज्ञान था, लेकिन वह गणित की कठिन परिभाषा नहीं, एक कहानी की तरह सरल, सहज और आत्मीय रूप में प्रकट होता था.
एक प्रेरणादायक व्यक्तित्व
नार्लीकर का जीवन वैज्ञानिक सोच, साहित्यिक अभिव्यक्ति और मानवीय संवेदनाओं का सुंदर संगम था. उनकी लेखनी ने विज्ञान को आम लोगों के लिए सुलभ और रोचक बना दिया. कहानियां न केवल वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित थीं, बल्कि उनमें मानवीय संवेदनाएं और सामाजिक संदेश भी निहित थे.
अंतिम विदाई
जयंत नार्लीकर का निधन न केवल एक वैज्ञानिक का अंत है, बल्कि एक युग का समापन भी है. उनकी विरासत आने वाली पीढ़ियों को विज्ञान और साहित्य के माध्यम से प्रेरित करती रहेंगी. उनकी कहानियां, उनके विचार और उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि जिज्ञासा, कल्पना और ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती. जयंत नार्लीकर को श्रद्धांजलि.
(आशुतोष कुमार ठाकुर प्रबंधन पेशेवर हैं और साहित्य एवं कला विषयों पर नियमित लेखन करते हैं.)