फैजान को किसी ने नहीं मारा: अस्पताल के अधूरे रिकॉर्ड में ‘दोषी पुलिस वाले’ नदारद

स्वास्थ्य कर्मचारियों और पुलिस अधिकारियों का कहना है कि ऐसे मामलों में पीड़ित को अस्पताल पहुंचाने वाले की जानकारी (ब्रॉट बाय) का कॉलम खाली छोड़ना नामुमकिन है.

WrittenBy:सुमेधा मित्तल
Date:
अपने हाथ में लगी हथकड़ी खोलते एक पुलिसकर्मी का चित्रण.

“पुलिस ने उसे मुसलमान होने की वजह से पीटा और अपमानित किया. पुलिस के अफसर कुछ देर बाद फैजान और अन्य लोगों को एक सफेद रंग की पुलिस जिप्सी में जीटीबी अस्पताल ले गए... किसी डॉक्टर ने उससे बात नहीं की और डॉक्टरों ने सारी मेडिकल जांच और इलाज पुलिस के निर्देशों पर किए. फैजान के सिर और कान पर टांके लगाए गए. फैजान ने कहा कि इसके बाद पुलिसकर्मी उसे और कुछ अन्य आदमियों को ज्योति नगर पुलिस थाने ले गए.”

ये फैजान द्वारा दिल्ली उच्च न्यायालय के सामने मरने से पहले दिए गए बयान का एक अंश है. शायद आपको वो 23 वर्षीय युवक याद हो, जिसे 2020 के उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगों के दौरान वायरल हुए एक वीडियो में सड़क पर अर्ध-बेहोशी में पड़ा देखा गया था, उसे पीटा गया, ताने मारे गए और कानून के रखवालों द्वारा जबरदस्ती राष्ट्रगान गाने के लिए मजबूर किया गया था. इस हमले के दो दिन बाद उसकी मौत हो गई थी.

वीडियो में चार अन्य लोग भी थे, जिनमें से एक कौसर अली भी थे, जिन्होंने हाईकोर्ट को बताया कि पुलिस ने "हम पर बेरहमी से हमला किया". "थोड़ी देर बाद, एक पुलिस जीप आई और उन्होंने हम पांचों घायल आदमियों को जीप के पीछे डाला और हमें जीटीबी अस्पताल ले गए. पुलिस अधिकारी हम पांचों को अस्पताल के अंदर ले गए. वहां डॉक्टर ने पुलिस अधिकारियों से बात की और एक कागज पर कुछ लिखा."

पुलिस ने भी अपनी स्टेटस रिपोर्ट में पुष्टि की थी कि ज्योति नगर पुलिस थाने के कर्मचारी पांचों को अस्पताल ले गए थे.

ये बयान एक सच्चाई की पुष्टि करते हैं कि कर्दमपुरी में तैनात पुलिसकर्मियों की एक टोली 24 फरवरी, 2020 को हुए हमले और अस्पताल ले जाने के लिए जिम्मेदार थी.

लेकिन आज 2024 तक यह सच्चाई साबित नहीं हुई है. स्पष्ट ड्यूटी चार्ट होने के बावजूद, किसी भी पुलिस अधिकारी को उस घटना के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया गया, जिसे उच्च न्यायालय ने ‘हेट क्राइम अर्थात घृणा जनित अपराध’ कहा है. अदालत द्वारा "सुस्त" पुलिस जांच पर कड़ी फटकार लगाने के बाद जांच सीबीआई को सौंप दी गई है.

लेकिन केंद्रीय एजेंसी के लिए यह आसान नहीं होगा, क्योंकि शुरुआत से ही सबूतों की प्रमाणिकता पर सवाल हैं.

न्यूज़लॉन्ड्री ने अब पाया है कि फैजान और कौसर के एमएलसी यानि मेडिको-लीगल सर्टिफिकेट में 24 फरवरी को दोनों को अस्पताल लाने वालों के बारे में अनिवार्य रूप से भरा जाने वाला विवरण नहीं दिया गया. एमएलसी किसी भी आपराधिक मामले में बनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है.  

सुप्रीम कोर्ट की सीनियर क्रिमिनल लॉयर रेबेका जॉन के अनुसार, एमएलसी एक आपराधिक मामले में "पहला विवरण" देता है. "यह न केवल किसी व्यक्ति पर चोटों या चोटों के न होने को रिकॉर्ड करता है, बल्कि यह भी रिकॉर्ड करता है कि पीड़ित व्यक्ति को कौन लाया था. उस कॉलम को खाली छोड़ना थोड़ा संशय पैदा करता है क्योंकि इसे लापरवाही नहीं कहा जा सकता है, यह संदिग्ध है."

शक की सुई अस्पताल की ओर भी घूमती है. अस्पताल के रिकॉर्डों को खंगालने पर न्यूज़लॉन्ड्री को दिल्ली दंगा पीड़ितों के कम से कम छह अन्य एमएलसी मिले, इन सभी में 'लाए गए' सेक्शन के तहत नाम नहीं थे.

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