नए आईटी नियमों पर अख़बारों की रायः मुंसिफ ही कातिल होगा तो इंसाफ कौन करेगा? 

नए आईटी नियमों पर आज अंग्रेज़ी के प्रमुख अखबारों में कड़े संपादकीय प्रकाशित हुए जबकि हिंदी के अखबारों में यह मुद्दा नदारद दिखा.

Article image

इलेक्ट्रॉनिक्स एंड आईटी राज्यमंत्री राजीव चंद्रेशखर इन दिनों सरकार की तरफ से घोषित नए आईटी नियमों पर संकटमोचक की भूमिका में हैं. आईटी के नए नियमों के मुताबिक अब सरकार जिस ऑनलाइन कंटेंट को फेक या भ्रामक बताएगी उसे सोशल मीडिया से हटाना होगा. 

आज के अंग्रेजी अखबारों में इस विषय पर कई संपादकीय लेख छपे हैं. लेकिन हिंदी के अखबारों में इस विषय पर एक किस्म की चुप्पी देखने को मिली है. एडिटर्स गिल्‍ड ऑफ इंडिया ने भी इन नए नियमों को ‘जबर्दस्ती’ और ‘सेंसरशिप के समान’ कहा है. विपक्षी दलों ने कहा है कि आलोचनात्मक ख़बरों को प्रतिबंधित करने के लिए सरकार का ये नया तरीका है. 

दो दिन से इन नियमों को लेकर चर्चा हो रही है. हमने अख़बारों की संपादकीय टिप्पणी को खंगाला है. 

हिंदी के अखबारों से मुद्दा गायब

अमर उजाला, दिल्ली संस्करण में कोरोना के बढ़ते मामलों पर संपादकीय छपा है. दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में भी कोरोना को लेकर सतर्कता बरतने की सलाह वाला संपादकीय नमूदार हुआ. कुछ ऐसा ही हाल दैनिक भास्कर का भी है. भास्कर में भी इस नीति पर संपादकीय टिप्पणी गायब है. भास्कर में रिटायरमेंट की उम्र और पेंशन नीति पर आम सहमति बनाने को लेकर संपादकीय टिप्पणी है. इंडियन एक्सप्रेस समूह के हिंदी अख़बार जनसत्ता में नई नीति पर संपादकीय टिप्पणी नहीं है. यहां छपे संपादकीय में रिज़र्व बैंक के रेपो रेट में बदलाव न करने का मुद्दा शामिल हुआ है. कुल मिलाकर देखा जाए तो हिंदी के लगभग कई बड़े अख़बारों में इस मामले पर संपादकीय चुप्पी साफ दिखती है. दैनिक हिंदुस्तान में ईंधन की बढ़ती कीमतों को लेकर संपादकीय टिप्पणी छपी है. 

अंग्रेजी अख़बारों में तीखी टिप्पणी

आज के अंग्रेजी के अख़बारों में ये मुद्दा प्रमुख है. अंग्रेजी के दो प्रमुख अख़बारों इंडियन एक्सप्रेस और टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपनी पहली संपादकीय टिप्पणी इसी विषय पर प्रकाशित की है. इंडियन एक्सप्रेस अख़बार ने लिखा है कि सरकार ने ऑनलाइन कंटेंट के मामले में खुद को ही जज, ज्यूरी और जल्लाद बना लिया है. जो कि फ्री स्पीच (बोलने की आजादी) के लिए गंभीर खतरा है. 

संपादकीय में कहा गया है कि केंद्र द्वारा गुजरात दंगों में नरेंद्र मोदी की भूमिका पर बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री पर प्रतिबंध लगाने के तीन महीने बाद ये संशोधन आया है. संपादकीय में कहा गया है कि सरकार का इरादा- "खुद को एक संपादक की भूमिका में लाने का लगता है, जिसमें वह बेलगाम और अनियंत्रित शक्तियों के साथ यह तय करेगी कि क्या प्रकाशित किया जा सकता है और क्या नहीं."

एक्सप्रेस ने कहा, "हालांकि, एक व्यवस्था, जहां सरकार की एक इकाई को ऑनलाइन सामग्री की वैधता निर्धारित करने का विवेकाधिर होगा, जोखिम भरा हो सकता है. श्रेया सिंघल बनाम भारत सरकार और आईटी एक्ट मामले में भी ऐसी "शॉर्ट-सर्किट" प्रक्रियाओं का उल्लेख है. हालांकि, ऐसे माहौल में जहां विरोध और असहमति को रोकने के लिए कानूनों को तेजी से हथियार बनाया जा रहा है, ऐसे प्रावधानों का दुरुपयोग संभव है."

टाइम्स ऑफ इंडिया ने भी इस विषय पर संपादकीय लिखा है. अख़बार ने इशारा करते हुए कहा कि खुद राज्यमंत्री चंद्रशेखर ने टाइम्स ऑफ इंडिया को बताया था कि मीडिया पहले से ही कानूनों के जरिए नियमित है और ये नया संशोधन मध्यस्थों के लिए है, मीडिया के लिए नहीं.

संपादकीय में कहा गया है, "सबसे पहले, ध्यान रखें कि मध्यस्थ, मीडिया के काम करने के रास्तों में से एक हैं. इसलिए, उन पर कोई भी मनमाना प्रतिबंध समाचारों तक सार्वजनिक पहुंच को प्रभावित कर सकता है."

संपादकीय कहता है कि भले ही किसी रिपोर्ट में तथ्य "निंदा से परे" हों, मगर सरकारी तंत्र को यह "समस्याजनक" लग सकता है और इसलिए इसे हटाने का आदेश दिया जा सकता है.

Also see
article imageराहुल गांधी की सदस्यता रद्द किए जाने पर क्या कहते हैं हिंदी अखबारों के संपादकीय
article image‘एनडीटीवी की संपादकीय नीति में कोई बदलाव नहीं होगा': अडानी ग्रुप के टेकओवर के बाद पहली बैठक

Comments

We take comments from subscribers only!  Subscribe now to post comments! 
Already a subscriber?  Login


You may also like