जंगलों का व्यापारीकरण: लुप्त होते वन और सरकार की गढ़ी 'नई परिभाषा'

सुप्रीम कोर्ट ने 1996 में केंद्र और राज्यों से कहा कि भारत के सभी वनों की पहचान कर उन्हें संरक्षित किया जाए. 27 साल गुजरने के बावजूद यह काम पूरा नहीं किया गया.

Article image

अप्रैल, 1995 में भूतपूर्व मलयाली रियासत के वारिस टी एन गोदावर्मन ने सुप्रीम कोर्ट में नीलगिरी के जंगलों में मनमाफिक ढंग से पेड़ों की कटाई के खिलाफ एक जनहित याचिका दायर की. एक वक्त पर ये इलाका उनके परिवार की रियासत के तहत आता था. कोर्ट ने केस का दायरा बढ़ाते हुए देश की पूरी वन प्रशासन की व्यवस्था को इसकी सुनवाई में शामिल कर लिया.

1996 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश में बताया कि किस तरह की भूमि को वन संरक्षण अधिनियम के तहत वन भूमि के तौर पर संरक्षित किया जाएगा. ये आदेश एक समय बेहद महत्वकांक्षी, विवादास्पद और प्रभावी माना गया. आदेश के मुताबिक, चाहे सरकार किसी जंगल के हिस्से को अपने रिकॉर्ड में जंगल माने या ना माने, अगर ये जंगल है, तो इसे संरक्षित किया जाएगा, भले ही इसका स्वामित्व किसी के भी पास हो. ये जरूरी हो गया था क्योंकि सरकारी रिकॉर्ड ज्यादातर विरोधाभासी और अधूरे होते हैं.

कोर्ट ने कहा कि राज्य स्तरीय समितियां ऐसे जंगलों की पहचान और उनकी सीमाबंदी करें, जो अब तक सरकारी रिकॉर्ड से बाहर रहे हैं, ताकि उन्हें कानून की जद में लाकर संरक्षित किया जा सके. 27 साल बाद स्थिति ये है कि कई राज्य इसमें हीलाहवाली करते रहे और केंद्र सरकार ने कभी इन जंगलों की समग्र जानकारी सामने नहीं रखी.

पत्रकारों ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के अप्रकाशित आंतरिक दस्तावेजों को देखा है. इनके मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के 18 साल बाद, मतलब 2014 तक हरियाणा, बिहार, गुजरात और महाराष्ट्र समेत ज्यादातर राज्यों ने इस तरीके के जंगलों की पहचान और उनके संरक्षण की कवायद को शुरू तक नहीं किया.

वन संरक्षण अधिनियम में मोदी सरकार के हालिया संशोधन, जिनसे आधिकारिक वन क्षेत्रों को संरक्षित रखने में कानून की ताकत सीमित कर दी गई है, उनके चलते इन राज्यों में संभावित जंगलों की बड़ी जमीनें व्यावसायिक हितों के लिए खुल गई हैं. हरियाणा के मामले में अरावली पर्वतमाला का बड़ा हिस्सा जो दिल्ली की सीमा से लगा है, जिसे अब भी जंगल के तौर नोटिफाई किया जाना बाकी है, उसका वन संरक्षण अधिनियम के तहत कानूनी संरक्षण खत्म हो जाएगा. इसके चलते इस जमीन को रियल एस्टेट डेवलपर्स हथिया सकते हैं.

लेकिन निजी सेक्टर के लिए सिर्फ यही अच्छी खबर नहीं है. वन अधिनियम में हुए बदलाव निजी पौधारोपण (प्राइवेट प्लांटेशन) को संरक्षण अधिनियम से बाहर रखते हैं. इससे पहले कोई भी निजी पौधारोपण जो जंगल की परिभाषा में आता है, उसके ऊपर वन संरक्षण अधिनियम के प्रावधान लागू होते थे. लेकिन अब ऐसा नहीं होगा. (इस बारे में जानने के लिए इस सीरीज के पिछला हिस्सा पढ़िए.)

बहक गई पूरी कवायद

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के 18 साल बाद 2014 में केंद्र सरकार द्वारा एक बैठक आयोजित की गई. इसमें 25 से ज्यादा राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने जंगलों की पहचान के मामले में हुए काम का अपडेट दिया.12 राज्य ये निश्चित कर चुके थे कि जंगल किसे कहा जाएगा, चाहे वो निजी या सार्वजनिक स्वामित्व वाला हो. जबकि बिहार, हरियाणा और गुजरात जैसे 15 राज्य और 5 केंद्र शासित प्रदेशों ने तब तक भी ये तय नहीं किया था.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute
अगस्त 2014 में आयोजित एक बैठक में, राज्यों ने पर्यावरण मंत्रालय को जानकारी दी कि वे शब्दकोश अर्थ के आधार पर वनों की पहचान करने की प्रक्रिया पर काम कर रहे हैं.

ये आखिरी समग्र जानकारी थी, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर राज्यों ने कैसे काम किया, इसके बारे में बताया गया था. हमने दस्तावेजों का मूल्यांकन किया और इनसे पता चला कि राज्य सरकारों ने इस तरह के जंगलों की पहचान करने में व्यापक तौर पर मनमर्जी वाली परिभाषाएं गढ़ीं. उदाहरण के लिए हिमाचल प्रदेश ने तय किया कि "5 हेक्टेयर से ज्यादा की ऐसी जमीन जिस पर घनी संख्या में काष्ठ रोपण है" उसे जंगल कहा जाएगा. एक और पहाड़ी राज्य सिक्किम ने कहा, "40 फीसदी से ज्यादा काष्ठ घनत्व वाले, कम से कम 10 हेक्टेयर के सतत इलाके को वन करार दिया जाएगा."

उत्तर प्रदेश ने विंध्य और बुंदेलखंड क्षेत्र में वन घोषित करने के लिए 100 पेड़ प्रति हेक्टेयर वाली कम से कम 3 हेक्टेयर जमीन का नियम बनाया. जबकि तराई और मैदानी क्षेत्र में 50 पेड़ प्रति हेक्टेयर का नियम रखा गया.

सरकार ने कभी इस डेटा को सार्वजनिक नहीं किया, ना ही संसद के सामने पेश किया.

सितंबर से नवंबर 2019 के बीच, केंद्र ने डिक्शनरी की परिभाषा पर आधारित वन पहचान के प्रस्ताव पर विचार किया और कहा, "ऐसा कोई एक पैमाना नहीं हो सकता, जिसके आधार पर सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में जंगलों की पहचान की जा सके." तब केंद्र सरकार ने तय किया कि राज्यों को खुद से ये पैमाने तय करने होंगे और उन्हें इसके लिए केंद्र की अनुमति नहीं लेनी होगी.

2019 में, केंद्र ने शब्दकोश अर्थ के आधार पर जंगलों की पहचान करने की जिम्मेदारी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों पर डाल दी.

अब वन (संरक्षण) अधिनियम में संशोधन के साथ, केंद्र ने "डीम्ड फॉरेस्ट" की कैटेगरी को ही खत्म कर दिया. संयुक्त संसदीय समिति के सामने नए कानून पर केंद्र ने कहा, "सुप्रीम कोर्ट द्वारा 12/12/1996 को दिए आदेश के हिसाब से विशेषज्ञ समितियों द्वारा जिन इलाकों की पहचान की गई थी, उनकी जानकारी 1997 में ही शपथ पत्र के जरिए सुप्रीम कोर्ट को दे दी गई थी."

लेकिन कोई भी इस बारे में नहीं जानता क्योंकि सरकार ने "डीम्ड फॉरेस्ट" के तौर पर पहचाने गए इलाकों की जानकारी ऑन रिकॉर्ड सार्वजनिक नहीं की.

पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने एक अखबार में लिखे लेख में इसका बचाव करते हुए 7 अगस्त, 2023 को लिखा, "इसका डर बढ़ गया था कि प्राइवेट प्लांटेशन पर भी संरक्षण अधिनियम लगाया जा सकता है. जंगलों के बाहर वनरोपण को जरूरी तेजी नहीं मिली. ये चीज ग्रीन कवर को बढ़ाने में बाधा बन रही है."

वे ये कहना चाह रहे थे कि टिंबर और दूसरे प्लांटेशन में प्राइवेट सेक्टर की भूमिका कम हो रही है, क्योंकि उन्हें "डर" है कि उनका पौधारोपण, वन संरक्षण अधिनियम के तहत आ जाएगा. इसके अंतर्गत आने से संबंधित जमीन के किसी दूसरे उपयोग के लिए अनुमति की एक कड़ी प्रक्रिया से गुजरना होता है.

संशोधित कानून के जरिए इस "डर" को खत्म कर दिया गया है. इस तरह 2018 की ड्राफ्ट वन नीति (इसके बारे में आप दूसरे पार्ट में पढ़ सकते हैं) का मकसद हासिल कर लिया गया, जिसमें कॉरपोरेट की मदद से वानिकी (एग्रोफॉरेस्ट्री) का पूरा संभावित उपयोग, खासतौर पर टिंबर प्लांटेशन में, करने की मंशा थी.

दिल्ली के फेंफड़ों का खात्मा

सरकार भले ही कहती है कि इन संशोधनों का उद्देश्य भारत के वनाच्छादन (फॉरेस्ट कवर) को बढ़ाकर जलवायु लक्ष्यों को हासिल करना है. लेकिन दिल्ली की सीमा के पास अरावली पर्वत श्रंखला जैसे देश के अनौपचारिक हरित फेफड़े अब निरीह हो जाएंगे, जिनका कभी भी दोहन किया जा सकेगा.

पंजाब भूमि संरक्षण अधिनियम, 1900 के तहत हरियाणा में अरावली पहाड़ियों का केवल दो तिहाई हिस्सा ही संरक्षित है. लेकिन विशेषज्ञों के मुताबिक गुरुग्राम में 40% और फरीदाबाद में 36.8% इलाका जंगलों के तौर पर नोटिफाई नहीं किया गया है. ये जमीन कुल 18,000 हेक्टेयर है, जिसमें झाड़ियां, खुले मैदान और घने वनों का आच्छादन है. वन संरक्षण अधिनियम में संशोधन के पहले इन्हें पुरानी परिभाषा के हिसाब से "डीम्ड फॉरेस्ट" करार दिया जा सकता था.

हरियाणा सरकार हमेशा से इन्हें जंगल का दर्जा देने से बचती रही है. 2015 के दस्तावेज दिखाते हैं कि नौकरशाही के कई पैंतरों से हरियाणा सरकार 1996 के गोदावरम और इसके बाद आए फैसलों को इस जमीन पर लागू करने से बचती रही है। उन्होंने अरावली के जंगलों के बड़े हिस्से को "ग्रे जोन" में दर्शाया है, जिनका "स्टेटस तय किया जाना है."

अरावली के विशाल क्षेत्र जो जंगल की शब्दकोश परिभाषा में उपयुक्त थे, उन्हें "स्थिति तय की जाएगी" इस श्रेणी में रखा गया.

अब ये स्टेटस तय हो चुका है: ये अब जंगल नहीं हैं. मोदी सरकार द्वारा संशोधित कानून यहां रियल एस्टेट बिजनेस के लिए रास्ता साफ कर चुका है.

स्वतंत्र पर्यावरण और वन नीति विश्लेषक चेतन अग्रवाल कहते हैं, "डीम्ड फॉरेस्ट और प्राइवेट फॉरेस्ट समेत कई तरह के जंगलों पर वन संरक्षण अधिनियम लागू नहीं होने से पारिस्थितिक त्रासदियां पैदा होंगी. इससे बड़े पैमाने पर इस तरह की वन भूमि का गैर वन उपयोग के लिए हस्तांतरण होगा, खासतौर पर अरावली जैसे पर्यावरण के नजरिए से संवेदनशील क्षेत्र में रियल एस्टेट डेवलपमेंट के लिए जमीनें दी जाएंगी."

कई आदिवासी और वन घुमंतु समुदाय वनों की परिभाषा में बदलाव के खिलाफ हैं. 18 आदिवासी और घुमंतु समुदाय संगठनों का साझा मंच- कैंपेन फॉर सर्वाइवल एंड डिगनिटी ने वन संरक्षण अधिनियम में सार्वजनिक सलाह प्रक्रिया के दौरान जमकर विरोध किया. कैंपेन ने अपनी टिप्पणी में कहा कि मंत्रालय को प्रस्तावित बदलावों को रद्द करना चाहिए और "कानूनों का पालन शुरू करना चाहिए, खासतौर पर अनुसूचित जनजाति और अन्य-परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के प्रावधानों का पालन करना चाहिए. साथ ही वन संरक्षण में ग्राम सभा के अधिकार को मानना चाहिए."

वन अधिकार अधिनियम के जरिए चराई की जमीनों पर अधिकार जताने वाले घुमंतु पशुपालक आदिवासी युवाओं के संगठन, वन गुज्जर आदिवासी युवा संगठन ने लिखा, "गोदावरम केस के तर्क को उल्टा करने वाली ये प्रतिबंधात्मक परिभाषा वन क्षेत्रों की सीमा को लेकर आकलन की गंभीर समस्याएं पैदा कर सकती है. ऊपर से इस तरह का प्रावधान FRA के उद्देश्यों का विरोधाभासी है."

जंगल और आंकड़े बदलते रहते हैं

देशभर में "डीम्ड फॉरेस्ट" से जुड़े आंकड़ों की कमी और इनके संरक्षण के प्रति सरकार के उदासीन रवैये के बीच, ऐसा होने की संभावना है कि सरकार द्वारा समय-समय पर पेश किए जाने वाले वन आंकड़ों के प्रति लोग नकारात्मक रवैया बना लें. भारत के वनाच्छादन (फॉरेस्ट कवर) आंकड़े अतीत में अनियमित्ताओं के लिए कुख्यात रहे हैं. (आप इन अनियमित्ताओं के बारे में यहां, यहां और यहां पढ़ सकते हैं.) "स्टेट ऑफ फॉरेस्ट" रिपोर्ट्स का विश्लेषण विरोधाभासी नतीजे पेश करता है. इन रिपोर्टों के मुताबिक भारत ने 1987 से 2021 के बीच हर साल 2,146 वर्ग किलोमीटर का वन क्षेत्र हर साल जोड़ा.

लेकिन दो दशकों की इन रिपोर्ट्स का अध्ययन करने पर पचा चलता है कि औसत तौर पर हर दो साल में 2,594 वर्ग किलोमीटर के बहुत घने और सामान्य घने जंगल, झाड़ियों या बंजर भूमि में बदल गए. ये बैंगलोर और दिल्ली का कुल क्षेत्रफल है, जहां से हर दो साल में इस तरह के जंगल खत्म कर दिए गए. 

अनोखे ढंग से औसत तौर पर हर दो साल में 1,907 वर्ग किलोमीटर की झाड़ियों वाले जंगल या लगभग बंजर जमीन, घने और बेहद घने जंगलों में बदल गई. ऐसा कैसे हो सकता है कि सिर्फ दो साल में कोई बंजर जमीन का टुकड़ा घने या बेहद घने जंगलों में बदल जाए?

 यहां तक कि इंटरनेशनल प्लेटफॉर्म्स पर सरकार जो आकंड़े पेश करती है, वे भी स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट्स में दिखाए गए फॉरेस्ट कवर के आंकड़ों से मेल नहीं खाते.

2018 में संयुक्त राष्ट्र को वन आवरण में वृद्धि के आंकड़े प्रस्तुत किए गए.

2018 में UN में जमा की गई एक रिपोर्ट में केंद्र ने जादुई ढंग से साल 2000 के लिए 22,000 वर्ग किलोमीटर का फॉरेस्ट कवर ज्यादा बताया. ये मिजोरम के क्षेत्रफल से भी ज्यादा है. UN में जो आंकड़े दिए गए, उनमें साल 2000, 2004 और 2009 के लिए फॉरेस्ट कवर ज्यादा बताया गया। ये आंकड़े नागरिकों के सामने पेश किए आंकड़ो से अलग थे.

2018 में संयुक्त राष्ट्र को वन आवरण में वृद्धि के आंकड़े प्रस्तुत किए गये.

भरोसेमंद आंकड़ों की अनुपस्थिति, खासतौर पर "डीम्ड फॉरेस्ट" से जुड़े विश्वस्त डेटा के ना होने के बावजूद केंद्र ने इंडस्ट्री के फायदे वाले बदलाव वन संरक्षण अधिनियम में किए. जबकि भारत के नागरिकों का बड़ा हिस्सा इन्हें लेकर अंधेरे मे है.

(यह तीन भाग में लिखी गई रिपोर्ट का अंतिम हिस्सा है. ये समझने के लिए कि वन संरक्षण अधिनियम में हुए हालिया बदलाव कैसे कई सालों की कोशिश का नतीजा है और कैसे जंगलों और आदिवासी समुदाय की कीमत पर निजी कारोबारियों का पक्षपात करते हैं, इसके लिए आप इस सीरीज का पहला और दूसरा हिस्सा पढ़ें.)

साभार- The Reporters' Collective

Also see
article imageजंगलों का व्यापारीकरण: वन संरक्षण के नाम पर खोखले आश्वासन और फिर मुंह फेरती सरकार
article imageजंगलों का व्यापारीकरण: कैसे मोदी सरकार ने कारोबारियों के लिए खोल दिए जंगल
subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

Comments

We take comments from subscribers only!  Subscribe now to post comments! 
Already a subscriber?  Login


You may also like