विद्यार्थी हों या व्यापारी, पत्रकार हों या नौकरीपेशा नेटवर्क की तलाश में ये लोग पहाड़ की चोटी से घाटी तक भटक रहे हैं.
''मैं अपने पहले बच्चे की किलकारी तक नहीं सुन सका. मैं काफी भावुक था. किसी इंसान के जीवन में अगर कुछ बहुत बुरा हो सकता है तो ये वैसा ही कुछ था.'' मणिपुर के चूड़ाचांदपुर में रहने वाले पुमसुआनलाल सामते ने न्यूज़लॉन्ड्री को अपना दर्द बताते हुए कहा. वे 13 मई को पहली बार पिता बने.
सामते बेंगलुरु की एक बीपीओ कंपनी के कर्मचारी हैं. आमतौर पर वे घर से ही काम करते हैं, लेकिन उन्हें अपनी नौकरी बचाने के लिए एक जोखिम भरा सफर करना पड़ा.
दरअसल, सामते अमेरिकी क्लाइंट को मोबाइल फोन और ब्रॉडबैंड सेवाएं मुहैया कराते हैं. लेकिन 3 मई को जातीय संघर्ष की वजह से पूरे मणिपुर में मोबाइल और ब्रॉडबैंड सेवाएं बंद कर दी गईं.
इसके बाद सामते और उनके दो दोस्त इंटरनेट के लिए चूड़ाचांदपुर से मिजोरम के सीमावर्ती गांव नगोपा की ओर चले गए, ताकि वहां से वे कंपनी का काम कर सकें. इसी बीच सामते के बेटे का जन्म हुआ.
सामते अकेले ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जो इंटरनेट की तलाश में मिजोरम या बाकी राज्यों की ओर गए. मणिपुर के पहाड़ी इलाकों के छात्रों, पेशेवरों और अन्य लोगों ने भी पढ़ाई करने, नौकरी बचाए रखने या भविष्य को बेहतर बनाने की आस में इससे भी कठिन प्रयास किए हैं.
25 जुलाई को मणिपुर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद राज्य में ब्रॉडबैंड सेवाएं बहाल कर दी गईं, लेकिन 100 दिनों के बाद भी मोबाइल इंटरनेट सेवा ठप है. भारत दुनिया की ‘इंटरनेट शटडाउन राजधानी’ बन चुका है. जम्मू और कश्मीर के बाद मणिपुर एकमात्र ऐसा राज्य है, जिसने 100 दिनों तक इंटरनेट ब्लैकआउट का अनुभव किया है.
इस दौरान मैती और कुकी-ज़ो समुदायों के बीच जातीय संघर्ष की वजह से अब तक 160 से अधिक लोगों की जान चली गई है. हर रोज़ घरों में आग लगा दी जाती है. हथियारों से लैस समूहों को अंडरग्राउंड ग्रुप और सरकारी मशीनरी से मदद मिलती है, जिससे और मौते होती हैं. घाटी में रहने वाले ज़्यादातर कुकी पहाड़ी पर चले गए हैं, जबकि जो मैती पहाड़ियों पर रहते थे वे घाटी में चले गए.
लेकिन इस अविश्वास के बीच डिजिटल ब्लैकआउट को लेकर दोनों समुदाय एकमत हैं. छात्र, पेशेवर, व्यवसायी, सोशल मीडिया इंफ्लूएंसर और लगभग हर कोई फिर से इंटनेट सेवाओं को बहाल करने के पक्ष में है.
जैसे कि सामते, जो अपने बच्चे से मिलने और उसे अपने गोद में उठाने के लिए चूड़ाचांदपुर लौट आए. उन्होंने कहा, ''मुझे रोना आ रहा था.'' कुछ दिनों के बाद वह नगोपा चले गए, लेकिन इस बार अपनी पत्नी और सात दिन के बेटे को साथ ले गए. उन्होंने अपने बच्चे का नाम खैलेलबेल रखा है.
उन्होंने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, "सफर जोखिम भरा था क्योंकि मेरी पत्नी सिजे़रियन (शिशु के जन्म के दौरान की जाने वाली सर्जरी) से उबर रही थी और सड़क भी अच्छी नहीं थी. लेकिन ये जरूरी था ताकि मैं अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकूं."
सामते अपने ऑफिस के दोस्त के साथ दो महीने तक मिजोरम में रुके. वहां रहने के लिए उन्हें 50 हजार रुपये खर्च करने पड़े ताकि उनकी नौकरी पर असर न पड़े और वे इसे बरकरार रख सकें. वे 31 जुलाई को ही घर लौटे. सामते ने बताया कि उनके पांच या छह सहकर्मी आइजोल में रह गए हैं क्योंकि पहाड़ी इलाकों की ब्रॉडबैंड सेवाओं पर भरोसा नहीं किया जा सकता है.
डिजिटल ब्लैकआउट में एक रोशनी
डिजिटल सुविधाओं के अभाव में कुछ लोगों ने एक रोशनी तलाश ली है. चुड़ाचांदपुर में ही एक पहाड़ की चोटी पर बसे छोटे से गांव में जून के बाद से हर रोज कम से कम 100 लोग आते थे. म्यांमार सीमा से सटे होने के कारण इस गांव कभी-कभार नेटवर्क आ जाता है. बहुत थोड़े समय के नेटवर्क के लिए लोग इस पहाड़ी पर 20 मिनट की चढ़ाई करते हैं.
पहाड़ी की चोटी पर इंटरनेट के ‘ब्राइट स्पॉट’ ने कई लोगों को अंचभित कर दिया है. एक व्यक्ति के मुताबिक, इस गांव में नेटवर्क आने की ख़बर जंगल की आग की तरह फैलने लगी और चूड़ाचांदपुर शहर और गांव के बीच सड़क पर लोगों का तांता लग गया.
एक स्वतंत्र पत्रकार ने बताया कि 25 जुलाई को ब्रॉडबैंड सेवाएं बहाल होने के बाद से यहां आने वाले लोगों की संख्या में कमी आई है. अब यहां रोज करीब 20 लोग आते हैं.
कई लोगों ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि उन्होंने इंटरनेट चालू रखने के लिए 'हैक' यानी जुगाड़ लगाया. मिसाल के तौर पर, किसी दोस्त को स्मार्टफोन के साथ पहाड़ी पर भेजा जाता है. पहाड़ी से उतरने से पहले फोन की लोकेशन बंद कर उसे रोमिंग मोड में डाल दिया जाता है. इस तरह फोन में तीन दिन से लेकर दो सप्ताह तक के लिए इंटरनेट चल जाता है. हालांकि, यह तरीका हमेशा काम नहीं करता.
स्वतंत्र पत्रकार कहते हैं, "यह पूरी तरह किस्मत पर निर्भर करता है."
उन्होंने खुद पहाड़ी की चोटी के पांच चक्कर लगाए हैं और सिर्फ दो बार "भाग्यशाली" साबित हुए. हर बार उन्हें कुछ दिनों के लिए इंटरनेट मिला.
मोबाइल सर्विस प्रोवाइडर के तौर पर काम करने वाली एक महिला ने बताया कि उन्हें अपने ग्राहकों के सिम कार्ड को एक्टिवेट करने के लिए दो बार जाना पड़ा. वो 15 जुलाई और 22 जुलाई को पहाड़ की चोटी पर गई थीं.
वो कहती हैं, "मेरा फोन एक सप्ताह तक काम करता रहा."
मेडिकल स्टोर में काम करने वाले एक व्यक्ति हंसते हुए बताते हैं, "मैंने अपने दोस्त के जरिए दो बार फोन को पहाड़ी पर भेजा था, लेकिन दोनों बार निराश होना पड़ा."
न्यूज़लॉन्ड्री को घाटी और पहाड़ियों में कुछ इंटरनेट कैफे भी मिले जो बाकी राज्यों के सर्वर के इस्तेमाल से इंटरनेट प्रतिबंध को बायपास करने में कामयाब रहे हैं. एक कैफे के मालिक ने कहा, "हमने लोगों से पैसा नहीं लिया क्योंकि हम समुदाय के लिए काम कर रहे थे."
चूड़ाचांदपुर के एक दूसरे कैफे के मालिक ने कहा कि वह लोगों को सोशल मीडिया के लिए इंटरनेट के इस्तेमाल की इजाजत नहीं देते हैं. वो कहते हैं, "डॉक्टर या नर्स मेडिकल दस्तावेज ऑनलाइन साझा कर सकेंगे. छात्र नौकरियों के लिए फॉर्म भर सकेंगे. वर्क फ्रॉम होम प्रोफेशनल्स भी काम कर सकेंगे. हमने हाल ही में वर्क फ्रॉम होम पेशे के लोगों के लिए एक अलग जगह तैयार कीय है, क्योंकि यह जगह काफी छोटी है."
कैफ़े के संचालक ने बताया कि इसके बदले वह 50 रुपये प्रतिघंटा तक चार्ज करते हैं.
लेकिन कई लोगों के लिए एकमात्र रास्ता मणिपुर छोड़ना था.
दूसरे राज्यों में जाना पड़ा
चुंग नुंग निहसियाल और उनके चार सहयोगी 1 जून को आइजोल चले गए. चुंग और उनके साथी चेन्नई स्थित बीपीओ कंपनी के लिए पार्ट टाइम नौकरी करते हैं. आइजोल जाने के लिए हरेक ने दो हजार रुपये खर्च किए. हर रोज उनका काम सिर्फ चार घंटे का होता है, लेकिन वे अपनी नौकरी को बचाने के लिए ये सब कर रहे हैं. वे अपनी नौकरी खोना नहीं चाहते हैं.
नीहसियाल, ऑटो इंश्योरेन्स के लिए अमेरिकी ग्राहकों के दस्तावेजों को तैयार करते हैं. फिलहाल वो आइजोल में एक पीजी में रह रहे हैं. इसके लिए उन्हें हर महीने 6000 रुपये का भुगतान करना होता है. उन्होंने कहा, "मेरा वेतन मेरे खर्चों के लिए काफी नहीं है. इसलिए मुझे अपने घरवालों से पैसे लेने की जरूरत पड़ती है."
उनके पिता एक पादरी हैं. नीहसियाल की योजना थी कि वो खाली वक़्त में सरकारी नौकरी की तैयारी करेंगे.
निहसियाल ने बताया कि इंटरनेट बैन के कारण उनके कम से कम 60 सहयोगी मणिपुर से बाहर चले गए. वो कहते हैं, "उनमें से कुछ ने अपनी नौकरी गवां दी क्योंकि वे शादीशुदा हैं और अपने परिवार को नहीं छोड़ सकते. जबकि काम बिना किसी के रुकावट के होते चलते रहना चाहिए."
निहसियाल आगे कहते हैं, "मेरे जैसे बैचलर्स लोग फिलहाल बाहर चले गए हैं. आइजोल के अलावा, शिलांग, गुवाहाटी, पुणे और दिल्ली से भी लोग काम कर रहे हैं."
एक निजी बीमा कंपनी की टीम लीडर एलिजाबेथ फेलेनेइलम ने भी अपनी नौकरी बचाने के लिए सामान पैक किया और मई के आखिरी सप्ताह में चूड़ाचांदपुर से मिजोरम के खॉकॉन चली गईं.
खॉकॉन और नगोपा चुराचांदपुर के सबसे नज़दीकी गांव हैं जो मिजोरम में हैं. एलिज़ाबेथ को अपने बीमार माता-पिता को अकेले छोड़ना पड़ा. एलिजाबेथ कहती हैं, "मैं खॉकॉन में केवल एक दिन रुकी क्योंकि वहां इंटरनेट की स्पीड अच्छी नहीं थी. वहां से मैं आइजोल चली गई. मैंने वहां किराए, खानपान और इंटरनेट पर लगभग 1 लाख रुपये खर्च किए. वहां मेरी कोई बचत नहीं थी."
एलिजाबेथ ने आइजोल में किराए का मकान ढूंढने में बिचौलिये को 16 हजार रुपये दिए. बिचौलिये ने घर दिखाने के एवज में 2000 रुपये प्रति घर के हिसाब से कई घर दिखाए.
एलिजाबेथ हाल ही में चूड़ाचांदपुर लौटी हैं. ब्रॉडबैंड सेवाएं बहाल होने से पहले तक वह एक इंटरनेट कैफे से काम करती थीं, जहां "स्पीड बहुत धीमी थी" इस वजह से काम करना मुश्किल हो जाता था.
उन्होंने न्यूज़लॉन्ड्री को कहा, "अगर कोई मेरी समस्या सुन रहा है, तो मैं चाहती हूं कि इंटरनेट सेवाएं जल्द से जल्द फिर से शुरू हो जाएं."
4 अगस्त को चूड़ाचांदपुर बाजार में जियो स्टोर सबसे ज़्यादा भीड़ वाला स्टोर था. लोग सरकारी "शपथपत्र" और अपने पहचान पत्रों की फोटोकॉपी के साथ कतार में खड़े थे.
यह "शपथपत्र" राज्य में ब्रॉडबैंड सेवाओं को फिर से शुरू करने के लिए एक शर्त है. यूजर्स को इस पर हस्ताक्षर करना होगा, यह वादा करते हुए कि वे अफवाहें नहीं फैलाएंगे, वीपीएन का उपयोग नहीं करेंगे और आवश्यकता पड़ने पर अधिकारियों द्वारा "निगरानी" में मदद करेंगे.
जियो शॉप को 2 अगस्त तक सेवाएं फिर से शुरू करने के लिए 1,600 आवेदन मिले हैं. स्टोर के एक कर्मचारी ने बताया, "लोगों का कनेक्शन बहाल होना शुरू हो गया है." हालांकि, स्टोर के कर्मचारी को ये नहीं पता कि अब तक कितने आवेदन स्वीकार किए गए हैं.
अस्थायी इंटरनेट व्यवस्था
इंफाल की राजधानी में पत्रकारों और पब्लिक के लिए इंटरनेट के इस्तेमाल के लिए कुछ जगहें तय की गईं हैं. 22 मई के दिन राज्य सरकार ने इंफाल में राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान को इंटरनेट की सुविधाएं मुहैया कराई. यहां कोई भी व्यक्ति दो घंटे के लिए 100 रुपये, चार घंटे के लिए 150 रुपये और आठ घंटे के लिए 200 रुपये देकर लॉग इन कर सकता है.
संस्थान में दो ब्लॉक इंटरनेट सेवाओं के लिए आरक्षित किए गए थे. एक ब्लॉक को थोड़े वक़्त के इस्तेमाल के लिए तो वहीं दूसरे ब्लॉक को ज़्यादा देर तक इंटरनेट इस्तेमाल करने के नज़रिए से तैयार किया गया है, ये सुविधा 10 कमरों में दी गई है.
अगस्त से पहले यहां लोगों को इंटरनेट के लिए 1 से 2 घंटे तक का इंतजार करना पड़ता था.
जून में ये संस्थान एक परीक्षा केंद्र जैसा लग रहा था. संस्थान के नए ब्लॉक के बाहर लोगों की कतारें थीं. युवा फार्म भर रहे थे. वे अपने आधार कार्ड की कॉपी जमा कर इंटरनेट सेवाओं के लिए भुगतान कर रहे थे.
संस्थान के फैकल्टी मेंबर्स का अनुमान है कि यहां हर रोज 500 लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं. औसतन 300 लोग हर रोज यहां अपने इंटरनेट से जुड़े जरूरी काम के सिलसिले में आते हैं. फैकल्टी मेंबर के.एच दिलीप कहते हैं, "जब से ब्रॉडबैंड सेवा दोबारा शुरू हुई है, यहां इंटरनेट यूजर्स की संख्या में 90 प्रतिशत की कमी आई है."
7 अगस्त को जब न्यूज़लॉन्ड्री वहां पहुंचा तो हमने 10 नौजवानों को उनके मोबाइल फोन पर कुछ करते हुए देखा. कुछ लोग यूट्यूब से स्टडी मैटिरियल और एजुटेक वेबसाइटों से ट्यूटोरियल डाउनलोड कर रहे थे. वहीं, कुछ लोग शेयर बाजार की उतार-चढ़ाव पर नजर बनाए हुए थे. उनमें से कुछ सरकारी नौकरियों के लिए फॉर्म भर रहे थे.
लेकिन सबसे जरूरी बात ये कि इंफाल के उलट चूड़ाचांदपुर में पत्रकारों और आम जनता के लिए इंटरनेट सुविधा मुहैया कराने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया. इसलिए पहाड़ी इलाकों में जिन छात्रों ने संघर्ष में हथियार नहीं उठाए हैं, वे सरकारी नौकरियों की तैयारी को जारी रखने के लिए आइजोल जा रहे हैं.
ऐसे ही एक छात्र सिआमिनलियन ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि उन्होंने आइजोल पहुंचने के लिए मई की शुरुआत में 14 दिनों तक का सफर किया. वह अब चूड़ाचांदपुर के पांच छात्रों के साथ पीजी में रहते हैं.
सिआमिनलियन कहते हैं, "मैं खुद को भाग्यशाली मानता हूं कि मेरे माता-पिता मेरी आर्थिक मदद कर सकते हैं और किराए और बाकी खर्चों के लिए हर महीने 10,000 रुपये भेजते हैं. पढ़ाई करने वाले बाकी छात्र इतने भाग्यशाली नहीं हैं. कुछ ऐसे भी हैं जो यहां बीपीओ में काम करते हैं. उन्हें हर महीने केवल 8,000 रुपये मिलते हैं, जो कि मेरे पिता द्वारा मिलने वाले खर्च से भी कम है."
ऑनलाइन क्लासेज को लेकर छात्रों में असमंजस की स्थिति बनी हुई है.
इंफाल के जवाहरलाल नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज और रीजनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (रिम्स) को छोड़ कर कुकी-ज़ो छात्र चूड़ाचांदपुर मेडिकल कॉलेज के गर्ल्स हॉस्टल में रह रही हैं. चूड़ाचांदपुर मेडिकल कॉलेज केवल आठ महीने पुराना है. यहां सीनियर छात्रों के लिए कोई इंफ्रास्टक्चर नहीं है. रिम्स ने 22 मई से 4 जुलाई तक ऑनलाइन क्लासेज का इंतजाम किया था लेकिन जेएनआईएमएस ने ऐसा नहीं किया.
एक कुकी छात्र ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि रिम्स में ऑनलाइन क्लासेज "केवल दूसरे राज्यों के छात्रों के लिए आयोजित की गई थी."
पहाड़ी और घाटी के बीच का मीडिया
चूड़ाचांदपुर में इंटरनेट के अभाव का असर पत्रकारों पर भी पड़ा. चूड़ाचांदपुर जिला पत्रकार संघ के अध्यक्ष एस नेंगखानलुन ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि जिला सूचना कार्यालय में केवल एक दिन (20 मई) के लिए इंटरनेट बहाल किया गया था. नेंगखानलुन बताते हैं कि पत्रकारों को इंटरनेट सुविधा देने की उनकी मांग को दरकिनार कर दिया गया.
ब्रॉडबैंड सेवाओं के दोबारा बहाल होने से पहले मणिपुर के गृह विभाग ने बैंकों, ऑडिटर्स, चिकित्सा संस्थानों और मीडिया हाउसों सहित जरूरी सेवाओं के लिए इंटरनेट लाइसेंस जारी किए थे.
इसके लिए आवेदकों को गृह विभाग को ‘शपथपत्र’ देना था. पहाड़ी इलाकों के आवेदन उपायुक्त और सूचना एवं जनसंपर्क निदेशालय के जरिए भेजे गए.
ज़ोगम टुडे अखबार के संपादक नेंगखानलुन ने कहा कि उन्होंने जिले में पत्रकारों के लिए और अपने स्वयं के अखबार के लिए एक कॉमन स्पेस हेतू दो आवेदन दिए हैं. उन्होंने बताया कि दोनों आवेदनों को मंजूरी नहीं दी गई. नेंगखानलुन पहाड़ी इलाकों में पत्रकारों के साथ भेदभाव के आरोप लगाते हैं.
वो कहते हैं, "चूड़ाचांदपुर में 10 मीडिया हाउस हैं. उनमें से किसी को भी 25 जुलाई से पहले इंटरनेट कनेक्शन नहीं दिया गया था." मणिपुर के गृह विभाग के आयुक्त रणजीत सिंह ने न्यूज़लॉन्ड्री को यह बताने से इंकार कर दिया कि उनके विभाग ने कितने आवेदनों को मंजूरी दी है.
नेंगखानलुन ने कहा, "आज इंटरनेट के बिना एक पत्रकार बगैर ‘हथियार’ का सिपाही है. हम केवल स्थानीय समाचारों पर भरोसा नहीं कर सकते. कभी-कभी हमें अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय खबरों पर भी नज़र डालने की जरूरत होती है. उसके लिए भी इंटरनेट ज़रूरी है."
इंटरनेट प्रतिबंध हटाने के लिए मणिपुर उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने वालों में से एक पत्रकार पाओजेल चाओबा ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि पत्रकारों के लिए "सच और झूठ के बीच अंतर करना" मुश्किल हो गया था.
फ्रंटियर मणिपुर के कार्यकारी संपादक चाओबा ने एक उदाहरण देकर बताया, "ऐसी बहुत सी अफवाहें थीं कि कई मैती महिलाओं के साथ छेड़छाड़ की गई. बगैर किसी संचार साधन के पत्रकार पुष्टि कैसे करेंगे?"
इसके अलावा 17 मई को घाटी में स्थित ऑल मणिपुर वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन ने मणिपुर प्रेस क्लब में इंटरनेट सेवाओं को फिर से बहाल करने के लेकर गृह आयुक्त को चिट्ठी लिखी. यूनियन के महासचिव अथोकपम जितेन सिंह ने बताया कि 15 दिन बाद इंटरनेट बहाल कर दिया गया. उन्होंने यह भी कहा कि 25 जुलाई से पहले घाटी में स्थित सभी मीडिया हाउस की इंटरनेट सेवाएं शुरू कर दी गईं.
ध्यान देने की बात ये है कि ज्यादातर न्यूज़पेपर और टीवी चैनल इंफाल घाटी में स्थित हैं. इनके मालिक मैती समुदाय के लोग हैं.
रुकी हुई ज़िंदगियां
लगातार बाजारों के बंद होने और कर्फ्यू की वजह से पहाड़ी और घाटी के इलाकों में व्यापारिक समुदाय असहज महसूस कर रहे हैं. इंटरनेट पर प्रतिबंध ने स्थिति को और भी बदतर कर दिया है. न्यूज़लॉन्ड्री को बताया गया कि बाजार की कुल बिक्री में डिजिटल भुगतान की 30 से 50 प्रतिशत तक की भागीदारी है.
चूड़ाचांदपुर में मारवाड़ी एसोसिएशन के अध्यक्ष प्रवीण कुमार शर्मा ने कहा, "यहां अगर कोई 5 रुपये का भी कुछ खरीदता है, तो वह डिजिटली भुगतान करता है."
वो कहते हैं, "इंटरनेट न होने से यह पैसा बर्बाद हो गया है. इंटरनेट के अभाव में हम उत्पादों के सैंपल की जांच भी नहीं कर पा रहे हैं. ऐसे हालात में आपूर्तिकर्ता हमें घटिया सामान भेज देते हैं."
इंफाल स्थित टैक्स कंसल्टेंट आदित्य शर्मा को जुलाई के पहले सप्ताह में ब्रॉडबैंड सेवाओं के लिए गृह विभाग की मंजूरी मिल गई, लेकिन इसके लिए उन्हें एक तिमाही में 20,650 रुपये देने पड़े. वो कहते हैं, "सामान्य दिनों में इतना पैसा एक साल से ज्यादा समय के ब्रॉडबैंड सर्विस के लिए काफी था."
फिलहाल वह काम के बोझ और वक्त की कमी से जूझ रहे हैं. वह अपने क्लाइंटस को जुर्माने से बचाने के लिए उनके डायरेक्ट और इनडायरेक्ट टैक्स रिटर्न समय पर दाखिल करना चाहते हैं. उन्होंने बताया, "इंटरनेट प्रतिबंध के बावजूद 31 जुलाई की आईटी रिटर्न भरने की समय सीमा नहीं बढ़ाई गई."
घाटी के दो व्यवसायियों ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि जीएसटी दाखिल करने में देरी की वजह से उन्हें जुर्माना भरना पड़ सकता है.
सोशल मीडिया इंफ्लूएंसर्स को भी झटका लगा है. जॉर्ज एके नेहसियाल चूड़ाचांदपुर में एक डांस अकादमी चलाते हैं और वीडियो एडिटिंग सिखाते हैं. उनके यूट्यूब चैनल ‘एके ड्रीमवर्क्स’ के 63,000 सब्सक्राइबर्स हैं. वो कहते हैं, "ज्यादातर बिजनेस या क्लाइंट मेरे काम को देखकर सोशल मीडिया अकाउंट के जरिए संपर्क करते हैं. इंटरनेट बंद होने के बाद से हमने कुछ भी अपलोड नहीं किया है. मेरा मानना है कि डांस वीडियो अपलोड के लिए ये समय अनुकूल नहीं है."
जॉर्ज को वित्तीय संकट से निपटने के लिए लेटेस्ट टेक्नॉलॉजी से लैस तीन कंप्यूटर बेचने पड़े.
प्रतिबंध हटना चाहिए या नहीं ?
तमाम मतभेदों के बावजूद कुकी-ज़ो और मैती समुदाय इस बात पर सहमत हैं कि इंटरनेट प्रतिबंध हटा दिया जाए, लेकिन कुछ लोग इस विचार से इत्तेफाक नहीं रखते हैं. उनका मानना है कि इंटरनेट प्रतिबंध की वजह से फर्जी खबरों को फैलने से रोका गया है.
पहाड़ी इलाके में छात्रों और पेशेवरों ने इस बात पर जोर दिया कि इंटरनेट पर लगे प्रतिबंध की स्थिति में सरकार को ऐसी जगहें देनी चाहिए जहां जाकर वे काम कर सकें. एलिजाबेथ फेलेनेइलम कहती हैं, “कुछ दिन पहले कांगवाई में झगड़ा हुआ था. क्या प्रतिबंध के कारण लड़ाई रुक गई? नहीं... मैं चाहती हूं कि सरकार इंटरनेट सेवाएं फिर से शुरू करे.”
मिजोरम में पढ़ने वाले छात्र सिआमिनलियान एलिजाबेथ की बातों का समर्थन करते हैं.
वह कहते हैं, ''ऐसा क्या है जो सरकार छुपा रही है? क्या इंटरनेट पर प्रतिबंध लगाकर वह सच को दबा सकती है? इंटरनेट बैन के पीछे सरकार की अपनी वजहें हो सकती हैं. लेकिन बंद के बावजूद हथियारों को लूटा जा रहा है. सरकार को दोनों समुदायों से बातचीत शुरू करनी चाहिए. प्रतिबंध कोई समाधान नहीं है.''
इंफाल में सरकारी नौकरियों की तैयारी कर रही छात्रा धनलक्ष्मी देवी ने कहा, ''प्रतिबंध से कुछ हद तक मदद मिल सकती है. लेकिन इसका असर छात्रों पर ज्यादा पड़ा है. सरकार फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर प्रतिबंध लगा सकती है, लेकिन पूरे इंटरनेट पर नहीं.''
सरकारें अक्सर दावा करती हैं कि इंटरनेट प्रतिबंध अफवाहों और फर्जी खबरों को रोकता है और सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखता है. यह सच नहीं है और इससे हिंसा को और भी ज्यादा बढ़ावा मिल सकता है. प्रतिबंध के कारण राज्य की ख़बरें बाहर तक नहीं पहुंच पाती हैं.
कुकी-ज़ो के इंडिजिनस ट्राइबल लीडर्स फ़ोरम और मैती की मणिपुर इंटेग्रिटी समन्वय समिति जैसे नागरिक समाज संगठन भी चाहते हैं कि इंटरनेट बहाल हो. कोकोमी के सहायक समन्वयक लोंगजाम रतनकुमार ने कहा कि ये प्रतिबंध लोगों के सूचना के अधिकार का उल्लंघन करता है.
वो कहते हैं, ''इंटरनेट पर प्रतिबंध लगाना व्यवस्था बनाए रखने के लिए विकल्प नहीं होना चाहिए. लेकिन कुछ हद तक पुलिस को संघर्ष को रोकने में अच्छे परिणाम मिले हैं. लेकिन उन्हें प्रतिबंध का विकल्प ढूंढना होगा ताकि सूचना का अधिकार न दब जाए.''
आईटीएलएफ के प्रवक्ता गीज़ा वुअलज़ोंग ने कहा कि प्रतिबंध से न तो हिंसा कम हुई है और न ही रुकी है.
हालांकि, उनका मानना है कि प्रतिबंध से कुछ हद तक ''कानून-व्यवस्था बनाने में मदद मिल सकती है. लेकिन अब तक प्रशासन ने हिंसा रोकने के लिए कुछ नहीं किया है.''