मध्यप्रदेश के सुदूर गांवों में गोंड और बैगा समेत सभी जनजातीय समुदाय बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं. यहां की क्षेत्रीय पार्टी राजनीतिक परिदृश्य से नदारद हैं.
मध्यप्रदेश के मंडला ज़िले में कई गांव गोंड और बैगा आदिवासियों समेत कई जनजातीय समुदायों के घर हैं. आज आज़ादी के 75 साल बाद जब सरकार अमृत महोत्सव के आयोजन कर रही है तो इन गांवों में साफ पानी और ज़रूरी इलाज की बुनियादी सुविधायें तक नहीं हैं.
70 साल की बैगा आदिवासी महिला रामवती कहती हैं, “हमें तो यहां साफ पानी भी नहीं मिल पाता.. ज़मीन का पानी छानकर पीते हैं लेकिन जब बाढ़ आ जाती है तो बड़ी दिक्कत होती है. हैंडपंप का पानी भी ठीक नहीं है. वो लाल हो जाता है. गर्भवती महिलाओं के लिए प्रसूति की कोई सुविधा नहीं है. मेरी बड़ी बहू की इस कारण मौत हो गई.”
रामवती के बेटे सत्तू सिंह का कहना है कि आदिवासियों को वन अधिकार और ज़मीन पर जो हक मिलना चाहिए उससे वह वंचित हैं.
“पहले इस जंगल पर हमारे दादा का अधिकार था... लेकिन अब वन विभाग वाले कहते हैं कि यह हमारा नहीं है. वह हमें इसका उपयोग नहीं करने देते हैं,” सत्तू सिंह ने बताया.
गांव वाले कहते हैं वन अधिकार के लिए संघर्ष में कई लोगों को जेल भी जाना पड़ा. उधर सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार और जनप्रतिनिधियों द्वारा इस क्षेत्र की अनदेखी यहां स्पष्ट है.
गोंड आदिवासी और अधिकार कार्यकर्ता चरण सिंह परते हमें उन घरों को दिखाते हैं जो सरकारी आवास योजनाओं के तहत शुरू किए गए लेकिन कई साल बाद अधूरे ही हैं.
परते कहते हैं, “जिस तरह से आप देख रहे हैं कि यहां आवास बने हुए हैं. आज तीन से चार साल हो गए हैं लेकिन अधूरे पड़े हैं जिसके गवाह ये लोग खुद बता रहे हैं. बहुत सारे बैगा परिवारों को जो गरीबी रेखा के नीचे हैं जिन्हें राशन मिलता है वह भी नहीं मिल रहा है. उनके राशन कार्ड नहीं बने हैं. वो बाज़ार से खरीद कर खाते हैं. यही हाल शिक्षा और स्वास्थ्य का भी है.”
यही हाल शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था का है. आदिवासियों की यह हालत मानवविज्ञानी वेरियर एल्विन की बातें याद दिलाती है. आज़ादी के 10 साल बाद एल्विन की अध्यक्षता में आदिवासियों की हालत जानने और उसमें बेहतरी की सिफारिश के लिए एक कमीशन का गठन किया गया था. एल्विन ने अपनी जिंदगी का बड़ा हिस्सा इन आदिवासियों के बीच ही गुजारा था. उनका कहना था कि सरकारी अफसरों को आदिवासियों के व्यवहार की समझ नहीं है. उन्होंने कहा कि सभ्य समाज ने आदिवासियों से उनकी ज़मीन छीन ली, अधिकार छीन लिए.. उनकी कला को खत्म कर दिया. एल्विन ने ये तक कहा कि शिकार पर पाबंदी लगाकर इन आदिवासियों से उनका भोजन तक छीन लिया है.
भारत में करीब 9 प्रतिशत जनसंख्या आदिवासियों की है और संसद में 47 सीटें आधिकारिक रूप से आरक्षित हैं. इनमें से करीब आधी तो गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा में ही हैं. 1990 के दशक में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी इस उम्मीद के साथ बनी कि आदिवासियों को नेतृत्व मिलेगा लेकिन राजनीतिक परिदृश्य से आज गोंडवाना की यह क्षेत्रीय उम्मीद गायब दिखती है.
मंडला की इस आरक्षित ट्राइबल सीट पर प्रमुख मुकाबला केंद्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते और कांग्रेस के विधायक ओंकार मरकाम के बीच है.. कुलस्ते 6 बार सांसद रह चुके हैं और अभी केंद्र में मंत्री हैं. मरकाम 3 बार के विधायक हैं. यहां चुनावी संसाधनों के मामले में कांग्रेस की हालत पतली दिखती है हालांकि राहुल गांधी और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष नेता जीतू पटवारी ने मरकाम के समर्थन में रैलियां की. उधर बीजेपी यहां अपने मुख्यमंत्रियों और केंद्रीय मंत्रियों की धड़ाधड़ सभाएं कर रही है.
आदिवासी कहते हैं कि सारा ज़ोर प्रचार और चुनावों तक सीमित रहता है. उसके बाद कुछ नहीं होता. 1990 के दशक में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के गठन से उम्मीद जगी कि आदिवासियों के हक में आवाज़ बुलंद होगी लेकिन 2024 के लोकसभा चुनावों में गोंडवाना की यह क्षेत्रीय पार्टी का कुछ असर नहीं दिखता.
इस बारे में विस्तार से जानकारी के लिए देखिए यह वीडियो रिपोर्ट.
The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.
ContributeGeneral elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.
Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?