बॉम्बे हाईकोर्ट से जमानत याचिका खारिज होने के बाद इन्होंने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था.
भीमा- कोरेगांव हिंसा मामले में आरोपी वर्नन गोंजाल्विज़ और अरुण फेरेरा को शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने सशर्त जमानत दे दी है. इन्हें पांच साल पहले, वर्ष 2018 में जातीय हिंसा भड़काने और प्रतिबंधित भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (माओवादी) के साथ कथित संबंध के आरोप में गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत गिरफ्तार किया गया था.
गौरतलब है कि दोनों की जमानत याचिका को दिसंबर, 2021 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया था. इसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी. जहां पर न्यायाधीश अनिरुद्ध बोस और न्यायाधीश सुधांशु धुलिया की बेंच ने 3 मार्च को फैसला सुरक्षित रख लिया था. इसी मामले में आज फैसला सुनाया गया.
इन शर्तों पर मिली जमानत-
लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक, दोनों ही आरोपियों को कुछ शर्तों पर ये जमानत मिली है.
1. आरोपी बिना कोर्ट की अनुमति के महाराष्ट्र छोड़कर नहीं जा सकते.
2. आरोपियों को अपना पासपोर्ट राष्ट्रीय जांच एजेंसी को जमा करना होगा और जांच अधिकारी को अपना वर्तमान पता एवं संपर्क देना होगा.
3. जमानत अवधि के दौरान उन्हें सिर्फ एक फोन के इस्तेमाल की इजाजत है.
4. यह फोन हमेशा चालू रहना चाहिए और उसकी लोकेशन ऑन रहनी चाहिए ताकि जांच अधिकारी उनपर नज़र बनाए रख सकें.
5. आरोपियों को सप्ताह में एक बार जांच अधिकारी के समक्ष पेश होना होगा.
भीमा-कोरेगांव हिंसा का मामला
साल 2018 में 1 जनवरी को भीमा-कोरेगांव में विजय दिवस की 200वीं वर्षगांठ मनाने के लिए लाखों लोग यहां इकट्ठा हुए थे, लेकिन इस दौरान हिंसा भड़क गई और एक शख्स की मौत भी हो गई थी.
हिंसा के बाद 2 जनवरी 2018 को हिंदुत्वादी नेताओं संभाजी भिड़े, मिलिंद एकबोटे एवं अन्य लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई.
इसके बाद, 8 जनवरी 2018 को पुणे के विश्रामबाग में एक और एफआईआर दर्ज की गई. इसमें कहा गया कि एल्गार परिषद के भाषण की वहज से हिंसा भड़की थी. इसके बाद देश भर से सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी शुरू हो गई. इन्हीं लोगों में वर्नन गोंजाल्विज़ और अरुण फरेरा भी शामिल हैं.
गौरतलब है कि हिंसा के एक दिन पहले 31 दिसंबर 2017 को एल्गार परिषद का आयोजन किया गया था. इसमें प्रकाश आंबेडकर, जिग्नेश मेवाणी, उमर खालिद, सोनी सोरी और बीजी कोलसे पाटिल सहित कई लोगों ने हिस्सा लिया था.
भीमा-कोरेगांव का इतिहास
मालूम हो कि साल 1818 में ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठाओं के बीच युद्ध हुआ था. इसमें पुणे के महार समुदाय के योद्धा मराठाओं के खिलाफ ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए लड़ाई लड़े थे. इसकी वजह महारों के साथ मराठाओं द्वारा किया जाने वाला जातीय भेदभाव बताया जाता है.
युद्ध में महारों की मदद से अंग्रेज़, मराठाओं को हराने में सफल हुए. तब पुणे के भीमा-कोरेगांव में महारों की स्मृति में एक विजय स्तंभ का निर्माण किया गया था. तभी से पुणे के महार जाति के लोग लड़ाई में मारे गए पूर्वोजों को श्रद्धांजलि देने और उनकी बहादुरी को याद करने के लिए हर साल यहां इकट्ठा होकर विजय दिवस मनाते हैं.