दिन ब दिन की इंटरनेट बहसों और खबरिया चैनलों के रंगमंच पर संक्षिप्त टिप्पणी.
भारत में टेलीविज़न पत्रकारिता का जनाजा निकल चुका है. अर्थी श्मशान के रास्ते में है. एक वो दौर था जब हाथ में माइक लिए पत्रकार किसी गांव-चौपाल में पहुंचता था तब लोग स्वागत में बिछ जाते थे. आज टेलीविज़न पत्रकारिता उस गर्त में पड़ी है जहां स्वागत में मुर्दाबाद, गोबैक और दलाल मीडिया के नारे लगते हैं.
दूसरी तरफ धृतराष्ट्र का दरबार है, जहां लंबे वक्त के बाद रंगत लौटी है. क्योंकि आर्यावर्त में चुनाव चल रहे हैं. हर दिन कहीं न कहीं से लोमहर्षक खबरें आ रही हैं. धृतराष्ट्र इन दिनों दरबार में कम ही आते थे लेकिन चुनावी मौसम को देखते हुए उन्होंने अपनी उपस्थिति को प्रार्थनीय माना.
संजय ने भी अपने तार-बेतार संपर्क से अनगिनत कहानियां जुटा रखी थीं. क्या कामरूप प्रदेश, क्या जंबूद्वीप, क्या किचकिंधापुरी, क्या पाटलीपुत्र, क्या पांचाल प्रदेश, क्या कांधार, क्या गोंडवाना और क्या हखामनी. चुनावी खबरें संजय की पोटली से उफन-उफन कर गिर रही थीं.
देखिए टिप्पणी का ये एपिसोड.