हिमाचल प्रदेश में जलविद्युत क्षमता के दोहन के लिये तकरीबन हर नदी पर बांधों की कतार खड़ी कर दी गई लेकिन इस साल हुई आपदा के बाद साफ है कि नियमों के पालन और बाढ़ मॉनिटरिंग के स्तर पर गंभीर खामियां हैं.
कुल्लू से कोई 50 किलोमीटर दूर सेंज घाटी में छाई मायूसी यहां गरजती पिन पार्वती नदी और उसके आसपास चल रहे बुलडोजरों की आवाज से ही टूटती है. बाढ़ से हुई तबाही के निशान यहां हर ओर दिखते हैं. कुछ बेबस लोग उस नदी तट को देख रहे हैं, जहां कभी उनके घर और दुकानें हुआ करतीं और बाकी कुछ दूरी पर यह मंत्रणा कर रहे हैं कि सरकार पर उचित मुआवजे के लिये दबाव कैसे बनाया जाए. जहां कुछ दिन पहले तक एक चहल-पहल भरी बस्ती थी वहां अब नदी द्वारा लाए गए विशाल पत्थरों और रेत का अंबार है.
‘हम सब बर्बाद हो गये’
इस गांव में रहने वाली 42 साल की निर्मला देवी कहती हैं, “यहां 40 से अधिक इमारतें एक ही जगह पर बह गईं, जिनमें दुकानें भी थीं और लोगों के घर भी. बहुत से लोगों के पास कुछ नहीं बचा है. आसपास के कई दूसरे गांवों में भी ऐसी ही बर्बादी हुई है. हम सब बर्बाद हो गये.”
निर्मला के साथ यहां मौजूद कई दूसरी महिलाओं और पुरुषों की आपबीती अलग नहीं है. कई परिवार टैंटों में वक्त गुजारने पर मजबूर हो गए. 28 साल के दिनेश कुमार कहते हैं कि लोगों का घर और रोजगार तो गया ही, जिन लोगों की खेती पर निर्भरता थी वह भी नहीं रही क्योंकि बाढ़ अपने साथ काफी जमीन बहा ले गई.
सेंज हिमाचल के कुल्लू जिले में बसी एक तहसील है. इसका 100 साल पुराना बाजार यहां की 15 पंचायतों के लिये खरीदारी और व्यापार का केंद्र था. सामाजिक कार्यकर्ता महेश शर्मा कहते हैं, “यहां करीब 25,000 की आबादी है. नदी तट पर हुई बर्बादी की खबर तो फिर भी लोगों की नजर में आ गई और प्रशासन ने कुछ कदम उठाए लेकिन दूर-दराज के कई गांव हैं जो भारी बारिश के कारण कटे हुए हैं और वहां की दुर्दशा का सही आकलन तक नहीं हो पाया है.”
तबाही के लिये बांध हैं जिम्मेदार
लोगों ने नदी के जलस्तर में अचानक वृद्धि और उससे हुई तबाही के लिए नेशनल हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर कॉर्पोरेशन (एनएचपीसी) को जिम्मेदार ठहराया. यहां लोगों ने कहा कि 8-10 जुलाई के बीच हुई तबाही के लिये हाइड्रोपावर बांध का प्रबंधन जिम्मेदार है जिसकी 520 मेगावाट की परियोजना के सभी गेट अचानक खोल दिये गये और लोगों को कोई चेतावनी नहीं दी गई.
तारादेवी कहती हैं, ‘घाटी में हो रहे निर्माण कार्य का सारा मलबा नदी में डाल दिया जाता है. जब (हाइड्रो पावर के) बांध से छोड़ा गया पानी यहां पहुंचा तो गाद से नदी का जलस्तर काफी उठ गया और उससे ये तबाही हुई.’
इस संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में बांधों द्वारा अचानक पानी छोड़े जाने और सड़कों के अवैज्ञानिक तरीके हुए निर्माण को लेकर सवाल उठते रहे हैं. हमारी इस विशेष सीरीज में पंडोह गांव से की गई इस रिपोर्ट और हाईवे निर्माण पर की गई इस रिपोर्ट में आपको अधिक जानकारी मिलेगी.
आज हिमाचल में 130 से अधिक छोटी-बड़ी बिजली परियोजनायें चालू हैं जो जिनकी कुल बिजली उत्पादन क्षमता 10,800 मेगावाट से अधिक है. सरकार का इरादा 2030 तक राज्य में 1000 से अधिक जलविद्युत परियोजनायें लगाने का है जो कुल 22,000 मेगावाट बिजली क्षमता की होंगी. इसके लिये सतलुज, व्यास, राबी और पार्वती समेत तमाम छोटी-बड़ी नदियों पर बांधों की कतार खड़ी कर दी गई है. हिमाचल सरकार की चालू, निर्माणाधीन और प्रस्तावित परियोजनाओं की कुल क्षमता ही 3800 मेगावाट से ज्यादा है.
राज्य के उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री ने न्यूज़लॉन्ड्री से बांधों से हुई तबाही की बात को माना और कहा कि यह सोचना होगा कि पहाड़ के विकास का मॉडल क्या होना चाहिए. वह कहते हैं कि सतलुज जल विद्युत निगम (एसजेवीएन), नेशनल हाइड्रोइलैक्ट्रिक पावर कॉर्पोरेशन (एनएचपीसी), हिमाचल प्रदेश पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड (एचपीपीसीएल) और भाखड़ा व्यास मैनेजमैंट बोर्ड (बीबीएमबी) समेत कई निजी और सरकारी कंपनियों का बहुत बड़ा कारोबार हिमाचल प्रदेश में है.
उनके मुताबिक, “यह सच है कि इन प्रोजेक्ट से राज्य को बिजली और राजस्व मिलता है लेकिन सवाल भी है कि क्या यह पावर प्रोजेक्ट और रिजरवॉयर और अधिक संख्या में बनने चाहिये? जल विद्युत के लिये बने हिमाचल के बड़े बांधों में आज तक इतना पानी पहले कभी नहीं भरा और जब पानी एक स्तर से अधिक हो गया तो कंपनी वाले या तो अपना डैम बचाते या लोगों को बचाते. उन्होंने अलार्म बजाया और पानी छोड़ दिया. इसमें कई गांव बह गये।”
हिमाचल प्रदेश में काम कर रही संस्था हिमधरा की सह संस्थापक मान्शी आशर निर्माण कार्यों में नियमों की अनदेखी को इस आपदा के लिये जिम्मेदार ठहराती है. उनके मुताबिक हाईवे निर्माण हो या जलविद्युत परियोजनायें पहाड़ों और जंगलों का अंधाधुंध कटान हो रहा है. निर्माण कार्य से निकले मलबे का सही निस्तारण नहीं किया जाता और उसे नदी में फेंक दिया जाता है.
आशर के मुताबिक, “बाढ़ अपने आप में कोई समस्या नहीं है. यह एक प्राकृतिक खतरा जरूर है लेकिन जब आप बहती नदी के रास्ते में रुकावट पैदा करते हैं और सुरक्षा उपायों का पालन और निगरानी नहीं करते हैं तो आपदाएं घटित होती हैं. हम जो विनाशकारी प्रभाव देख रहे हैं वह नदी के रास्ते में रुकावट खड़ी करने, भूमि उपयोग परिवर्तन और नियमों के पालन में कमी के कारण है.”
आशर कहती है कि हिमाचल में बाढ़ कोई पहली बार नहीं हुई लेकिन यह जिस स्तर पर हो रही है वह हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या यह पूरी तरह से एक प्राकृतिक आपदा है या इसकी वजह ये (पनबिजली) बांध भी हैं? मुझे लगता है कि हमें यह स्वीकार करने और मानने की जरूरत है कि ये भले ही घटनाएं जलवायु परिवर्तन के कारण हो रही हों लेकिन विभिन्न नीतिगत खामियों के कारण नुकसान बढ़ गया है.
हाइड्रो पावर कंपनियों ने नुकसान से पल्ला झाड़ा
पूरे प्रदेश में हाइड्रोपावर कंपनियों के जल प्रबंधन को लेकर सवाल उठे हैं. सामाजिक कार्यकर्ता और हिमालय नीति अभियान के गुमान सिंह बताते हैं कि सेंज और आसपास के इलाके में ही 6 बड़ी और करीब 3 दर्जन छोटी और माइक्रो हाइडिल परियोजनायें चल रही हैं. उनके मुताबिक मानसून के वक्त भारी बारिश का अलर्ट होने के बावजूद बांध मैनेजमेंट पानी का नियमन नहीं करता.
वह कहते हैं, “इन हाइड्रो पावर कंपनियों का आपस में कोई तालमेल नहीं है और मानसून के वक्त अधिक बिजली उत्पादन के लालच में आकर बांधों से पानी नहीं निकालते और अचानक बाढ़ के हालात हो जाने पर सभी बांध एक साथ अपने गेट खोल देते हैं जिससे नदियां इतनी तबाही करती हैं.”
इस बारे में पूछे जाने पर एनएचपीसी ने कहा कि इस आपदा में उनकी कोई गलती नहीं है. एनएचपीसी के एक अधिकारी ने न्यूज़लॉन्ड्री से कहा, “हमने (सेंज घाटी में स्थित) पार्वती- 3 पावर स्टेशन को बन्द कर दिया है क्योंकि वहां काफी गाद भर गई है. फिलहाल वहां बिजली उत्पादन नहीं हो रहा.”
स्थानीय लोगों के आरोपों पर इस अधिकारी ने कहा कि कंपनी ने स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर (एसओपी) का पालन किया है.
“एनएचपीसी ने ऐसे हालात के लिए तय नियमों और कार्यप्रणाली के हिसाब से काम किया, हम पानी को बांध के अंदर रोककर नहीं रख सकते हैं. जो भी पानी जमा होता है हमें मैन्युअल के हिसाब से उसे छोड़ना पड़ता है. बहुत सारी जगहें हैं जहां कोई बांध नहीं है और वहां भी तबाही हुई है. इनमें भुंतर, कुल्लू और मनाली समेत कई जगहें शामिल हैं. इसलिये यह कहना ठीक नहीं है कि बांधों वाली जगह ही बर्बादी हुई.”
उधर, कुल्लू जिले के डिप्टी कमिश्नर आशुतोष गर्ग ने कहा कि बांध सुरक्षा कानून में बांधों के संचालन के लिए स्पष्ट प्रावधान हैं और इस पूरी बर्बादी में बांधों की भूमिका की जांच की जा रही है. उन्होंने कहा कि न्यूज़लॉन्ड्री से बातचीत में गर्ग ने कहा, “जब मैंने भी इन गांवों का दौरा किया किया तो लोगों के मन में (हाइड्रो प्रोजेक्ट्स को लेकर) बहुत गुस्सा था.”
गर्ग ने कहा कि जिस तरह से बांधों से पानी छोड़ा गया उसमें यह देखना ज़रूरी है कि क्या उस वक्त स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसिजर का पालन किया गया. उन्होंने कहा, “यह जांच का विषय है और हमने इस पर जांच के आदेश भी दिए हैं और जांच के बाद तथ्य सामने आयेंगे.”
कोई पूर्व चेतावनी प्रणाली नहीं
भारत में नदियों के जल स्तर और उससे होने वाली बाढ़ का पूर्वानुमान करना सेंट्रल वॉटर कमीशन (सीडब्लूसी) का काम है जो जल शक्ति मंत्रालय के तहत काम करता है. लेकिन पिछले एक दशक में सीडब्लूसी ने कई राज्यों में हुई बाढ़ का कोई प्रभावी पूर्वानुमान नहीं किया. साल 2013 में केदारनाथ आपदा- जिसमें 6000 लोग मारे गये थे- के वक्त भी सीडब्लूसी कोई पूर्वानुमान नहीं कर पाई.
पूरे देश में सेंट्रल वॉटर कमीशन के कुल 199 बाढ़ पूर्वानुमान स्टेशन (flood forecasting station) हैं जिनमें 151 नदी का जलस्तर बताने वाले और बाकी 48 पानी का इनफ्लो बताने वाले हैं. महत्वपूर्ण है कि हिमाचल प्रदेश में सीडब्लूसी का कोई स्टेशन नहीं है जो बाढ़ का पूर्वानुमान करे और पूर्व चेतावनी दे.
सेंट्रल वॉटर कमीशन के एक्जिक्यूटिव इंजीनियर प्रकाश चन्द्र ने हिमाचल में कोई मॉनिटरिंग स्टेशन न होने की बात को माना और हमसे कहा कि वहां यह काम (बाढ़ पर नज़र रखना) राज्य के आपदा प्रबंधन का है. जल विद्युत परियोजनाओं के प्रभाव पर लम्बे समय से काम कर रही साउथ एशिया नेटवर्क फॉर डैम रिवर एंड पीपुल (सैनड्रेप) के कॉर्डिनेटर हिमांशु ठक्कर कहते हैं कि बाढ़ पूर्वानुमान या पूर्व चेतावनी के लेकर हमारे देश में बिल्कुल एड-हॉकिज्म यानी चलता है वाला रवैया अपनाया जाता है जबकि इसकी ज़िम्मेदारी राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन कानून (नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट) में तय होनी चाहिए.
ठक्कर ने न्यूज़ल़ॉन्ड्री से कहा, “उत्तराखंड में 2013 की बाढ़ हो या अगले साल 2014 में कश्मीर की बाढ़ या इस साल हिमाचल और अब पंजाब में आई भयानक बाढ़, हर बार सीडब्लूसी ने बाढ़ की कोई पूर्व चेतावनी नहीं दी. हर बार जब उनको (सेंट्रल वॉटर कमीशन से) पूछा जाता है कि ऐसा क्यों हुआ तो वह यही कहते हैं कि यहां पर राज्य सरकार ने हमें फोरकास्टिंग के लिये नहीं पूछा तो हमने नहीं किया.”
ठक्कर यह भी कहते हैं कि सेंट्रल वॉटर कमीशन बाढ़ पूर्वानुमान के लिये सही एजेंसी नहीं है क्योंकि वह बड़े बांधों और जलाशयों को अनुमति देने से लेकर उनके लिये नियम बनाने जैसे कई काम करता है और इनमें से बहुत सारे काम आपस में विरोधाभासी हैं. उनके मुताबिक, “इससे एक कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट पैदा होता है और इसलिये हम मांग करते रहे हैं कि एक पूरी तरह से स्वतंत्र और न्यूट्रल संस्था को बाढ़ पूर्वानुमान और नियम तय करने की जिम्मेदारी दी जाए.”