बीते नौ सालों में पहली बार भाजपा का कोई नेता मोदी-शाह के बरक्स चुनौती पेश कर रहा है. लेकिन रुझान शिवराज सिंह चौहान के लिए बहुत उम्मीद नहीं जगाते.
पिछले एक हफ्ते के दौरान मध्य प्रदेश भाजपा में जो कुछ हुआ है उसे असाधारण कहा जा रहा है. 10 सालों में, मोदी-शाह के परम शक्तिशाली होने के बाद, भाजपा में ऐसा कुछ देखने-सुनने को नहीं मिला था. मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से 450 किलोमीटर दूर डिंडोरी में एक जनसभा के दौरान शिवराज सिंह चौहान ने सीधे जनता से पूछ लिया- "मुझे फिर से मुख्यमंत्री बनना चाहिए कि नहीं." जवाब में जनता ने जोरदार नारे से उनका समर्थन किया. इस घटना से कुछ ही दिन पहले शिवराज सिंह चौहान एक चुनावी जनसभा में भावुक हो गए थे. सीहोर जिले के लाड़कुई में आयोजित कार्यक्रम में उन्होंने भावुक होकर कहा, “जब मैं चला जाऊंगा तब बहुत याद आऊंगा. मेरे जैसा भैया नहीं मिलेगा.”
गौरतलब है कि शिवराज के यह सारे बयान उनके बुधनी विधानसभा सीट से टिकट मिलने के पहले के हैं. इस बात की अटकलें और अफवाहें तेज हो गई थीं कि शिवराज को शायद इस बार टिकट नहीं मिलेगा. खुद प्रधानमंत्री के बर्ताव ने भी इस अटकल को तेजी दी थी. जनसभाओं में नरेंद्र मोदी एक बार भी शिवराज सिंह का नाम नहीं ले रहे हैं.
शिवराज ने डिंडोरी में जनता से यह पूछने के बाद कि उन्हें मुख्यमंत्री बनना चाहिए या नहीं, अगला ही सवाल बहुत चतुराई से रखा कि मोदीजी को प्रधानमंत्री बनना चाहिए कि नहीं. यह एक मुख्यमंत्री द्वारा दबाव बनाने की सीधी रणनीति के साथ बीते 10 सालों में मोदी-शाह को दी गई पहली चुनौती भी थी. किसी को उम्मीद नहीं थी कि शिवराज सिंह चौहान इस तरह से अपना दावा ठोकेंगे.
भोपाल के राजनीतिक गलियारे में एक चर्चा बहुत आम है कि शिवराज सिंह चौहान ने मोदी से बड़ी लाइन खींची है. वो चार बार लगातार मुख्यमंत्री बने हैं. जबकि मोदी 12 साल मुख्यमंत्री रहने के बाद ही सीधे प्रधानमंत्री बन गए. शिवराज के इस रिकॉर्ड से केंद्रीय नेतृत्व असहज है.
2018 के विधानसभा चुनाव में जहां कांग्रेस के तीन कद्दावर नेता कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने चुनाव की कमान संभाल रखी थी, वहीं, भाजपा की तरफ से अकेले शिवराज सिंह चौहान ने मोर्चा संभाला था. वैसे तो जीत कांग्रेस की हुई थी, लेकिन चौहान ने अकेले ही अपने दम पर भाजपा को 109 सीटें जिताई थी. तीन बार की एंटी इंकमबेंसी को मात देते हुए. कांग्रेस के आंकड़े से सिर्फ पांच सीट कम. इस जीत का पूरा श्रेय चौहान को था क्योंकि उनके मंत्रिमंडल के 13 मंत्री चुनाव हार गए थे और पूरा चुनाव शिवराज के चेहरे पर लड़ा गया था.
इस बार भाजपा के लिये पिछले चुनाव के मुकाबले ज़्यादा कड़ी चुनौती है. लेकिन अगर भाजपा चुनाव जीत भी जाती है तब भी चौहान का मुख्यमंत्री बनना मुश्किल है.
पिछले चुनाव में जीत दर्ज कराने के बाद भी कमलनाथ की कांग्रेस सरकार महज़ 15 महीने बाद सत्ता से बाहर हो गयी. ज्योतिरादित्य सिंधिया ने 22 विधायकों के साथ बगावत कर भाजपा का दामन थाम लिया था. इसके बाद शिवराज सिंह फिर से मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. चौहान पहली बार 2005 में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे. इससे पहले चौहान पांच बार विदिशा से सांसद रह चुके थे.
बचपन से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए चौहान का राजनैतिक जीवन कमोबेश अविवादित रहा है. व्यापम घोटाले का आरोप उनकी सरकार पर जरूर लगा. एक सुलभ और नरमपंथी नेता के रूप में उनकी छवि खासा सफल रही. चौहान के बारे में उनके गृह जिले विदिशा में कहा जाता है कि शुरुआत में वो 10-15 लोगों के साथ भाजपा का झंडा उठाये गांव-गांव पैदल घूमा करते थे. यह वो दौर था जब भाजपा का परचम उठाने वालों की संख्या बहुत कम थी.
अमूमन चौहान की छवि एक मृदुभाषी, सरल स्वभाव के ज़मीनी नेता की रही है. लेकिन मार्च, 2020 में चौथी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने अपनी छवि के विपरीत एक आक्रामक चेहरा अपनाने की हरसंभव कोशिश की. अपने प्रति केंद्रीय नेतृत्व और राज्य के भीतर मौजूद स्थानीय क्षत्रपों में पैदा हो रहे खिंचाव और तनाव को भांप कर उन्होंने अपनी छवि का गियर शिफ्ट कर लिया. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कठोर प्रशासक वाली छवि को अपनाना शुरू कर दिया. देखते ही देखते सरल, मृदुभाषी शिवराज बुलडोज़र मामा बन गए.
उनके बुलडोज़र का निशाना अधिकतर मुसलमान बना, अक्सर न्यायिक प्रक्रियाओं को नजरअंदाज कर इसका इस्तेमाल हुआ. इसकी चपेट में तमाम परिवार तबाह हुए. यह सच विडंबनात्क रूप से शिवराज के उस दावे के खिलाफ जाता है कि वो सरकार नहीं परिवार चलाते हैं. यह संदेश साफ गया कि अगर वो परिवार चलाते भी हैं तो एक धर्म विशेष का परिवार चलाते हैं.
हालांकि, शिवराज की मौजूदा स्थिति देखकर साफ होता है कि बुलडोज़र वाली राजनीति से उन्हें बहुत फायदा नहीं हुआ. मौजूदा स्थिति में अगर भाजपा जीतती भी है तो क्या शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बन पाएंगे?
पिछले पांच महीनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मध्य प्रदेश के 10 दौरे और 9 जनसभाएं की हैं. दो अक्टूबर को उन्होंने ग्वालियर में आकर प्रधानमंत्री आवास योजना के लाभार्थियों को गृह प्रवेश कराया था, पांच अक्टूबर को जबलपुर में उन्होंने 100 करोड़ की लागत से बनने वाले रानी दुर्गावती के स्मारक का भूमिपूजन किया. इसके बाद उन्होंने छतरपुर का भी दौरा किया था.
सारे संकेत साफ हैं कि मध्य प्रदेश में भाजपा सिर्फ मोदी के चेहरे और नाम पर चुनाव लड़ रही है. पोस्टरों, बैनरों से लेकर ऑनलाइन प्रचार में मोदी का चेहरा प्रमुखता से इस्तेमाल हो रहा है. भाजपा ने सोशल मीडिया पर "एमपी के दिल में है मोदी" नाम से कैंपेन भी चलाया है.
प्रधानमंत्री अपनी सभाओं में शिवराज सिंह चौहान का नाम भी नहीं ले रहे हैं. जून में भोपाल में हुए कार्यक्रम ‘मेरा बूथ, सबसे मजबूत’ में मोदी ने लगभग पौने दो घंटे भाषण दिया लेकिन एक बार भी चौहान का नाम नहीं लिया. 25 सितम्बर को भोपाल मे हुए ‘कार्यकर्ता महाकुंभ’ में मोदी की जब एंट्री हुई तब गाना बज रहा था "मध्य प्रदेश के मन में मोदी". लगभग डेढ़ घंटे चले कार्यक्रम में चौहान ने सिर्फ दस मिनट बात रखी. वहीं, मोदी एक घंटा बोले, लेकिन इस दौरान उन्होंने एक बार भी शिवराज सिंह चौहान का ज़िक्र नहीं किया. इसी तरह दो अक्टूबर को ग्वालियर (एक बार लिया) और पांच अक्टूबर को जबलपुर की सभाओं में भी मोदी ने चौहान का नाम नहीं लिया.
मध्य प्रदेश में अब तक भाजपा 230 में से 136 सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा कर चुकी है. प्रधानमंत्री मोदी की अध्यक्षता वाली केंद्रीय चुनाव समिति की दिल्ली में हुई बैठक के बाद 25 सितम्बर को जारी हुई दूसरी लिस्ट में 39 नामों की घोषणा हुई थी. इसमें सात सीटें ऐसी हैं जहां भाजपा ने अपने राष्ट्रीय स्तर के नेताओं को मैदान में उतारा है. ऐसा बहुत कम देखने मिलता है कि किसी पार्टी ने अपने केंद्रीय मंत्रियों, सांसदों और राष्ट्रीय पदाधिकारियों को विधानसभा के चुनाव में उतार दिया हो. इस सूची में देश के कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग और जलशक्ति राज्य मंत्री प्रह्लाद पटेल, ग्रामीण विकास और इस्पात राज्यमंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते, भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय, जबलपुर सांसद और मध्य प्रदेश भाजपा के पूर्व अध्यक्ष राकेश सिंह, सतना से सांसद गणेश सिंह और सीधी से सांसद रीति पाठक के नाम शामिल हैं.
गौरतलब है कि सभी सातों लोग अपने-अपने इलाकों में थोड़ा बहुत प्रभाव रखते हैं. ग्वालियर-चम्बल के इलाके में तोमर का असर है, महाकौशल के इलाके में प्रह्लाद पटेल हैं. मंडला-डिंडोरी के आदिवासी इलाकों में प्रभाव रखने वाले कुलस्ते मंडला से मैदान में उतरेंगे. मालवा निमाड़ अंचल में इंदौर के माहिर खिलाड़ी कैलाश विजयवर्गीय दावा ठोकेंगे. विंध्य के क्षेत्र में गणेश सिंह और रीति पाठक ज़ोर आज़माइश करेंगे.
"जिन सांसदों और केंद्रीय मंत्रियों को इस बार विधानसभा का चुनाव लड़ाया जा रहा है, उनमें से ज्यादातर शिवराज के विरोधी हैं और समय-समय पर उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाने की मांग करते रहे हैं."
मध्य प्रदेश भाजपा के एक वरिष्ठ पदाधिकारी कहते हैं, "भाजपा के लिए मध्य प्रदेश का चुनाव बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसके नतीजों का असर 2024 के लोकसभा चुनाव पर भी पड़ेगा. अहम बात यह है कि इस बार पार्टी का चुनाव जीतना कठिन दिख रहा है. इसी कारण से इस बार चुनाव की कमान भोपाल की बजाय दिल्ली के हाथों में है और इतने सारे केंद्रीय नेता मैदान में हैं.”
जानकारी के मुताबिक, चुनाव अभियान का संचालन कर रहे नेता (केंद्रीय मंत्री और चुनाव प्रभारी भूपेंद्र यादव प्रभारी और सह प्रभारी अश्विनी वैष्णव) सीधे प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह को रिपोर्ट कर रहे हैं. प्रदेश भाजपा नेताओं की चुनावी रणनीति में कोई भूमिका नहीं है.
भाजपा के दिल्ली से आए एक नेता कहते हैं, "शिवराज जी पिछले दो दशकों से पार्टी का चेहरा हैं. इससे जनता में एक थकान आ चुकी है. एंटी इंकम्बेंसी बहुत ज्यादा हो गई है. इसलिए पार्टी ने शिवराज के चेहरे को दरकिनार कर आगे बढ़ने का निर्णय किया है.”
हालांकि, पार्टी के भीतर यह सोच अभी भी कायम है कि मध्य प्रदेश में लोगों के बीच शिवराज सिंह जैसी लोकप्रियता किसी और नेता की नहीं है. लेकिन पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व भविष्य की योजनाओं में शिवराज को उपयुक्त नहीं पा रहा है. उसने साफ कर दिया है कि एक व्यक्ति को लेकर पार्टी चुनाव नहीं लड़ेगी क्योंकि एक व्यक्ति को जब आगे किया जाता है तो बाकी नेता उपेक्षित महसूस करते है और संगठन में मतभेद पैदा हो जाता है.
लेकिन मध्य प्रदेश भाजपा के एक अन्य नेता इस रणनीति के पीछे शिवराज को हाशिए पर धकेलने की मंशा जाहिर करते हैं. वो कहते हैं, "जिन सांसदों और केंद्रीय मंत्रियों को इस बार विधानसभा का चुनाव लड़ाया जा रहा है, उनमें से ज्यादातर शिवराज के विरोधी हैं और समय-समय पर उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाने की मांग करते रहे हैं. केंद्रीय नेतृत्व ने इन सबको साफ कह दिया है कि अपने-अपने क्षेत्रों में ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतकर लाओ फिर हम शिवराज को हटाने के बारे में सोंचेंगे. इसलिए संभावना यही है कि अगर पार्टी जीतती भी है तो भी शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे.”
अपनी स्थिति को शिवराज सिंह भी भांप गए हैं. उन्हें एहसास हो गया है कि पिछले चुनावों की तरह इस बार वो अकेले उम्मीदवार नहीं हैं. लिहाजा अपनी स्थिति को मजबूत करने की कोशिश में उन्होंने हाल के दिनों में ताबड़तोड़ कोशिशें की हैं. उनके हालिया बयान उसी चिंता से पैदा हुए हैं. अपने भाषणों में कभी वो भावुक अपील करते हैं तो कभी अपनी मुख्यमंत्री पद की दावेदारी का समर्थन जुटाते नज़र आते हैं.
शिवराज की ताजपोशी में अंतत: आरएसएस की भूमिका भी महत्वपूर्ण रहने वाली है. भले ही केन्द्रीय नेतृत्व उन्हें नज़रंदाज कर चुका है लेकिन जिस तरह से शिवराज ने अपना दावा पेश किया है उसके पीछे संघ की एक लॉबी का उन्हें समर्थन माना जा रहा है. शिवराज लगातार अपनी सभाओं में अपनी योजनाओं का बखान कर रहे हैं. लाडली बहना योजना, मुख्यमंत्री सीखो, कमाओ योजना से लेकर किसान सम्मान निधि आदि का ऐलान कर उन्होंने जनता के बीच गोलबंदी की रणनीति बनाई है. महिला मतदाताओं पर उनका खासा ज़ोर है. उनकी अधिकतर जनसभाओं में महिलाओं से जुड़ी योजनाएं केंद्र में होती हैं.
शिवराज का इशारा साफ है कि वो चुनाव के बाद बनने वाली स्थिति को लेकर अपनी तैयारी पुख्ता कर रहे हैं. पार्टी ने उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित ना कर चुनाव में उनका रोल सीमित कर दिया है.
भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र शर्मा कहते हैं, "भाजपा फ़िलहाल शिवराज से परहेज़ कर रही है. असल में शिवराज के खिलाफ बहुत ही तगड़ी एंटी-इंकम्बेंसी है. देखा जाए तो जनता को भाजपा से इतनी दिक्कत नहीं है, लेकिन शिवराज और उनके मंत्रियों के खिलाफ एंटी इंकम्बेंसी है. लोग परिवर्तन चाहते हैं, वो पिछले 16 साल से एक ही चेहरा देख रहे हैं.”
शर्मा के मुताबिक, लगभग आधे से ज़्यादा मंत्रियों के टिकट कट सकते हैं. वो बताते हैं, "शिवराज के बीस सालों में नेताओं की एक पूरी पीढ़ी यह महसूस करने लगी है कि एक बार और शिवराज बने तो उनका करियर खत्म हो जाएगा. दूसरी बात बीस सालों में शिवराज के मुख्यमंत्री रहते बाकी नेताओं के विरोधी गुट भी बन गए हैं. जाहिर है सबके निशाने पर शिवराज ही हैं.ये सब मिलकर अब उन्हें वापस मुख्यमंत्री नहीं बनने देंगे.”
वह आगे कहते हैं, "शिवराज की खुद की कोई बहुत बड़ी टीम नहीं है. उनके कुछ ख़ास समर्थक नहीं है. इसीलिए उनको नज़रअंदाज करने से पार्टी के अंदर ज़्यादा नाराजगी नहीं है. लेकिन यह बात भी सही है कि शिवराज परिस्थितियां बदलने में माहिर हैं. लेकिन सबकुछ निर्भर करेगा कि पार्टी का प्रदर्शन कैसा रहता है और उसमें शिवराज समर्थकों की संख्या कितनी रहती है. फिलहाल हालात कांग्रेस के पक्ष में हैं.”
"चुनाव जीतने के लिए भाजपा किसी भी हद तक जा सकती. इसे भाजपा का डर कह लीजिये या रणनीति."
ग्वालियर-चम्बल में भाजपा और आरएसएस से जुड़े एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, "मौजूदा स्थिति में जनता पुराने चेहरों के खिलाफ तो है लेकिन पार्टी के खिलाफ नही है. शिवराज सिंह मेहनत तो बहुत कर रहे हैं, लेकिन लहर उनके खिलाफ है. इसलिए पार्टी ने मुख्यमंत्री बनने की योग्यता रखने वाले सभी नेताओं को मैदान में उतार दिया है. शिवराज सिंह के मुकाबले में सात नेता हैं. जो भी अच्छा प्रदर्शन करेगा वह मुख्यमंत्री पद का प्रबल दावेदार होगा.”
प्रदेश स्तर के अन्य पदाधिकारी बताते हैं, "पार्टी के इस बदलाव वाले निर्णय से लोगों के बीच सकारात्मक सन्देश गया है. इतने सालों से एक ही चेहरे से जनता उकता चुकी है. मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ने से हमें फायदे की उम्मीद है. कांग्रेस सिर्फ शिवराज सिंह चौहान पर निशाना साध रही है, लेकिन बाकी सातों चेहरों के बारे में बोलने के लिए उसके पास कुछ खास नहीं है. ना चुनाव शिवराज के नेतृत्व में लड़ा जा रहा है, ना ही वो मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं. इससे एंटी इंकम्बेंसी कम हुई है.”
भोपाल से वरिष्ठ पत्रकार मिलिंद घटवई दूसरे तथ्य की ओर इशारा करते हैं, "भाजपा शिवराज सिंह चौहान को दरकिनार कर रही है लेकिन वो भूल रही है कि मोदी के चेहरे पर पूरा चुनाव लड़ने के बावजूद भाजपा को कर्नाटक में कोई फायदा नहीं हुआ.”
वो आगे कहते हैं, “अभी फिलहाल माहौल ऐसा है कि चुनाव जीतने के लिए भाजपा किसी भी हद तक जा सकती. इसे भाजपा का डर कह लीजिये या रणनीति कह लीजिये. उन्होंने केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों को चुनाव में उतार कर उनका राजनैतिक करियर ही दांव पर लगा दिया है. इन लोगों के ऊपर अपना चुनाव जीतने से ज्यादा अपने इलाके में सीटें जितवाने की ज़िम्मेदारी है. अगर ये नेता गलती से भी चुनाव हार गए तो उनका करियर हमेशा के लिए ख़त्म हो सकता है.”
चुनाव बाद का परिदृश्य दिलचस्प होगा. पहली बार कोई नेता पार्टी के भीतर मोदी-शाह के बरक्स चुनौती पेश कर रहा है. नतीजे पक्ष में आएं या विपक्ष में, यह लड़ाई और तीखी होना तय है.