'हम पश्चिमी सभ्यता की देन नहीं हैं': सरकार के दावों को खारिज करते ग्रामीण क्षेत्रों के समलैंगिक

अपने संघर्षों की कहानी बताते हुए ग्रामीण इलाकों के परलैंगिक पुरुष, सर्वोच्च न्यायालय में समलैंगिकता पर सरकार द्वारा प्रस्तुत धारणा पर सवाल उठा रहे हैं.

WrittenBy:आकांक्षा कुमार
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“हम अपराधी नहीं हैं. हम अपने पार्टनर के साथ एक खुशहाल जीवन जिएं, लोग इस विचार के इतने खिलाफ क्यों है?"

गुजरात के जूनागढ़ जिले के एक गांव में रहने वाले 44 वर्षीय परलैंगिक (ट्रांसजेंडर) पुरुष वरुण* ने 2018 में सेक्स रिअसाइनमेंट (लिंग परिवर्तन) सर्जरी कराने के दो साल बाद अपने परिवार को अपनी असलियत बताई. इसके पहले वह 20 साल तक अपने परिवार से अलग रहे थे.

"मैंने अपने भाई को समझाने की कोशिश की कि मैंने अभी तक शादी क्यों नहीं की," वरुण ने कहा. उन्होंने 2020 में अपने भाई को एक मैसेज लिखकर बताया था कि कैसे वह जन्म के समय उन्हें दी गई लैंगिक पहचान से सहमत नहीं हो पाए. केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में कहा कि समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की मांग करने वाले लोग "शहरी अभिजात्य दृष्टिकोण" के प्रतिनिधि हैं. सरकार के इस विचार ने वरुण को उसी संवाद पर दोबारा गौर करने के लिए मजबूर कर दिया जिसकी तैयारी में उन्हें कई साल लगे.

मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने केंद्र के तर्क को खारिज करते हुए इस दावे का समर्थन करने वाले आंकड़ों पर सवाल उठाया, और कहा कि "हो सकता है यह शहरी इसलिए लगे क्योंकि शहरी क्षेत्रों में अधिक लोग अपनी असली पहचान के साथ दुनिया के सामने आ रहे हैं". कई सुनवाइयों के बाद सरकार ने एलजीबीटी जोड़ों की "वास्तविक समस्याओं" पर विचार करने के लिए एक पैनल बनाने का फैसला किया है.

"लैंगिक पहचान और यौन अभिविन्यास प्राकृतिक हैं, न कि शहरी या ग्रामीण. मेरे मित्रों में अधिकांश परलैंगिक पुरुष ग्रामीण क्षेत्रों से हैं. यह लोग इसे एक शहरी प्रक्रिया कैसे बता सकते हैं," वरुण ने कहा, जिसका नाम पहले वीना था.    

"यह धारणा गलत है कि यह सब पश्चिमी संस्कृति से आया है," उन्होंने कहा, और महाभारत के शिखंडी का उदाहरण दिया जो एक परलैंगिक था और भीष्म के वध का कारण बना था. 

'हमें सुरक्षित वातावरण चाहिए': एलजीबीटी जोड़ों का संघर्ष   

"फिलहाल मेरे पार्टनर को बीमा या घर कहीं भी मेरा नॉमिनी नहीं बनाया जा सकता. लेकिन मुझे अपने और उसके लिए सामाजिक सुरक्षा की जरूरत है," वरुण ने कहा, जो पहले एक गांव के स्कूल में प्रधानाचार्य थे और अब एक सरकारी कर्मचारी के रूप में काम करते हैं.   

देश की शीर्ष अदालत में समलैंगिकता पर जो धारणा प्रस्तुत की जा रही है, उस पर सवाल उठाने वाले वरुण अकेले नहीं हैं.

"लोग ऐसे रिश्तों को नहीं समझते हैं. मैं घर के लिए संघर्ष कर रहा हूं, क्योंकि बहुत से मकान मालिक हमें अपना घर किराए पर देने से मना कर देते हैं. वे हमसे तरह-तरह के सवाल पूछते हैं जैसे- इस रिश्ते से ​​संतुष्टि कैसे मिलती है," गुजरात के राजकोट जिले के एक गांव के मूल निवासी 35-वर्षीय राजेश* ने कहा, जो अपने पार्टनर के साथ किराए का घर खोजने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. 

राजेश धारीवाल उस समुदाय के सदस्य हैं, जिसमें बचपन में ही शादियां तय कर दी जाती हैं. इस समुदाय में 'लड़की लो और लड़की दो' की परंपरा है, जिसके अनुसार एक महिला को उसी परिवार में शादी करनी होती है जिसमें उसके भाई की भी शादी हो चुकी हो. राजेश ने इसी परंपरा के अनुसार शादी करने के अपने परिवार के दबाव से बचने के लिए शहर में काम करना शुरू किया था. 

'औरतों की तरह कपड़े पहनो': कार्यस्थल पर शत्रुतापूर्ण व्यवहार

“ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी पहले से ही एक बड़ी समस्या है, और हमारी लैंगिक पहचान इसे और भी बड़ी समस्या बना देती है, क्योंकि लोग हमें स्वीकार नहीं करते. मैंने एक बार प्रोफेसर के पद के लिए आवेदन किया था. लेकिन इंटरव्यू में मुझसे कहा गया कि 'महिला शिक्षिकाओं' से साड़ी पहनने की उम्मीद की जाती है."   

"ऐसे ही राजकोट के एक सरकारी विभाग में फील्ड पोजीशन के साक्षात्कार में मुझसे पूछा गया कि मैं एक महिला की तरह कपड़े क्यों नहीं पहनता. साक्षात्कारकर्ता ने यहां तक पूछा कि 'क्या आप पैंट-शर्ट पहनकर गांव में घूमेंगे'," राजेश ने बताया. उन्होंने लिंग परिवर्तन प्रक्रिया का विकल्प नहीं चुना है.

वरुण ने भी अपना गांव और सरकारी स्कूल की नौकरी छोड़ दी थी क्योंकि उन्हें अक्सर "एक महिला की तरह" कपड़े नहीं पहनने के लिए आलोचना झेलनी पड़ती थी.    

वरुण ने बताया, "छुट्टियों पर घर जाने से पहले मेरी मां मुझसे कम से कम 2-3 जोड़ी सलवार सूट लाने के लिए कहती थीं, ताकि उन्हें मेरी कपड़ों की पसंद को लेकर लोगों सफाई न देनी पड़े," वरुण ने कहा. वरुण को आठ साल की उम्र से ही महिलाओं के कपड़े पहनना अच्छा नहीं लगता था. 

उन्होंने ग्रेजुएशन के बाद सक्रिय रूप से अपने पहनावे के माध्यम से अपनी पहचान जताना शुरू कर दिया था. हालांकि, इससे उनके प्रति लोगों का द्वेष और बढ़ गया, विशेषकर उनके कार्यस्थल पर.     

"जिस स्कूल में मैं प्रिंसिपल था वहां लोग मेरे कपड़ों को घूरते थे, मेरे व्यवहार और छोटे बालों पर टिप्पणी करते थे. कुछ अभिभावकों ने यहां तक कहा कि इससे उनके बच्चों पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ेगा," वरुण ने बताया. 

एक घटना के बारे में बताते हुए वरुण ने कहा कि स्कूल के दौरे पर आए एक अधिकारी ने उनके पहनावे के साथ-साथ उनकी जाति का भी मजाक उड़ाया, और कहा कि "सिर्फ इसलिए कि आप जंगल से आए हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि आप कुछ भी पहनकर स्कूल आ सकते हैं." हालांकि, गुजरात सरकार की नियमावली में स्कूल के कर्मचारियों के लिए कोई ड्रेस कोड निर्दिष्ट नहीं किया गया है. 

वरुण ने अभी भी अपने आधिकारिक दस्तावेजों में अपनी लैंगिक पहचान नहीं बदली है, क्योंकि उन्हें डर है कि इसके गंभीर परिणाम होंगे. 

'सार्वजनिक बहिष्कार की वजह से ठप हो गया मेरा कारोबार' 

निकुंज, 27 ने अपना परिचय देते हुए कहा, "मैं एक परलैंगिक पुरुष हूं और पुरुष सर्वनाम का प्रयोग करता हूं". वह मंदसौर जिले के सुवासरा गांव के रहने वाले हैं और वर्तमान में इंदौर में फेलोशिप कर रहे हैं.   

"मेरा मसालों का व्यवसाय था और वह तब तक अच्छा चल रहा था जब तक लोगों को यह पता नहीं था कि मैं परलैंगिक हूं."

2021 में लिंग परिवर्तन कराने के बाद निकुंज ने पाया कि उनकी बिक्री घट गई. पूछताछ करने पर उन्हें बताया गया कि थोक व्यापारी "उनके किन्नर (परलैंगिक के लिए स्थानीय शब्द) होने से परेशान थे".

निकुंज ने कहा, "मेरी लैंगिक पहचान के कारण मेरा पूरा कारोबार ठप हो गया. हालांकि अभी-भी मेरे पास मशीनें हैं, लेकिन इस सार्वजनिक बहिष्कार के कारण हर महीने 1,000 रुपए कमाना भी मुश्किल है." 

निकुंज याद करते हैं कि उनके पिता तक ने उनके शरीर में आए बदलाव का विरोध किया था. हालांकि, उनकी मां ने उनका समर्थन किया. "मैं लगभग 4-5 साल का था जब मुझे एहसास हुआ कि मैं लड़कों के कपड़ों और उनके द्वारा खेले जाने वाले खेलों की ओर आकर्षित होता हूं. मेरी मां ने टीवी कार्यक्रम सत्यमेव जयते का समलैंगिकता पर केंद्रित एक एपिसोड देखने के बाद मेरा समर्थन किया. इससे उनके दृष्टिकोण में बहुत बदलाव आया." 

लिंग परिवर्तन प्रक्रिया में स्तनों और गर्भाशय को ऑपरेशन से हटा दिया जाता है, इसके बाद शरीर में टेस्टोस्टेरोन का इंजेक्शन लगाया जाता है.

जब सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिक विवाह को समान अधिकार दिए जाने की याचिकाओं पर सुनवाई चल रही है, तो निकुंज को लगता है कि "उन गांवों में जहां मुश्किल से यौन शिक्षा दी जाती है, कम से कम लैंगिक पहचान के बारे में बातचीत शुरू करने की जरूरत है."

गांवों और ग्रामीण इलाकों में लैंगिक पहचान को लेकर होने वाली सख्ती एक मजबूत कारण है कि क्यों समलैंगिक विवाह को समान अधिकार मिलने चाहिए. 

'संबंधों की कानूनी मान्यता से मिलते हैं कई अधिकार'

"छोटे शहरों में काउंसलिंग की कोई व्यवस्था नहीं है, इसलिए जब कोई व्यक्ति अपनी लैंगिक पहचान जाहिर करता है तो अक्सर परिवार के लोगों को लगता है कि उसके साथ कुछ गलत है और वह उसे 'सुधारने के तरीकों' का सहारा लेते हैं," अंतर-जातीय और अंतर-धार्मिक जोड़ों की मदद करने वाली संस्था धनक के सह-संस्थापक आसिफ इकबाल ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया.  

इकबाल ने कहा कि समलैंगिक जोड़ों की समस्याओं के कई स्तर हैं, क्योंकि ज्यादातर जगहों पर उन्हें ठहराने के लिए कोई सुरक्षित घर नहीं होता.  

मार्च 2021 में चंडीगढ़ हाईकोर्ट के एक आदेश के बाद घर से भागे हुए जोड़ों के लिए सुरक्षित घरों की व्यवस्था करने का नियम हरियाणा, पंजाब और यहां तक ​​कि दिल्ली में भी लागू कर दिया गया है. हालांकि, इकबाल ने कहा कि यह सुविधा "केवल शदीशुदा विषमलैंगिक जोड़ों के लिए अच्छी तरह से काम कर रही है". 

वहीं समलैंगिक और परलैंगिक जोड़ों को कथित तौर पर पुलिस और प्रशासन द्वारा कहा जाता है कि वह "केवल उन्हें सुरक्षा प्रदान करेंगे जो विवाहित हैं". इकबाल का आरोप है कि ऐसे जोड़ों के परिवार भी पुलिस से मिलीभगत कर उन्हें अलग कर देते हैं. 

समलैंगिकों के अधिकारों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता और अधिवक्ता रोहिन भट्ट, सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई में याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व करने वाली कानूनी टीम का हिस्सा हैं. भट्ट कहते हैं, "रिश्ते को कानूनी मान्यता मिलने के साथ कई अधिकार प्राप्त होते हैं. मैं खुद उन जोड़ों को सलाह देता रहा हूं जो अपने परिवारों से भाग कर आते हैं. उनपर अपहरण की एफआईआर कर दी जाती है. एफआईआर रद्द कराने के लिए उनके पास पुलिस की कठोर कार्रवाई झेलने और दुष्कर कानूनी प्रणाली से गुजरने के अलावा कोई रास्ता नहीं होता." 

एलजीबीटी जोड़ों के लिए विवाह की कानूनी मान्यता की आवश्यकता पर विस्तार से बताते हुए भट्ट ने न्यूज़लॉन्ड्री से कहा, "एक विवाह प्रमाणपत्र इन मुश्किलों को कुछ कम कर देगा, क्योंकि फिर इनके पास राज्य द्वारा जारी एक दस्तावेज होगा, जो दर्शाएगा कि यह दंपत्ति अपनी मर्जी से एक-दूसरे से साथ हैं."

मामले की याचिकाकर्ताओं में से एक चयनिका शाह ने न्यूज़लॉन्ड्री से कहा, "मुझे नहीं लगता कि सरकार यह देख भी रही है कि एक विवाह प्रमाणपत्र इन्हें हिंसक परिवारों और समुदाय से कितनी सुरक्षा दे सकता है. इसलिए, जहां एक और वह दूसरी सरकारी सुविधाओं पर विचार करेंगे और उनमें से कुछ दे भी देंगे, वहीं यह कहना हमारा कर्तव्य होगा कि हमें सम्मान के साथ जीने के लिए जो कुछ चाहिए, वह सब कुछ राज्य से हमारी मांगों का हिस्सा है."

क्या बड़े शहरों में स्थिति बेहतर है?

उदयपुर में एक कॉर्पोरेट फर्म के कानूनी विभाग में काम करने वाले 25 वर्षीय सार्थक* के लिए भी कार्यस्थल का वातावरण कम शत्रुतापूर्ण नहीं है.

"मेरे एक सहकर्मी ने मेरी लैंगिक पहचान को लेकर मेरे लिए अभद्र भाषा का प्रयोग किया," सार्थक ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया. उन्होंने कहा कि उन्होंने अपनी कंपनी से कर्मचारियों के लिए इस विषय पर संवेदीकरण कार्यक्रम शुरू करने का अनुरोध किया है.

सार्थक ने बताया कि उन्होंने जो समय अपने गृहनगर और राजस्थान के एक और बड़े शहर जोधपुर में बिताया वह भी आसान नहीं था. "लोग 'औरतों की तरह' चलने और बात करने के लिए मेरा मजाक उड़ाते थे," उन्होंने कहा. सार्थक ने बताया कि उन्होंने 2019 में अपने परिवार के सामने अपनी लैंगिक पहचान जाहिर की, लेकिन वे "अभी भी उन्हें पूरी तरह से नहीं समझते हैं". 

सार्थक ने शीर्ष अदालत में चल रही वैवाहिक समानता की सुनवाई पर कहा, "मैं चाहता हूं मेरा अपना परिवार हो और मुझे यह अधिकार मिले. यदि आप मुझे यह अधिकार नहीं देते हैं, तो आप मूल रूप से मेरे साथ दूसरे दर्जे के नागरिक की तरह व्यवहार कर रहे हैं."

सरकार के रुख का समर्थन कौन कर रहा है?

समलैंगिक विवाह पर सरकार की दलील को समाज के कई हिस्सों से समर्थन मिला है, जो "पारंपरिक मूल्यों" को अक्षुण्ण रखने की बात कर रहे हैं. उदाहरण के लिए, बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) ने 24 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया कि वैवाहिक समानता के अधिकार का निर्णय संसद पर छोड़ दिया जाए.

वकीलों के इस शीर्ष निकाय की राय थी कि "उच्चतम न्यायालय द्वारा किसी भी तरह की ढील देने से देश का सामाजिक ढांचा अस्थिर हो जाएगा." बीसीआई ने  यह भी कहा कि देश की 99.9% आबादी "भारत में समलैंगिक विवाह के विचार का विरोध" करती है. 

इस तर्क का जोरदार खंडन करते हुए, 36 विधि विद्यालयों के 100 से अधिक छात्रों ने एक बयान जारी कर कहा, "बिना किसी आधिकारिक स्रोत के बीसीआई ने स्पष्ट रूप से एक मनगढ़ंत आंकड़ा प्रस्तुत किया है कि '99.9%' भारतीय समलैंगिक विवाह का विरोध करते हैं. ऐसा करके वह उसी घिसे-पिटे सिद्धांत को प्रस्तुत करना चाहते हैं कि समलैंगिक लोग समाज का एक 'नगण्य अल्पसंख्यक' हिस्सा हैं. हम इस घृणास्पद वक्तव्य की कड़े शब्दों में निंदा करते हैं." 

क्रॉस लॉ स्कूल क्वीयर एलायंस के अयान गर्ग ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, "संक्षेप में कहें तो बार काउंसिल ऑफ इंडिया और राज्यों की बार काउंसिलों की संयुक्त बैठक में पारित यह प्रस्ताव क्रोधित करने वाला है. कानून के छात्रों और इस पेशे के हितधारकों के रूप में, हमें स्वीकार नहीं है कि यह निकाय इस तरह के अनुचित प्रस्ताव पारित करे और मौलिक अधिकारों पर इस तरह का पिछड़ा रुख अपनाए." 

इसी क्वीयर एलायंस के एक और सदस्य आंजनेय मित्तल ने एडवोकेट्स एक्ट, 1961 की धाराओं 4, 7 और 15 का हवाला दिया, जो "बीसीआई के अधिकार क्षेत्र की सीमाएं तय करती हैं", और कहा, "बहुसंख्यक वर्ग की चिंताओं का उल्लेख करके एलजीबीटी व्यक्तियों को कानूनी पेशे में हाशिए पर डाल दिया जाता है. और उनके मौलिक अधिकार गलत तरीके से राजनीति के अधीन हो जाते हैं. हम ऐसे समय में रह रहे हैं जहां स्वतंत्रता उतनी ही दुर्लभ होती जा रही है जितनी वह जरूरी है. इसलिए, हर किसी को आवाज उठाना और सत्य का साथ देना अनिवार्य है. विशेष रूप से भावी वकीलों के लिए तो यह और भी जरूरी है क्योंकि हमने संविधान की रक्षा करने की शपथ ली है."

(पहचान छिपाने के लिए नाम बदल दिए गए हैं.)

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