दिन ब दिन की इंटरनेट बहसों और खबरिया चैनलों के रंगमंच पर संक्षिप्त टिप्पणी.
दरबार बहुत दिनों बाद लगा था. इस दरम्यान आर्यावर्त के अंत:पुरों में वर्चस्व, घात-प्रतिघात की तमाम दुरभिसंधियां रची रचाई जा चुकी थी. सियासत का माहौल बदल गया था. इसी माहौल में धृतराष्ट्रमय संजय और तमाम दरबारी इस बार सभा में उपस्थित हुए थे. सबके कंधे पर जिम्मेदारियों का भारी बोझ पड़ा हुआ था जो सामान्य आंखों से दिख नहीं रहा था, बस महसूस हो रहा था.
दूसरी ओर संसद की लोकाचार समिति की रिपोर्ट पर लोकसभा ने ध्वनिमत से तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा को बर्खास्त कर दिया. लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने कहा, मोइत्रा का आचरण अनैतिक था, इसलिए सांसद बने रहना उचित नहीं.
मैं आगे बढ़ने से पहले एक डिसक्लेमर जारी कर देता हूं. मैं यहां महुआ मोइत्रा के आचरण या अपराध कोे सही-गलत होने की बहस में नहीं पड़ूंगा. मैं यहां कुछ बुनियादी सवाल उठाना चाहता हूं. न्याय का बुनियादी सिद्धांत है आरोपी का अपराध किसी भी तरह के संदेह से परे सिद्ध हुआ हो, तभी उसे सज़ा मिलनी चाहिए. न्याय का एक और सिद्धांत है कि आरोपी को सजा न्याय की स्थापित प्रक्रियाओं को पूरा करने के बाद ही मिलनी चाहिए. तो हम महुआ मोइत्रा को दी गई सज़ा को इन्हीं दो सिद्धांतों पर तौलेंगे और देखेंगे कि क्या इस देश की सर्वोच्च पीठ यानी संसद ने न्याय के इन बुनियादी सिद्धांतों का पालन किया? क्या उसके आचरण और बर्ताव से सवा अरब नागरिकों का भरोसा न्याय, समानता और लोकतंत्र में मजबूत हुआ? क्या इससे संसद की गरिमा बढ़ी?