मीडिया विश्लेषक और लेखक विनीत कुमार से उनकी किताब ‘मीडिया का लोकतंत्र’ पर बातचीत.
भारतीय मीडिया का बड़ा तबका खासकर टेलीविजन ‘भक्ति काल’ से गुजर रहा है. जहां देश के प्रधानमंत्री के साथ तस्वीर खिंचवाने के लिए एंकर/पत्रकार लाइन में खड़े नजर आते हैं. प्रधानमंत्री अगर सोशल मीडिया साइट एक्स (पूर्व में ट्वीटर) पर फॉलो कर लें तो यह उपलब्धि मान ली जाती है. राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा में आया निमंत्रण ‘पहुंच’ का प्रमाण बन गया है. वहीं, सत्ता से सवाल करने को जुर्म साबित करने की पत्रकारों में होड़ मची हो.
ऐसे में 2024 में मीडिया विश्लेषक और लेखक विनीत कुमार की किताब ‘मीडिया का लोकतंत्र’ के कवर पर लिखा है, ‘साल 2014 के बाद मीडिया का चरित्र पूरी तरफ बदल गया है…ऐसा कहने से यह किताब रोकती है.’ यह वाक्य थोड़ा हैरान करता है.
आखिर कुमार ऐसा दावा क्यों कर रहे? इसके जवाब में वो कहते हैं, ‘‘अगर हम कहते हैं कि मीडिया का चरित्र 2014 के बाद बदल गया तो हम चीजें आसान कर देते हैं. उसके पीछे की पृष्ठभूमि को समझने से खुद को पीछे रखते हैं. 2003, 2005, 2009, 2011 और 2013 में क्या हुआ? 2014 तो डिस्प्ले है, जो आप देख रहे हैं. इन सालों में भी एक से एक घटनाएं एवं फैसले हुए और कॉर्पोरेट से सहयोग मिला. लेकिन हमें सिर्फ 2014 दिखाई पड़ता है. यह किताब डिस्प्ले के पहले की कहानी को विस्तार से बताती है.’’
कुमार कहते हैं, ‘‘यह किताब बताती है कि पत्रकारिता में जो कुछ बदला है, वह सिर्फ राजनीतिक स्तर का बदलाव नहीं है. आर्थिक और सांस्कृतिक मसले पर क्या बदल रहा था? मनोरंजन चैनलों की दुनिया में क्या बदल रहा था? सरकार 2014 में बदलती है लेकिन मनोरंजन चैनलों पर तो 2012 में वह सरकार आ गई है. क्योंकि उस तरह के कार्यक्रम बनाए जाने लगे थे.’
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