पिछले दो हफ्ते से संयुक्त अरब अमीरात की मेजबानी में हुए इस सम्मेलन में कई विवाद उठे और जीवाश्म ईंधन, क्लाइमेट फाइनेंस और एडाप्टेशन जैसे मुद्दों पर गहरी चर्चा हुई.
लंबी खींचतान के बाद आखिरकार दुबई वार्ता में एक नए क्लाइमेट प्रस्ताव पर सहमति हो गई. लेकिन इसमें जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को खत्म करने या भारी कटौती के लिए प्रावधानों का अभाव है. पिछले दो हफ्ते से संयुक्त अरब अमीरात की मेजबानी में हुए इस सम्मेलन में कई विवाद उठे और जीवाश्म ईंधन, क्लाइमेट फाइनेंस और एडाप्टेशन जैसे मुद्दों पर गहरी चर्चा हुई. हालांकि, सम्मेलन के पहले दिन लॉस एंड डैमेज पर बने फंड के क्रियान्वयन को एक सकारात्मक परिणाम के रूप में देखा जा रहा है.
क्लाइमेट वार्ता में सबसे प्रमुख मुद्दा इस बात का आकलन करना था कि पिछले 5 सालों में अलग-अलग देशों ने जलवायु परिवर्तन को रोकने के क्या उपाय किए और वह कितने कारगर रहे. इसे क्लाइमेट चेंज की भाषा में ग्लोबल स्टॉकटेक या जीएसटी कहा जाता है. जीवाश्म ईंधन (जैसे कोयला, तेल और गैस) का प्रयोग खत्म करने (फेज़ आउट) की भाषा क्या हो इसे लेकर काफी खींचतान हुई. पृथ्वी पर हो रहे कुल कार्बन उत्सर्जन का 80 प्रतिशत हिस्सा जीवाश्म ईंधन का ही है.
सहमति प्रस्ताव में कहा गया कि 2050 तक नेट जीरो हासिल करने के लिए उचित, व्यवस्थित और न्यायसंगत तरीके से जीवाश्म ईंधन से दूर जाने की इस महत्वपूर्ण दशक में कोशिश की जाएगी. अनियंत्रित कोयले के प्रयोग को फेज-डाउन (कम करने) के लिये प्रयासों में तेजी की बात कही गई.
समापन भाषण में सम्मेलन के अध्यक्ष सुल्तान अल जबेर ने कहा कि धरती का तापमान 1.5 डिग्री से कम करने की दिशा में यह संधि ऐतिहासिक है लेकिन जानकारों की प्रतिक्रिया मिलीजुली है.
दिल्ली स्थित क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला कहती हैं, “परिणाम सकारात्मक हैं लेकिन इसमें कई छेद हैं. पहली बार किसी जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में जीवाश्म ईंधन से दूर हटने की ज़रूरत को स्वीकार किया गया है और लिखित शब्दों में इसका अर्थ सिर्फ कोयले से नहीं बल्कि तेल और गैस से है.”
हालांकि, संधि की भाषा पर जानकारों को आपत्ति है. खोसला कहती हैं, “धरती की तापमान वृद्धि के मद्देनज़र तीव्र प्रयासों की प्रत्यक्ष ज़रूरत के बावजूद तेल और गैस को लेकर बड़ी रियायत बरती गई है. इस पर अधिक स्पष्टता की जरूरत है.”
दुबई वार्ता में हुई डील में यह भी कहा गया है कि साल 2030 तक साफ ऊर्जा क्षमता को तिगुना करने और वैश्विक औसत ऊर्जा दक्षता को दोगुना करने का प्रयास होगा.
मीथेन जैसे गैर-कार्बन उत्सर्जन को कम करने के प्रयासों और जीरो या लो-कार्बन ईंधनों के प्रयोग बढ़ाने की बात कही गई है. इंटरनेशनल सोलर एलायंस के निदेशक डॉ अजय माथुर ने कहा, “दुबई वार्ता में प्रगति से यह बात फिर रेखांकित हुई है कि नेट जीरो हासिल करने के लिए नवीनीकरणीय ऊर्जा को अपनाना कितना जरूरी है.”
उन्होंने कहा कि डील में वैश्विक साफ ऊर्जा क्षमता को तिगुना करने की जो बात कही गई है. उसका आह्वान जी-20 सम्मेलन के दौरान किया गया था और अलग-अलग मंचों में इस मांग ने गति पकड़ी.
क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क के वैश्विक राजनीतिक रणनीति प्रमुख हरजीत सिंह का कहना है कि कई सालों तक नज़रें चुराने के बाद आखिरकार कॉप-28 में जलवायु संकट के असली गुनहगारों को कटघरे में खड़ा किया गया. उनका कहना है, “कोयले, तेल और गैस से दूर हटने के लिए लंबित प्रयास को अब दिशा मिली है. लेकिन इस प्रस्ताव में उन खामियों के कारण कमतर दिखता है जो जीवाश्म ईंधन उद्योग को अप्रमाणित और असुरक्षित टेक्नोलॉजी पर भरोसा करते हुए बचने का मौका देता है.”
दुबई वार्ता का मुख्य आकर्षण यह था कि इसमें दुनिया के देशों के क्लाइमेट एक्शन का आकलन होगा और इस दशक में आगे की राह के लिए कड़े लक्ष्य तय होंगे. खोसला कहती हैं, “बड़े कार्बन उत्सर्जकों को खुश करने के लिये ‘ट्रांजिशन फ्यूल’ के नाम पर गैस को मुफ्त छूट दे दी गई है जबकि इससे कार्बन इमीशन होगा है. विशेषकर अमेरिका, रूस और मिडिल ईस्ट जैसे देशों में इसके उत्पादन, प्रयोग और व्यापार को देखते हुए यह अस्वीकार्य है.”
क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क (साउथ एशिया) के निदेशक संजय वशिष्ठ कहते हैं, “दुबई वार्ता का परिणाम बताता है कि ये दुनिया सिर्फ अमीर और प्रभावशाली विकसित देशों की है. आखिरी प्रस्ताव से इक्विटी और मानवाधिकार के सिद्धांत का परिलक्षित न होना दिखाता है कि विकासशील देशों को स्वयं को सुरक्षित रखने की ज़िम्मेदारी उनकी अपनी है और असली गुनहगार उनकी मदद के लिए कभी नहीं आएंगे.”
वशिष्ठ ने कहा, “हम केवल जीवाश्म ईंधन शब्दावली को प्रस्ताव में अंकित कर देने से खुश नहीं हो सकते जब तक कि स्पष्ट नहीं है कि ये लागू कैसे होगा और इसमें एनर्जी ट्रांजिशन के लिए गरीब और विकासशील देशों के लिए वित्त का प्रावधान नहीं है. अगर यह ‘ऐतिहासिक परिणाम’ है तो यह गलत इतिहास लिखा गया है.”
साभार- कार्बन कॉपी
The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.
ContributeGeneral elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.
Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?