क्या सुशांत, क्या राणा और क्या सुधीर- जैसे कुएं में घुली भांग

दिन ब दिन की इंटरनेट बहसों और खबरिया चैनलों के रंगमंच पर संक्षिप्त टिप्पणी.

WrittenBy:अतुल चौरसिया
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धृतराष्ट्र-संजय के बीच इस हफ्ते दुनिया ए फानी को अलविदा कह गए सतीश कौशिक और होली पर महिलाओं के साथ लपकों-उचक्कों की अश्लीलता, छेड़छाड़ और मनबढ़ई की खबरों पर विस्तार से चर्चा. इसके अलावा डंकापति और उनके शागिर्दों की खोज खबर.

टिप्पणी में एक सरसरी जायज़ा उन कूढ़मगज, घामड़, हुड़कचुल्लू एंकर एंकराओं का भी लिया गया जिनके होने से ये अहसास बना रहता है कि इस देश को अच्छी पत्रकारिता की सख्त जरूरत है. इनमें से एक चमचमाता हुआ नाम है सुशांत बाबू सिन्हा. उनके कारनामों पर एक विस्तृत टिप्पणी.

इसके अलावा तिहाड़ शिरोमणि और रूबिका लियाक़त की कुछ कहानियां भी इस टिप्पणी में शामिल हैं. लेकिन आपको जिस बात पर सबसे ज्यादा तवज्जो देना चाहिए वो है राणा यशवंत की वह कोशिश जिसके लिए हम बस सदबुद्धि की कामना कर सकते हैं. होली, परंपरा, संस्कृति और धर्म की आड़ लेकर उन्होंने अपनी दुकान चमकाने की जमकर कोशिश की. हमने इस कोशिश का जायजा लिया है.

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