फरेब की फसल यानि सरकारी आंकड़ेबाजी की कहानी कहती हमारी वो श्रृंखला, जिसके तहत सरकार के उन दावों की पड़ताल करते हैं, जो हकीकत से कोसों दूर हैं.
फरेब की फसल यानि सरकारी आंकड़ेबाजी की कहानी कहती हमारी वो श्रृंखला, जिसके तहत सरकार के उन दावों की पड़ताल करते हैं, जो हकीकत से कोसों दूर हैं.
श्रृंखला के पहले भाग में हमने आपको बताया कि कैसे सरकार ने आंकड़ेबाजी में उन किसानों की भी आय दोगुनी कर दी जिनके पास जमीन ही नहीं थी.
इस भाग में हम दिल्ली से दूर बिहार का हाल-चाल जानने की कोशिश करेंगे. जानेंगे कि कैसे यहां जिनके पास एक इंच भी जमीन का टुकड़ा नहीं है, उन खेतीहर लोगों की आय दोगुनी हो गई है.
मधेपुरा का साहूगढ़
बिहार के मधेपुरा जिले का साहूगढ़ गांव. 35 वर्षीय राजेश कुमार अपनी पत्नी सुनीता देवी और बच्चे के साथ मिर्च के खेत में पानी दे रहे हैं. जब हमने राजेश कुमार को बताया कि उनके पास खुद की चार एकड़ जमीन है, जिसमें खेती करके वह 3,15,000 रुपये सालाना कमाते हैं तो वह चौंक गए.
राजेश बोले, “मेरे पास अपनी खुद की 1 इंच जमीन नहीं है. जिस पर मैं खेती कर सकूं. मैं लीज पर खेत लेकर सब्जियां उगाता हूं. अभी मैंने 2 एकड़ जमीन लीज पर ली है. जिसके लिए मुझे हर साल 40,000 रुपये चुकाना होता है.”
साथ खड़ी उनकी पत्नी सुनीता कहती हैं, “साल भर में मुश्किल से एक लाख रुपये कमा पाते हैं. जिस साल मौसम सही नहीं रहता तो खेती की लागत भी नहीं निकलती.”
फिर वह हमारी टीम को अपने साथ ले जाती हैं. मिट्टी और फूस से बने दो कमरे के झोपड़े को दिखाते हुए कहती हैं, “आप ही बताइए अगर हम साल का 3 लाख रुपया कमाते तो क्या इस झोपड़ी में रहते. हमारे पास अपनी यही जमीन है, जहां पर यह झोपड़ी है. इसके अलावा कोई जमीन नहीं है. परिवार का खर्च चलाने के लिए पति सब्जियां उगाने के साथ-साथ मजदूरी भी करते हैं.”
राजेश कुमार एक कच्चे मकान में रहते हैं. उन्हें सरकार की तरफ से कोई आवास योजना का लाभ नहीं मिला है. ना ही उनकी पत्नी को उज्जवला योजना का. वह आज भी चूल्हे पर खाना बनाती हैं.
दरअसल, भारत सरकार की संस्था भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) नए साल 2022 में देश के उन 75000 किसानों पर एक पुस्तक जारी की थी. जिनकी आय दोगुनी या उससे ज्यादा हो गई है. इसमें बिहार के मधेपुरा जिले के 75 किसानों का नाम है. इनमें साहूगढ़ गांव के राजेश कुमार भी एक हैं. राजेश कुमार के साथ-साथ उनके गांव के मिथिलेश यादव का नाम भी इस सूची में शामिल है.
राजेश के पास 4 एकड़ जमीन
पुस्तक में राजेश कुमार के बारे में बताया गया है कि उनकी उम्र 35 साल है. चार एकड़ जमीन में खेती करते हैं. साल 2016-17 में खेती और पशुपालन से इनकी नेट इनकम (शुद्ध आय) 87,800 रुपये थी. 2020-21 में बढ़कर 315000 रुपये हो गई.
राजेश कुमार की उनकी फसल के साथ फोटो भी छापी गई है. जब हमने राजेश कुमार से फोटो खींचे जाने के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, ”मुझे ठीक से याद नहीं लेकिन दो-तीन साल पहले कृषि विज्ञान केंद्र से अधिकारी आए थे और उन्होंने ही यह फोटो खींची थी”
राजेश ने बताया कि फोटो खींचे जाने के पहले कृषि विज्ञान केंद्र से किसी ने उनसे संपर्क नहीं किया था. वह बताते हैं कि कृषि विज्ञान केंद्र से कुछ लोग आते थे लेकिन वह खेत में आसपास घूम कर चले जाते थे. उन्होंने ना मुझसे कभी बात की और ना ही मुझे कभी फसल को लेकर कोई सलाह दी. यह भी बताया कि उन्हें कृषि विज्ञान केंद्र से किसी प्रकार की कोई मदद नहीं मिली है.
राजेश कुमार और मिथिलेश कुमार का गांव साहूगढ़, मधेपुरा कृषि विज्ञान केंद्र के अंतर्गत आता है.
राजेश कुमार के घर से थोड़ी ही दूर पर मिथिलेश यादव का घर है. मिथिलेश यादव के बारे में बताया गया है कि उनके पास 3.5 एकड़ जमीन है. 2016-17 में धान गेहूं और मक्के की खेती से उनकी नेट इनकम 51,250 रुपये थी जो 2020-21 में बढ़कर 3,40,900 रुपये हो गई. इसके साथ ही मिथिलेश कुमार की एक फोटो भी लगाई गई है, जिसमें वह अपनी गाय और भैंस के साथ खड़े हैं.
जब हम मिथिलेश कुमार से मिले तो उन्होंने हमें बताया, “3 साल पहले कृषि विज्ञान केंद्र के अधिकारी द्वारा उनकी फोटो यह कहकर खींची गई थी कि आपको सरकारी लाभ मिलेगा. लेकिन फोटो खींचे जाने के बाद और पहले उन्हें किसी विज्ञान केंद्र से किसी तरह की मदद नहीं दी गई.”
पुस्तक में बताया गया है कि मिथिलेश आलू की खेती से 80,000 रुपये कमाते हैं. इस बारे में पूछने पर मिथिलेश कुमार ने कहते हैं, “यह कोरा झूठ है. मैं आलू सिर्फ अपने परिवार के खाने लायक ही उगाता हूं. बेचकर पैसे कमाने का तो सवाल ही नहीं उठता.”
मिथिलेश आगे बताते हैं, “मुझे तो पता भी नहीं कि मेरे जिले में किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए कृषि विज्ञान केंद्र कुछ काम भी कर रहा है. इस फोटो के खींचे जाने से पहले और बाद में मुझे किसी विज्ञान केंद्र के किसी भी पदाधिकारी ने कभी संपर्क नहीं किया. और ना ही मुझे बताया कि यह फोटो पुस्तक में छपने के लिए खींची जा रही है. मुझे तो यह बताया गया था कि फोटो खींचे जाने के बाद आपको सरकारी लाभ मिलेगा.”
मधेपुरा के 70 किसानों की आमदनी हुई दोगुनी
राजेश कुमार और मिथिलेश यादव जैसे किरदार अकेले नहीं हैं. आईसीएआर के मुताबिक, मधेपुरा जिले 70 किसानों की आमदनी दोगुनी हुई. हमारी टीम ने इस दावे की सच्चाई जानने के लिए जिले के कुल दो गांवों का दौरा किया.
साहूगढ़ के बाद हमारी टीम शंकरपुर ब्लॉक के कोलवा गांव में पहुंची. यहां जोगिंदर और राजिंदर मेहता का परिवार पारंपरिक तौर पर सब्जियां उगाने का काम करता है.
दरअसल, यहां गांव में इस समुदाय के ज्यादातर लोग खेतों में सब्जियां उगाने का काम करते हैं. बाद में इन्हें मार्केट में ले जाकर फुटकर में बेच देते हैं. जोगिंदर और राजिंदर की कहानी भी मिथिलेश यादव और राजेश कुमार जैसी है.
पुस्तक में जोगिंदर मेहता के बारे में दावे किया गया है कि उनके पास 2 एकड़ जमीन है. 2016-17 में जोगिंदर मेहता की धान, गेहूं और पशुपालन से कुल आमदनी 1,96,800 रुपये बताई गई है. हालांकि, कृषि विज्ञान के हस्तक्षेप के बाद उनकी आमदनी 2020-21 में 7,16,200 रुपये हो जाने का दावा है.
जब हमने जोगिंदर से इन दावों पर बात की तो उन्होंने कहा, “हमारी आमदनी निश्चित नहीं होती क्योंकि सब्जियां मौसम और मार्केट पर निर्भर करती हैं. कभी-कभी मार्केट अच्छा होता है तो बढ़िया कमाई हो जाती है लेकिन कभी-कभी घाटा भी लग जाता है. पहले के मुकाबले सब्जियों की बिक्री अधिक हो रही है लेकिन लागत भी पहले से काफी ज्यादा हो चली है.”
पुस्तक में जोगिंदर मेहता की खेत में मौजूद फोटो लगाई गई है. पूछने पर वह कहते हैं कि फोटो कब ली गई उन्हें ठीक से याद नहीं.
इसी गांव के रहने वाले राजिंदर मेहता के बारे में दावा किया गया है कि उनकी आमदनी 2016-17 में धान, गेहूं और पशुपालन से 1,16,600 रुपये थी. जो 2020-21 में बढ़कर 4,72,100 रुपये हो गई. पुस्तक में उनकी फसलों और पशुओं के साथ फोटो भी लगाई गई है.
जब हम राजिंदर मेहता से मिले तो वह शंकरपुर बाजार में अपनी दुकान पर सब्जी बेच रहे थे. आमदनी बढ़ने के सवाल पर राजिंदर कहते हैं, “यह सरासर झूठ है. पहले के मुकाबले आमदनी थोड़ी बढ़ी है लेकिन इतनी नहीं जितना दावा किया जा रहा है.”
वह कहते हैं, “सब्जियों की आमदनी निश्चित नहीं होती है.”
फोटो के बारे में पूछने पर कहते हैं, “करीब 3 साल पहले यह फोटो ली गई थी.”
केवीके से मदद मिलने के दावों पर वह इनकार करते हैं. वह कहते हैं कि हमें खाद, बीज और बाकी सामान के लिए भी प्राइवेट दुकानों पर निर्भर होना पड़ता है.”
वह बताते हैं, “मैंने तोरी की सब्जी लगाई थी. पौधे सूखने लगे तो मैंने बीमारी का पता लगाने और दवा की जानकारी के लिए केवीके से संपर्क किया. उन्होंने जो दवा का छिड़काव करने के लिए कहा, उससे मेरी फसल और खराब हो गई. फिर हमने खुद ही प्राइवेट स्टोर से दवा लीय और छिड़काव किया.”
इसी गांव के देवनंदन मंडल के बारे में भी आमदनी बढ़ाने का दावा किया गया है. जब हम देवनंदन मंडल के घर पहुंचे तो पड़ोसियों से पता चला कि उन्हें लकवा मार गया है और वह इलाज कराने पटना गए हुए हैं.
क्या कहता है केवीके?
जिन गांवों में हम अपनी पड़ताल के लिए गए वह मधेपुरा केवीके के अंतर्गत आते हैं. जब हम मधेपुरा केवीके पहुंचे तो वहां कोई नहीं मिला. दफ्तर का दरवाजा खुला था लेकिन कमरों पर ताले लटक रहे थे.
हमारी टीम ने यहां के प्रमुख डॉक्टर सुरेंद्र चौरसिया से बात करने की कोशिश की तो उन्होंने व्यस्तता का हवाला देते हुए फोन काट दिया.
न्यूज़लॉन्ड्री ने आईसीएआर के महानिर्देशक डॉ. हिमांशु पाठक को इस मामले पर कुछ सवाल भेजे हैं, अगर उनका कोई जवाब आता है तो उन्हें इस ख़बर में जोड़ दिया जाएगा.
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