2000 की नोटबंदी और बागेश्वर धाम वाले बाबा के चरणों में मीडिया

दिन ब दिन की इंटरनेट बहसों और खबरिया चैनलों के रंगमंच पर संक्षिप्त टिप्पणी.

WrittenBy:अतुल चौरसिया
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हम उस दौर में हैं जहां थूकना और चाटना दोनों मास्टरस्ट्रोक बन चुका है. मास्टरस्ट्रोक नहीं तो कम से कम सर्जिकल स्ट्राइक तो बन ही चुका है. थूकने और चाटने के इस दोतरफा कंपीटिशन के विजेता हमारे घोघाबसंत खबरिया चैनल और उसके हुड़कचुल्लू एंकर-एंकराएं हैं. इस दौर में वही लोग साहिबे मसनद हैं जो दोतरफा बयानबाजी कर सकते हैं. चित भी मेरी-पट भी मेरी. ऐसे लोगों से हमारी खबरिया चैनलों और सियासत की दुनिया भरी पड़ी है. आरबीआई ने छह साल, छह महीने बाद 2000 के गुलाबी नोटों को बंद करने की घोषणा की है. इस मौके पर थूकने और चाटने के तमाम उस्तादों का चेहरा हमारे सामने आ गया है.

गत दिनों बागेश्वर धाम वाले धीरेंद्र शास्त्री के आगे-पीछे जिस तरह से भाजपा के शीर्ष नेताओं ने लाइन लगाकर पानी भरा उसे देखते हुए आशंका बढ़ गई है कि आने वाले दिनों में बिहार की सियासत में धर्म का विकृत रूप देखने को मिलेगा. एक अदने से कर्मकांडी बाबा की आरती उतारने की होड़ नेताओं में दिखी. सरकार का विकल्प कोई कर्मकांडी बाबा नहीं हो सकता. सरकार अगर जनता की उम्मीदों को पूरा करने में असफल रही है तो इसकी वजहें बहुत सारी हैं. उनमें से एक वजह सुधीर चौधरी जैसे एंकर और आज तक जैसे तमाम चैनल भी हैं जिन्होंने सरकार की जी-हुजूरी की दौड़ में जनता के मुद्दों से दूरी बना ली है. धीरेंद्र शास्त्री बस भटकाव का साधन है जिसे सुधीर चौधरी और अन्य एंकर एंकराएं रोज़ाना इस्तेमाल करते हैं.

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