तीन साल बाद कहां पहुंचा कोरेगांव-भीमा मामले में गिरफ्तार मानवाधिकार कर्मियों का मामला.
गड़बड़ी नंबर- 9
कानूनन जिस मामले में यूएपीए (अनलॉफुल एक्टिविटीज़ एंड प्रिवेंशन एक्ट) की धारा लग जाती है उस मामले कि सुनवाई विशेष अदालत में, विशेष प्रकिया के मद्देनज़र की जाती है. अगर विशेष अदालत ना हो तब मामले की सुनवाई सामान्य अदालत में सामान्य कार्यप्रणाली से की जाती है. लेकिन कोरेगांव-भीमा के मामले में पुणे में एनआईए की विशेष अदालत होने के बावजूद भी यह मुकदमा सेशन कोर्ट (सत्र न्यायालय) में चलाया गया और वही आरोपपत्र (चार्जशीट) दाखिल किया गया.
गौरतलब है कि सीधे-सीधे सेशन कोर्ट में आरोपपत्र को दाखिल करने को लेकर कानून में मनाही है, इसके बावजूद भी इस मामले में आरोपपत्र को सीधे सेशन कोर्ट में दाखिल कर दिया गया. अगर कानूनी प्रक्रिया से देखा जाए तो आरोपपत्र अधूरा है, क्योंकि दो साल बाद भी अभी तक आरोपियों को हार्डडिस्क व अन्य ज़ब्त किये गए उपकारणों की मिरर इमेज नहीं दी गयी है.
गड़बड़ी नंबर- 10
इस मामले में आरोपपत्र दायर करने की अवधि को बढ़ाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने पुणे की अदालत को फटकार लगायी थी. जब इस मामले में 90 दिन तक आरोपपत्र दाखिल नहीं हुआ था तो अवधि को 90 दिन और बढ़ाने के लिए अभियोजन पक्ष के वकील ने आवेदन किया था. आवेदन शुक्रवार को दाखिल किया गया था और आरोपियों को जेल में उसी दिन बताया गया कि अगले दिन शनिवार को उन्हें अदालत में अवधि बढ़ाने की सुनवाई के लिए पेश होना है. स्वाभाविक है कि जेल से अरोपी अपने वकीलो तक इस बाद की सूचना नहीं पहुंचा सकते थे और पुलिस की तरफ से भी आरोपियों के वकीलों को सूचित नहीं किया गया था. शनिवार को जब गिरफ्तार लोगों को अदालत में पेश किया गया तो उन्होंने अभियोजन कि इस जल्दबाज़ी का विरोध जताते हुए 2-3 दिन की मोहलत मांगी थी ताकि वे अपने वकीलों को इत्तेला कर सकें, लेकिन उसके बावजूद विशेष सुनवाई अगले दिन रविवार को ही कर दी गयी.
गड़बड़ी नंबर- 11
14 अप्रैल, 2019 को इस मामले में गौतम नवलखा ने एनआईए (नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी) के सामने आत्मसमर्पण किया था. उन्हें उस वक़्त तिहाड़ जेल में रखा गया था और उसी दौरान उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट में ज़मानत के लिए याचिका दायर की थी. जिस दिन उनकी जमानत की सुनवाई होने वाली थी उसके एक दिन पहले बिना अदालत की इजाजत लिए उन्हें तिहाड़ जेल से निकालकर मुंबई ले जाया गया. पुलिस की इस हरकत पर हाईकोर्ट ने फटकार लगाते हुए उनसे जवाब भी तलब किया था.
गड़बड़ी नंबर- 12
पुणे पुलिस ने आनंद तेलतुंबड़े को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए चार हफ़्तों के सरंक्षण के बावजूद भी गिरफ्तार कर लिया था. हालांकि बाद में पुणे सेशन कोर्ट ने उनकी रिहाई को गैरकानूनी करार देते हुए उनकी तुरंत रिहाई के आदेश दिए थे.
गड़बड़ी नंबर- 13
इस मामले को जिस तरह से एनआईए को सौपा गया है वह भी कई सवाल खड़े करता है. गौरतलब हैं कि यूएपीए का मामला दर्ज होने पर राज्य सरकार को पांच दिन के भीतर केंद्र सरकार को सूचित करना होता है. फिर केंद्र सरकार 15 दिन के भीतर उस पर निर्णय लेकर राज्य सरकार को बताती है कि जांच राज्य पुलिस करेगी या एनआईए. अगर सरकार 15 दिन में जवाब नहीं देती है तो मामला अपने आप राज्य सरकार के पास चला जाता है.
एक बार जांच राज्य पुलिस के पास जाने के बाद उसे दोबारा नहीं लिया जा सकता. असल में साल 2019 में एनआईए पुणे पुलिस द्वारा की जा रही जांच से संतुष्ट थी और जांच की ज़िम्मेदारी नहीं लेना चाहती थी. लेकिन नवम्बर 2019 में महाराष्ट्र में नयी सरकार बन गई. उसने कोरेगांव-भीमा की जांच को संदेहास्पद बताते हुए सवाल उठाये. तब अचानक से इस मामले की जांच गृह मंत्रालय ने पुणे पुलिस से लेकर एनआईए को सौंप दी.
गड़बड़ी नंबर- 14
बड़े-बड़े अपराधियों को उनके रिश्तेदारों की शादियों में शरीक होने के लिए ज़मानत देने का प्रावधान है. इस मामले में गिरफ्तार हुए लोगों को उनके घरवालों के अंतिम संस्कार तक में नहीं जाने दिया गया. गडलिंग की मां की मृत्यु होने पर जब उन्होंने अंतिम संस्कार में जाने के लिए आवेदन दिया तो उनका आवेदन यह कहकर खारिज कर दिया गया कि उसमें उनकी मां का मृत्यु प्रमाण पत्र नहीं लगा है और बिना मृत्यु प्रमाणपत्र के यह कैसे माना जाए कि उनकी मां की मृत्यु हो गयी है.
जब उन्होंने मृत्यु प्रमाण पत्र लगाया तो यह कह दिया गया कि अब तो उनकी मां का अंतिम संस्कार हो चुका है, अब जाकर क्या करेंगे. इसके बाद जब उन्होंने अपनी मां के लिए रखी गयी शोकसभा में जाने के लिए आवेदन किया तो उनका आवदेन ये कहकर खारिज कर दिया गया कि आवेदन के साथ शोकसभा की प्रति नहीं लगाई गयी है. इसी तरह सुधीर ढवले के बड़े भाई के अंतिम संस्कार और शोकसभा में उन्होंने जाने नहीं दिया गया.
गड़बड़ी नंबर- 15
एनआईए ने 4 सितम्बर, 2020 को कबीरकला मंच के रमेश गायचोर और सागर गोरखे को विटनेस समन (गवाह सामन) भेजकर पूछताछ के लिए बुलाया था. उन पर यह बयान देने का दबाव बनाया गया कि कोरेगांव-भीमा मामले में गिरफ्तार लोग नक्सली हैं. अगले दिन उन्होंने झूठा बयान देने से मना कर दिया. इसके बाद सात सितम्बर को उन्हें फिर विटनेस समन देकर बुलाया गया और गिरफ्तार कर लिया गया.
गौरतलब है कि जब गायचोर और गोरखे ने दबाव देकर बयान देने की बात अदालत (मुंबई सेशन कोर्ट) में कही तो अदालत ने एनआईए के इस रवैये को गलत बर्ताव की श्रेणी के लायक नहीं माना. अदालत ने कहा कि गायचोर और गोरखे ने पुलिस द्वारा बुरे बर्ताव की कोई शिकायत नहीं की है. हालांकि उसने यह माना कि उनपर बयान देने का दबाव बनाया गया था.
गड़बड़ी नंबर- 16
यूरिनरी ट्रैक्ट इन्फेक्शन और डेमेंशिया (भूलने की बीमारी) जैसी बीमारियों से जूझ रहे वरवर राव को ढंग का इलाज दिलवाने के लिए उनके परिवार और वकीलों को जद्दोजहद करनी पड़ी.
81 साल के वरवर राव की तबियत मई महीने से बिगड़नी शुरू हो गयी थी. पुलिस ने उन्हें जेजे अस्पताल में भर्ती कराया और आनन-फानन में उनकी जांचें पूरी हुए बिना दोबारा जेल भेज दिया था. उनके परिवार को उनकी मेडिकल रिपोर्ट भी नहीं दी गयी थी. जुलाई में उनकी तबीयत बहुत बिगड़ गयी थी तो उन्हें फिर अस्पताल भेजा गया. जब उनके परिवार वाले उनसे अस्पताल में मिले तो वह पेशाब में सने बिस्तर के एक कोने पर बैठे थे. उनका पाजामा भी पेशाब में सना हुआ था. बाद में वो कोविड पॉज़िटिव पाए गए तब उन्हें सेंट जॉर्ज अस्पताल भेजा गया. उनकी ख़राब सेहत के मद्देनज़र राष्ट्रीय मानवधिकार के हस्तक्षेप पर उन्हें नानावटी अस्पताल भर्ती कराया गया था. लेकिन अगस्त के महीने में बिना अदालत और उनके परिवार को जानकारी दिए, उन्हें फिर से जेल भेज दिया गया था. लगभग दो महीने तक अदालतों के चक्कर काटने के बाद उन्हें एक बार फिर नानावटी अस्पताल में भर्ती कराया गया है.
गड़बड़ी नंबर- 9
कानूनन जिस मामले में यूएपीए (अनलॉफुल एक्टिविटीज़ एंड प्रिवेंशन एक्ट) की धारा लग जाती है उस मामले कि सुनवाई विशेष अदालत में, विशेष प्रकिया के मद्देनज़र की जाती है. अगर विशेष अदालत ना हो तब मामले की सुनवाई सामान्य अदालत में सामान्य कार्यप्रणाली से की जाती है. लेकिन कोरेगांव-भीमा के मामले में पुणे में एनआईए की विशेष अदालत होने के बावजूद भी यह मुकदमा सेशन कोर्ट (सत्र न्यायालय) में चलाया गया और वही आरोपपत्र (चार्जशीट) दाखिल किया गया.
गौरतलब है कि सीधे-सीधे सेशन कोर्ट में आरोपपत्र को दाखिल करने को लेकर कानून में मनाही है, इसके बावजूद भी इस मामले में आरोपपत्र को सीधे सेशन कोर्ट में दाखिल कर दिया गया. अगर कानूनी प्रक्रिया से देखा जाए तो आरोपपत्र अधूरा है, क्योंकि दो साल बाद भी अभी तक आरोपियों को हार्डडिस्क व अन्य ज़ब्त किये गए उपकारणों की मिरर इमेज नहीं दी गयी है.
गड़बड़ी नंबर- 10
इस मामले में आरोपपत्र दायर करने की अवधि को बढ़ाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने पुणे की अदालत को फटकार लगायी थी. जब इस मामले में 90 दिन तक आरोपपत्र दाखिल नहीं हुआ था तो अवधि को 90 दिन और बढ़ाने के लिए अभियोजन पक्ष के वकील ने आवेदन किया था. आवेदन शुक्रवार को दाखिल किया गया था और आरोपियों को जेल में उसी दिन बताया गया कि अगले दिन शनिवार को उन्हें अदालत में अवधि बढ़ाने की सुनवाई के लिए पेश होना है. स्वाभाविक है कि जेल से अरोपी अपने वकीलो तक इस बाद की सूचना नहीं पहुंचा सकते थे और पुलिस की तरफ से भी आरोपियों के वकीलों को सूचित नहीं किया गया था. शनिवार को जब गिरफ्तार लोगों को अदालत में पेश किया गया तो उन्होंने अभियोजन कि इस जल्दबाज़ी का विरोध जताते हुए 2-3 दिन की मोहलत मांगी थी ताकि वे अपने वकीलों को इत्तेला कर सकें, लेकिन उसके बावजूद विशेष सुनवाई अगले दिन रविवार को ही कर दी गयी.
गड़बड़ी नंबर- 11
14 अप्रैल, 2019 को इस मामले में गौतम नवलखा ने एनआईए (नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी) के सामने आत्मसमर्पण किया था. उन्हें उस वक़्त तिहाड़ जेल में रखा गया था और उसी दौरान उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट में ज़मानत के लिए याचिका दायर की थी. जिस दिन उनकी जमानत की सुनवाई होने वाली थी उसके एक दिन पहले बिना अदालत की इजाजत लिए उन्हें तिहाड़ जेल से निकालकर मुंबई ले जाया गया. पुलिस की इस हरकत पर हाईकोर्ट ने फटकार लगाते हुए उनसे जवाब भी तलब किया था.
गड़बड़ी नंबर- 12
पुणे पुलिस ने आनंद तेलतुंबड़े को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए चार हफ़्तों के सरंक्षण के बावजूद भी गिरफ्तार कर लिया था. हालांकि बाद में पुणे सेशन कोर्ट ने उनकी रिहाई को गैरकानूनी करार देते हुए उनकी तुरंत रिहाई के आदेश दिए थे.
गड़बड़ी नंबर- 13
इस मामले को जिस तरह से एनआईए को सौपा गया है वह भी कई सवाल खड़े करता है. गौरतलब हैं कि यूएपीए का मामला दर्ज होने पर राज्य सरकार को पांच दिन के भीतर केंद्र सरकार को सूचित करना होता है. फिर केंद्र सरकार 15 दिन के भीतर उस पर निर्णय लेकर राज्य सरकार को बताती है कि जांच राज्य पुलिस करेगी या एनआईए. अगर सरकार 15 दिन में जवाब नहीं देती है तो मामला अपने आप राज्य सरकार के पास चला जाता है.
एक बार जांच राज्य पुलिस के पास जाने के बाद उसे दोबारा नहीं लिया जा सकता. असल में साल 2019 में एनआईए पुणे पुलिस द्वारा की जा रही जांच से संतुष्ट थी और जांच की ज़िम्मेदारी नहीं लेना चाहती थी. लेकिन नवम्बर 2019 में महाराष्ट्र में नयी सरकार बन गई. उसने कोरेगांव-भीमा की जांच को संदेहास्पद बताते हुए सवाल उठाये. तब अचानक से इस मामले की जांच गृह मंत्रालय ने पुणे पुलिस से लेकर एनआईए को सौंप दी.
गड़बड़ी नंबर- 14
बड़े-बड़े अपराधियों को उनके रिश्तेदारों की शादियों में शरीक होने के लिए ज़मानत देने का प्रावधान है. इस मामले में गिरफ्तार हुए लोगों को उनके घरवालों के अंतिम संस्कार तक में नहीं जाने दिया गया. गडलिंग की मां की मृत्यु होने पर जब उन्होंने अंतिम संस्कार में जाने के लिए आवेदन दिया तो उनका आवेदन यह कहकर खारिज कर दिया गया कि उसमें उनकी मां का मृत्यु प्रमाण पत्र नहीं लगा है और बिना मृत्यु प्रमाणपत्र के यह कैसे माना जाए कि उनकी मां की मृत्यु हो गयी है.
जब उन्होंने मृत्यु प्रमाण पत्र लगाया तो यह कह दिया गया कि अब तो उनकी मां का अंतिम संस्कार हो चुका है, अब जाकर क्या करेंगे. इसके बाद जब उन्होंने अपनी मां के लिए रखी गयी शोकसभा में जाने के लिए आवेदन किया तो उनका आवदेन ये कहकर खारिज कर दिया गया कि आवेदन के साथ शोकसभा की प्रति नहीं लगाई गयी है. इसी तरह सुधीर ढवले के बड़े भाई के अंतिम संस्कार और शोकसभा में उन्होंने जाने नहीं दिया गया.
गड़बड़ी नंबर- 15
एनआईए ने 4 सितम्बर, 2020 को कबीरकला मंच के रमेश गायचोर और सागर गोरखे को विटनेस समन (गवाह सामन) भेजकर पूछताछ के लिए बुलाया था. उन पर यह बयान देने का दबाव बनाया गया कि कोरेगांव-भीमा मामले में गिरफ्तार लोग नक्सली हैं. अगले दिन उन्होंने झूठा बयान देने से मना कर दिया. इसके बाद सात सितम्बर को उन्हें फिर विटनेस समन देकर बुलाया गया और गिरफ्तार कर लिया गया.
गौरतलब है कि जब गायचोर और गोरखे ने दबाव देकर बयान देने की बात अदालत (मुंबई सेशन कोर्ट) में कही तो अदालत ने एनआईए के इस रवैये को गलत बर्ताव की श्रेणी के लायक नहीं माना. अदालत ने कहा कि गायचोर और गोरखे ने पुलिस द्वारा बुरे बर्ताव की कोई शिकायत नहीं की है. हालांकि उसने यह माना कि उनपर बयान देने का दबाव बनाया गया था.
गड़बड़ी नंबर- 16
यूरिनरी ट्रैक्ट इन्फेक्शन और डेमेंशिया (भूलने की बीमारी) जैसी बीमारियों से जूझ रहे वरवर राव को ढंग का इलाज दिलवाने के लिए उनके परिवार और वकीलों को जद्दोजहद करनी पड़ी.
81 साल के वरवर राव की तबियत मई महीने से बिगड़नी शुरू हो गयी थी. पुलिस ने उन्हें जेजे अस्पताल में भर्ती कराया और आनन-फानन में उनकी जांचें पूरी हुए बिना दोबारा जेल भेज दिया था. उनके परिवार को उनकी मेडिकल रिपोर्ट भी नहीं दी गयी थी. जुलाई में उनकी तबीयत बहुत बिगड़ गयी थी तो उन्हें फिर अस्पताल भेजा गया. जब उनके परिवार वाले उनसे अस्पताल में मिले तो वह पेशाब में सने बिस्तर के एक कोने पर बैठे थे. उनका पाजामा भी पेशाब में सना हुआ था. बाद में वो कोविड पॉज़िटिव पाए गए तब उन्हें सेंट जॉर्ज अस्पताल भेजा गया. उनकी ख़राब सेहत के मद्देनज़र राष्ट्रीय मानवधिकार के हस्तक्षेप पर उन्हें नानावटी अस्पताल भर्ती कराया गया था. लेकिन अगस्त के महीने में बिना अदालत और उनके परिवार को जानकारी दिए, उन्हें फिर से जेल भेज दिया गया था. लगभग दो महीने तक अदालतों के चक्कर काटने के बाद उन्हें एक बार फिर नानावटी अस्पताल में भर्ती कराया गया है.