मोदी रिपोर्ट कार्ड: प्रधानमंत्री आवास योजना में असंतुलित विकास और वो बातें जो आपको जानना चाहिए

यदि प्रधानमंत्री आवास योजना-शहरी 2024 समय सीमा के भीतर पूरी भी हो जाती है, तो भी इससे जुड़े कई ऐसे आंकड़े हैं जो परेशान कर सकते हैं.

भुलभुलैया के बीचों स्थित आवास

जून 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक प्रमुख शहरी आवास योजना शुरू की. घोषणा की गई कि 2022 तक "सभी को आवास" मिलेगा. यह इंदिरा गांधी के 'रोटी, कपड़ा, मकान' के नारे की भावनात्मक अपील को दोहराने जैसा था. 

लेकिन प्रधानमंत्री आवास योजना-शहरी (पीएमएवाई-यू) इलाके में बड़ी बाधाओं का सामना कर रही है. जहां दिसंबर 2024 तक 1.18 करोड़ परिवारों को घर देने का वादा किया गया था, वहीं अब तक यह लक्ष्य 67.45 प्रतिशत ही पूरा हो पाया है. 

हालांकि, भले ही यह तय समयसीमा के भीतर पूरा हो जाए, फिर भी कई ऐसे आंकड़े हैं जो परेशान करने वाले हैं. 

उदाहरण के लिए, यदि सरकारी आंकड़ों के अनुसार आवास की मांग के सबसे कम अनुमान को भी देखा जाए तो पता चलता है कि सरकार ने अब तक केवल 25.15 प्रतिशत आवास की कमी ही पूरी की है, जबकि कागज पर यह संख्या 67.45 प्रतिशत है. इसके अतिरिक्त, इनमें से आधे से अधिक घर एक ऐसी व्यवस्था के तहत बने हैं, जिसमें सरकार की भूमिका केवल लाभार्थियों के साथ लागत साझा करने तक सीमित है.

इसके अलावा, पीएमएवाई-यू के तहत बनाए जाने वाले अधिकांश घर- लगभग 83 प्रतिशत- भूमिहीन शहरी गरीबों के लिए बिल्कुल भी नहीं हैं. बावजूद इसके कि महानगरों में निजी रियल एस्टेट डेवलपर्स कमजोर वर्गों के लिए किफायती आवास बनाने के जरा भी इच्छुक नहीं हैं.

क्षेत्रीय आधार पर भी इन आंकड़ों में बहुत असमानता है. बिहार, आंध्र प्रदेश, मणिपुर, मिजोरम, मेघालय, सिक्किम, अंडमान और निकोबार और जम्मू-कश्मीर में 50 प्रतिशत से कम आवास पूरे हुए हैं जबकि पूर्वोत्तर राज्यों में यह संख्या सबसे कम है.

'गारंटी' का रियलिटी चेक

पीएमएवाई-यू के तहत निर्मित और/या पुनर्निर्मित घरों की संख्या प्रभावशाली है- लगभग 1.18 करोड़ घर स्वीकृत किए गए हैं, जिनमें से 80 लाख से अधिक पहले ही पूरे हो चुके हैं. यही आंकड़े सुर्खियों में दिए जाते हैं, और सरकारी प्रतिनिधि अक्सर पीएमएवाई-यू की सफलता पर चर्चा करते समय इनका उल्लेख करते हैं. इन आंकड़ों की वास्तव में प्रशंसा की जानी चाहिए, क्योंकि ये कई उन परिवारों की कहानी है जिनके जीवन में बहुत सुधार आया है. 

लेकिन शहरी गरीबों का एक बड़ा हिस्सा अभी भी इससे वंचित है. पीएमएवाई-यू के तहत निर्मित अधिकांश घर (लगभग 83 प्रतिशत) उन परिवारों के हैं जिनके पास पहले से पूंजी या जमीन थी. पीएमएवाई-यू के तहत झुग्गी पुनर्वास योजना में केवल 2.96 लाख घर मंजूर हुए हैं, जो अनुमानित मांग का लगभग 20 प्रतिशत है. यह संख्या पीएमएवाई-यू के कुल लाभार्थियों का लगभग 2.5 प्रतिशत है.

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एक और परेशान करने वाली वास्तविकता जो शहरी भारत में आवास की स्थिति दर्शाती है, वो यह है कि पीएमएवाई-यू के तहत बने आवासों के बावजूद, मांग आपूर्ति से कहीं अधिक है. यदि इस मांग के कम से कम अनुमान को भी लिया जाए, तो पीएमएवाई-यू के तहत बने 80 लाख घरों ने आवास की मात्र 25.15 प्रतिशत कमी को पूरा किया है. यहां तक ​​कि यदि योजना के तहत स्वीकृत शेष घरों का निर्माण 2024 के अंत तक हो जाए, तब भी यह वास्तविक आवश्यकता का लगभग 37 प्रतिशत ही पूरा कर पाएगा, और लगभग 2.4 करोड़ परिवार फिर भी आवास से वंचित रहेंगे.

आर्थिक विकास में आवास का महत्व

किसी समाज या राष्ट्र के लिए आवास के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता. भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने बार-बार माना है कि उचित आवास का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा संरक्षित एक मौलिक अधिकार है. हैबिटेट फॉर ह्यूमैनिटी के एक शोध में कहा गया है कि "सुरक्षित, स्थिर और किफायती आवास वाले परिवारों में लोग कम बीमार पड़ते हैं, स्कूल में प्रदर्शन बेहतर होता है, मनोवैज्ञानिक तनाव कम होता है और माता-पिता में अधिक आत्मविश्वास दिखाई देता है".  

मानवीय आधार के अलावा, आर्थिक रूप से भी सभी के लिए उचित आवास सुनिश्चित करना फायदेमंद है. यदि हाउसिंग इंफ्रास्ट्रक्चर खराब हो तो मानव संसाधन की गुणवत्ता और उत्पादकता कम होती है. इसके अलावा, मैक्रो-इकोनॉमिक स्तर पर देखा जाए तो रियल एस्टेट देश के लगभग 50 प्रतिशत आर्थिक उत्पादन के लिए जिम्मेदार है. सांख्यिकी मंत्रालय के अनुसार, 2021-22 में आवास और अन्य भवनों के निर्माण का सकल स्थिर पूंजी निर्माण में एक तिहाई से अधिक हिस्सा था.

पेरू के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हर्नान्डो डी सोटो ने अपनी किताब 'द मिस्ट्री ऑफ कैपिटल' में इस बात पर प्रकाश डाला है कि कैसे यदि गरीबों के पास घर और भूमि अधिकार हो तो फिर उनके लिए क्रेडिट, व्यवसाय, और आर्थिक विकास का रास्ता खुल जाता है. घर का स्वामित्व और उसके बाद उसे कोलैटरल की तरह प्रयोग करने से गरीबी से बचा जा सकता है, इसे साक्ष्यों के साथ सिद्ध किया जा चुका है.

हालांकि, आंकड़ों से परे, "सभी को आवास" के लिए सरकार के प्रयास के पीछे एक सांस्कृतिक कारण भी है. यह है हमारे समाज में 'रोटी, कपड़ा, मकान' के साथ भावनात्मक जुड़ाव.

भारत सरकार ने पहली बार लोगों को घर देने की शुरुआत 1985 में इंदिरा आवास योजना के साथ की. पहले दो दशकों तक सरकार ने ग्रामीण आवास पर ध्यान केंद्रित किया. 2000 के दशक के मध्य तक, भारत सरकार ने शहरी क्षेत्रों में आवास की जरूरत को पहचाना और 2007 में नेशनल अर्बन हाउसिंग एंड हैबिटैट पॉलिसी (एनयूएचएचपी) में "सभी के लिए किफायती आवास" की धारणा को स्पष्ट किया. 

हालांकि, उस नीति में ठोस विशेष प्रावधानों का अभाव था. राजीव आवास योजना (आरएवाई) और राजीव ऋण योजना (आरआरवाई) जैसी शुरुआती शहरी आवास योजनाएं 2008 की पारेख समिति की रिपोर्ट पर आधारित थीं. जब 2015 में पीएमएवाई-यू लॉन्च किया गया, तो इसमें किफायती शहरी आवास के लिए पिछले सभी कार्यक्रमों को शामिल कर लिया गया और उनके पैमाने और दायरे में काफी विस्तार किया गया.

कितनी है जरूरत 

2011 की जनगणना के अनुसार, देश की 31 प्रतिशत आबादी या 37.7 करोड़ लोग शहरी क्षेत्रों में रहते थे. तबसे लेकर शहरीकरण की प्रवृत्ति में वृद्धि हुई है, और वर्तमान अनुमान के अनुसार शहरी आबादी 50 करोड़ से अधिक है. यह दर और तेज होने वाली है और 2030 तक लगभग 40 प्रतिशत भारतीय शहरी क्षेत्रों में रहेंगे. भारतीय शहरों में तेजी से भीड़ बढ़ रही है और इससे वहां रहने वाले गरीबों के लिए आवास की उपलब्धता, जो पहले ही कम थी, अब और कम हो रही है. 

भारत सरकार शहरी कुटुंबों को वार्षिक आय के आधार पर वर्गीकृत करती है. सालाना 3 लाख रुपए से कम आय वाले परिवार आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) में आते हैं. जो लोग सालाना 3 लाख से 6 लाख रुपए के बीच कमाते हैं, वे निम्न आय समूह (एलआईजी) से संबंधित हैं, और जो लोग सालाना 6 लाख रुपए से 18 लाख रुपए के बीच कमाते हैं, वे मध्यम आय समूह (एमआईजी) से संबंधित हैं. 

महानगरों में निजी रियल एस्टेट डेवलपर्स द्वारा बनाए गए ज्यादातर आवास ईडब्ल्यूएस और एलआईजी परिवारों की आय सीमा से बाहर होते हैं, जिससे वह घर नहीं खरीद पाते और अमानवीय स्थितियों में रहते हैं. इसी संदर्भ में पीएमएवाई-यू जैसी योजना की बहुत जरूरत है.

चार मुख्य अंग, कोविड के दौरान जुड़ा पांचवां

इस योजना के चार प्रमुख अंग हैं, जिन्हें वर्टिकल कहा जाता है. 

पहला है इन-सीटू स्लम रीडेवेलप्मेंट (आईएसएसआर), यानि जहां झुग्गियां हैं, उसी स्थान पर उनका पुनर्विकास. इस भाग में जिस भूमि पर झुग्गियां बनाई गई हैं, उसी का संसाधन के रूप में उपयोग करके झुग्गियों का पुनर्विकास किया जाता है. इसके तहत निजी डेवलपर्स की भागीदारी से पुनर्विकास और पुनर्वास के योग्य परिवारों की पहचान की जाती है. प्रत्येक लाभार्थी परिवार को केंद्र सरकार की ओर से 1 लाख रुपए का अनुदान दिया जाता है. इतनी ही राशि अक्सर राज्य सरकारों द्वारा दी जाती है, और कुछ मामलों में शहरी स्थानीय निकायों (यूएलबी) द्वारा अतिरिक्त राशि भी दी जा सकती है.    

इसके पीछे की कल्पना यह है कि यदि (संयुक्त वित्तीय सहायता के बाद) नए घर की लागत नगण्य है, तो लाभार्थी झुग्गियों को खाली करने के लिए तैयार हो जाएंगे, जिन्हें बाद में निजी डेवलपर्स द्वारा विकसित किया जा सकता है. निजी डेवलपर्स को झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों को किफायती वाले घर उपलब्ध कराने के एवज में दूसरी रियायतें मिलती हैं, जैसे अतिरिक्त फ्लोर स्पेस इंडेक्स या बाजार से कम मूल्य पर जमीन आदि. केंद्रीय (और स्थानीय) सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली आर्थिक सहायता यह सुनिश्चित करने के लिए दी जाती है कि इस वर्टिकल के लाभार्थियों को अधिक खर्चा न करना पड़े. आईएसएसआर प्रक्रिया के लिए सरकारी अधिकारियों, निजी भूस्वामियों, निजी डेवलपर्स और झुग्गी-झोपड़ी निवासियों के संघों सहित कई हितधारकों के बीच समन्वय की आवश्यकता होती है, इसलिए यह योजना का सबसे जटिल वर्टिकल है -- यह तथ्य योजना की सफलता के आंकड़ों में भी झलकता है, जिस पर बाद में चर्चा की जाएगी.

योजना का दूसरा वर्टिकल है क्रेडिट लिंक्ड सब्सिडी स्कीम (सीएलएसएस). इसका उद्देश्य है कि शहरी गरीबों को होम लोन की ब्याज दरों पर सब्सिडी देकर, घरों के लिए उपलब्ध संस्थागत क्रेडिट का दायरा बढ़ाया जाए. ब्याज सब्सिडी लाभार्थियों के खाते में पहले ही जमा कर दी जाती है, जिससे लोन की कुल राशि कम हो जाती है और कम मासिक किस्त (ईएमआई) बनती है. ब्याज सब्सिडी के नेट प्रेजेंट वैल्यू (एनपीवी) की गणना 9 प्रतिशत की डिस्काउंट दर पर की जाती है.

आय के आधार पर सीएलएसएस के तहत उपलब्ध सहायता को दर्शाती है.

जैसा कि ऊपर दी गई तालिका में देखा जा सकता है, परिवारों को उनकी आय की श्रेणी के आधार पर 6 लाख रुपए, 12 लाख रुपए और 18 लाख रुपए तक की लोन राशि पर क्रमशः 6.5 प्रतिशत, 4 प्रतिशत और 3 प्रतिशत की ब्याज सब्सिडी मिल सकती है. क्रेडिट-लिंक्ड सब्सिडी केवल इन लोन राशियों के लिए उपलब्ध होगी, और इन सीमाओं से परे यदि कोई अतिरिक्त लोन लिया जाता है तो वह गैर-सब्सिडी दर पर मिलेगा. नए निर्माण और मौजूदा आवासों में विस्तार के लिए, लिए गए लोन पर क्रेडिट-लिंक्ड सब्सिडी उपलब्ध है. 

इन रियायतों के भौतिक प्रभाव का एक उदाहरण निम्न है.

मान लीजिए कि एमआईजी-II श्रेणी (वार्षिक आय लगभग 12-18 लाख रुपए) में आने वाला एक परिवार, 20 प्रतिशत डाउन पेमेंट (यानी 4 लाख रुपए) के साथ 20 लाख रुपए में एक घर खरीदना चाहता है. सामान्य रूप से उन्हें 16 लाख रुपए लोन लेना होगा. लेकिन अगर सीएलएसएस लागू होता है, तो इस लोन के 12 लाख रुपए पर उन्हें 3 प्रतिशत की सब्सिडी मिल सकती है, जिसे अग्रिम रूप से जमा करने पर लोन की राशि 2,30,156 रुपए कम हो जाएगी और प्रति माह लगभग 2,200 रुपए की बचत होगी.  

आइए तीसरे वर्टिकल की ओर बढ़ते हैं, जिसका नाम है अफोर्डेबल हाउसिंग इन पार्टनरशिप विथ पब्लिक और प्राइवेट सेक्टर (एएचपी). इस वर्टिकल में सप्लाई-साइड की मदद की जाती है, यानि सरकार किफायती आवास के निर्माण को प्रोत्साहित करती है. जिन परियोजनाओं में कम से कम 35 प्रतिशत घर ईडब्ल्यूएस के लिए बनाए जाते हैं, उन्हें केंद्र सरकार द्वारा हर ईडब्ल्यूएस आवास पर 1.5 लाख रुपए की सहायता प्रदान की जाती है. औसतन 3 लाख रुपए की सहायता राज्य सरकारों और स्थानीय निकायों (यूएलबी) द्वारा मिलकर वहन की जाती है, हालांकि अलग-अलग राज्यों और राज्यों के भीतर भी यह योगदान भिन्न-भिन्न होता है. ईडब्ल्यूएस खरीदारों को बेचे जाने वाले घरों की कीमत राज्य सरकार द्वारा निर्धारित की जाती है, जिसे वे कुल उपलब्ध वित्तीय सहायता के आधार पर बदल सकते हैं.

चौथा वर्टिकल है बेनेफिशरी-लेड कंस्ट्रक्शन (बीएलसी), जिसके तहत लाभार्थी व्यक्तिगत आवास का निर्माण या विस्तार करता है. यह उन लोगों के लिए है जिनके पास पहले से ही जमीन है या ऐसा घर है जिसमें सुधार की जरूरत है. इसके तहत, ईडब्ल्यूएस श्रेणी में आने वाले हर परिवार को केंद्र की ओर से 1.5 लाख रुपए मिलते हैं. राज्य और यूएलबी इस राशि में औसतन अतिरिक्त 1 लाख रुपए का योगदान करते हैं.

पीएमएवाई-यू के तहत निर्मित, अधिग्रहित या खरीदे गए सभी घरों में रसोई, पानी की आपूर्ति, बिजली और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाएं होना अनिवार्य है.

आइए एक उदाहरण से समझते हैं कि बीएलसी व्यावहारिक रूप से कैसे काम करता है. मान लीजिए एक परिवार खुद के कच्चे घर में रहता है और इसे पक्के घर में बदलना चाहता है. नवीनीकरण की अनुमानित लागत 10 लाख रुपए है. यदि वह परिवार बीएलसी का लाभ उठाने के लिए पात्र है, तो वह इस लागत को कम से कम 1.5 लाख रुपए (केंद्रीय सहायता के द्वारा) घटा सकता है. साथ ही, यदि उनका राज्य या यूएलबी अधिक बीएलसी सहायता प्रदान करता है, तो उनकी जेब से होने वाला खर्च और भी कम हो जाता है. 

योजना का एक पांचवां वर्टिकल भी है, अफोर्डेबल रेंटल हाउसिंग कॉम्प्लेक्स (एआरएचसी), जो 2020 में कोविड के दौरान जोड़ा गया था. इसका उद्देश्य था "शहरी प्रवासियों/गरीबों को किफायती दरों पर टिकाऊ और समावेशी किराए के आवास के अवसर" उपलब्ध कराना. इसके लिए दो मॉडलों का उपयोग किया जाता है.

इसमें पहला है सरकार द्वारा वित्तपोषित खाली घरों को एआरएचसी में परिवर्तित करना. इस मॉडल के तहत केंद्र द्वारा कोई अतिरिक्त फंडिंग निर्धारित नहीं की गई है. कार्यान्वयन एजेंसियों को प्रोत्साहित किया जाता है अपनी लागत की वसूली वह आगामी 25 वर्षों में उत्पन्न किराए की आय के माध्यम से करें. अन्य संसाधनों की आवश्यकता होने पर उन्हें जुटाने की जिम्मेदारी मुख्य रूप से राज्य और यूएलबी की है.

दूसरा मॉडल है सार्वजनिक या निजी संस्थाओं द्वारा उनकी खुद की खाली भूमि पर एआरएचसी का निर्माण, संचालन और रखरखाव. यहां भी केंद्र ने कोई अतिरिक्त फंडिंग निर्धारित नहीं की है. कार्यान्वयन एजेंसियां ​​किराए की आय से अपनी लागत की वसूली कर सकती हैं. हालांकि, "नवीन और वैकल्पिक प्रौद्योगिकी" का उपयोग करने वाले नए एआरएचसी के निर्माण के लिए, आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय ने जो सहायता निर्धारित की है वह इस प्रकार है: 20,000 रुपए प्रति डॉर्मिटरी बीएड, 60,000 रुपए प्रति आवास यूनिट (30 वर्ग मीटर कारपेट एरिया तक) और डबल बेडरूम (60 वर्गमीटर कारपेट एरिया तक) के मामले में 1,00,000 रुपए प्रति आवास यूनिट.

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बीएलसी, सीएलएसएस और एएचपी कम आय वाले परिवारों को टारगेट करते हैं, जिनके पास आय का अपेक्षाकृत सुरक्षित और नियमित प्रवाह होता है, जो उन्हें निचले स्तर की आबादी की तुलना में आर्थिक रूप से बेहतर बनाता है. इसके विपरीत, आईएसएसआर और एआरएचसी अत्यंत गरीब परिवारों को टारगेट करते हैं, औपचारिक हाउसिंग मार्केट के माध्यम से आवास की जरूरत पूरी करने में असमर्थ हैं.

योजना की समयरेखा और फंडिंग

पीएमएवाई-यू की अवधि प्रारंभ में वित्त वर्ष 2015-16 से वित्त वर्ष 2021-22 तक सात साल थी. सीएलएसएस को छोड़कर सभी वर्टिकलों में 31 मार्च, 2022 तक स्वीकृत घरों को पूरा करने के लिए इसे अब 31 दिसंबर, 2024 तक बढ़ा दिया गया है. आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय ने पुष्टि की है कि विस्तारित अवधि के दौरान कोई अतिरिक्त आवास स्वीकृत नहीं किया जाएगा.

पीएमएवाई-यू के दो परस्पर संबंधित पहलुओं का विशेष उल्लेख आवश्यक है.

सबसे पहले, (एएचपी और कुछ हद तक एआरएचसी के अलावा) इस योजना का दृष्टिकोण मांग-आधारित है जिसमें राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों (यूटी) द्वारा आवास की कमी का निर्णय मांग के आकलन के आधार पर किया जाता है. इसका मतलब यह है कि पीएमएवाई-यू केवल विभिन्न वर्टिकलों के तहत पात्रता और सहायता का फ्रेमवर्क तैयार करता है, लेकिन अंततः आवास स्वीकृत होता है या नहीं, इसका निर्धारण संयुक्त रूप से दो स्थितियों पर निर्भर करता है: पहला कि संभावित लाभार्थी परिवार योजना का लाभ उठाने का निर्णय लें और दूसरा स्थानीय निकाय द्वारा उन्हें इसका पात्र माना जाए. 

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि पीएमएवाई-यू केवल एकमुश्त आर्थिक सहायता या ब्याज सब्सिडी के माध्यम से लाभार्थी के वित्तीय बोझ को कम करता है. ऐसे परिवार जिनके पास पर्याप्त संसाधन (भूमि, पूंजी या झुग्गी-झोपड़ी) नहीं हैं, उनके लिए योजना द्वारा दिए गए प्रोत्साहन के बावजूद आवास सामर्थ्य से बाहर है. इससे यह भी स्पष्ट होता है कि आवास की अनुमानित आवश्यकता और वास्तविक पीएमएवाई-यू आवंटन में अंतर क्यों है, जिस पर हम बाद में चर्चा करेंगे.

दूसरा, पीएमएवाई-यू एक केंद्रीय योजना है, लेकिन इसका वास्तविक कार्यान्वयन कई हितधारकों पर निर्भर करता है. अधिकांश कार्यान्वयन राज्यों और यूएलबी को सौंपा गया है, जो स्वाभाविक भी है क्योंकि भारतीय संविधान के तहत आवास राज्य का विषय है. 

मांग का पता लगाने और योग्य लाभार्थियों की पहचान करने के लिए स्थानीय रूप से किए जाने वाले डिमांड सर्वे, और घरों के निर्माण के लिए कई नियामक कदमों से लेकर, अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए घरों के अंतिम निरीक्षण तक, राज्य और यूएलबी ही इस योजना के कार्यान्वयन को आगे बढ़ाते हैं. इन स्थानीय और राज्य निकायों के अलावा, अधिकांश घरों को फाइनेंस करने वाले बैंकों और वित्तीय संस्थानों की भूमिका भी प्रमुख है. और अंततः, योजना में शामिल परिवारों को ही अपने घरों की लागत वहन करनी होती है. इसलिए योजना की सफलता की जिम्मेदारी कई कंधों पर है.

पीएमएवाई-यू में विभिन्न हितधारकों का कुल योगदान

इसी क्रम में ध्यान देने योग्य बात है कि इस योजना के तहत होने वाले कुल खर्च में केंद्र का योगदान लगभग 25 प्रतिशत या 2.03 लाख करोड़ रुपए है. खर्च का सबसे बड़ा हिस्सा लाभार्थी परिवारों से ही आता है, जो कुल खर्च का 60 प्रतिशत यानि 4.95 लाख करोड़ रुपए है. राज्य सरकारें (यूएलबी के साथ मिलकर) इस योजना पर 1.33 लाख करोड़ रुपए खर्च करती हैं, जिसका अपना महत्व है.

भूमिहीन गरीबों के लिए नहीं

आइए अब जमीनी स्तर पर योजना की भौतिक प्रगति को समझने का प्रयास करें. 

जैसा कि पहले बताया जा चुका है, इस योजना में चार मुख्य वर्टिकल हैं, जिनमें झुग्गी पुनर्विकास के लिए आईएसएसआर, ब्याज सब्सिडी के लिए सीएलएसएस, किफायती आवास के निर्माण के लिए एएचपी और बीएलसी शामिल हैं, जहां लाभार्थी स्वयं निर्माण या मरम्मत के लिए जिम्मेदार हैं, जबकि सरकार इस लागत के एक हिस्से का भुगतान करती है.

पीएमएवाई-यू प्रगति ट्रैकर

पीएमएवाई-यू वेबसाइट पर प्रगति ट्रैकर के अनुसार 29 जनवरी तक 80.02 लाख घर पूरे हो चुके हैं, लेकिन इनमें से 3.41 लाख कांग्रेस सरकार की योजना जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीकरण मिशन के तहत स्वीकृत किए गए थे. 

और भी रोचक तथ्य हैं. उदाहरण के लिए, कुल स्वीकृत घरों के 62 प्रतिशत से अधिक बीएलसी के अंतर्गत आते हैं, जहां सरकार की भूमिका लाभार्थियों के साथ लागत बांटने तक ही सीमित है. जब भूमि प्रावधान, निर्माण, या जमीनी स्तर पर संसाधन जुटाने की बात आती है तो कार्यान्वयन में केंद्र या राज्य किसी भी सरकार की कोई भूमिका नहीं होती है. 

इसी तरह, दूसरे सबसे लोकप्रिय वर्टिकल सीएलएसएस में भी सरकारी भूमिका सीमित है. योजना के 21 प्रतिशत से अधिक लाभार्थी इसमें भागीदार हैं, जबकि सरकार केवल ब्याज पर सब्सिडी देती है, या लाभार्थियों के साथ लागत साझा करती है. 

दूसरे शब्दों में कहें तो अधिकांश घर केवल उन लोगों के लिए हैं जिनके पास पहले से ही जमीन है या जिनके पास वित्तीय संस्थानों से लोन लेकर घर खरीदने के साधन हैं. 

आईएसएसआर के तहत जिन झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले परिवारों को पक्के घरों में पुनर्वासित किया जाना है, वे कुल लाभार्थियों का लगभग 2.5 प्रतिशत हैं. इसी तरह, एएचपी के तहत लाभान्वित होने वाले ईडब्ल्यूएस परिवार केवल 13.5 प्रतिशत हैं.

कितनी बड़ी है समस्या

दिलचस्प बात यह है कि, आईएसएसआर और एएचपी ही दो ऐसे वर्टिकल हैं जहां स्वीकृत घरों की संख्या प्रारंभिक मांग से कम है. 

इस समस्या की गंभीरता को ऐसे समझा जा सकता है- राज्यों द्वारा प्रारंभिक डिमांड सर्वे में आईएसएसआर वर्टिकल के तहत 14.35 लाख घरों की आवश्यकता का अनुमान लगाया गया था. हालांकि, इस योजना में केवल 2.96 लाख घरों को मंजूरी दी गई, जो कुल मांग का 20.62 प्रतिशत है. इसी तरह, एएचपी वर्टिकल में 33.82 लाख घरों की शुरुआती मांग के मुकाबले मंजूरी की दर 47.25 प्रतिशत रही. दूसरी ओर, बीएलसी और सीएलएसएस वर्टिकल के लिए मंजूरी की दरें क्रमशः 165 प्रतिशत और 131 प्रतिशत हैं. 

अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि मार्च 2023 (जब मंत्रालय आवास और शहरी मामलों की स्थायी समिति के समक्ष पेश हुआ था) और आज के बीच, योजना के तहत स्वीकृत कुल घरों की संख्या 1.22 करोड़ से लगभग 4 लाख कम होकर 1.18 करोड़ हो गई है.

क्यों? इसका उत्तर एएचपी वर्टिकल में निहित है.  

कुछ ही महीनों पहले इसके तहत लगभग 21 लाख घर स्वीकृत थे, लेकिन अब इसे संशोधित कर 16 लाख घरों तक सीमित कर दिया है. मंत्रालय के अधिकारियों के अनुसार भूमि की उपलब्धता और खरीद, भूमि विवाद, अन्य भूमि या स्थान से संबंधित मुद्दों और विनियामक अनुमतियों में देरी जैसी समस्याएं योजना की प्रगति में बाधक हैं. 

इस वर्टिकल के तहत भूमि प्रावधान के लिए मुख्य रूप से राज्य सरकारें और यूएलबी जिम्मेदार हैं; इसलिए, इसके कार्यान्वयन में आने वाली समस्याओं को हल करना उनका दायित्व है. 

मंत्रालय के अधिकारी आगे बताते हैं कि बीएलसी और सीएलएसएस वर्टिकल की लोकप्रियता बड़े पैमाने पर इस तथ्य से स्पष्ट होती है कि इनके तहत राज्यों/यूएलबी को जमीन की खरीद नहीं करनी पड़ती है. राज्यों को उन लाभार्थियों के साथ काम करना सुविधाजनक लगता है जिनके पास अपनी जमीन है. अधिकारियों ने कहा कि विशेष रूप से आईएसएसआर के मामले में, राज्यों और यूएलबी को पुनर्वास कार्यक्रमों के लिए झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों का विश्वास जीतना कठिन होता है, क्योंकि ऐसे कार्यक्रमों के तहत उन्हें अक्सर विस्थापित कर दिया जाता है.

कुल मिलाकर, इस योजना के तहत दिसंबर 2024 तक 1.18 करोड़ घर उपलब्ध कराने के संशोधित लक्ष्य के मुकाबले अब तक 80.02 लाख घर पूरे किए जा चुके हैं, यानि 67.45 प्रतिशत. लेकिन अगर सभी स्वीकृत घर तय समय सीमा के भीतर पूरे हो भी जाते हैं, तो क्या पीएमएवाई-यू शहरी भारत में आवास की समस्या का समाधान कर पाएगी? क्या यह इस वर्ष के अंत तक "सभी के लिए आवास" हासिल करने की राह पर है? 

आइए कुछ आंकड़ों पर नजर डालें.

2012 में आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय द्वारा गठित एक तकनीकी समूह (टीजी-12) के आकलन के अनुसार, शहरी क्षेत्रों में 1.88 करोड़ आवासों की कमी थी. 2011 की जनगणना के आंकड़ों को लेकर थोड़ी-बहुत गणना की जाए तो इस संख्या की पुष्टि होती है. इसमें देश में 1.4 करोड़ झुग्गी-झोपड़ी वाले परिवारों की पहचान की गई थी, और ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों में जाने वाले प्रवासियों की संख्या 0.44 करोड़ बताई गई है. इसका योग लगभग 1.84 करोड़ बनता है, जो तकनीकी समूह के अनुमान के करीब है. 

भारत सरकार के अनुसार, झुग्गी-झोपड़ियों की दशकीय वृद्धि दर 34 प्रतिशत है, यदि इस हिसाब से गणना की जाए तो देश में अब तक झुग्गी-झोपड़ियों की संख्या बढ़कर 2.42 करोड़ हो गई होगी. यदि शहरों में प्रवासन की विकास दर भी इतनी ही मानी जाए, तो वर्तमान में भारत के शहरों में 0.76 करोड़ प्रवासी परिवार हैं जिन्हें आवास की आवश्यकता है. इसका अर्थ है कि 2024 के अंत तक शहरी क्षेत्रों में 3.18 करोड़ परिवारों को आवास की जरूरत होगी.

टीजी-12 द्वारा प्रयोग की गई कार्य-पद्धति का उपयोग करके एक रिपोर्ट 2020 में आईसीआरआईईआर ने दी थी, जिसमें अनुमान लगाया गया था कि भारत में शहरी आवास की कमी 2018 तक लगभग 5 करोड़ तक बढ़ गई होगी. इस अनुमान में बेघर परिवारों, झुग्गियों में रहने वालों, और झुग्गियों के बाहर जर्जर और जीर्ण-शीर्ण घरों में रहने वाले परिवारों को शामिल किया गया था. ध्यान रहे कि ये अनुमान सिर्फ 2018 तक के हैं. 

तीसरा अनुमान केपीएमजी का है, जिसके अनुसार 2022 तक भारत में 4.4 से 4.8 करोड़ शहरी आवासों की कमी होगी. यदि यह माना जाए कि विभिन्न आय श्रेणियों में आवास की मांग 2012 के समान ही है, तो इस कमी का 95 प्रतिशत से अधिक ईडब्ल्यूएस और एलआईजी परिवारों के हिस्से में आएगा. 

संक्षेप में कहें तो, भारत में अभी अनुमानित शहरी आवास की कमी 3.18 करोड़ से 5 करोड़ के बीच होनी चाहिए. यदि 3.18 करोड़ के सबसे कम अनुमान को ही ले लें, जो सरकारी आंकड़ों से ही प्राप्त हुआ है, तो भी पीएमएवाई-यू ने 80 लाख घर प्रदान करके आवास की मात्र 25.15 प्रतिशत कमी को पूरा किया है. यहां तक ​​कि यदि योजना के तहत स्वीकृत शेष घरों का निर्माण 2024 के अंत तक हो जाए, तब भी यह वास्तविक आवश्यकता का लगभग 37 प्रतिशत ही पूरा कर पाएगा. और लगभग 2.4 करोड़ परिवार फिर भी आवास से वंचित रहेंगे.

इस योजना का नवीनतम वर्टिकल भारत के प्रमुख शहरों में किराए पर किफायती आवासीय परिसर (एआरएचसी) प्रदान करना चाहता है. लेकिन इसे भी सीमित सफलता मिली है. 

इस वर्टिकल के पहले मॉडल के तहत सरकारी वित्तपोषित 75,000 खाली घरों को एआरएचसी में परिवर्तित किया जाना था. लेकिन मार्च 2023 तक केवल 5,648 ऐसे घर तैयार किए गए थे, यानि केवल 7.5 प्रतिशत. दूसरे मॉडल का प्रदर्शन थोड़ा बेहतर है. इसके तहत नए एआरएचसी का निर्माण किया जाना था, और प्रस्तावित 82,273 इकाइयों में से 29,265 इकाइयों, यानि लगभग 35.6 प्रतिशत, का निर्माण किया जा चुका है. 

राज्यों में प्रदर्शन

पहले भी बताया जा चुका है कि इस योजना की सफलता बहुत हद तक राज्यों और स्थानीय शासन पर निर्भर करती है. इस कारण से विभिन्न राज्यों में इसके प्रदर्शन में बड़ा अंतर है. राज्य के प्रदर्शन का आकलन दो आयामों पर किया जा सकता है- कवरेज और पूर्णता. कवरेज में देखा जाता है कि योजना द्वारा शहरी आवास की कमी को कितना पूरा किया गया, वहीं पूर्णता में देखा जाता है कि योजना के तहत स्वीकृत कितने घर पूरे हुए हैं.

आइए कवरेज से शुरुआत करें, नीचे दी गई तालिका में 2012 में प्रत्येक राज्य में शहरी आवास की कमी की तुलना पीएमएवाई-यू के तहत प्रत्येक राज्य में स्वीकृत घरों से की गई है.

राज्यवार पीएमएवाई-यू कवरेज

यह स्पष्ट है कि योजना की प्रगति असमान और असंतुलित रही है.

त्रिपुरा, मिजोरम, आंध्र प्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों ने 2012 में अनुमानित कमी को पार कर लिया है. बेशक, जैसा कि पहले कहा गया है, 2012 के बाद से शहरी आवास की मांग काफी बढ़ गई है, इसलिए इसका मतलब यह नहीं है कि इन राज्यों ने शहरी आवास की समस्या का समाधान कर लिया है.

त्रिपुरा के आंकड़े दिखाते हैं कि 2012 की मांग की तुलना में आपूर्ति लगभग तीन गुना है. इससे संकेत मिलता है कि शायद शुरुआत में मांग का मूल्यांकन करने में कुछ गलती हुई हो.

मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ जैसे बड़ी आबादी वाले कुछ राज्यों के आंकड़े उत्साहजनक हैं. जहां 2012 की मांग के मुकाबले 70 प्रतिशत से अधिक कवरेज देखने को मिला.

असम, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में संख्या लगभग 50 प्रतिशत है.

वहीं राजस्थान, बिहार, केरल, हिमाचल प्रदेश, पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों के साथ-साथ दिल्ली और चंडीगढ़ जैसे शहरी केंद्रों को भी बहुत काम करना बाकी है. आश्चर्यजनक है कि सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले राज्यों में केरल भी है, जहां आम तौर पर कल्याणकारी योजनाओं का प्रदर्शन बेहतर होता है.

अब आइए 29 जनवरी, 2024 तक के आंकड़ों के अनुसार राज्यों में योजना की पूर्णता पर नजर डालें.

राज्य-वार योजना पूर्णता प्रगति: पीएमएवाई-यू

राज्य-वार योजना पूर्णता प्रगति: पीएमएवाई-यू

इन तालिकाओं से कुछ दिलचस्प बातें सामने आती हैं.

कवरेज तालिका की तरह ही पूर्णता तालिका में भी राज्यों में अत्यधिक असमानता देखी जा सकती है.

→ गोवा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु, तेलंगाना, अरुणाचल प्रदेश और त्रिपुरा ऐसे राज्य हैं जिनकी पूर्णता दर अधिक है, जैसी केंद्र शासित प्रदेश दीव/दमन, दिल्ली, चंडीगढ़ और पांडिचेरी की भी है.

→ बिहार, आंध्र प्रदेश, मणिपुर, मिजोरम, मेघालय, सिक्किम, अंडमान-निकोबार और जम्मू- कश्मीर में पूर्णता दर 50 प्रतिशत से कम है, जबकि पूर्वोत्तर राज्यों के आंकड़े सबसे कम हैं.

सरकार ने स्वीकार किया है अधिकांश पूर्वोत्तर राज्यों में योजना की प्रगति धीमी है. इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं, उनकी भौगोलिक स्थिति के कारण निर्माण की उच्च लागत, विशेष रूप से कोविड के बाद राज्य की खराब वित्तीय स्थिति और राज्यों द्वारा इस योजना को कम महत्व देना, क्योंकि अधिकांश पूर्वोत्तर राज्यों में योजना के वित्तपोषण में राज्य सरकर का योगदान या तो शून्य है या न्यूनतम है.

आंध्र प्रदेश की स्थिति पर अधिक ध्यान देना चाहिए. जैसा कि आंकड़ों से पता चलता है, पूर्ण किए गए घरों का प्रतिशत केवल 42 प्रतिशत है, लेकिन कवरेज दर और ग्राउंडिंग दर दोनों उच्चतम हैं. इस विरोधाभास को ऐसे समझा जा सकता है कि 2019 में सत्ता में आने के बाद से जगन रेड्डी की सरकार ने गरीबों के लिए आवास पर विशेष ध्यान दिया है. यह एक राजनैतिक और नीतिगत एजेंडा है, जो राज्य के लिए इतना महत्वपूर्ण था कि उसने इस योजना को रिब्रांड करके मोदी सरकार के साथ टक्कर लेने से भी परहेज नहीं किया (इस पर बाद में चर्चा की गई है). इसमें सबसे मुख्य बात यह निकल कर आती है कि योजना में अधिक भागीदारी और इसका सफल कार्यान्वयन प्रमुख रूप से राज्य की राजनैतिक इच्छाशक्ति से निर्धारित होता है.

कहां जाता है पैसा

अब, आइए नीचे दी गई तालिका से देखें कि पीएमएवाई-यू फंड कैसे खर्च किया जाता है.

विभिन्न अंगों में केंद्रीय सहायता की वित्तीय प्रगति (31.03.2022 तक)

प्रत्येक वर्टिकल में की गई फंडिंग दर्शाती है कि किस वर्टिकल को लाभार्थियों ने ज्यादा पसंद किया और केंद्र ने कितनी मदद का वादा किया.

अपेक्षा के अनुरूप, सीएलएसएस और बीएलसी की हिस्सेदारी अधिकतम है. हालांकि बीएलसी लाभार्थी सीएलएसएस लाभार्थियों की तुलना में लगभग तीन गुना अधिक हैं, फिर भी सीएलएसएस की कुल लागत बहुत अधिक है, क्योंकि सीएलएसएस के तहत प्रति लाभार्थी केंद्र का खर्च दोगुने से अधिक है.

एएचपी और आईएसएसआर को सबसे कम योगदान मिलता है, जो योजना में उनकी कम संख्या से पता चलता है.

राज्य और यूएलबी आवास योजना के तहत अपने बजट से 1.33 लाख करोड़ रुपये खर्च कर रहे हैं. लेकिन स्थानीय सरकारों के माध्यम से उपलब्ध धन की मात्रा अलग-अलग राज्यों में भिन्न होती है.

क्षेत्रों के अनुसार लागत कैसे बदलती है, इसे समझने के लिए पीएमएवाई-यू के तहत निर्मित एक ईडब्ल्यूएस घर को लें. राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे घर की औसत लागत लगभग 6.5 लाख रुपए है. हालांकि, करीब से देखने पर पता चलता है कि उसी ईडब्ल्यूएस घर की लागत महानगरीय शहरों, गैर-महानगरीय शहरों, पहाड़ी इलाकों और पूर्वोत्तर राज्यों में क्रमशः 13.34 लाख रुपए, 10.34 लाख रुपए, 8.98 लाख रुपए और 8.55 लाख रुपए है. लागत में इतनी भिन्नता को देखते हुए, केंद्र उम्मीद करता है कि राज्य सरकारें और यूएलबी आवास को किफायती बनाए रखने के लिए अपने योगदान में उसी हिसाब से बदलाव करेंगे. 

विभिन्न वर्टिकलों के तहत एक लाभार्थी को दी गई औसत वित्तीय सहायता

imageby :Source: 17th Report of Standing Committee on Housing and Urban Affairs

उपरोक्त तालिका में पीएमएवाई में राज्यों और यूएलबी के औसत योगदान को दर्शाया गया है. चूंकि सीएलएसएस वर्टिकल का संबंध पूरी तरह केंद्र से है, इसलिए यह पूरी तरह से केंद्र द्वारा वित्तपोषित है, इसमें राज्य/यूएलबी का योगदान नहीं है. आईएसएसआर और एएचपी के लिए राज्य का योगदान वास्तव में केंद्रीय योगदान से अधिक है. 

ध्यान दें कि तालिका में राज्य और यूएलबी का योगदान पूरे देश का औसत है, लेकिन शहर-दर-शहर और राज्य-दर-राज्य में काफी बड़े अंतर हो सकते हैं. पश्चिम बंगाल और केरल जैसे कुछ राज्यों में यह संख्या औसत से अधिक हैं, जबकि नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम, मेघालय और राजस्थान जैसे अन्य राज्य इस योजना के तहत कोई योगदान नहीं देते हैं. इसी तरह, मुंबई, चेन्नई और कोलकाता में एएचपी वर्टिकल के लिए राज्य सहायता क्रमशः 1 लाख रुपए/यूनिट, 7 लाख रुपए/यूनिट और 2.49 लाख रुपए/यूनिट है. 

पीएमएवाई-यू में राज्यों के योगदान में यह भिन्नता एक दिलचस्प विवाद को जन्म देती है. केंद्र इस योजना को प्रधानमंत्री मोदी की योजना के रूप में ब्रांड करने का इच्छुक है ताकि इससे उत्पन्न होने वाली सद्भावना से लाभ उठाया जा सके. पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में ऐसे मुख्यमंत्री हैं जो इस योजना के लिए श्रेय लेना चाहते हैं, खासकर क्योंकि उनके राज्य का योगदान कभी-कभी केंद्रीय सहायता से अधिक होता है. आंध्र प्रदेश में, जगन रेड्डी ने योजना का नाम बदलकर पीएमएवाई-वाईएसआर कर दिया, जिसके कारण फंड जारी करने को लेकर केंद्र के साथ गतिरोध पैदा हो गया. इसी तरह का विवाद पीएमएवाई के ग्रामीण घटक को लेकर 2022 में ममता बनर्जी के साथ भी हुआ.

यूपीए बनाम एनडीए

किसी भी सरकारी पहल का मूल्यांकन करते समय, पिछली सरकारों के साथ उसके प्रदर्शन की तुलना करने से बहुत कुछ पता चलता है. तो, पीएमएवाई-यू का प्रदर्शन यूपीए की शहरी आवास योजनाओं के मुकाबले कैसा है?

भारत सरकार ने 2000 के दशक के मध्य में ही शहरों में आवास की समस्या को हल करने के लिए नीतिगत हस्तक्षेप के बारे में गंभीरता से सोचना शुरू किया. जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन (जेएनएनयूआरएम) 2005 में शुरू किया गया था, जिसका उद्देश्य था पर्याप्त इंफ्रास्ट्रक्चर प्रदान करके भारतीय शहरों को आधुनिक बनाना. हालांकि यह विशिष्ट रूप से एक शहरी आवास कार्यक्रम नहीं था, इसके दो उप-मिशनों- 'बेसिक सर्विसेज टू अर्बन पुअर (बीएसयूपी)' और 'इंटीग्रेटेड हाउसिंग एंड स्लम डेवलपमेंट प्रोग्राम (आईएचएसडीपी)' के कुछ हिस्सों के तहत सीमित संख्या में शहरी आवास बनाए गए थे.

राजीव आवास योजना (आरएवाई) यूपीए का पहला बड़ा शहरी आवास कार्यक्रम था और इसे 2011 में "स्लम-मुक्त भारत" की दृष्टि से लॉन्च किया गया था. आरएवाई का वास्तविक कार्यान्वयन 2013 में ही शुरू हुआ, और उसके तुरंत बाद मोदी सरकार ने (कुछ नीतिगत बदलावों के साथ) इसे पीएमएवाई-यू में बदल दिया. इसके अलावा, राजीव ऋण योजना नामक एक ब्याज सब्सिडी योजना 2008 में शुरू की गई. 2013 में यूपीए सरकार ने खुद माना कि इस योजना को अच्छी प्रतिक्रिया नहीं मिली. योजना की प्रतिक्रिया में सुधार के लिए ऋण सीमा बढ़ाने जैसी कुछ सिफारिशों को पीएमएवाई-यू के सीएलएसएस वर्टिकल में शामिल किया गया. 

यूपीए के समय की शहरी आवास योजनाओं की भौतिक प्रगति

imageby :

उपरोक्त टेबल में दिए गए आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि पीएमएवाई-यू अपनी पूर्ववर्ती योजनाओं से मीलों आगे है. स्वीकृत घरों की संख्या, सफलतापूर्वक निर्मित घरों की संख्या और लक्षित लाभार्थियों की संख्या, सभी महत्वपूर्ण कारकों में इसका प्रदर्शन बेहतर है. जबकि यूपीए की योजनाओं में केवल 15.8 लाख घरों को मंजूरी दी गई थी, पीएमएवाई-यू ने लगभग आठ गुना अधिक को मंजूरी दी. इसी तरह, जबकि यूपीए अपने कार्यकाल के दौरान केवल 8.2 लाख घर बना सका, एनडीए ने उतने ही समय में लगभग 10 गुना अधिक घर बनाए हैं.

बेशक, इसमें कुछ बारीकियां हैं, जैसे यूपीए के तहत शुरू की गई योजनाओं का दायरा या तो बहुत बड़ा था (जेएनएनयूआरएम) था या उन्हें बहुत कम समय मिला (आरएवाई). अपनी राय बनाते समय ऐसी बारीकियों को कौन कितना महत्व देता है, यह शायद उनके मोदी समर्थक है या मनमोहन समर्थक होने से निर्धारित होता है. 

एक निष्पक्ष तर्क यह हो सकता है कि भारत सरकार ने आरएवाई और आरआरवाई को पीएमएवाई-यू में अपनाते समय निरंतरता का काफी ख्याल रखा है. पीएमएवाई-यू अपने पहले की योजनाओं का अधिक एकीकृत और उन्नत संस्करण है.

लेकिन इसके बावजूद, ध्यान देने वाली बात यह है कि यूपीए के दौरान भारत सरकार ने इंदिरा आवास योजना के माध्यम से ग्रामीण आवास की समस्या पर अधिक ध्यान केंद्रित किया. यह कहना कहीं से गलत नहीं होगा कि यूपीए के दौरान शहरी आवास समस्या की उपेक्षा की गई, और यह सरकार के रडार पर बहुत देर से आया.

'सभी को आवास' की राह में रोड़े और चुनौतियां

दुर्भाग्य से, कोई भी सरकारी योजना कथित अनियमितताओं और गड़बड़ियों से अछूती नहीं रहती है. 

उत्तर से दक्षिण तक सब तरफ से और सभी पार्टियों की सरकारों से पीएमएवाई-यू में अनियमितताओं की सूचना मिली है. उदाहरण के लिए, पुडुचेरी और कर्नाटक में, महालेखा परीक्षक (कैग) ने पाया कि कई अयोग्य लाभार्थियों को योजना का लाभ दिया गया था.

हालांकि, योजना की प्रगति में आ रही सभी रुकावटों के लिए दुर्भावना को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. इस स्तर के किसी भी कदम की तरह, कार्यान्वयन में आने वाली कुछ बाधाएं प्रगति को धीमा कर रही हैं, और उनका उल्लेख जरूरी है.

एक तो जैसा कि पहले बताया गया है, आईएसएसआर और एएचपी वर्टिकलों के तहत घरों की कम खरीद चिंता का बड़ा कारण है. जैसा कि हमारे विश्लेषण से पहले पता चला है, बीएलसी और सीएलएसएस वर्टिकल पर अधिक जोर देने का मतलब यह है कि जिनके पास पहले से जमीन है, या वित्तीय संस्थानों से कर्ज लेने की क्षमता है, वे इस योजना से लाभ उठाने में सक्षम थे. लेकिन भूमिहीन वर्ग, जो सबसे कमजोर है, इस योजना के लाभ से वंचित रह गया. सरकार को फिर से प्लानिंग करके इस समस्या को सुलझाने का रास्ता निकालना चाहिए. नए निर्माण या पुनर्वास के लिए पर्याप्त भूमि का समय पर मिलना सभी राज्यों में एक बड़ी चुनौती प्रतीत होती है. राज्य सरकारों को जल्द से जल्द इस पहेली का हल निकलने की ज़रूरत है.

इसके अलावा, जैसा कि आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय के अधिकारियों ने स्थायी समिति के समक्ष अपने बयान में कहा था, एएचपी और आईएसएसआर के तहत बन रहे घरों को पूरा होने में आम तौर पर 24 से 36 महीने लगते हैं, जबकि सीएलएसएस या बीएलसी के तहत घर बहुत जल्दी बन जाते हैं. हालांकि यह ठीक है कि राज्यों की अलग-अलग चुनौतियों को देखते हुए, केंद्र ने योजना के अनुपालन की कोई ठोस समयसीमा तय नहीं की है, लेकिन यदि 31 दिसंबर, 2024 की संशोधित समयसीमा के भीतर इसे पूरा करना है, तो बचे हुए एक तिहाई घरों की डिलीवरी पर नए सिरे से ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए.

अधिक चिंता की बात यह है कि आईएसएसआर और एएचपी वर्टिकल के तहत बने हुए घर भी खाली हैं, क्योंकि या तो उनका निर्माण अच्छी तरह नहीं हुआ है या फिर उनमें बुनियादी सेवाएं नहीं मुहैया कराई गईं हैं. स्थायी समिति की रिपोर्ट में ऐसे 5.6 लाख से अधिक घरों का उल्लेख किया है. 

खाली पड़े एएचपी/आईएसएसआर घरों का राज्यवार विवरण

imageby :Source: 17th Report of Standing Committee on Housing and Urban Affairs

खाली पड़े एएचपी या आईएसएसपी घरों की सबसे अधिक संख्या आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों में है.

इससे न केवल कार्यान्वयन एजेंसियों (मुख्य रूप से, यूएलबी) द्वारा बेहतर गुणवत्ता नियंत्रण की आवश्यकता समझ में आती है, बल्कि थर्ड-पार्टी द्वारा बेहतर निगरानी और सोशल ऑडिट की भी जरूरत लगती है. फिलहाल, थर्ड-पार्टी द्वारा मॉनिटरिंग की व्यवस्था राज्य सरकारों और यूएलबी की जिम्मेदारी है; यह निश्चित तौर पर हितों का टकराव है क्योंकि कार्यान्वयन का भार भी उन्हीं पर है. केंद्र या अन्य स्वतंत्र एजेंसियों को मॉनिटरिंग में अधिक सक्रिय भूमिका निभाने की जरूरत है.

दूसरी चिंताजनक बात यह है कि योजना के तहत प्रयोग की जा रही "नई और द्रुत निर्माण टेक्नोलॉजी" भी तेजी से कार्यान्वयन में मदद नहीं कर पर रही हैं. जैसा कि समिति ने कहा, "...31.10.2022 तक, (पीएमएवाई-यू के प्रौद्योगिकी उप-मिशन के तहत बनाए जाने वाले 15.38 लाख घरों में से) केवल 5,95,261, यानी, 38.69 प्रतिशत घर पूरे हुए हैं. समिति का मानना ​​है कि जिन परियोजनाओं के केंद्र में आधुनिक, तीव्र, संसाधन-कुशल, आपदा प्रतिरोधी निर्माण टेक्नोलॉजी को बढ़ावा देना है, उनके निर्माण में ऐसी देरी अस्वीकार्य है."

कार्यान्वयन को प्रभावित करने वाला एक और कमजोर क्षेत्र है हितधारकों के साथ संवाद में कमी.

नीति निर्माण और स्थानीय स्तर पर इसके कार्यान्वयन के दौरान पूरे समय स्थानीय निर्वाचित प्रतिनिधियों को इसमें शामिल किया जाना चाहिए ताकि भूमि अधिग्रहण में देरी, समुदायों की कम भागीदारी (जैसा आईएसएसआर के मामले में देखा गया) और भूमि विवाद जैसी समस्याओं से बचा जा सके. निर्माण से पहले लाभार्थियों की पहचान, और पूरी प्रक्रिया के दौरान उनके साथ परामर्श से एएचपी और आईएसएसआर वर्टिकल के तहत भागीदारी में सुधार हो सकता है. 

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लाभार्थी स्वयं लागत के सबसे बड़े हिस्से का बोझ उठा रहे हैं, इसलिए उन्हें और आसानी से कर्ज दिलाने के प्रयास करने की आवश्यकता है. वित्तीय संस्थान ऐसे लाभार्थियों की क्रेडिट रिस्क प्रोफ़ाइल के कारण उन्हें कर्ज देने में आनाकानी करते हैं; केंद्र को उनके साथ मिलकर एक मजबूत ढांचा बनाना चाहिए, जिससे पीएमएवाई-यू के घरों को और आसानी से कोलैटरल की तरह प्रयोग किया जा सके.

दिल्ली अभी दूर है 

इस अवलोकन में मोटे तौर पर जो बाते सामने आईं हैं उनका उल्लेख आवश्यक है.     

सबसे पहले, इस योजना ने 80 लाख घर उपलब्ध कराए हैं. जबकि कम से कम अनुमानों का उपयोग करते हुए भी हमने पाया कि शहरों में कम से कम 3.18 करोड़ घरों की जरूरत है. भले ही योजना के शेष 38 लाख घर निर्धारित समय के भीतर पूरे हो जाएं, लेकिन इससे केवल 37 प्रतिशत समस्या का समाधान हो पाएगा. 

हालांकि, केवल आंकड़ों के तौर पर देखा जाए तो पीएमएवाई-यू का प्रदर्शन पहले की योजनाओं की तुलना में काफी बेहतर है. दूसरे शब्दों में कहें तो मोदी सरकार ने आवासहीन शहरियों को घर देने के लिए बहुत कुछ किया है, लेकिन फिर भी बड़ी संख्या में लोग बेघर हैं. क्या इसे प्रगति कहा जा सकता है? 

दूसरे, जबकि लोगों को उनका खुद का घर देने की नीति अच्छी है, किराए पर किफायती घर उपलब्ध कराना भी बेघर होने की समस्या को दूर करने का एक तरीका हो सकता है. नीति निर्माताओं को इसका एहसास देर से हुआ जब देश कोविड से जूझ रहा था, लेकिन हमारे जैसे बड़े देश में केवल 35,000 घर उपलब्ध कराने से ही काम नहीं चलेगा, और भी बहुत कुछ करने की जरूरत है. चूंकि सीएलएसएस के तहत ब्याज सब्सिडी मिलने के बावजूद भी गरीब लोगों के लिए ईएमआई वहन करना एक चुनौती है, इसलिए शायद हमारे शहरों में किफायती या रियायती किराया एक उपाय हो सकता है. इससे लाभार्थियों को अपना करियर और क्रेडिट रिकॉर्ड बनाने में मदद मिलेगी, जिससे वह अंततः कर्ज पाने के योग्य हो सकते हैं. 

तीसरा, किफायती आवास परियोजनाओं को निजी डेवलपर्स के लिए आकर्षक बनाने के लिए और अधिक प्रयास करने की जरूरत है. संपत्ति के पंजीकरण, विकास और मंजूरी से जुड़ी लागत, शुल्क और करों को सीमित करने की आवश्यकता है. कई आवश्यक स्वीकृतियों के लिए सिंगल-विंडो क्लीयरेंस पर ध्यान देने की जरूरत है. परियोजना की औसत समय-सीमा को कम करने की जरूरत है और सभी स्तरों पर सरकारों को सुरक्षा या गुणवत्ता को कम किए बिना इसे पूरा करने में अपनी-अपनी भूमिका निभानी चाहिए.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि शहर नियोजन और नियोजित शहरीकरण पर अधिक गहनता से ध्यान देने की जरूरत है. भारतीय शहरों को बहुत अधिक फ्लोर एरिया रेशियो (एफएआर) या फ्लोर स्पेस इंडेक्स (एफएसआई) की आवश्यकता है, जिसका अर्थ है कि हमें ऊंची इमारतें बनानी चाहिए. भवन की ऊंचाई पर लगे मनमाने प्रतिबंधों के कारण शहरों का फैलाव बढ़ गया है और भूमि की कीमतें आसमान छू रही हैं. सघन शहरों का प्रबंधन करना आसान, आर्थिक रूप से अधिक उत्पादक और अधिक किफायती होता है. 

यहां हम 'प्रथम सिद्धांत' के एक व्यापक प्रश्न पर पहुंचते हैं, जिसे पाठकों के लिए छोड़ा जा सकता है.

यह देखते हुए कि आवास एक निजी वस्तु है, क्या सरकार को इस पैमाने पर जनता का पैसा खर्च करना चाहिए? यदि हां, तो क्या उसे अन्य आवास सब्सिडी पर भी खर्च जारी रखना चाहिए जो भारत में राजनैतिक मानदंडों का हिस्सा बन गए हैं? 

ये हैं पानी के बिल, बिजली के बिल, संपत्ति कर इत्यादि पर सब्सिडी. हमारे राजकोषीय घाटे पर इसका क्या प्रभाव होता है? उपभोग बनाम निवेश या अनुसंधान एवं विकास पर खर्च करने का क्या मतलब है? क्या यह पैसा इन्हीं परिवारों के लिए, स्वास्थ्य, शिक्षा और कौशल जैसे विषयों पर खर्च करना बेहतर होगा?

इसका उत्तर केवल लागत और मुनाफे के निष्पक्ष विश्लेषण से पाया जा सकता है.

अंग्रेजी में प्रकाशित मूल ख़बर पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

अनुवाद- उत्कर्ष मिश्रा 

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