क्यों रोमांच और सनसनी से भरपूर नहीं रहे प्रेस क्लब के चुनाव

9 नवंबर को प्रेस क्लब ऑफ इंडिया का चुनाव है. पिछले साल की तरह इस बार भी मौजूदा पैनल को चुनौती देने वाला कोई नहीं है. 

WrittenBy:अनमोल प्रितम
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प्रेस क्लब ऑफ इंडिया और गौतम लाहिरी की फोटो

लुटियंस दिल्ली की प्राइम लोकेशन- 1, रायसीना रोड यानी प्रेस क्लब ऑफ इंडिया का भवन. कुछ लोगों के लिए यह यूटोपिया है, कुछ के लिए यह एक टापू है जिस पर मोदीजी की नजर है, कुछ के लिए लुटियंस दिल्ली में बचा प्रतिरोध का एकमात्र अड्डा है. यह पत्रकारों का पुराना अड्डा है. संसद का नया भवन बनने के बाद यह सीधे संसद भवन से मुखातिब है. खाने-पीने की सुलभ जगह के साथ ही यह पत्रकारों के रोजाना जमावड़े की जगह भी है. 

प्रेस क्लब की शामें आमतौर दिन के मुकाबले ज्यादा गुलज़ार होती हैं. मूंगफली चबाते, पेग लगाते, सिगरेट सुलगाते पत्रकारों की टेबल से गुजरते हुए आप कमला हैरिस और ट्रंप की जीत की संभावनाओं का आकलन सुन सकते हैं, महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावों के संभावित नतीजे, चुनाव आयोग की गिनती से पहले यहां की टेबलों पर लीक हो जाते हैं. आपकी किस्मत ज्यादा अच्छी हुई तो किसी टेबल पर आपको यह जानने को भी मिल सकता है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह के बीच आखिरी बार कब मारामारी की नौबत आ गई थी और गौतम अडाणी से कैसे राहुल गांधी ने अपने दफ्तर में आधी रात को मुलाकात की. 

इन तमाम खुसफुसाहटों, ग्रेपवाइन्स के बीच आपको अपना विवेक और डिस्क्लेमर लगाकर चलना होता है. आपको अंदाजा लगाना होता है कि दावा करने वाला कितने पेग डाउन है. इसका मतलबल यह नहीं कि पूरी शाम सिर्फ गप्पबाजियों को ही समर्पित होती है. कई पत्रकार यहां सोर्सेज से मुलाकात के लिए आते हैं, कैरम रूम भी चलता है, तंबोला नाइट्स भी होती हैं. 

हाल के दिनों में क्लब की संरचना में एक और बड़ा बदलाव महसूस किया जा रहा है. हफ्ते के कुछ दिनों में पूर्णकालिक पत्रकारों के मुकाबले कॉरपोरेट सदस्यों की भीड़ ज्यादा नज़र आती है. ये वो सदस्य हैं जो मोटी रकम देकर प्रेस क्लब के सदस्य बनते हैं. इन्हें चुनावों में वोट देने का अधिकार नहीं होता. इसके पीछे एक अर्थशास्त्र काम करता है. क्लब का खाना-पीना लुटियंस दिल्ली के किसी भी स्तरीय रेस्त्रॉं के मुकाबले बेहतर है और कीमत किसी भी स्तरीय रेस्त्रॉं के मुकाबले बहुत कम है. यह स्थिति कॉरपोरेट वालों को भाती है. सस्ते में बढ़िया सेवा. 

लेकिन इन दिनों प्रेस क्लब का माहौल एकदम अलग है. आगामी नौ नवंबर को प्रेस क्लब के चुनाव होने हैं. देश-दुनिया की राजनीति पर चर्चा करने वाले पत्रकार आजकल क्लब की अंदरूनी राजनीति की चर्चा में व्यस्त हैं. कुछ पत्रकार नेता की तरह चुनाव भी लड़ रहे हैं.

प्रेस क्लब की मैनेजिंग कमेटी का चुनाव हर साल होता है. करीब पांच हजार सदस्यों वाले प्रेस क्लब ऑफ इंडिया का वार्षिक बजट लगभग 11.50 करोड़ रुपये है. इन पांच हजार में से 4,536 साधारण सदस्य हैं, जिन्हें मताधिकार प्राप्त है. इसके अलावा एसोसिएट और कॉरपोरेट मेंबर की कुल संख्या 477 है. 

क्लब के लिए 21 पदों पर चुनाव होता है. इनमें से पांच ऑफिस बियरर्स के पद और 16 मैनेजिंग कमेटी के पद होते हैं. आमतौर पर यहां पैनल बनाकर चुनाव लड़ने की परंपरा है लेकिन स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने पर कोई पाबंदी नहीं है. 

प्रेस क्लब के हालिया इतिहास में दो बड़े गुट बन गए हैं. एक गुट वो है जिसका बीते करीब एक दशक से क्लब पर कब्जा है. दूसरा गुट गाहे-बगाहे क्लब की प्रबंधन कमेटी में शामिल होने की कोशिश करता है. कथित तौर पर इस गुट को परदे के पीछे से सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी समर्थन देती रहती है. भाजपा समर्थक पत्रकार अक्सर इस गुट की तरफ से ताल ठोंकते नज़र आते हैं, लेकिन अभी तक इस गुट को चुनावों में सफलता नहीं मिल पायी है. 

क्लब के हालिया चुनावी इतिहास में सबसे कड़ा मुकाबला 2021 और 2022 में देखने को मिला था. जब वैचारिक आधार पर दो पाले साफ बंटे थे. एक राष्ट्रवादी गुट, दूसरा क्लब प्रबंधन पर काबिज लेफ्ट-लिबरल गुट. उस साल लेफ्ट-लिबरल खेमे से हिंदुस्तान के पत्रकार उमाकांत लाखेड़ा के नेतृत्व में पैनल था और दूसरी तरफ संजय बसक का पैनल था. उस चुनाव को याद करते हुए एक वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं, “वह चुनाव सबसे करीबी टक्कर वाला था. दोनों पैनलों ने धनबल, छल और आरोप-प्रत्यारोप जैसे सियासी दांवपेंच आजमाए थे.”

हालांकि, प्रेस क्लब में मौजूद हमने जितने भी पत्रकारों से बात की. उन सब ने इस बात पर सहमति जताई कि प्रेस क्लब के चुनाव में अब पहले जैसा रोमांच नहीं है. पहले नारेबाजी होती थी, पर्चे बांटे जाते थे और काफी रोमांचक प्रचार होता था लेकिन इस बार वैसा कुछ नहीं है. 

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