केरल: जंगली जानवरों के हमलों से होने वाला नुकसान और बढ़ता कर्ज

केरल का लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र है. कोट्टियूर वन्यजीव अभयारण्य के पास के स्थित गांव के ज़रिये इस संघर्ष पर एक नज़र.

थॉमस का कहना है कि उनकी काजू की फसल बुरी तरह प्रभावित हुई है.

काजू की खेती करने वाले 69 वर्षीय थॉमस केडी कहते हैं, “पहले किसानों के लिए टकराव का मुख्य कारण जमींदार थे, लेकिन जंगली जानवरों ने जमींदारों की भूमिका को बदल दिया है.” उनकी पैदावार सात से घट कर दो क्विंटल तक रह गई है. सरकार की उदासीनता के विरोध में अपने काजू के बागान में बैनर लेकर बैठे हुए वह बंदरों के हमलों पर अपने नुकसान का आरोप लगाते हैं.

थॉमस की शिकायत केरल के कन्नूर जिले में हरे-भरे पश्चिमी घाट की तलहटी में कोट्टियूर वन्यजीव अभयारण्य की सीमा से लगे इलाकों की दबी हुई बेचैनी का संकेत है. वह कोट्टियूर गांव के ऐसे 20,000 से ज़्यादा निवासियों में से एक हैं, जिनकी आजीविका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है. कोट्टियूर की अधिकांश आबादी केले, रबर, सूखा खोपरा, काली मिर्च, सुपारी और काजू जैसी फसलों की खेती करती है.

जंगली जानवरों के हमलों से होने वाले नुकसान और बढ़ते कर्ज को देखते हुए 500 से ज़्यादा लोगों ने कन्नूर जिले में स्वैच्छिक पुनर्वास के लिए वन विभाग की योजना का विकल्प चुना है.

हालांकि वन्यजीवों के हमलों से कोट्टियूर में ज़्यादा जानें नहीं गईं हैं लेकिन इंसान और वन्यजीवों का संघर्ष इस सप्ताह सुर्खियों में रहा, जब यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट ने केरल विधानसभा में वाकआउट किया. विपक्ष ने आरोप लगाया कि राज्य में 2018 के बाद से 640 मौतें हुई हैं और वन विभाग के पास समस्या को कम करने के लिए व्यवहार्य योजना नहीं है.

केरल का लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र में आता है और संरक्षित वनों के पास कई घनी आबादी वाली बस्तियां हैं, जिनमें से कई जगह खेतिहर भूमि जंगल के बहुत पास है.

इस बीच विपक्ष के हमले का जवाब देते हुए वन मंत्री एके ससींद्रन ने कहा कि राज्य "अकेले कार्रवाई नहीं कर सकता". उन्होंने कहा कि सरकार ने संवेदनशील क्षेत्रों के चारों ओर सोलर बाड़ और खंदक बनाए हैं. “वन विभाग नुकसान को कम करने के लिए आक्रामक रूप से कदम उठा रहा था क्योंकि 2,000 से अधिक जंगली सूअर को गोली मार दी गई थी. सरकार पर उंगली उठाना अनुचित था क्योंकि वो खतरे को समाप्त करने के लिए कड़ी मेहनत कर रही थी.”

लेकिन जंगल और मानव बस्तियों के बीच की सीमा बने बावली नदी किनारों पर कोट्टियूर में ज़्यादा कुछ नहीं बदला है.

50 वर्षीय किसान बीजू कहते हैं, "मैं सुबह करीब 4 बजे रबर की कटाई के लिए जाता था, लेकिन पिछले एक साल से मुझे बागानों के अंदर जंगली सूअरों से बचने के लिए सुबह 5:30 बजे जाना पड़ता था." वे बताते हैं कि इससे उत्पादन प्रभावित हुआ क्योंकि लेटेक्स संग्रह के लिए सुबह के नल बेहतर होते हैं. "आज, कुछ न लगाना ही सबसे अच्छा है, ख़ास तौर पर रबर, क्योंकि इसकी कीमत आज भी वही है जो 15 साल पहले थी. जंगली सूअरों ने इस परिस्थिति में इसे और भी कठिन बना दिया है.”

इसका असर पूरे परिवार पर पड़ा है. बीजू की पत्नी जैंसी अपनी पशुशाला की देखभाल करती थीं और एक सेल्फ-हेल्प समूह के साथ भी काम करती थीं, लेकिन उन्हें मुश्किल से ही रोज़मर्रा के कामों को संतुलित करने का समय मिलता है क्योंकि उनके पास "सूबह 7 बजे टैपिंग खत्म करने के लिए एक साथ जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है”. 

47 वर्षीय जैंसी कहती हैं, “जब भी हम सुबह-सुबह अपने खेतों में जाते हैं तो जंगली सूअरों को झुंड में घूमते देखा जा सकता है. खेतों में मौजूद थोड़ी बहुत टैपिओका की अक्सर उखड़ी पड़ी रहती है.”

2011 की जनगणना के अनुसार, कोट्टियूर के 97.58 वर्ग किमी क्षेत्र में 63.55 वर्ग किमी वन क्षेत्र है और शेष 32.52 वर्ग किमी भूमि कृषि की है. कोट्टियूर वन्यजीव अभयारण्य की सीमाएं कर्नाटक के ब्रह्मगिरी वन्यजीव अभयारण्य और केरल में वायनाड और अरलम वन्यजीव अभयारण्यों के साथ मिली हुई हैं.

केले और नारियल के किसान टॉमी पीजे कहते हैं कि पिछले चार महीनों में बंदरों ने उनकी फसलों को "पूरी तरह नष्ट" कर दिया है. अपने भाई जॉय के साथ वह 10 एकड़ जमीन पर काजू भी उगाते हैं. 

जॉय कहते हैं, “जंगल के अंदर कृषि उपज की कमी की वजह जानवरों का यहां आना है. हमने उन्हें दूर भगाने के लिए अलग-अलग तरीके आजमाए, जैसे कि खिलौना सांप, मधुमक्खी के छत्ते और सूखी मछलियां, लेकिन वे अभी भी यहीं हैं.”

जिल्स मेक्कल एक स्थानीय एक्टिविस्ट हैं, वे किसान यूनियनों से जुड़े हैं और कोट्टियूर सेवा सहकारी बैंक के एक सेवानिवृत्त कर्मचारी हैं. वे किसानों के परिवार से ही आते हैं, “मैंने अपने करियर के दौरान लगातार किसानों से बातचीत की है. किसान खेती के लिए कर्ज लेने बैंक आते हैं और जब जंगली जानवरों के हमलों या प्राकृतिक आपदाओं के कारण उनकी फसल खराब हो जाती है, तो उनके लिए कर्ज चुकाना बेहद मुश्किल हो जाता है.”

सरकार ने मुआवजा देने के लिए एक तंत्र बनाया है. लेकिन योजना के तहत अपनी फसलों का बीमा कराने वाले किसान ही आवेदन कर सकते हैं. यह एक बहुस्तरीय प्रक्रिया है: पहले नुकसान को दिखाई देने वाले साक्ष्य, और कृषि सूचना प्रबंधन प्रणाली के माध्यम से एक आवेदन के साथ रिपोर्ट किया जाना चाहिए - उसके बाद अधिकारी नुकसान का आकलन करेंगे और एक रिपोर्ट जमा करेंगे.

कोट्टियूर ने पिछले साल अप्रैल से अब तक केवल 14 ऐसे आवेदन दाखिल किए हैं, जिनमें से 11 प्राकृतिक आपदाओं से संबंधित हैं.

हालांकि थॉमस के अनुसार ऐसा इसलिए है क्योंकि मुआवजा बाजार दरों के अनुपात में नहीं है. "अगर मैं फसल खराब होने के मुआवजे की मांग करता हूं, तो मुझे प्रति काजू के पेड़ के लिए मुश्किल से 165 रुपये मिलते हैं, जो किसान की मेहनत और उपज बाजार के अनुपात में न के बराबर है."

प्रधान कृषि अधिकारी शैलजा सीवी कहती हैं, “इनमें से अधिकांश सुविधाओं का उपयोग ऑनलाइन सरकारी पोर्टल के माध्यम से किया जाता है. कृषि विभाग उचित निर्णय लेता है और किसानों के बीमा दावों को मंजूर करता है. मुआवजे के बारे में किसानों की चिंताओं को देखते हुए आने वाले बजट में प्रशासन की कृषि क्षेत्र के लिए धन बढ़ाने की योजना है. हालांकि वन्यजीवों के हमले हमेशा एक समस्या रहे हैं, आज ये केरल में ज़्यादा बेचैनी पैदा कर रहे हैं.”

जील्स का दावा है कि इलाके के किसान अभी तक ऑनलाइन आवेदन प्रक्रियाओं के आदी नहीं हुए हैं और सरकारी सुविधाओं के सेवा केंद्रों, अक्षय कार्यालयों, में खुद जाना पसंद करते हैं. "एक किसान की आवेदन करने के लिए दर-दर भटकने में लगने वाले समय के मुकाबले खेत में काम करने से ज़्यादा आमदनी होती है."

हालांकि डिविजनल फॉरेस्ट ऑफिसर पी कार्तिक का कहना है, "हमें समाधान खोजने से पहले इस मुद्दे को समझना चाहिए. “फसल का पैटर्न बदलना, बंदरों का इलाके में प्रवेश करने का मुख्य कारण है. काजू तो हैं ही, लेकिन नई फसलें भी हैं जो वन्यजीवों के लिए आकर्षक हैं. जैव अपशिष्ट का ठीक से निपटारण न होना एक अन्य प्रमुख कारक है, जो न केवल बंदरों बल्कि अन्य जंगली जानवरों को भी आकर्षित करता है. भोजन की बहुतायत होने पर वे तेजी से आबादी बढ़ा सकते हैं. जानवरों को पिंजरे में बंद करने से समस्या का समाधान जैसी धारणाओं के बजाय, हमें एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए.”

कार्तिक कहते हैं कि एक समस्या है लेकिन "इसे एक आयामी तरीके से नहीं देखा जाना चाहिए". वे वन्यजीवन के विखंडन की ओर भी इशारा करते हैं. "हाथी लंबी दूरी के जानवर थे, लेकिन वे आज विखंडन के कारण वे जंगल के छोटे-छोटे टुकड़ों तक ही सीमित हैं. उनके अपने रास्ते प्रभावित हैं.” (हाथी पीढ़ी दर पीढ़ी, आने-जाने के लिए जंगलों में खुद निश्चित किए रास्ते इस्तेमाल करते हैं.)

जुलाई 2020 में, वन विभाग ने वन की परिधि पर पाल्माइरा बायोफेंसिंग लगाई, लेकिन उसी साल जिल्स के द्वारा बाद में दायर एक आरटीआई ने कथित तौर पर खुलासा किया कि लगाए गए 4,000 में से केवल 222 पाल्मीरा पौधे ही बचे हैं. जिल्स का कहना है कि उन्होंने इस मुद्दे को अधिकारियों के सामने उठाने की कोशिश की, लेकिन आज भी इस क्षेत्र में उचित बाड़ का अभाव है.

डीएफओ कार्तिक कहते हैं, “मेगाफौना के लिए बाड़ लगाना सफल है; हाथियों रुक जाते हैं. आप पूरे वन्य जीवन को बाड़ लगाकर प्रतिबंधित नहीं कर सकते. कभी-कभी पहले से कार्यान्वित परियोजनाओं पर लगातार नज़र रखना और उनका रखरखाव मुश्किल होता है, क्योंकि हम एक ही समय में कई परियोजनाओं के पीछे भाग रहे हैं.”

वन्यजीव अधिकारी संतोष कुमार बायोफेंसिंग परियोजना का हिस्सा नहीं थे. उन्होंने कहा कि अब “समाधान खोजने के लिए”, वैकल्पिक शोध "किया जा रहा है क्योंकि मौजूदा बाड़ें वन के अन्य प्राणियों को बाहर नहीं रखेंगी."

एमजी यूनिवर्सिटी में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ प्लांट साइंस टेक्नोलॉजी की निदेशक डॉ जीशा एम एस के अनुसार, "जलवायु की परिस्थितियां एक महत्वपूर्ण घटक हो सकती हैं. बाड़ों की बढ़ने की अवधि के दौरान वन्यजीवों का हमला एक और संभावना है. इन पेड़ों को आम तौर पर ज्यादा रखरखाव की ज़रूरत नहीं होती, हालांकि बढ़ती अवस्था में देख-भाल आवश्यक है.”

क्षेत्र में फसल पैटर्न बदलने की संभावना के बारे में डीएफओ कार्तिक कहते हैं, “जमीन पर लोगों को समझाना वास्तव में कठिन है, क्योंकि संभव है कि हम जो कहते हैं वह सही ढंग से न समझा जाए. ख़ास तौर पर वन विभाग को मिली नकारात्मक प्रसिद्धि को देखते हुए. वे अब इस तथ्य को ज़्यादा समझ रहे हैं कि हर जगह फसल के पैटर्न बदल रहे हैं. इन इलाकों में पारंपरिक रूप से केले और काजू के पेड़ों की खेती नहीं की जाती थी.”

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

Also see
article imageबन्दूक़ द्वीप: इंसान से लेकर पशु-पक्षियों के पलायन और प्रवास की कहानियां
article imageअरावली के बीच डंपिंग ग्राउंड: आसपास के गांवों में फैली बीमारियां, तो पशु-पक्षी हुए गायब

Comments

We take comments from subscribers only!  Subscribe now to post comments! 
Already a subscriber?  Login


You may also like