कोर्ट ने कहा कि अदालत एक सार्वजनिक संस्था है. इसे जनता के अवलोकन, बहस और आलोचना के लिए खुला रहना चाहिए. हालांकि, आलोचना करने वालों को याद रखना चाहिए कि जज उसका जवाब नहीं दे सकते.
सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को दिल्ली हाईकोर्ट के उस आदेश को खारिज कर दिया जिसमें विकीपीडिया को एक पेज को हटाने के लिए कहा गया था. यह पेज एएनआई द्वारा विकीमीडिया फाउंडेशन के खिलाफ दायर किए गए एक मानहानि मुकदमे की जानकारी देता है.
लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, हाईकोर्ट ने यह आदेश इसलिए दिया था क्योंकि उसे लगा कि यह पेज अदालत की अवमानना कर सकता है और न्यायिक कार्यवाही में दखल डालता है.
लेकिन सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस उज्जल भुइयां ने कहा कि एक सार्वजनिक संस्था के तौर पर अदालतें जनता के लिए खुली रहनी चाहिए. भले ही कोई मामला अदालत में विचाराधीन हो लेकिन जनता और प्रेस को उस पर बहस और आलोचना का अधिकार है.
कोर्ट ने कहा, ‘अदालत एक सार्वजनिक और खुली संस्था है, जिसे जनता के अवलोकन, बहस और आलोचना के लिए खुला रहना चाहिए... हालांकि, आलोचना करने वालों को याद रखना चाहिए कि जज उसका जवाब नहीं दे सकते. अगर कोई प्रकाशन अदालत या जजों की छवि खराब करता है और अदालत को लगता है कि अवमानना का मामला बनता है, तो वह कार्रवाई कर सकती है. लेकिन मीडिया को यह कहना कि यह कंटेंट हटा दो, वह कोर्ट का काम नहीं है. किसी भी व्यवस्था में सुधार के लिए आत्म-विश्लेषण ज़रूरी है, और यह तभी संभव है जब अदालत से जुड़े मुद्दों पर भी खुलकर चर्चा हो.’
जस्टिस भुइयां ने यह भी कहा कि कोर्ट का काम नहीं है कि वह मीडिया को कंटेंट हटाने के लिए कहे. उन्होंने यह भी जोड़ा कि न्यायपालिका और मीडिया दोनों लोकतंत्र के अहम स्तंभ हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले में सहारा बनाम भारत सरकार और नरेश मिरजकर बनाम महाराष्ट्र राज्य जैसे ऐतिहासिक फैसलों का भी हवाला दिया.
एएनआई का आरोप था कि विकीपीडिया पेज में उनके बारे में झूठे और मानहानिकारक दावे किए गए हैं, जैसे कि एएनआई सरकार का ‘प्रोपेगेंडा टूल’ है.
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