जगदीप धनखड़: 'आरएसएस के एकलव्य' से महाभियोग तक का सफ़र तय करने वाले पहले उपराष्ट्रपति

पहले आरएसएस विरोधी नेता फिर हिंदुत्व के मार्गदर्शक और अब राज्यसभा के सभापति, एक ऐसे वकील की दास्तां, जिसे अजातशत्रु कहा जाता है.

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जीवन के इस अध्याय से पहले, धनखड़ एक वकील थे. उन्हें अदालत के गलियारों में कानूनी मामलों और न्यायधीशों पर चर्चा करना सख्त नापसंद था. दोस्त, परिवार के सदस्य और उनके आश्रित उनका बखान एक हाजिरजवाब, चतुर, मेहनती, स्वनिर्मित शख्सियत; नियमों के हामी और उन्हें विस्तार से समझने वाले; एक अजातशत्रु -जिनका कोई शत्रु नहीं है; और जो अंकल 'जे' के नाम से जाने जाने वाले अच्छे वक्ता हैं; के तौर पर करते हैं.

वह शराब आदि का सेवन नहीं करते और आर्य समाज के एक सुधारवादी अनुयायी हैं. कसाटा आइसक्रीम उन्हें खासा पसंद है और खाने को लेकर बहुत मीन-मेख निकालने वाले नहीं हैं. हालांकि खाने में उन्हें दही और चूरमा पसंद है. जगदीप और उनकी पत्नी सुदेश जो कि सततपोषणीय विकास और जल संरक्षण में पीएचडी है, को 'प्यार में डूबे' जोड़े के तौर पर दिखाया जाता है.

अब धनखड़ बदल चुके हैं, 1998 में कांग्रेस के लोकसभा टिकट पर लड़े गए अपने आखिरी प्रत्यक्ष चुनाव में हार के बाद उनमें वैचारिक तौर पर काफी तब्दीलियां आ चुकी हैं. एक बच्चे के रूप में एक बार उन्होंने अपने बहनोई को हरियाणा के सतनाला गांव स्थित एक इमारत पर आरएसएस के नारे लिखने के लिए डांट लगाई थी और 'अपनी पढ़ाई पर ध्यान देने को कहा था.’ लेकिन अब उन्होंने अपना सामान्य अभिवादन "राम राम सा" से बदलकर "जय श्री राम" कर लिया है.

यह कहानी एक ऐसे बालक की है जिसका जन्म जयपुर के राजा द्वारा संरक्षित परिवार में हुआ; यह कहानी एक ऐसे वकील की भी है जिसने राजस्थान में जाट आरक्षण की लड़ाई भी जीती और भगोड़े ललित मोदी का बचाव भी किया; एक चतुर राजनीतिज्ञ की भी है, जिसने पक्ष-विपक्ष दोनों तरफ के लोगों से दोस्ताना संबंध बनाए; एक राज्यपाल की भी है, जो निर्वाचित सरकार को नाराज करने के लिए बाल की खाल निकालता है और एक "पक्षपाती" उपराष्ट्रपति की भी है जो लगातार विपक्ष और न्यायपालिका दोनों को चुनौती देता रहता है.

न्यूज़लॉन्ड्री ने धनखड़ के दफ्तर में उनके साक्षात्कार के लिए अर्जी दी गई है. हालांकि, अब तक इसका कोई जवाब नहीं मिला है.

imageby :शामभवी ठाकुर


‘किसान पुत्र’ या रेलवे ठेकेदार का बेटा 

धनखड़ का जन्म 1951 में राजस्थान के झुंझुनूं जिले के शेखावटी क्षेत्र के किठाना गांव में  12X10 के एक ईंटों से बने कमरे में हुआ था. वह अपनी मां केसरी देवी की दूसरी संतान हैं. 

किठाना में आज 2000 घर हैं, जिनमें से ज्यादातर जाट समुदाय के हैं. जाट समुदाय करीब 500 साल पहले यहां आकर बस गया था जो कि मूल रूप से हरियाणा के रोहतक जिले के ढाकला गांव से था. धनखड़ के परिवार की यहां 60 बीघा जमीन है जिसमें फिलहाल जोजोबा उगाई गई है. गांव को जाने वाली सड़क डामर और कंक्रीट से बनी है. गांव के रास्ते में बेमौसम बारिश से मुरझाए गेहूं के खेतों में किसानों की दम तोड़ती उम्मीदें साफ नजर आ रही थीं. 

धनखड़ के पूर्वजों की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा प्रशंसा की जा चुकी है. मोदी जी ने उन्हें "किसान पुत्र" कहा है जिनके लिए "कृषि ही एकमात्र संस्कृति है."

लेकिन धनखड़ के पिता गोकल चंद पेशे से किसान नहीं थे. वे तो एक रेलवे ठेकेदार थे, जिसने अपनी जिंदगी का ज्यादातर हिस्सा जयपुर में बिताया. धनखड़ के पिता गोकल चंद के बड़े भाई हरि बख्शसिंह जब 11 साल के थे तब उन्हें "डुनलोड ठिकाना" द्वारा चौधरी की उपाधि से नवाजा गया था. डुनलोड ठिकाना स्वतंत्रता पूर्व भारत में जयपुर के राजा सवाई मान सिंह-II के अधीन एक प्रशासनिक ईकाई थी. इस वजह से ये "चौधरी" राजा के प्रतिनिधि के रूप में स्थानीय स्तर पर राजस्व उगाही का काम करते थे और न केवल किठाना में बल्कि आसपास के गांवों में भी सम्मान की नजर से देखे जाते थे. धनखड़ के पूर्वजों का घर एक हवेली है, जो राजघराने से उनके संबंधों को प्रमाणित करती है.

जहां तक उनकी मां की बात है, वे पड़ोस के बख्तावरपुरा गांव के एक राजनैतिक प्रभुत्व वाले परिवार से हैं. उनके चाचा जो उनके संरक्षक भी रहे हैं, ने 1951 में चिरावा से देश का पहला आम चुनाव लड़ा था. हालांकि वे जीत नहीं पाए थे. 

जूनियर धनखड़ ने अपने पिता से बुद्धि और हास्य व माता से सपाटबयानी और दिल खोलकर मेहमाननवाजी सीखी थी. सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य विजयपाल सिंह के अनुसार उनकी मां मेहमानों से आग्रह करती थीं कि वे "गर्म चाय से अपनी जीभ न जलाएं" बजाय इसके वो कहतीं, "मैं आपके लिए हलवा बनाती हूं."

1950 के दशक में शेखावटी में किसान सभाओं में जाट नेता शामिल थे. किसान सभा, जिसे लेखक रिचर्ड सिसो ने "एक सामाजिक सुधार आंदोलन के राजनीतिक परिणामों" के रूप में वर्णित किया है. 1920 के दशक में सामाजिक सुधारों हेतु और सामंतवाद के खिलाफ जाट समुदाय के भीतर किसान सभाओं की शुरुआत हुई. बाद में, वे जाट समुदाय के राजनीतिक नेतृत्व की परवरिश करने वाले संगठन बन गए. जैसा कि सिसो ने लिखा है, आर्य समाज आंदोलन का भी इन क्षेत्रों में बहुत प्रभाव था और जाट नेताओं ने "सार्वजनिक जीवन में नई और महत्वपूर्ण भूमिकाओं" के लिए अगली पीढ़ी को तैयार करने हेतु शिक्षा को पुरजोर बढ़ावा दिया.

इस सुधारवादी उथल-पुथल की वजह से "चौधरी" अपनी अहमियत खो चुके थे. धनखड़ और उनके तीन भाई - बहन, भाई कुलदीप और रणदीप और बहन इंदिरा - कक्षा पांच तक गांव के एक स्कूल में पढ़ते थे. कक्षा छह में, धनखड़ चार किमी पैदल चलकर घरधाना गांव के एक स्कूल में जाते थे.

आज किठाना से घरधाना तक की सड़क लगभग गायब हो चुकी है, लेकिन धनखड़ के कुछ दोस्तों और स्कूल के साथियों के जहन में अब भी उन दिनों की कुछ धुंधली यादें हैं. घरधना में धनखड़ से एक कक्षा नीचे पढ़ने वाले ईश्वर सिंह ने कहा, "वह उन्हीं झुके हुए कंधों के साथ चलते थे."

1961-62 में छह महीने के लिए धनखड़ किठाना से घरधाना की ये चार किलोमीटर की दूरी पूरी करते रहे, जब तक कि उन्हें चित्तौड़गढ़ के एक सैनिक स्कूल में पूरी छात्रवृत्ति नहीं मिल गई, जहां उनके बड़े भाई कुलदीप का दाखिला पहले से ही हो चुका था.

“उसके हाथ हमेशा स्याही से भरे रहते थे,” जयपुर में निर्माण कार्य के पेशे में लगे कुलदीप ने याद करते हुए कहा.

अपने नए स्कूल में, धनखड़ आमतौर पर रीडर्स डाइजेस्ट और इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया  पढ़ते हुए, अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर निबंध लिखते हुए, या ऑक्सब्रिज थिसॉरस और डिक्शनरी को पढ़ते हुए मिलते. जब वे 15 या 16 वर्ष के थे, तब उन्हें स्कूल में उप-कप्तान नियुक्त किया गया था.

स्कूल के कप्तान और धनखड़ के करीबी दोस्त राज सिंह शेखावत ने बताया कि जगदीप दूसरों की मदद करने वाले व्यक्ति थे, हमेशा दूसरों के साथ अवसरों को साझा करते थे. उन्होंने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, “अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद, हम ये सोच रहे थे कि आगे क्या किया जाए. जगदीप के पास अलग-अलग करियर विकल्पों – आईआईटी, सेना, चिकित्सा, सिविल सेवाओं सभी पर एक पुस्तिका हुआ करती थी. वह इस पुस्तिका को मेरे और अन्य लोगों के साथ साझा करता था.”

पूर्व रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन द्वारा सैनिक स्कूलों की स्थापना खास तौर से कैडेटों को राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में भेजने के लिए की गई थी. धनखड़ मेडिकल कारणों से एनडीए में शामिल नहीं हो पाए, लेकिन उनके परिवार का दावा है कि उन्होंने सिविल सेवाओं और आईआईटी की परीक्षाओं में बेहतरीन प्रदर्शन किया. कुलदीप ने बताया कि धनखड़ आईएएस (भारतीय प्रशासनिक अधिकारी) बनना चाहते थे लेकिन उनका चयन आईपीएस (भारतीय पुलिस सेवाओं) के लिए ही हो पाया.

यह उस दौर की बात है जब धनखड़ राजस्थान विश्वविद्यालय में बीएससी भौतिकी के अंतिम वर्ष के छात्र थे. यह 1970-71 का सत्र था, और अब धनखड़ एक जोशीले वक्ता थे. एक बार कॉलेज के एक वाद-विवाद कार्यक्रम में वे एक दर्शक के तौर पर मौजूद थे, वह खड़े हुए और आवेश में लोकतंत्र पर भावपूर्ण तरीके से अपनी बातें कहने लगे.

"उसने बहुत समझदारी से अपनी बात कही," उनके भाई ने बहुत चाव से बताया.

उन्होंने कुछ ऐसा कहा था कि 'राजनीति ही भ्रष्टाचार का मूल स्रोत है'. वह पांच मिनट तक बोलते रहे; मंच से किसी ने यह कहते हुए आपत्ति की कि वह तो बोलते ही जा रहे हैं और रुक भी नहीं रहे हैं. इस पर उन्होंने जवाब दिया, 'ये लोकतंत्र के अर्जित फल हैं जो आज मैं बोल पा रहा हूं.'

आखिरकार राजस्थान विश्वविद्यालय में धनखड़ ने कानून का अध्ययन किया. स्कूल के एक पूर्व मित्र, नरेंद्र बोहरा ने कहा कि धनखड़ ने एक बार उनसे कहा था, “मैं कलंक के साथ कानूनी पेशे में शामिल नहीं होना चाहता था. आमतौर पर लोग सोचते हैं कि जो अन्य क्षेत्रों में सफल नहीं हो पाते वे कानून का पेशा अपना लेते हैं."

बोहरा ने कहा, "इसे ही मैं सच्ची प्रतिबद्धता कहता हूं."

1979 में, धनखड़ ने काला चोगा पहना और उन नवरंग लाल टिबरेवाल की सरपरस्ती में राजस्थान उच्च न्यायालय में वकालत शुरू कर दी, जो बाद में राजस्थान उच्च न्यायालय में कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश बने. वह एक फिएट गाड़ी चलाते थे, उनके सर पर घने बाल थे, और खास मौकों पर फ्लेयर्ड पैंट और एक प्लेड कोट पहनते थे. दो साल बाद उन्होंने अकेले अदालत में जाने का फैसला किया.

धनखड़ के छोटे भाई और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के करीबी कांग्रेस सदस्य रणदीप ने कहा, "टिबरेवाल के ज्यादातर मुवक्किल चाहते थे कि जगदीप उनकी ओर से बहस करें." “मैंने उनसे कहा कि अगर वह स्वतंत्र रूप से काम करना शुरू करते हैं, तो अपनी महीने की 3,000 रुपए की तनख्वाह से भी हाथ धो सकते हैं. लेकिन उन्होंने कहा कि उन्हें खुद पर भरोसा है."

1979 में, धनखड़ ने सुदेश से शादी की, जो कि अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर थीं और हरियाणा के सतनाली गांव में एक सरकारी शिक्षक की बेटी हैं. सुदेश सामाजिक कार्यों के लिए अक्सर किठाना जाती थीं, वहीं धनखड़ ने किठाना और घरधना के दो स्कूलों को काफी दान दिया था.

यह दंपति अपने हंसी-मजाक के लिए जाने जाते हैं, धनखड़ अक्सर पीड़ित होने का नाटक करते हैं. एक दोस्त ने कहा, “एक बार वो अपने बरामदे में बैठे थे. मैंने वहां तीन कुत्तों को देखा. मैंने उनसे पूछा, 'धनखड़जी, आपके पास तीन कुत्ते हैं?' उन्होंने पत्नी की तरफ देखा और कहा, 'मेरी पत्नी कहती है चार कुत्ते हैं."

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वकील के तौर पर जगदीप धनखड़: सती, ललित मोदी और किंग खान

1980 के दशक तक, जयपुर की संपन्न संग्राम कॉलोनी में धनखड़ का घर दूर-दूर से आए मुवक्किलों से भरा रहता था. वह अपनी पत्नी और माता-पिता के साथ भूतल पर रहते थे, जबकि रणदीप पहली मंजिल पर और कुलदीप दूसरी मंजिल पर रहते थे.

उनके वकालत के पेशे के बारे में बात करें तो उन दिनों उनके सितारे बुलंदी पर थे. यकीनन राजस्थान में वह आपराधिक मामलों के ऐसे वकील थे जिनकी बहुत ज्यादा पूछ थी. कुलदीप ने हमें बताया, "अगर बस स्टॉप और रेलवे स्टेशन पर,  किसी ने संग्राम कॉलोनी के बारे में पूछा, तो ऑटो रिक्शा वालों को पता होता था कि वे वकील साहब के घर जाना चाहते हैं. उनका आंगन मुवक्किलों से भरा रहता था." धनखड़ के बहनोई प्रवीण बलवाड़ा, जो उच्च न्यायालय में वकील भी हैं, ने बताया कि राजस्थान उच्च न्यायालय में 'ज्यादातर' आपराधिक मामले धनखड़ के नाम सूचीबद्ध हैं.

शायद उनका पहला हाई-प्रोफाइल मामला 1987 में आया था, जब शेखावाटी के सीकर जिले में स्थित देवराला में 18 वर्षीय रूप कंवर को उसके पति की चिता पर जिंदा जला दिया गया. उसकी शादी को अभी सिर्फ आठ महीने ही हुए थे.

रूप कंवर के ससुराल वालों को हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. जयपुर के रामलीला मैदान में हजारों की संख्या में तलवारधारी राजपूत इकट्ठा हुए और उनकी रिहाई की मांग की. सती प्रथा का महिमामंडन करने के आरोप में लगभग 200 लोगों को गिरफ्तार किया गया. भाजपा सदस्य और विपक्ष के नेता भैरों सिंह शेखावत, ने सार्वजनिक रूप से सती प्रथा की निंदा की, लेकिन व्यक्तिगत तौर पर धनखड़ को अदालत में अभियुक्तों का प्रतिनिधित्व करने को कहा.

धनखड़ ने उनकी ये बात मान ली. इस मामले के आरोपियों में से एक वकील राम मनोहर सिंह ने कहा, "चार या पांच महीनों के भीतर ही सती प्रथा का महिमामंडन करने वाले सभी आरोपियों को जमानत मिल गई."

उत्साहित, राजपूतों के अनेक समूह फूल-मालाओं और मिठाइयों के साथ शेखावत के दफ्तर में उन्हें सम्मानित करने के लिए आ पहुंचे. लेकिन शेखावत ने उन्हें धनखड़ के पास भेज दिया. कुलदीप ने कहा, इसलिए राजपूतों के समूह धनखड़ के यहां ही आ गए. पत्रकार श्रीपाल शक्तावत के अनुसार, इससे राजपूत समुदाय में धनखड़ के बहुत से दोस्त बन गए.

1987 में, धनखड़ ने अदालत में फिल्म निर्माता इस्माइल मर्चेंट का प्रतिनिधित्व किया. इस्माइल को उनकी फिल्म 'द डिसीवर्स' की शूटिंग के वक्त जयपुर में हिंदू संस्कृति को "गलत तरीके से पेश करने" के लिए गिरफ्तार किया गया था. ऐसी अफवाहें फैली हुई थीं कि फिल्म सती प्रथा को बदनाम करने की एक कोशिश है. लेकिन इस बार धनखड़ इस्माइल मर्चेंट के बचाव में आए. बाद में मर्चेंट ने उनकी कानूनी सेवाओं के लिए अपनी किताब ‘हुलाबालू इन ओल्ड जेयपोर: द मेकिंग ऑफ द डिसीवर्स’ में भी उनका धन्यवाद किया.

1990 तक, धनखड़ को उच्च न्यायालय द्वारा एक वरिष्ठ अधिवक्ता नामित किया गया और वह राजस्थान हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के सबसे कम उम्र के अध्यक्ष बने. उनके बहनोई प्रवीण बलवाड़ा याद करते हुए बताते हैं कि इस अवसर पर न्यायमूर्ति राजेंद्र मल लोढ़ा बधाई देने के लिए गुलदस्ते के साथ अपने घर पर धनखड़ का इंतजार कर रहे थे. बाद में 2014 में लोढ़ा भारत के मुख्य न्यायाधीश बने.

1990 से, धनखड़ ने जयपुर और दिल्ली के बीच चक्कर लगाते हुए उच्चतम न्यायालय में वकालत की प्रैक्टिस शुरू कर दी. बलवाड़ा ने कहा कि उनके पास दोनों ही शहरों में "कारों का एक काफिला" था, लेकिन पश्चिम बंगाल का राज्यपाल बनने तक उन्होंने ज्यादातर ट्रेन या बस से ही यात्राएं कीं, क्योंकि इस वजह से "उन्हें आम जनता से जुड़े रहने में सहूलियत रहती थी."

देश की शीर्ष अदालत में, धनखड़ ने मुख्य रूप से इस्पात, खनन और चुनाव से जुड़े मामलों में बहस की, और नियमित रूप से अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता न्यायालय में हाजिर होते रहे.

बतौर वकील उन्होंने अपने कार्यकाल में बहुत से हाई-प्रोफाइल मामलों और मुवक्किलों के लिए काम किया. 1996 में वह हेमंत नाहटा और प्रताप भानु सिंह द्वारा शुरू किए गए एक गैर सरकारी संगठन, ‘पब्लिक एक्शन ग्रुप’ की ओर से उस वर्ष आईटीसी के विल्स को क्रिकेट विश्व कप का प्रायोजक बनाने के खिलाफ बहस करने के लिए उपस्थित हुए. बाद में नाहटा ने एक वकील के रूप में धनखड़ के अधीन प्रशिक्षण लिया और सिंह आरएसएस में उनके प्रतिनिधि और करीबी सहयोगी बन गए.

1997 में, धनखड़ ने एक मामले में शाहरुख खान का भी प्रतिनिधित्व किया था, जिसमें आरोप लगाया गया था कि उन्होंने 1995 की फिल्म ‘राम जाने’ में वकीलों के लिए "आहत करने वाले" और "अपमानजनक" संवादों का इस्तेमाल किया था. 

1998 में, उन्होंने राजस्थान में काले हिरणों के अवैध शिकार के आरोपी ठहराए गए सलमान खान और अन्य अभिनेताओं का प्रतिनिधित्व किया. मामले की जानकारी रखने वाले एक व्यक्ति के अनुसार, धनखड़ ने आरोपी को पहली जमानत दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

सूत्रों ने कहा, "मुझे लगता है कि सभी वकीलों ने सलमान और अन्य लोगों से खूब माल ऐंठा है. जब भी सलमान और अन्य सह-आरोपी सुनवाई के लिए पहुंचते थे, वे जोधपुर के उम्मेद भवन पैलेस में रुकते थे.”

2000 के दशक के अंत में, धनखड़ ने पैसे की हेराफेरी के एक मामले में आईपीएल के संस्थापक और राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष ललित मोदी का प्रतिनिधित्व किया. ललित मोदी के अन्य वकीलों में दिवंगत सुषमा स्वराज की बेटी और भाजपा दिल्ली के कानूनी प्रकोष्ठ की वर्तमान सह-संयोजक बांसुरी स्वराज भी शामिल थीं.

अधिकांश वरिष्ठ वकीलों की तरह, धनखड़ बहुत से मामलों में बिना कोई फीस लिए भी अदालत में पेश हुए. इनमें से एक मामला राजस्थान में जाटों के लिए आरक्षण को बरकरार रखने का था. यह आरक्षण पहली बार 1998 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा घोषित किया गया था. इसे उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी. 15 साल बाद, धनखड़ ने राजस्थान उच्च न्यायालय में जाट महासभा की ओर से दलील पेश की. मामले में अदालत ने राज्य को जाटों के लिए ओबीसी लाभ हेतु स्थायी आयोग बनाने के निर्देश दे दिए.

राजस्थान में जाट महासभा के अध्यक्ष राजाराम मील ने कहा, धनखड़ अदालत में "आठ से दस बार बिना फीस लिए" प्रस्तुत हुए.

1994 में, धनखड़ ने नरपत सिंह राजपुरोहित का केस लड़ा, जो बाद में सेना से जनरल के रूप में सेवानिवृत्त हुए. मामले में राज्य सरकार के खिलाफ एक याचिका दायर की गई थी जिसने उन्हें घुड़सवारी के खेल में पुरस्कार जीतने के बाद भूमि और मौद्रिक लाभ देने का वादा किया था लेकिन अब वह उन्हें ये लाभ देने से इनकार कर रही थी.

“फैसला हमारे पक्ष में आया, हालांकि इसमें 10-15 साल लग गए. इस फैसले से कम से कम 50 दूसरे खिलाड़ियों को भी मदद मिली, जिन्हें राज्य सरकार ने वित्तीय और अन्य लाभों से वंचित कर दिया था."

वकील हेमंत नाहटा, जो खुद को धनखड़ के शागिर्द के रूप में गिनते हैं, ने कहा कि ब्यौरों लिए उत्सुक आंखें, दलीलों की मुखर डिलीवरी, तथ्यों पर उनकी निर्भरता, उत्कृष्ट संचार कौशल और सबसे अहम रणनीतिक नियोजन ने उनके गुरु को एक बड़ा वकील बनाया. 

नाहटा ने कहा, धनखड़ अपने कनिष्ठों से सटीकता की मांग करते थें. वे कहते हैं, "दुविधा में रहने वाले लोग तथ्यों और कानून पर श्री धनखड़ की पकड़ के आगे खामोश ही रहेंगे."

भारत की अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल और सुप्रीम कोर्ट की वकील ऐश्वर्या भाटी भी धनखड़ को अपना गुरु मानती हैं. उनसे अपनी पहली पेशेवर मुलाकात को याद करते हुए ऐश्वर्या ने बताया, “मैं उन्हें एक केस के बारे में ब्रीफ देने गई थी क्योंकि वह एक वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में हमारा नेतृत्व कर रहे थे. यह मेरी सबसे मुश्किल ब्रीफिंग्स में से एक थी. मुझे लगा कि मैंने फाइल बहुत अच्छे से तैयार की है. उन्होंने मुझसे और दूसरे लोगों से कुछ बेहद मुश्किल और तीखे सवाल पूछे. अगले दिन, उनसे अदालत में बिल्कुल वही सवाल पूछे गए.”

भाटी के अनुसार, धनखड़ अपने जूनियर्स से आग्रह करते थे कि जब उन्हें कोई दुविधा हो तो वे मूल बातों पर लौट आएं- अधिनियमों को दोबारा पढ़ें, उन्हें छोटे-छोटे टुकड़ों में बांट दें और फिर से उसे समग्र रूप में तैयार करे. वह हमेशा कहते थे ‘बूटीक वकील’ बनो, मतलब कि एक विशेषज्ञता के साथ न कि ‘एक आम वकील’.

नाहटा ने धनखड़ से सीखा कि "अदालत के गलियारों में कभी भी अपने मामले पर बहस या न्यायाधीशों पर टिप्पणी न करें" - एक सलाह जिसकी वजह से नाहटा अब भी अपने पेशे में मजबूती से टिके हुए हैं.

लेकिन धनखड़, हालांकि अब वो वकील नहीं रहे, खुद इस नीति से विचलित होते नजर आ रहे हैं, और कानून मंत्री किरेन रिजिजू के साथ न्यायपालिका की निंदा करने में शामिल हो गए हैं. इस साल जनवरी में, उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का 1973 का ऐतिहासिक केशवानंद भारती फैसला "एक बुरी मिसाल" था और वह उसका समर्थन नहीं करते. 

बीते दिसंबर में, उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का 2015 का राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को (उच्च न्यायालयों और शीर्ष अदालत में न्यायाधीशों को नियुक्त करने की प्रणाली) को खारिज कर देना "लोगों के जनादेश" की "अवहेलना" थी.

imageby :शामभवी ठाकुर

पहला चुनाव और 75 गाड़ियों का काफिला 

धनखड़ को उनका पहला चुनावी ब्रेक मिलने से पहले, उनके छोटे भाई रणदीप ने 1980 के विधानसभा चुनाव में खेतड़ी से कांग्रेस के लिए एक असफल चुनाव लड़ा था. उन्हें बीजेपी के जीते हुए उम्मीदवार के मुकाबले महज आधे वोट मिले थे. राजस्थान पर्यटन विकास निगम के भूतपूर्व अध्यक्ष रणदीप अभी भी कांग्रेस के साथ हैं.

नौ साल बाद 1989 में जगदीप धनखड़ ने लोकदल के टिकट पर झुंझुनू से अपना पहला लोकसभा चुनाव जीता. उन्होंने कांग्रेस के अयूब खान को 1.61 लाख वोटों से हराया था.

जाट नेता देवीलाल, जो लोकदल के अध्यक्ष थे, उपमुख्यमंत्री बने और धनखड़ की कानूनी सूझबूझ और बुद्धि से प्रभावित हो गए. धनखड़ ने चुनाव से एक महीने पूर्व देवीलाल के 75वें जन्मदिन समारोह में एक अहम भूमिका निभाई थी. जिसमें राजस्थान, हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश के सात लाख समर्थकों का दिल्ली के रायसीना हिल्स में नॉर्थ और साउथ ब्लॉक के सामने खुली जगह में सैलाब आ गया था. धनखड़ और उनके समर्थकों ने 75 गाड़ियों को झाड़ा-पोछा और उन्हें लेकर समारोह में हिस्सा लेने पहुंच गए.

लेकिन इसके कुछ ही घंटों बाद एक त्रासदी हो गई. राजस्थान लौटते वक्त, धनखड़ के चचेरे भाई सत्यपाल की हरियाणा के भिवानी में सड़क दुर्घटना में मौत हो गई. सत्यपाल धनखड़ के चाचा हरिबख्श सिंह के तीसरे पुत्र थे. यह वही हरिबख्श सिंह थे, जिन्हें 11 वर्ष की आयु में, जयपुर राज्य के आधिपत्य में डंडलोद ठिकाना के ठाकुर द्वारा "चौधरी" की उपाधि दी गई थी. बाद में देवीलाल जयपुर में सत्यपाल की शोक सभा में शामिल हुए.

राजस्थान विधानसभा की भूतपूर्व अध्यक्ष सुमित्रा सिंह, जो उन दिनों धनखड़ की चुनावी अभियान की टीम का हिस्सा थीं ने कहा, देवी लाल एक "साधारण व्यक्ति" थे वहीं धनखड़ एक "जादूगर होने के साथ ही एक अच्छे वकील" थे. देवीलाल जी धनखड़ की ओर क्यों आकर्षित हुए, इस पर उन्होंने कहा, “निश्चित तौर पर 75 गाड़ियों की रैली से देवी लालजी प्रभावित थे. लेकिन सत्यपाल की मौत भी एक वजह थी. सहानुभूति की लहर को देखते हुए देवीलाल जी ने उन्हें टिकट दिलवा दिया.

वरिष्ठ पत्रकार और झुंझुनू में 90.0 एफएम कम्युनिटी रेडियो के सीईओ राजन चौधरी ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि सत्यपाल को एक राजनीतिक शहीद के रूप में प्रस्तुत किया गया और इस त्रासदी ने धनखड़ के उद्देश्य को आगे ही बढ़ाया.

लेकिन धनखड़ के साले प्रवीण बलवाड़ा इससे असहमत थे. "मौत एक संयोग थी," उन्होंने कहा, "और उन्हें अपने दम पर टिकट मिला." किठाना गांव में रहने वाले सरकारी शिक्षक धनखड़ के भतीजे यशपाल ने भी इस बात का समर्थन किया. यशपाल ने कहा कि सत्यपाल की मौत और धनखड़ के राजनीतिक आगाज के बीच कोई संबंध नहीं है.

पत्रकार शक्तावत ने कहा कि इस पृष्ठभूमि के बावजूद, देवीलाल ने धनखड़ को अपना फोस्टर चाइल्ड (पोष्य पुत्र) माना. देवीलाल के आशीर्वाद से, झुंझुनू के सांसद धनखड़ 1989 में वीपी सिंह सरकार में संसदीय मामलों के उपमंत्री बन गए.

लेकिन 11 महीने बाद वीपी सिंह सरकार गिर गई. बलवाड़ा ने कहा कि धनखड़ ने चंद्रशेखर के नेतृत्व वाली जनता दल सरकार में शामिल होने से "इनकार" कर दिया, क्योंकि राजस्थान के दो अन्य सांसद- दौलत राम सरन और कल्याण सिंह कालवी को कैबिनेट मंत्री बनाया गया था, जबकि वह एक कनिष्ठ मंत्री ही रह गए. 

बलवाड़ा ने आरोप लगाया कि आखिरकार जब वे बतौर कनिष्ठ मंत्री शपथ लेने के लिए सहमत हुए, तो देवीलाल के बेटे ओम प्रकाश चौटाला ने सार्वजनिक रूप से घोषणा की कि उन्होंने धनखड़ को बोर्ड में शामिल कर लिया है.

तब तक, धनखड़ की बातचीत राजीव गांधी के साथ भी जमने लगी थी. कुलदीप और उनके बेटे संदीप ने कहा कि राजीव गांधी एक बार दिल्ली में धनखड़ के घर आए थे और "आधी रात गए उनसे चलती गाड़ी में थोड़ी देर बात की थी."

कुलदीप ने कहा, “चंद्रशेखर सरकार गिरने से ठीक पहले या बाद में राजीव गांधी अकेले कार चलाकर जगदीप के सरकारी बंगले पर पहुंचे. मैं पोर्च पर बैठा था. राजीव जी जगदीप से बात करना चाहते थे. उन दोनों ने दो मिनट के लिए बातचीत की और फिर राजीव जी चले गए."

जून 1991 तक, कांग्रेस द्वारा समर्थन खींच लेने के बाद चंद्रशेखर सरकार गिर गई. मई-जून में एक बार फिर से आम चुनावों की घोषणा की गई. और धनखड़, राजीव गांधी से गहरी होती दोस्ती के साथ चुनाव से पहले ही कांग्रेस में चले गए.

बलवाड़ा ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि धनखड़ से कहा गया था कि वो झुंझुनू को छोड़कर किसी भी जिले से चुनाव लड़ सकते हैं. उन्होंने अजमेर से अपना चुनावी दावा पेश किया क्योंकि वहां की जाति संरचना उनके पक्ष में काम कर सकती थी. इसके बाद हुए सरगर्मी भरे चुनावी अभियान में, आरोप लगे कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता धनखड़ की "पीठ में छुरा घोंप रहे हैं", और खुद श्री गांधी ने उनकी चिंताओं को दूर करने के लिए अजमेर में 10 घंटे तक डेरा डाले रखा.

लेकिन बात महज इतनी भर नहीं थी. बलवाड़ा, जो चुनाव अभियान का हिस्सा थे, ने आरोप लगाया कि कांग्रेस नेता राजेश पायलट और उनके सहयोगियों ने धनखड़ के अभियान को "नाकाम" करने की कोशिश की.

उन्होंने आगे कहा, "हालांकि राजेश पायलट (जो कि एक गुर्जर थे) को अजमेर में गुर्जर बहुल इलाकों में प्रचार करने के लिए कहा गया था, लेकिन उन्होंने गुर्जर समुदाय को नाराज करते हुए केवल जाट इलाकों का ही दौरा किया." अजमेर के लोगों ने गांधी की हत्या से एक दिन पहले 20 मई को पहले चरण में मतदान किया था. कांग्रेस ने सहानुभूति की लहर में आखिरी दो चरणों में सबसे ज्यादा सीटें जीतीं.

कारण जो भी हो, धनखड़ भाजपा के रासा सिंह रावत से 25,343 वोटों से चुनाव हार गए. लेकिन उन्होंने खुद को फिर से खड़ा किया और 1993 में अजमेर के किशनगढ़ से विधानसभा चुनाव जीता. भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और भैरों सिंह शेखावत राजस्थान के मुख्यमंत्री बने रहे.

राजस्थान विधानसभा में अपने पांच सालों के कार्यकाल के दौरान, धनखड़ ने जनहित के कई मुद्दों को उठाया. उन्होंने किशनगढ़ में नागरिक मुद्दों, हिरासत में मौत और यातना से संबंधित प्रासंगिक प्रश्न पूछे. उन्होंने प्रश्नों, विशेष उल्लेखों, वाद-विवादों आदि के जरिए 186 बार विधानसभा में भाग लिया.

एक विधायक के रूप में, वह भाजपा की सांप्रदायिकता और आरएसएस की कट्टरता के कटु आलोचक थे. ऐसी ही एक बहस में, उन्होंने कहा कि 1993 में हुए चार विधानसभा चुनावों में से तीन- राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में भाजपा की हार इस बात की ताकीद है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद आरएसएस की सांप्रदायिक रणनीति चुनाव नहीं जिता पाएगी.

उन्होंने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन करके "धर्म को राजनीति से अलग करने" की कोशिशों के लिए पीवी नरसिम्हा राव सरकार को भी बधाई दी. इस विधेयक को विपक्ष का समर्थन नहीं मिला था, विपक्ष में भाजपा भी शामिल थी.

धनखड़ ने कहा, “निश्चित तौर पर वह राजनीति में धर्म का दखल नहीं चाहते थे. आपकी पार्टी (भाजपा) ने ऐसा नहीं होने दिया. लेकिन लोगों ने इसे कर दिखाया."

किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि दो दशक बाद यह तेजतर्रार विधायक अपनी कानूनी सूझबूझ को अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की ओर मोड़ देगा और उस अनुच्छेद 370 को खत्म करने वाले कानूनी "दिमाग" के रूप में उभरेगा जिसकी वजह से अगस्त 2019 तक जम्मू और कश्मीर राज्य को एक विशेष दर्जा हासिल था. राज्य को जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के केंद्र शासित प्रदेशों के रूप में भी डाउनग्रेड किया गया. वहीं बतौर बंगाल के राज्यपाल, धनखड़, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर "स्पष्ट मुस्लिम तुष्टिकरण" का आरोप लगाते रहते थे.

यही वह दौर भी था जब धनखड़ को निजी तौर पर सबसे बड़ी क्षति हुई. 1994 में उनके 14 साल के बेटे दीपक की ब्रेन हैमरेज के बाद मौत हो गई थी. धनखड़ ने इस दुख को निजता से सहन किया. लेकिन सार्वजनिक तौर पर कुछ दिनों बाद ही जारी विधानसभा सत्र में उनकी वापसी हुई. जब राज्य के गृह मंत्री कैलाश मेघवाल दीपक की शोक सभा में शामिल हुए, तो शोक संतप्त धनखड़ ने उनसे विधानसभा के कामकाज के बारे में बात की और बाड़मेर में पुलिस हिरासत में जुगता राम को दी गई यातनाओं को लेकर अपने सूचीबद्ध सवाल रखे. तीन पुलिसकर्मियों ने जुगता राम का लिंग काट दिया था.

बलवाड़ा के अनुसार, मेघवाल चर्चा से बचना चाहते थे, लेकिन धनखड़ अड़े रहे और उन्होंने उनके सहायक अधिकारियों को हिरासत में यातना के शिकार लोगों के मुआवजे के लिए थोड़ी रिसर्च करने को कहा. 23 मार्च, 1994 को विधानसभा की बहस के दस्तावेज बताते हैं कि धनखड़ ने मेघवाल से जुगता राम के मुआवजे और चिकित्सा उपचार को लेकर स्पष्टीकरण मांगा था.

कैसे एक सपने ने धनखड़ की राजनीतिक पारी पर पानी फेर दिया

बतौर विधायक अपने कार्यकाल के वर्षों के दौरान, धनखड़ अपने अगले कदम पर नजर गड़ाए हुए थे. खुद को राजस्थान में एक प्रमुख जाट नेता के रूप में स्थापित करने के लिए उन्होंने नागौर में राजनीतिक रूप से प्रभावशाली मिर्धा जाट नेताओं से मुलाकात की. उन्होंने छह बार के सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री नाथूराम मिर्धा के साथ एक मंच साझा किया और हाथ मिलाते हुए और तस्वीरों के लिए पोज देते हुए पश्चिमी राजस्थान की यात्रा की. उन्होंने नाथूराम के चाचा स्वर्गीय बलदेव राम मिर्धा की जयंती के कार्यक्रमों में भाग लेकर अपनी साख को और भी निखारा.

26 साल तक ‘द हिंदू’ के लिए राजस्थान पर रिपोर्टिंग करने वाले सनी सेबेस्टियन ने कहा, “कुछ समय तक धनखड़ नाथूराम के पीछे-पीछे चले. हो सकता है कि वह राज्य में एक प्रमुख जाट नेता के तौर पर उनकी जगह लेने की कोशिश कर रहे थे. हालांकि उन्होंने नाथूराम के साथ संबंध स्थापित किए, लेकिन उन्हें वह राजनीतिक विरासत हासिल न हो सकी.”

इस दौरान धनखड़ के भतीजे संदीप ने टाटा सिएरा में "जे अंकल" के साथ काफी यात्राएं कीं. उन्होंने कहा कि धनखड़ ने जल्द ही यह जान लिया कि नागौर और अन्य जगहों की राजनीति में, जहां भी जाट नेताओं का दबदबा था, वहां वह राजनीतिक दबदबा एक पारिवारिक उद्यम था.

संदीप ने राजनैतिक प्रतिस्पर्धा और जाट नेताओं में अपने परिवार को राजनीति में आगे लाने के प्रति झुकाव की ओर इशारा करते हुए कहा, "जब दो व्यक्ति एक ही लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं, तो उनमें से एक को तो पीछे हटना ही पड़ता है. लेकिन मैंने चाचा को कभी भी गाली-गलौज करते नहीं सुना. वह सभी के साथ दोस्ताना व्यवहार रखते थे."

फरवरी 1998 में 12वें लोकसभा चुनाव संपन्न हुए. धनखड़ ने झुंझुनूं से दिग्गज जाट नेता सीस राम ओला के खिलाफ चुनाव लड़ा. और धनखड़ जमानत जब्त करा बैठे.

यह उनका आखिरी प्रत्यक्ष चुनाव था. नौ महीने बाद जब विधानसभा चुनाव हुए तो कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में हारे हुए प्रत्याशियों को टिकट देने से इंकार कर दिया. नाराज धनखड़ 2000 में अपने कदम बीजेपी की ओर बढ़ाने से पहले कुछ समय के लिए शरद पवार के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में भी शामिल हुए.

संदीप ने कहा, "तब मेरी शादी थी. चाचा के बीजेपी में शामिल होने पर बहुत से रिपोर्टर उनसे मिलने आये थे."

धनखड़ ने अपनी सारी उम्मीदें 2003 के विधानसभा चुनावों से लगा रखी थीं. लेकिन पार्टी बदलकर भाजपा में जाने के बाद सबकुछ पूर्व नियोजित योजना के अनुसार नहीं हो पाया. राजस्थान की तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष वसुंधरा राजे ने कथित तौर पर धनखड़ से कहा कि अगर वो बीजेपी की ओर से उम्मीद लगाए एक अन्य शख्स मूल सिंह शेखावत को अपने लिए मना सकते हैं तो धनखड़ को पिलानी से टिकट मिल जाएगी.

मूल सिंह एक डॉक्टर थे. उनके बेटे यशवर्धन सिंह ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि धनखड़ एक सहयोगी के जरिए उन तक पहुंचे. यशवर्धन उस वक्त राजस्थान यूनिवर्सिटी में बीएससी के छात्र थे.

यशवर्धन ने कहा, "मैंने उस शख्स से कहा कि अगर धनखड़ को किसी से बात करनी है तो वह मेरे पिता हैं. धनखड़ ने मेरे पिता को यह कहते हुए फोन किया कि उन्हें कुछ खास बात करनी है. मेरे पिता जानते थे कि धनखड़ की नजर पिलानी से भी टिकट लेने पर है. मेरे पिता ने उनसे परसों मिलने को कहा.”

उनके कहे अनुसार धनखड़ और उनकी पत्नी ने पिलानी की यात्रा की और मूल सिंह के साथ बैठक की.

यशवर्धन ने कहा, “मेरे पिता ने उनसे कहा, ‘धनखड़ साहब, आप कल आते तो आपका काम हो जाता. कल मैंने एक सपना देखा जिसमें भगवान हनुमान ने मुझसे कहा कि मुझे यह चुनाव किसी भी कीमत पर लड़ना होगा, वरना यह मेरे और मेरे परिवार के लिए घातक होगा. मैं हनुमानजी की इच्छा के खिलाफ कैसे जा सकता हूं?’”

धनखड़ गुस्से में थे. वो स्वयं भगवान हनुमान भक्त थे, वे वहां से उठकर चले गए. मूल सिंह पिलानी से चुनाव लड़े और हार गए.

विद्याधर नगर (जयपुर) से बीजेपी विधायक नरपत सिंह राजवी, जिनकी शादी भैरों सिंह शेखावत की बेटी से हुई है, ने भी इसकी पुष्टि की कि धनखड़ 2003 में विधानसभा चुनाव लड़ने के इच्छुक थे. राजवी उस वक्त बीजेपी के महासचिव थे.

उन्होंने कहा, “हमारे पास लंबे समय से पार्टी के लिए काम करने वाले लोग थे. उन्होंने अपनी तरफ से हर कोशिश की. लेकिन वह (वसुंधरा राजे) इसे उचित नहीं मानती थीं.”

इस पर टिप्पणी के लिए राजवी से संपर्क नहीं हो पाया.

धनखड़ के भतीजे और बहनोई का दावा है कि वो दो बार भाजपा से राज्यसभा का टिकट पाने के करीब पहुंचे चुके थे. बलवाड़ा के मुताबिक, सबसे करीबी मामला 2010 का था.

हालांकि राजवी का कहना है कि यह बात ठीक नहीं जान पड़ती. उन्होंने कहा, “जहां तक मुझे पता है, जगदीप धनखड़ को राज्यसभा का टिकट देने पर कोई चर्चा नहीं हुई थी. व्यक्तिगत तौर पर ही उन्होंने अपने मामले को आगे बढ़ाया होगा."

पत्रकार पुष्प सराफ ने कहा कि धनखड़ का पहला प्यार तो वकालत थी. उनका मानना ​​है कि धनखड़ ने अपने कानूनी काम जारी रखने के लिए ही राज्यसभा की सीट को प्राथमिकता दी होगी.

बतौर उपराष्ट्रपति, धनखड़ ने कानूनी मामलों के प्रति अपनी लालसा को कोई छिपा कर नहीं रखा है. एक बार उन्होंने पूर्व अमेरिकी न्यायाधीश जोसेफ स्टोरी को उद्धृत करते हुए कहा था कि कानून एक ईर्ष्यालु महबूबा है और इसके लिए लंबे और निरंतर प्रेमालाप की आवश्यकता होती है. इसे तुच्छ एहसानों से नहीं, बल्कि भव्य श्रद्धांजलि से जीता जा सकता है.

उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं विफल हो गईं, धनखड़ ने एक बार फिर साल 2000 में आरएसएस की ओर रुख किया.

आरएसएस के लिए कानूनी परोपकारिता

कथित तौर पर धनखड़ आरएसएस के वरिष्ठ नेता इंद्रेश कुमार और कमलेश सिंह के करीबी बन गए. उन्होंने संगठन को कई मामलों में कानूनी सुझाव भी दिए.

उनकी सेवाएं खास तौर से इंद्रेश के लिए बेशकीमती साबित हुई थीं. वो समझौता एक्सप्रेस और 2007 के अजमेर विस्फोटों में आरोपी थे. एक सूत्र के अनुसार, धनखड़ ने कुमार और उनकी कानूनी टीम का "मार्गदर्शन" किया, जिससे दोनों ही मामलों में कुमार बरी हो गए.

2010 में, वह आरएसएस के कानूनी प्रकोष्ठ अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद (एबीएपी) की कार्यसमिति, के विशेष आमंत्रित सदस्य बने. 2016 में, उन्हें भाजपा के कानूनी प्रकोष्ठ का अध्यक्ष नामित किया गया. एबीएपी के दो सदस्यों और सूत्र ने बताया कि आरएसएस द्वारा अयोध्या में राम मंदिर और राम सेतु को राष्ट्रीय स्मारक घोषित करने और 2006 के मालेगांव विस्फोटों जैसे अन्य मामलों में सलाह के लिए धनखड़ का रुख किया गया.

बीजेपी नेता राजेंद्र सिंह राठौर, जो राजस्थान विधानसभा में विपक्ष के नेता भी हैं, ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि धनखड़ ने राम मंदिर मुद्दे पर "घंटों" अध्ययन किया और "आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व के साथ अपने इनपुट्स साझा किए".

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति अनीश कुमार गुप्ता ने एबीएपी में काम करने के वर्षों के दौरान धनखड़ के साथ भी काम किया था. उन्होंने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि धनखड़ राम जन्मभूमि मामले में "विनम्र", "आसानी से संपर्क किए जा सकने वाले" और हमेशा हिंदू पक्षकारों का पर्दे के पीछे से "मार्गदर्शन" करने वाले शख्स हैं. धनखड़ ने अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए विधायिका के रास्ते का समर्थन किया था, भले ही मामला सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन था.

न्यायमूर्ति गुप्ता ने अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के कदम को भी धनखड़ का "बेबी" कहा.

जयपुर में आरएसएस के प्रांत संघचालक रमेश चंद्र अग्रवाल भी धनखड़ की बिल्कुल इसी तरह तारीफ कर रहे थे. उन्होंने धनखड़ का नाम लिए बिना कहा, “पिछले आठ से दस सालों में एक विशेष राजनीतिक दल ने भगवा आतंक का मिथक फैलाया और राष्ट्रवादियों को देश भर की अलग-अलग अदालतों में फंसाने का काम किया. उन्होंने आरएसएस को भी फंसाने की कोशिश की. एक ऐसे मुश्किल दौर में जब राष्ट्रवादी प्रशासन के हाथों अन्याय झेल रहे थे तब एक काबिल वकील उनके साथ खड़ा था और उसने इन राष्ट्रवादियों पर लगे आरोपों को झूठा साबित करने में भी बहुत अहम भूमिका निभाई.

आरएसएस से जुड़े मामलों के अलावा, धनखड़ की कानूनी परिपक्वता ने 2006 के एक फर्जी मुठभेड़ मामले में राठौड़ को बचा लिया था. राठौर तब भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकार में मंत्री थे. राठौर ने धनखड़ के शागिर्द का जिक्र करते हुए कहा, "हेमंत नाहटा ने इस मामले में बहस की थी. लेकिन उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से धनखड़ का सहयोग प्राप्त था." 

राठौर को 2018 में बरी कर दिया गया. एक सूत्र के मुताबिक 2011 में राजस्थान के भरतपुर जिले में गोपालगढ़ दंगों के मामले में धनखड़ ने हिंदुओं के लिए पर्दे के पीछे से काम किया. पुलिस फायरिंग और सांप्रदायिक दंगों में कम से कम 10 मुसलमान मारे गए थे.

आरएसएस की विचारधारा से जुड़े अदालती मामलों और अन्य मुकदमों में धनखड़ ज्यादातर पर्दे के पीछे ही रहे.

धनखड़ के एक करीबी सूत्र ने कहा, "उनका तर्क था कि अगर वह किसी मामले का प्रतिनिधित्व करते हैं, तो यह अनावश्यक रूप से मीडिया का ध्यान आकर्षित करेगा और चूंकि वह एक प्रसिद्ध वकील थे इसलिए उनकी छवि न्यायाधीशों के बीच नकारात्मक बन सकती है."

धनखड़ से प्रभावित होकर और आभार जताने के लिए आरएसएस ने 2019 में धनखड़ के नाम को बंगाल के राज्यपाल के लिए आगे बढ़ाया. जुलाई 2019 में धनखड़ भाजपा के केशरी नाथ त्रिपाठी के बाद राज्यपाल बने. उनका तीन साल का कार्यकाल राज्य में ममता बनर्जी सरकार के साथ संघर्ष करते हुए बीता.

अपने कार्यकाल के दौरान, उन्होंने जाधवपुर विश्वविद्यालय में छात्रों से राज्य मंत्री बाबुल सुप्रियो को बचाया; नौकरशाहों, शीर्ष पुलिस अधिकारियों और कुलपतियों को तलब किया; राज्य सरकार की इच्छा के विरुद्ध नारदा मामले की सीबीआई जांच को मंजूरी दी; अनेक मानदंडों का उल्लंघन किया और चुनाव के बाद की हिंसा से प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया. एक दुर्गा पूजा कार्यक्रम में उन्होनें अपनी सीट के लिए निर्धारित जगह पर आपत्ति जताई और तृणमूल कांग्रेस सरकार पर उन्हें यात्रा के लिए एक हेलीकॉप्टर न देने का आरोप लगाया.

धनखड़ ने आरोप- प्रत्यारोप लगने पर उन संवैधानिक धाराओं का हवाला दिया जो उन्हें अनिवार्य रूप से जवाब मांगने या कार्रवाई करने का अधिकार देती थीं.

उनका विरोधभाव सोशल मीडिया पर भी छाया रहा. धनखड़ के ट्वीट से चिढ़कर ममता बनर्जी ने उन्हें ट्विटर पर ब्लॉक कर दिया. वह बार-बार उन्हें भाजपा का "प्रवक्ता" कहती रहीं और यहां तक आरोप लगाया कि कि 1993 के जैन हवाला मामले में दायर चार्जशीट में धनखड़ का नाम भी शामिल रहा है. धनखड़ ने जवाब दिया कि वह "गलत सूचना फैला रही थीं."

लेकिन धनखड़ के एक करीबी सूत्र ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि वर्तमान उपाध्यक्ष ने जैन भाइयों की मुकदमेबाजी के समय मदद की थी. वही जैन भाई जिन्होंने कथित तौर पर राजनीति और नौकरशाही के लोगों को रिश्वत दी थी. जैन हवाला डायरी में धनखड़ के गुरु देवीलाल का नाम भी शामिल है.

भाजपा ने अपनी ओर से धनखड़ के जुझारूपन पर अच्छी तरह से गौर किया.

2022 में, उपराष्ट्रपति के चुनाव के नामांकन की घोषणा की गई. आरिफ मोहम्मद खान और मनोज सिन्हा को शामिल करने वाली मूल सूची से कथित रूप से नरेंद्र मोदी के नाखुश होने के बाद धनखड़ का नाम सुझाया गया. भाजपा के नामांकन की घोषणा करने से कुछ समय पहले आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत और अन्य लोगों ने किठाना में धनखड़ के फार्महाउस पर रात का भोजन किया जिसकी मेजबानी उनकी पत्नी सुदेश द्वारा की गई थी.

नामांकन की घोषणा से पहले धनखड़ ने दार्जिलिंग में ममता बनर्जी और असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा से कथित तौर पर उप-राष्ट्रपति चुनाव के संबंध में एक "गुप्त सौदे" को लेकर एक मुलाकात की. मतदान के दिन तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) यह कहते हुए अनुपस्थित रही की विपक्षी उम्मीदवार- कांग्रेस की मार्गरेट अल्वा - को "उचित परामर्श और विचार-विमर्श के बिना" चुना गया था.

इस बारे में जानने के लिए न्यूज़लॉन्ड्री ने टीएमसी के आधिकारिक प्रवक्ता से संपर्क किया, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला.

उपराष्ट्रपति रहते हुए धनखड़ द्वारा प्रोटोकॉल का अनोखा पालन जारी हैं, जैसा कि जाट महासभा के नेता राजा राम मील ने बताया, जिन्होंने उन्हें 5 मार्च को जयपुर में एक कार्यक्रम के लिए आमंत्रित किया था.

मील ने कहा, "उनके द्वारा उल्लिखित कई शर्तें थीं कि सामुदायिक बैठकों में, इन शर्तों का पालन नहीं किया जा सकता. उनमें से कुछ इस बात से संबंधित थे कि कौन पहले या आखिरी में बोलेगा, या वह कितने समय तक रुकेगा... हमने एक बैठक की और तय किया कि उनकी शर्तें पूरी नहीं की जा सकतीं.

imageby :शामभवी ठाकुर

राज्यसभा के सभापति

धनखड़ उप-राष्ट्रपति के रूप में भाजपा द्वारा तय किए गए सभी मानकों पर खरे उतरते हैं. वह राज्यसभा में एक अवरोधक की भूमिका में नजर आते हैं और अपने फैसलों को राज्यसभा की नियम पुस्तिका का हवाला देकर उचित ठहरा देते हैं.

राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने पूर्व सभापति वेंकैया नायडू के लिए दिए गए अपने विदाई भाषण में एक कहा था, "आपके साथ से ये मंजर रौनक जैसा है, आपके बाद ये मौसम बहुत सताएगा." 

केवल दो सत्र ही बीते हैं, किंतु विपक्ष अभी से ही धनखड़ के व्यवधान और विपक्षी नेताओं के भाषण को राज्यसभा से हटाए जाने का ताप महसूस कर रहा है.

पिछले साल शीतकालीन सत्र के दौरान जब विपक्ष ने सीमा पर चीनी घुसपैठ पर बहस की मांग की तो धनखड़ ने उसे यह कहकर ठुकरा दिया कि नियम 267 के तहत बहस के लिए दिया गया नोटिस सही नहीं है.

फरवरी में बजट सत्र के पहले चरण में धनखड़ ने एक न्यायाधीश की तरह विपक्षी नेताओं के बयानों को सबूत के साथ प्रमाणित करने की मांग की. खड़गे और कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह के बयानों को धनकड़ ने बार-बार "प्रमाणित" करने को कहा. जैसे ही सिंह राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर बोलने के लिए खड़े हुए, सभापति ने टोकते हुए कहा, "आपको कुछ दस्तावेजों को प्रमाणित करने के लिए कहा जा सकता है."

कुल मिलाकर,खड़गे के भाषण में छह जगह कटौती की गई क्योंकि धनखड़ ने जोर देकर कहा था कि सभी शब्द "राष्ट्रीय हित" में होने चाहिए.

उन्हें विपक्ष के तीखे तेवरों का सामना करना पड़ा. टीएमसी सांसद डेरेक ओ ब्रायन ने कहा कि केवल विपक्ष को ही उनके भाषण "प्रमाणित" करने के लिए कहा गया. कांग्रेस के जयराम रमेश ने लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला से पूछा था कि क्या वह नरेंद्र मोदी द्वारा बोले गए "झूठों" को भी लोकसभा के रिकॉर्ड से निष्कासित करेंगे. रमेश, वेंकैया नायडू के दिनों को भी याद कर रहे थे.

धनखड़ का कहना है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण से भी उनके दावे की पुष्टि करने के लिए कहा गया था जिसमें उन्होंने खड़गे पर अपने सुविधानुसार पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का उपयोग करने का आरोप लगाया था.

बजट सत्र के दूसरे चरण को राहुल गांधी की "लोकतंत्र पर हमले" की टिप्पणी और अडानी विवाद के बाद बहुत कम या कोई काम नहीं होने के कारण स्थगित कर दिया गया था. यह बजट सत्र पांच वर्षों में सबसे कम फलदायी रहा.

जब विपक्ष ने हिंडनबर्ग-अडानी विवाद की संयुक्त संसदीय समिति की जांच की मांग की, तो धनखड़ ने संसद को "लोकतंत्र का ध्रुव तारा" बताया. सत्र के अंतिम दिन सदन के नेता पीयूष गोयल से माफी मांगने की विपक्ष की मांग को धनखड़ ने खारिज कर दिया. खड़गे ने बाद में कहा कि पीठासीन अधिकारी को सत्ता पक्ष के प्रति वफादारी प्रदर्शित नहीं करनी चाहिए.

राज्यसभा के बाहर, धनखड़ का व्यवहार केंद्रीय मंत्री जैसा दिखता है. उन्होंने उद्योगपतियों को भारत पर "हमला" करने वाली विदेशी संस्थाओं को धन देने के खिलाफ आगाह किया और "विदेशी भूमि पर उभरते भारत की छवि को धूमिल करने" के लिए राहुल गांधी की आलोचना की. पिछले हफ्ते, उन्होंने कहा कि विदेशी विश्वविद्यालय "भारत विरोधी गतिविधियों" का केंद्र है और "हमारे सभ्यतागत संस्कारों" को खत्म कर रहे हैं.

मार्च में जब निजी स्टाफ सदस्यों को हाउस कमिटियों में नियुक्त करने का आरोप लगा, तो उन्होंने इस पर कोई टिप्पणी नहीं की. कम से कम दो कर्मचारी धनखड़ के करीबी हैं. अभ्युदय सिंह शेखावत आरएसएस कार्यकर्ता और धनखड़ के विश्वासपात्र प्रताप भानु सिंह के बेटे हैं. अखिल चौधरी धनखड़ के भतीजे का बेटा है.

ये आरोप असामान्य नहीं हैं. बंगाल में अपने शासन के दौरान, उन पर अभ्युदय और अखिल सहित रिश्तेदारों और अन्य लोगों को राज्यपाल के कार्यालय में नियुक्त करने का आरोप लगाया गया था.

धनखड़ के कारनामों को गिनाते हुए, भाजपा विधायक राठौर ने धनखड़ को चालाक बताया - कोई है जो "एक ही तालाब पर एक बकरी और एक शेर दोनों को पानी पिला सकता है".

क्या धनखड़ सत्ता और विपक्ष को राज्यसभा में एक साथ लाकर ये जादू दोहरा पाएंगे? यदि पिछले दो सत्र को देखें, तो ये एक मुश्किल काम जान पड़ता है.

एक सवाल यह भी है कि क्या धनखड़ की महत्वाकांक्षाएं राष्ट्रपति पद तक बढ़ेंगी. वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी ने न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए बताया कि "हर उपराष्ट्रपति की आकांक्षा राष्ट्रपति भवन में जाने की होती है", लेकिन पिछले दो दशकों में अब तक किसी भी उपराष्ट्रपति ने दो किमी की यह दूरी तय नहीं की है. भारत के आखिरी उप-राष्ट्रपति जो राष्ट्रपति के पद पर सुशोभित हुए वे केआर नारायणन थे.

हालांकि, एक सूत्र के मुताबिक पिछले साल 13 नवंबर को कंबोडिया में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की धनखड़ से बातचीत कुछ इसी तरफ इशारा करती है.

बाइडेन ने कथित तौर पर धनखड़ से कहा, “आपकी तरह मैं भी कभी अमेरिका का उप-राष्ट्रपति था.”

धनखड़ की ओर से फौरन जवाब आया, "मैं आपके नक्शेकदम पर ही चल रहा हूं, सर."

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