प्रतिबंध के बावजूद दिल्ली में मैनुअल स्कैवेंजिंग का काम जारी है. इस सफाई के दौरान कई नाबालिग भी नालों में दिखे. ये सभी सफाईकर्मी दलित हैं और यह डॉ आंबेडकर को जानने से इंकार करते हैं.
देश में मैनुअल स्कैवेंजिंग यानी हाथ से मैला उठाने पर पूरी तरह से प्रतिबंध है. द प्रॉहिबिटेशन ऑफ एंप्लॉयमेंट एज मैनुअल स्कैवेंजर्स एंड देयर रिहैबिलिटेशन एक्ट-2013 के तहत कोई भी व्यक्ति अथवा एजेंसी किसी भी व्यक्ति से मैनुअल स्कैवेंजिंग नहीं करा सकते हैं. कोई भी व्यक्ति या एजेंसी इस एक्ट का उल्लंघन करता है तो एक्ट की धारा 8 के तहत उसे 2 साल का कारावास अथवा एक लाख रुपए जुर्माना या दोनों हो सकते हैं.
इस कानून को लागू हुए भले ही करीब एक दशक होने को है लेकिन हाथ से मैला उठाने का कार्य बदस्तूर जारी है. दूरदराज गांव-देहात को तो छोड़िए देश की राजधानी के एक पॉश इलाके में खुलेआम ये काम हो रहा है. ठेकेदार, लोगों को इस काम पर लगा रहे हैं और गरीबी के कारण कुछ लोग आज भी मैला उठाने और सफाई करने को मजूबर हैं.
विडंबना ये कि आज 14 अप्रैल यानी डॉक्टर भीमराव आंबेडकर जयंती के दिन ये सफाईकर्मी बिना किसी सुरक्षा और तकनीकी उपकरण के सफाई करते दिखे.
यह तमाम तस्वीरें दिल्ली के पॉश इलाकों में से एक हौज़ खास के अरविंदो मार्ग की हैं. हैरानी की बात ये है कि इन सफाई कर्मियों में कई नाबालिग हैं. ठेकेदार राजू राय के मुताबिक सफाईकर्मी सुबह से शाम तक नालों की सफाई करते हैं.
राजू बताते हैं, दिल्ली सरकार के पीडब्ल्यूडी विभाग की ओर से उन्हें एक साल के लिए नालों और सीवर की सफाई का ठेका मिला है. उन्हें 25 लाख रुपए में इस साल का ठेका मिला है. फिलहाल, दिल्ली में 4 से 5 जगहों पर उनका काम चल रहा है. जहां 15 से 20 लोग नालों और सीवर सफाई का काम कर रहे हैं.
वह बताते हैं, “इनमें से कुछ लड़के 15 हजार रुपए महीने पर हैं तो कुछ दिहाड़ी पर भी हैं. दिहाड़ी वालों को 500 रुपए मिलते हैं. वे सुबह 9 बजे से शाम 5 बजे तक काम करते हैं.”
काम करने वाले लड़के कहां से मिलते हैं? इस सवाल पर वह कहते हैं कि एक लेबर ठेकेदार के जरिए वे इन्हें काम के लिए लाते हैं.
सुरक्षा उपकरणों के सवाल पर राजू कहते हैं, “यह सभी लड़के शराब पीकर काम करते हैं. नालों की सफाई का सारा काम शराब पीकर ही होता है. बिना पीए तो कोई काम कर ही नहीं पाएगा. इसीलिए ये लोग नशा किए बिना काम नहीं कर सकते हैं.”
इस बीच ठेकेदार राय जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कहते हैं कि यह काम सिर्फ इसी जाति के लोग कर सकते हैं. इस काम को और कोई नहीं कर सकता है, इसलिए ये पैसा भी हाई-फाई लेते हैं.
500 रुपए हाई-फाई होते हैं? इस सवाल के जवाब में वह कहते हैं, “इतने पैसे ये इसलिए लेते हैं क्योंकि यह काम कोई और नहीं कर सकता है. ये लोग एक पव्वा सुबह और एक दोपहर में पीते हैं. तब जाकर यह काम कर पाते हैं.”
बिरजू, इन्हीं सफाईकर्मियों में से एक हैं. मूल रूप से उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर निवासी बिरजू 32 साल के हैं. वह पिछले 14 साल से मैला ढोने का काम कर रहे हैं.
बिरजू कहते हैं, “नाले में घुसने से कभी-कभी दिक्कत हो जाती है. पैर में कांच लग जाता है.”
कई नाबालिग लड़के भी हमें यहां नाले में घुसते दिखाई दिए. इनमें से 17 वर्षीय अरुण वाल्मीकि भी हैं. जब उनसे आंबेडकर के बारे में पूछा तो उन्होंने गर्दन हिलाकर नहीं में जवाब दिया. महिपालपुर निवासी अरुण कहते हैं कि उसने पढ़ाई छोड़ दी है क्योंकि उसमें मन नहीं लग रहा था.
अरुण बताते हैं, “मेरे पापा होटल में काम करते हैं. मुझे अभी यहां आए एक हफ्ता ही हुआ है. लेकिन मैं अभी तक सीवर में नहीं उतरा हूं, मुझे डर लगता है. मैं सिर्फ अभी साफ सफाई और सीवर का ढक्कन बंद करने का ही काम कर रहा हूं. जो लड़के सीवर में उतरते हैं वह भी नशा करके ही उतरते हैं. वो तो सुबह से ही पी लेते हैं, तभी काम भी कर पाते हैं.”
एक और नाबालिग, अमरजीत कहते हैं कि उन्हें इस काम के रोजाना 700 रुपए दिहाड़ी मिल रही है. कोई काम नहीं मिल रहा था. इसलिए पेट भरने के लिए कुछ तो करना होगा.
ऐसे ही अजय को 400 रुपए दिहाड़ी मिलती है. वह भी पेट भरने की मजबूरी का हवाला देते हैं.
उत्तर प्रदेश के बदायूं निवासी 28 वर्षीय मनोज अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ रंगपुरी पहाड़ी इलाके में रहते हैं. वह कहते हैं कि इस काम को करने में दिक्कत तो आती है लेकिन अब काम देखें या पेट?
यहां जिस भी सफाईकर्मी से पूछा तो पता चला कि सबको अलग-अलग दिहाड़ी मिल रही है. 400 रुपये से लेकर 700 रुपये की दिहाड़ी इन्हें मिल रही है.
यह सभी लोग दलित समुदाय से आते हैं और दलितों को उनके अधिकार दिलाने की लड़ाई लड़ने वाले आंबेडकर के बारे में इन्हें कोई जानकारी नहीं. इन लोगों को न आंबेडकर के बारे में कुछ पता है और न ही आज उनकी जयंती के बारे में. पूछने पर वह साफ मना कर देते हैं कि वह नहीं जानते हैं कि आंबेडकर कौन हैं.
एक अन्य सफाईकर्मी बिरजू भी इस काम को पिछले छह महीने से कर रहे हैं. वह कहते हैं कि ये नाले वाली लाइन है, इसलिए इसे साफ करने में ज्यादा परेशानी नहीं होती है. ज्यादा परेशानी सीवर लाइन में होती है. हालांकि वे भी पेट भरने की मजबूरी का हवाला देते हुए ये काम करने की बात कहते हैं. सिर्फ एक बिरजू ही हैं जो आंबेडकर के बारे में थोड़ा बहुत जानते हैं.
सैंकड़ों सफाईकर्मी चढ़ चुके हैं मौत की भेंट
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पिछले पांच सालों में भारत में 325 सफाईकर्मियों की मौत जहरीली गैस से हो चुकी है. इनमें सबसे ज्यादा 52 मौत उत्तर प्रदेश में हुई हैं. इसके बाद दिल्ली में 42 सफाईकर्मियों की मौत हुई है.
हालांकि, राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के आंकड़े एक अलग ही तस्वीर पेश करते हैं. आयोग ने 2020 में तीन सालों (2017,18,19) का आंकड़ा जारी किया था. इन आंकड़ों के मुताबिक 2019 में 110, 2018 में 68 और 2017 में 193 सफाईकर्मियों की मौत हुई है.
वहीं, केंद्र सरकार ने अपने आंकड़ों में 2017 में सिर्फ 93, 2018 में 2 और 2019 में सिर्फ 8 लोगों की मौत होने की बात कही है. न्यूज़लॉन्ड्री ने आंकड़ों की इस हेराफेरी को रिपोर्ट भी किया था. जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं.