दिल्ली सरकार के दावे जमीनी हक़ीक़त से कोसों दूर हैं.
साल 2013 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने बड़ी धूमधाम के साथ हाथ से मैला ढोने की प्रथा को समाप्त कर दिया. इसने "हाथ से मैला ढोने वालों द्वारा झेले गए ऐतिहासिक अन्याय और अपमान को ठीक करने" की मांग की और राज्यों को भी ऐसा ही करने का निर्देश दिया.
दिल्ली में, सरकार द्वारा दावा किया गया है कि यहां एक भी हाथ से मैला ढोने वाला व्यक्ति नहीं हैं. इसलिए ऐसे लोगों के पुनर्वास के लिए भी कोई विशिष्ट कार्यक्रम नहीं है. तीन साल पहले अरविंद केजरीवाल सरकार ने सीवेज की सफाई के काम का जिम्मा अपने हाथों में लेने के लिए 200 मशीनें खरीदी थीं.
फिर भी हाथ से मैला ढोने की यह प्रथा आज भी जारी है. दिल्ली में पिछले पांच सालों में हाथ से मैला ढोने वाले करीब 46 लोगों की मौत हो चुकी है. ताजा मामला रोहित कुमार का है. बीते 9 सितंबर को बाहरी दिल्ली में सीवर की सफाई के दौरान रोहित की मौत हो गई थी.
उनकी पत्नी पिंकी कुमारी ने न्यूज़लॉन्ड्री से कहा, "उसे मैनहोल के अंदर जाने के लिए कहा गया था." "मुझे मेरा पति वापस चाहिए."
तो, फिर देश की राजधानी ने हाथ से मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने के लिए वास्तव में किया क्या है? न्यूज़लॉन्ड्री ने इस मामले की गहराई से पड़ताल की है.
नाले में मौत
रोहित कुमार को सीवर की सफाई करने का कोई पूर्व अनुभव या प्रशिक्षण नहीं था. वो बाहरी दिल्ली के बक्करवाला में डीडीए अपार्टमेंट्स में सफाईकर्मी के तौर पर काम करते थे. ये फ्लैट्स दिल्ली विकास प्राधिकरण के तहत उपलब्ध कराए गए सरकारी आवास हैं.
9 सितंबर को रोहित बक्करवाला की जेजे कॉलोनी स्थित अपने घर में दोपहर का भोजन कर रहे थे कि तभी उन्हे कथित तौर पर उनके कार्यस्थल पर वापस बुला लिया गया और सीवर लाइन में जाने के लिए कहा गया.
उनके भाई दीपक कुमार का कहना है, "उन्होंने पहले कभी सीवर लाइन के अंदर काम नहीं किया था." "उन्हे अंदर भेजा गया था."
सुरेश कुमार नामक चश्मदीद ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि सीवर में एक "ब्लॉकेज" था और अशोक नाम के एक सुरक्षा गार्ड ने कथित तौर पर रोहित से मैनहोल को खोलने और उसमें उतरने का आग्रह किया था. हालांकि दीपक का कहना है कि ये सब इमारत के प्रधान के इशारे पर हो रहा था.
सुरेश ने आगे कहा, "पहले, वह अंदर गया और ब्लॉकेज को साफ किया." “फिर वह बाहर आया और यहां तक कि नहाया भी लेकिन अशोक को यकीन नहीं हुआ कि मैनहोल साफ हो गया है और उसने रोहित को फिर से सीवर में उतरने करने के लिए कहा. इस बार वह नीचे गया और बेहोश हो गया."
रोहित फिर कभी वापस ऊपर नहीं आया. सुरेश ने बताया कि उसने और वहां खड़े एक अन्य व्यक्ति ने उसे बचाने की कोशिश की, लेकिन वो दोनों भी जहरीली गैसों के स्त्राव से उठने वाली भभक से बेहोश हो गए और एक चौथे व्यक्ति को उन्हें ऊपर खींचकर बाहर निकालना पड़ा.
सुरेश ने आगे बताना जारी रखते हुए कहा, "तभी अशोक रोहित को बचाने के लिए मैनहोल में उतरा, लेकिन वो भी बेहोश हो गया. दोनों की मौत हो गई."
पुलिस ने मुंडका थाने में धारा 304ए (लापरवाही से मौत) के तहत प्राथमिकी दर्ज की है. डीडीए ने कहा कि रोहित, एक "निजी" व्यक्ति, था जो "डीडीए को बिना कोई निर्देश/सूचना दिये ही सीवर के मैनहोल में घुस गया था."
सुरेश ने यह भी कहा कि रोहित को मैनहोल में उतरने के लिए "मजबूर" किए जाने से पहले कोई सुरक्षा गियर प्रदान नहीं किया गया था. परिसर के ही एक निवासी मुन्ना कुमार ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि क्षेत्र की सीवर की सफाई नियमित तौर पर हाथ से ही की जाती है.
50 एकड़ में फैले बक्करवाला गांव में चार डीडीए सोसायटी हैं. यहां के निवासियों का कहना है कि उन्हें दिल्ली जल बोर्ड द्वारा सेवाएं नहीं दी जाती जो कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में जल आपूर्ति और सीवेज प्रबंधन का देखभाल करने वाला नोडल प्राधिकरण है. एक निवासी ने बताया कि ऐसा इसलिए है क्योंकि, “डीडीए द्वारा अभी तक आवास योजना को डीजेबी को नहीं सौंपा गया है."
इसकी पुष्टि डीडीए के एक अधिकारी द्वारा भी की गई है, उनके अनुसार डीडीए फ्लैट्स के मामले में हैंडओवर "अटक" जाता है क्योंकि जल बोर्ड को एक विशेष मानक के अनुसार सीवर लाइनों का निर्माण कराना होता है. अधिकारी ने आगे कहा, "यह डीडीए को या तो पुनर्निर्माण करने या कमी शुल्क का भुगतान करने के लिए कहता है." "और यही वह बिंदु है जहां इस प्रक्रिया में देर हो जाती है."
भारत में हाथ से मैला ढोने पर "प्रतिबंध" के नौ साल बीत चुके हैं. इस दौरान हाथ से मैला ढोने वालों द्वारा काम के दौरान अपनी जान गंवाने के कई मामलों में से एक मामला रोहित की मौत का भी है. केंद्र सरकार हाथ से मैला ढोने से होने वाली मौतों को केवल शौचालयों मामलों में ही स्वीकार करती है. हास्यास्पद रूप से, इस साल अप्रैल में, सरकार ने कहा कि भारत ने 1993 के बाद से "हाथ से मैला ढोने के कारण कोई मौत न होने" की सूचना दी है, लेकिन तब से अब तक "सीवर या सेप्टिक टैंक की सफाई करते हुए" 971 लोगों की मौत हो गई है.
दिल्ली में 2017 से अब तक "सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान" 42 मौतें दर्ज की गई है - जो कि उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु के बाद देश में इस तरह की मौतों के मामले में तीसरे स्थान पर हैं. 1997 से अप्रैल 2022 तक दिल्ली में 97 लोगों की मौत हो चुकी है.
न्यूज़लॉन्ड्री को यह पता चला कि राजधानी में एक सुनियोजित अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली का अभाव है, यह एक ऐसी समस्या है जो इसके रखरखाव और संचालन में शामिल कई सरकारी एजेंसियों की लापरवाहियों की वजह से जटिल हो चुकी है. हर साल यहां की नालियां जाम हो जाती हैं और इसकी सीवर लाइनें अक्सर वजीरपुर की जेजे कॉलोनी जैसे रिहायशी इलाकों में ओवरफ्लो होकर बहने लगती हैं.
यहां के निवासी इसी कीचड़ में रहते हैं जबकि इसे साफ करने के लिए नियुक्त किए गए लोग कभी-कभी इस प्रक्रिया में जान गवां बैठते हैं. दिल्ली में सीवर की सफाई के बहुप्रचारित मशीनीकरण ने इस समस्या का कोई समाधान नहीं किया है.
खास बात यह है कि दिल्ली सीवेज मास्टर प्लान 2031 के अनुसार अभी भी दिल्ली का 50 प्रतिशत हिस्सा सीवेज सिस्टम से नहीं जुड़ा है. हाथ से मैला ढोने और उससे जुड़ी मौतों की ज्यादातर वारदतें अधिकांशतः सेप्टिक टैंक जैसे गैर-सीवर सिस्टम की सफाई के दौरान होती हैं.
40 साल पुराना ड्रेनेज सिस्टम
जब हम वजीरपुर की जेजे कॉलोनी की संकरी गलियों से गुजर रहे थें तो कीचड़ के ढेर की ओर इशारा करते हुए गोविंद बिरलान ने कहा, “देखो, यह बारिश के पानी का नाला है. एक घंटे पहले इसे एक कर्मचारी ने हाथों से साफ किया था."
एक दशक से अधिक समय तक दिल्ली में सीवर सफाईकर्मी के रूप में काम करने वाले बिरलान ने आगे कहा, "कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है. कोई नहीं बता सकता कि इनमें से कौन-सा बारिश के पानी का नाला है और कौन-सा सीवर. दोनों में ही सीवेज है." “कोई व्यवस्था नहीं है. कोई यह नहीं कह सकता कि कौन सी वर्षा जल निकासी है और कौन-सा सीवर है. दोनों में सीवेज है."
दिल्ली का जल निकासी नेटवर्क आश्चर्यजनक रूप से 40 साल पुरानी एक योजना पर आधारित है. जिसमें स्टॉर्म वॉटर नालियों, बारिश के पानी की नालियों और सीवर लाइनों की एक अलग प्रणाली शामिल है.
बारिश के पानी की नालियां चार फीट गहरी होती हैं और शौचालय के अलावा अन्य स्रोतों से उत्पन्न वर्षा जल और अपशिष्ट जल को बाहर निकालने के लिए इस्तेमाल में लायी जाती हैं. स्टॉर्म वॉटर नालियां बड़ी होती हैं और अतिरिक्त बारिश और भूजल को पक्की सड़कों, पार्किंग स्थल, फुटपाथ, और छतों जैसी अभेद्य सतहों से निकालने के लिए इस्तेमाल होती हैं. सीवर लाइनें पाइपों का भूमिगत नेटवर्क हैं जो घरों के शौचालय, टब और सिंक से निकलने वाले कचरे को चैनल करती हैं.
दिल्ली में, दिल्ली नगर निगम बारिश के पानी की नालियों का रखरखाव करता है जबकि लोक निर्माण विभाग स्टॉर्म वॉटर की निकासी का प्रभारी है. वहीं सीवर लाइनें दिल्ली जल बोर्ड के दायरे में आती हैं.
यूं तो तीनों ही कागजों पर अलग-अलग नेटवर्क हैं लेकिन जमीनी हक़ीक़त ये है कि ये एक-दूसरे में मिल जाते हैं.
मसलन, अनधिकृत कॉलोनियों की बात करें तो, दिल्ली में 1,797 अनधिकृत कॉलोनियां और 675 जेजे कॉलोनियां हैं. इनमें अक्सर सीवर लाइन तक भी नहीं होती है और इसीलिए सीवेज कॉलोनियों की स्टॉर्म वॉटर नालियों में बह जाता है.
गौरतलब है कि भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक द्वारा 5 जुलाई को एक ऑडिट् रिपोर्ट जारी की गई. इस रिपोर्ट में यह नोट किया गया है कि दिल्ली के लिए सीवरेज मास्टर प्लान - 2031 के पहले चरण के "34 कार्यों" को 2016 तक ही पूरा कर लिया जाना था. लेकिन इनमें से "केवल 11 कार्य" ही जुलाई 2018 तक पूरे हो पाये जबकि 20 कार्य प्रगति पर हैं और तीन तो पूर्व निष्पादन चरण में ही हैं.
यह भी नोट किया गया कि 1,797 अनधिकृत कॉलोनियों में से 1,573 या 88% को "मार्च 2018 तक सीवर की सुविधा प्रदान नहीं की गई थी." और नतीजा यह हुआ कि इन 1,573 कॉलोनियों का सीवेज "स्टॉर्म वॉटर नालों में बहने लगा और अंततः यमुना नदी में बिना उपचार के ही गिरने लगा."
दिल्ली जल बोर्ड के एक सब-इंस्पेक्टर ने स्वीकार किया, "कुछ भीड़भाड़ वाले इलाकों" में सीवर लाइन और बारिश के पानी के “नालों को ओवरफ्लो होने से बचाने के लिए आपस में जोड़ दिया गया है.” सफाई कर्मचारियों ने भी इस बात पुष्टि की लेकिन एमसीडी और पीडब्ल्यूडी ने जो आधिकारिक लाइन ली है, वह यह है कि उनके नालों का सीवेज से कोई लेना-देना नहीं है.
दिल्ली के बारिश के पानी के नालों की देखरेख करने वाली एमसीडी के जनसंपर्क अधिकारी अमित कुमार ने कहा, "हम चार फीट की गहराई वाली नालियों का रखरखाव करते हैं और इसमें केवल बारिश का ही पानी होता है." “इसका सीवेज से कोई लेना-देना नहीं है. हमारे पास हमारे अपने सफाई कर्मचारी हैं जिन्हें इन नालियों को साफ करने के लिए सभी उपकरण उपलब्ध कराए गए हैं.”
पीडब्ल्यूडी के एक अधिकारी ने भी यही लाइन ली. हालांकि जब उन पर थोड़ा दबाव बनाया गया तो उन्होंने नाम न छापने की शर्त पर स्वीकार किया कि "कभी-कभी" पीडब्ल्यूडी की स्टॉर्म वॉटर नालियों में सीवेज घुस जाता है." "लेकिन सीवेज लाइनें हमारे अधिकार क्षेत्र में नहीं आती."
तीनों निकायों - एमसीडी, पीडब्ल्यूडी और दिल्ली जल बोर्ड - ने साफ तौर पर न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि वे 2013 में पारित, हाथ से मैला ढोने के तौर पर रोजगार के निषेध और इस काम में नियुक्त लोगों के पुनर्वास अधिनियम के अनुसार अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाली अपशिष्ट प्रणालियों को साफ करने के लिए हाथ से मैला ढोने वालों को नियुक्त नहीं करते हैं.
इस अधिनियम में सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई को "खतरनाक सफाई" के रूप में वर्णित किया गया है. लेकिन अधिनियम के अनुसार यह केवल तभी प्रतिबंधित है जब कि किसी व्यक्ति को सुरक्षा गियर प्रदान न किया जाए.
इसकी जमीनी हक़ीक़त यह है कि दिल्ली में मानव मल को हाथ से साफ करने के लिए लोगों को नियुक्त किया जाता है. बस उनके काम को हाथ से मैला ढोने के काम की मान्यता नहीं दी जाती है.
दिल्ली में लगभग 30,000 सफाई कर्मचारी हैं, जो सीवर, सेप्टिक टैंक, सार्वजनिक शौचालय और दूसरी चीजों की सफाई करते हैं. संबंधित अधिकारियों के अनुसार इनमें से 90 प्रतिशत वाल्मीकि समुदाय से हैं जो कि एक दलित उपजाति है.
मशीनों का इस्तेमाल होना चाहिए
2019 में, अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली दिल्ली सरकार ने 200 सीवर सफाई मशीनों के एक बेड़े को हरी झंडी दिखाकर राजधानी में "हाथ से मैला ढोने के काम को समाप्त करने" के लिए एक महत्वाकांक्षी परियोजना की शुरूआत की.
उस वक़्त यह सुर्खियां बहुत ही महत्वाकांक्षी लग रही थीं - सरकार एक ऐसी प्रक्रिया को मशीनीकृत करने के लिए भुगतान करने जा रही थी जिसे करने के लिए इंसान को मजबूर किया जाता था, वो भी यह सुनिश्चित करते हुए कि लोगों का रोजगार भी खत्म न हो.
बेशक, असल में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है.
सरकार ने 200 सीवर सफाई मशीनों को देने लिए निविदाएं जारी की. इसमें उन सफाई कर्मचारियों को वरीयता दी गई थी जिन्होंने हाथ से मैला ढोने के कारण परिवार के किसी सदस्य को खो दिया था. इसके अलावा अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के समुदायों के सदस्यों को भी वरीयता दी गई. इन मशीनों का इस्तेमाल केवल दिल्ली में वो भी सिर्फ सीवर लाइन की सफाई के लिए ही किया जा सकता था.
प्रत्येक मशीन की कीमत 40 लाख रुपए थी. लाभार्थियों को चार लाख रुपए का अग्रिम भुगतान करना होता, जबकि बकाया भारतीय स्टेट बैंक के गारंटी-फ्री लोन से आना जिसे पांच वर्षों में चुकाया जा सकता था.
स्मार्ट ग्रीन इंफ्रा एंड लॉजिस्टिक्स मैनेजमेंट इंडिया प्राइवेट लिमिटेड या एसजीएल नाम की एक फर्म को इन मशीनों के लिए एक एग्रीगेटर कंपनी के रूप में काम करने का ठेका दिया गया. एसजीएल सरकार और मशीनों का संचालन करने वालों के बीच संपर्क बिंदु के रूप में भी कार्य करती है.
अगस्त 2022 तक, 189 लाभार्थी दिल्ली में मशीनों का संचालन करने लगते हैं. बचे 11 के लोन स्वीकृत नहीं हुए. इन 189 में से केवल छह ने ही हाथ से मैला ढोने के कारण परिवार के एक सदस्य को खोया है. 50 महिलाएं हैं, और शेष अनुसूचित जाति के समुदायों से आते हैं.
लाभार्थी स्वयं मशीन नहीं चलाते हैं. सब कुछ एसजीएल द्वारा नियंत्रित किया जाता है.
एसजीएल के एक प्रतिनिधि सागर राणावत ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, “हम इन सभी 189 वाहनों की एग्रीगेटर कंपनी हैं. ये वाहन दिल्ली भर में विभिन्न जूनियर इंजीनियर्स के अधीन अलग-अलग वार्डों में काम करते हैं. हमारे काम में इन वाहनों की निगरानी, इन वाहनों में आने वाली तकनीकी व परिचालन समस्याओं को देखना और इन वाहनों के लिए ड्राइवर और हेल्पर उपलब्ध कराना शामिल है.”
राणावत के अनुसार, प्रति माह मशीन को चलाने के लिए दो लाख रुपए से 2.5 लाख रुपए के बीच खर्च होता है - जिसे "मासिक बिलिंग" कहा जाता है. प्रत्येक मशीन पर एक ड्राइवर और दो हेल्पर होते हैं, जिन्हें अनुबंध के आधार पर रखा जाता है और उन्हें प्रति माह 12,000-15,000 रुपए का भुगतान किया जाता है.
उन्होंने कहा, "मासिक किश्तों और अन्य खर्चों" में कटौती करने के बाद, एक मशीन के मालिक को "लगभग 30,000-40,000 रुपये प्रति माह" की कमाई होती है। एसजीएल हर तरह की कागजी कार्रवाई को संभालता है और अपने हिस्से के तौर पर प्रति मशीन मासिक बिल का पांच प्रतिशत लेता है.
कम से कम छह लाभार्थियों ने न्यूज़लॉन्ड्री से पुष्टि की कि वे हर महीने 30,000 रुपए से 35,000 रुपए कमाते हैं. लेकिन उन्हें यह नहीं पता था कि असल में ये मशीनें कहां या कैसे काम करती हैं - वे दूसरे कामों में लगे हुए हैं और मशीनों को चलाने का जिम्मा एसजीएल पर छोड़ दिया गया है. यह उस ख्वाब से बिल्कुल अलग वास्तविकता है जो शुरुआत में इस योजना को लेकर दिखाया गया था कि यह लाभार्थियों को "उद्यमियों" में बदलने वाली योजना है.
रेखा का कहना है, "मुझे इस बारे में कोई जानकारी नहीं है कि ये मशीनें कैसे काम करती हैं." "एसजीएल सब कुछ देखता है और हमें हर महीने मशीन के लिए केवल बकाया मिलता है." रेखा भी इस योजना की एक लाभार्थी हैं जिनके पति की 2017 में लाजपत नगर में एक सीवर की सफाई के दौरान मृत्यु हो गई थी.
न्यूज़लॉन्ड्री ने एक आरटीआई दायर कर इन सीवर सफाई मशीनों का विवरण मांगा था. इसके जवाब में दिल्ली जल बोर्ड ने कहा कि वित्तीय वर्ष 2019-20 में दिल्ली सरकार का आवांटित बजट 26,22,83,917 रुपए था जो कि वित्त वर्ष 2020-21 में नाटकीय रूप से बढ़कर 47,70,84,212 रुपए हो गया और 2021-22 में 57,48,89,996 रुपए हो गया. इस साल मई तक का आवांटित बजट 13,43,32,349 रुपए था.
दिल्ली जल बोर्ड के एक शीर्ष अधिकारी ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि विभाग हर महीने कम से कम करीब चार करोड़ रुपए सीवर सफाई मशीनों के बिलों के भुगतान के तौर पर खर्च करता है. और अगर ये सच है, तो इसका मतलब है कि एसजीएल को हर महीने करीब 20 लाख का राजस्व प्राप्त होता है.
कहानी यहीं खत्म नहीं होती
हम पहले ही इसका जिक्र कर चुके हैं कि लाभार्थियों को मशीनें लेने के लिए चार लाख रुपए की अग्रिम राशि का भुगतान करना पड़ा. कुछ मामलों में जहां लाभार्थी अग्रिम राशि का भुगतान नहीं कर सकते थे वहां दलित इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (डीआईसीसीआई) आगे आई और उसने इन लोगों के लिए भुगतान किया. कम से कम दो लाभार्थियों ने न्यूज़लॉन्ड्री से इसकी पुष्टि कर चुके हैं.
डीआईसीसीआई के राष्ट्रीय अध्यक्ष रवि कुमार नर्रा हैं - जो एसजीएल के निदेशक भी हैं. न्यूज़लॉन्ड्री ने मामले पर टिप्पणी के लिए नर्रा से संपर्क किया, लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली.
"क्या आपको लगता है कि 189 मशीनें काफी हैं?"
लेकिन क्या इन मशीनों का कोई फायदा भी है?
परिचालन उद्देश्यों के लिए प्रत्येक मशीन को पिकअप ट्रक के आकार के वाहन पर लगाया जाता है. इसको सीवेज सिस्टम में ब्लॉकेजेस को दूर करने के लिए लगाया जाता है. इसका काम एक यांत्रिक पंजे की मदद से गाद निकालना, जेटिंग करना (एक नली से पानी की उच्च दाब वाली धाराओं को छोड़ना), और रॉडिंग (इस काम में रॉड को तेज गति से घुमाया जाता है ताकि कीचड़ को तोड़ा जा सके) करना है.
जल बोर्ड का कहना है कि इन मशीनों ने शहर में हाथ से मैला ढोने की प्रथा को समाप्त कर दिया है. हालांकि सफाईकर्मियों का कहना है कि राजधानी की सभी सीवेज लाइनों को साफ करने के लिए मशीनों पर ही निर्भर नहीं रहा जा सकता.
ओखला के एक सीवर सफाईकर्मी रामकुमार ने इस तथ्य का जिक्र करते हुए कि मशीनें संकरी गलियों में नहीं जा सकती हैं, कहा, "यहां मशीनें हैं, लेकिन ये मशीनें संकरी गलियों में सफाई नहीं कर सकती हैं." "यही कारण है कि लाइनों को हाथों से साफ करना पड़ता है."
सफाई कर्मचारी आंदोलन के संस्थापक बेजवाड़ा विल्सन ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि मशीनें मुश्किल से कुल काम का पांच से 10 प्रतिशत हिस्सा ही संभाल पाती हैं - और बाकी का काम हाथों से ही किया जाता है.
उन्होंने कहा, "दिल्ली के आकार और उसकी आबादी को देखकर आपको क्या लगता है कि 189 मशीनें काफी हैं?" "इसके अलावा, इनमें से कई मशीनें काम नहीं कर रही हैं और कई कॉलोनियों की संकरी गलियों में घुस ही नहीं सकती." न्यूज़लॉन्ड्री इसकी पुष्टि नहीं कर सका कि क्या कोई मशीन काम नहीं कर रही है और नहीं कर रही तो क्यों.
जल बोर्ड के एक अधिकारी के अनुसार, जल बोर्ड ने केंद्रशासित प्रदेश में 70 कार्यकारी इंजीनियरों को 189 मशीनें आवंटित की हैं. लेकिन वजीरपुर की जेजे कॉलोनी के निवासियों का आरोप है कि सीवर लाइनों के ओवरफ्लो होने की लगातार शिकायतों के बावजूद उनके क्षेत्र में कभी मशीनें नहीं लाई गईं.
और अगर मशीनें ब्लॉकेजेस को दूर करने में नाकाम साबित होती हैं, तो सफाईकर्मियों को बुलाया जाता है.
गोविंद बिरलान का आरोप है कि जल बोर्ड, एमसीडी और पीडब्ल्यूडी “निजी ठेकेदारों के माध्यम से” 200-300 रुपए के दैनिक वेतन पर हाथ से मैला ढोने के लिए श्रमिकों को नियुक्त करते हैं.
दक्षिण दिल्ली में एक सफाई कर्मचारी ने हम से कहा, "जब सीवर लाइनों या नालियों में कुछ ब्लॉकेज होती है और मशीन इसे साफ नहीं कर पाती, तो ठेकेदार हमें काम के लिए बुलाते हैं." “वे हमें 250-350 रुपए तक दैनिक वेतन देते हैं जो कि उस काम पर निर्भर करता है."
कम से कम आठ सफाई कर्मचारियों ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि उनका ज्यादातर काम हाथ से मैला ढोने का है. उन्हें इन "निजी ठेकेदारों" के माध्यम से ही काम मिलता है. सिवाय उन मामलों के जहां लोग व्यक्तिगत तौर उन्हें शौचालय या सेप्टिक टैंक साफ करने के काम में लगाते हैं.
सेप्टिक टैंक निजी स्वामित्व में होते हैं और सरकार द्वारा उनकी सफाई में कोई भूमिका नहीं निभाई जाती है. पूर्वी दिल्ली के नंद नगरी के एक सफाई कर्मचारी 50 वर्षीय ओमी लाल ने कहा कि सेप्टिक टैंक की सफाई "जोखिम भरा और खतरनाक" है.
लाल ने समझाते हुए कहा, “सेप्टिक टैंक में, किसी इंसान को नीचे जाकर मानव मल निकालना पड़ता है. इसके अलावा दो या दो से अधिक लोगों को रस्सी पकड़े बाहर रहना पड़ता है. जबकि और व्यक्ति को टैंक से निकाले गए मलमूत्र को फेंकता है.” “सेप्टिक टैंक अक्सर सालों तक बंद रहते हैं और इसलिए, जब आप उन्हें खोलते हैं, तो एक असहनीय गैस लीक होती है. गैस इतनी हानिकारक होती है कि यह आपको बेहोश भी कर सकती है. और तभी हादसे होते हैं."
हैदराबाद में सेंटर फॉर एनवायरनमेंट, अर्बन गवर्नेंस एंड इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट के निदेशक श्रीनिवास चारी ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि दिल्ली, हैदराबाद और बेंगलुरु जैसे शहरों के केवल आधे इलाकों में ही सीवर कनेक्शन हैं. बाकी गैर-सीवर सिस्टम जैसे सेप्टिक टैंक, शौचालय और सीवेज उपचार संयंत्र के साथ काम चलाते हैं.
चारी ने बताया कि "ज्यादातर मौतें इन गैर-सीवर प्रणालियों में होती हैं." “सीवर लाइनों में, कम से कम कुछ मशीनीकृत प्रणालियां हैं. लेकिन गैर-सीवर सफाई के काम की व्यवस्था निजी तौर पर की जाती है.”
उन्होंने कहा, “आदर्श स्थिति तो यह है कि सरकार गैर-सीवर क्षेत्रों की सफाई की भी जिम्मेदारी ले. लेकिन दिल्ली जैसी जगहों पर जहां इतनी जटिल प्रणाली है - वहां आपके पास एक सीवर प्रणाली, एक गैर-सीवर प्रणाली और परिधीय क्षेत्र हैं और साथ ही इसमें कई एजेंसियां शामिल हैं तो ऐसे में वहां एक जिम्मेदार स्वच्छता प्राधिकरण होना चाहिए. और यह प्राधिकरण डीजेबी को होना चाहिए."
न्यूज़लॉन्ड्री ने दिल्ली जल बोर्ड के अतिरिक्त मुख्य कार्यकारी अभियंता भूपेश कुमार से संपर्क किया. उन्होंने कहा कि जल बोर्ड "सेप्टिक टैंक की सफाई के लिए भी मशीनें किराए पर लेने की योजना बना रहा है." "इस संदर्भ में काम जारी है."
सुरक्षा उपकरणों का अकाल
राष्ट्रीय राजधानी में एक जवाबदेह स्वच्छता प्राधिकरण के अभाव में इसके सफाई कर्मचारियों की सुरक्षा भी नदारद रहती है. यह हाथ से मैला ढोने के रोजगार निषेध और इस काम में नियुक्त लोगों के पुनर्वास अधिनियम 2013 का सीधा उल्लंघन है.
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा जारी की गई 2021 की एडवाइजरी में भी इसको दोहराया गया था. जिसमें यह कहा गया था कि सभी सफाई कर्मचारियों को "सेप्टिक टैंक/सीवर लाइनों में "उतरने/सफाई” करने के लिए "हेलमेट, सुरक्षा जैकेट, दस्ताने, मास्क, गमबूट प्रदान सुरक्षात्मक चश्मा, टॉर्च की रोशनी के साथ ऑक्सीजन सिलेंडर प्रदान करना आवश्यक है."
एडवाइजरी में कहा गया है : “यह स्थानीय प्राधिकरण/काम पर रखने वाली एजेंसी की जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वह सैनिटरी श्रमिकों को सभी आवश्यक व्यक्तिगत सुरक्षा गियर/सुरक्षा उपकरण प्रदान करे फिर चाहे उनके रोजगार का प्रकार, यानी स्थायी, अस्थायी, अंशकालिक या संविदात्मक रूप से संलग्न कुछ भी हो.
हालांकि, कम से कम आठ सफाई कर्मचारियों ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि सीवर लाइन या सेप्टिक टैंक की सफाई करते समय उन्हें सुरक्षात्मक उपकरण नहीं दिए जाते हैं. यह याद रखना चाहिए कि वे तकनीकी तौर पर वे निजी ठेकेदारों द्वारा काम पर रखे गए हैं न कि सीधे सरकार द्वारा.
नंद नगरी के एक सफाई कर्मचारी संतोष कुमार ने कहा, "हम केवल अपने अंडरवियर में ही सीवर लाइन या सेप्टिक टैंक में घुस जाते हैं." "हमें कुछ भी नहीं दिया जाता है."
ओखला के एक सफाई कर्मचारी प्रदीप कुमार ने कहा, “कभी-कभी हमें गैर सरकारी संगठनों से दस्ताने, कपड़े और अन्य उपकरण मिलते हैं. सिर्फ इतना ही. हमें अपने ठेकेदारों या अन्य एजेंसियों से कोई सुरक्षात्मक उपकरण नहीं मिलते हैं.”
सुरक्षात्मक उपकरण प्रदान करने के लिए कौन जिम्मेदार है, इस मसले पर श्रीनिवास चारी ने कहा, “यदि यह सीवर लाइनों वाला क्षेत्र है, तो सरकार को इसे लागू करना होगा. लेकिन अगर यह एक गैर-सीवर क्षेत्र है, तो यह सरकार के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत नहीं आता है. ऐसे में यह नागरिकों की जिम्मेदारी है कि वे सुरक्षात्मक उपकरणों पर दिशानिर्देशों को लागू करे."
सफाई कर्मचारियों के हितों की रक्षा के लिए बने राज्य-स्तरीय वैधानिक निकाय, दिल्ली सफाई कर्मचारी आयोग, के सदस्य रविशंकर ने कहा कि नागरिकों को भी अधिक जागरूक होने की आवश्यकता है.
उन्होंने कहा, 'सरकार हाथों से सीवर लाइनों की सफाई की प्रथा को खत्म करने का प्रयास कर रही है. “यदि आप शिकायत करते हैं, तो सीवर लाइनों को साफ करने के लिए मशीनें भेजी जाती हैं. लेकिन लोग जल्दबाजी में होते हैं. वे किसी शराबी या अनुभवहीन व्यक्ति से इसे साफ करने के लिए कहेंगे. इस तरह से ये अप्रिय घटनाएं घटत हैं."
उन्होंने कहा, "देश में बेरोजगारी बहुत अधिक है. व्यापक बेरोजगारी के कारण लोगों के पास सीवर लाइनों की सफाई जैसे काम करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.”
मुआवजा और पुनर्वास
जुलाई 2022 में, दिल्ली सफाई कर्मचारी आयोग ने दिल्ली में सीवर लाइनों की सफाई के दौरान मरने वालों के परिवारों को दिए जाने वाले मुआवजे को 10 लाख रुपये से बढ़ाकर 25 लाख रुपए करने की मांग की.
रविशंकर ने कहा, "सर्वोच्च न्यायालय ने 2014 में 10 लाख रुपए के मुआवजे की राशि का निर्देश दिया था." “मुद्रास्फीति की दर और मौजूदा स्थिति को देखते हुए, क्या इसे पर्याप्त राशि कहा जा सकता है? इसलिए हमने इस मुआवजे की राशि में वृद्धि की मांग की है."
रवि और उनकी सहयोगी अनीता उज्जवल ने भी मुआवजे में देरी से मुद्दे को उठाया. दिल्ली में हाथ से मैला उठाने वालों की जिन 99 मौतों का उन्होंने मई 2022 तक सर्वेक्षण किया था, उसके बारे में उनका कहना है कि इनमें से चार मामलों में कोई मुआवजा नहीं दिया गया है. वहीं 15 मामलों में मृतक के परिवारों को कथित तौर पर 10 लाख रुपए की आश्वसान राशि से कम का भुगतान किया गया था.
मुआवजा के अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में अधिकारियों को राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में हाथ से मैला ढोने वालों की "पहचान और पुनर्वास" करने का निर्देश दिया था. पिछले जुलाई में सामाजिक न्याय मंत्रालय ने लोकसभा को बताया कि दो सर्वेक्षण - एक 2013 में और दूसरा 2018 में - पीइएमएसआर अधिनियम के अनुसार हाथ से मैला ढोने वालों की पहचान करने के लिए किए गए थे. इन सर्वेक्षणों द्वारा हाथ से मैला ढोने वाले 58,098 लोगों की पहचान की गई लोग जो पुनर्वास की पात्रता की शर्तों को पूरा करते हैं.
लेकिन दिल्ली लाभार्थियों की सूची में नहीं है.
हाथ से मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिए दिल्ली केंद्र सरकार की स्वरोजगार योजना, या एसआरएमएस की भी लाभार्थी नहीं है, जिसके तहत पहचान किए गए हाथ से मैला ढोने वालों को 40,000 रुपए की एकमुश्त नकद सहायता दी जाती है और पेशे को बदलने में मदद की जाती है.
इस बीच, दिल्ली सरकार ने 2018 में अपना खुद का सर्वेक्षण किया और राजधानी में हाथ से मैला ढोने वाले 45 लोगों की पहचान की. जून 2019 में, दिल्ली सरकार ने पहचान किए गए मैला ढोने वालों को 40,000 रुपए की नकद सहायता, 15 लाख रुपए तक के रियायती ऋण और 3.25 लाख रुपए की क्रेडिट-लिंक्ड कैपिटल सब्सिडी प्रदान करने के लिए एक पुनर्वास कार्यक्रम को मंजूरी दी.
अपने 2019-20 के बजट भाषण में, दिल्ली सरकार ने कहा कि उसने दलित समुदायों के उत्थान के लिए "सफल" कार्यक्रम शुरू किए हैं, जैसे जय भीम मुख्यमंत्री प्रतिभा विकास योजना और सीवर सफाई का मशीनीकरण.
हालांकि, 2019 के बाद से, इसके बजट में हाथ से मैला उठाने वालों के पुनर्वास के लिए बजटीय आवंटन का कोई खास जिक्र नहीं है. न्यूज़लॉन्ड्री ने जुलाई में एक आरटीआई दायर कर दिल्ली सरकार द्वारा हाथ से मैला उठाने वालों के पुनर्वास के लिए शुरू की गई योजनाओं और उसके लिए आवंटित बजट का ब्यौरा मांगा था. लेकिन हमें कोई जवाब नहीं मिला.
क्या इसके कार्यक्रमों और अभियानों का कुछ असर भी है? जिन लाभार्थियों से हमने बात की, वे असंतुष्ट लग रहे थे.
कल्याण पुरी के रहने वाले विष्णु की पहचान शाहदरा के जिलाधिकारी ने 2018 में हाथ से मैला ढोने वाले के तौर पर की थी. कौशल विकास मंत्रालय के तहत हाउसकीपर बनने के लिए कौशल प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में उनका नामांकन किया गया था. उस वक़्त विष्णु को एक प्रमाण पत्र और एक प्रस्ताव पत्र दिया गया था जिसमें सादिक मसीह मेडिकल सोशल सर्वेंट सोसाइटी में 14,000 रुपए प्रति माह के सकल वेतन के साथ रोजगार का वादा किया गया था.
जब विष्णु नौकरी के लिए गए, तो उन्हे बताया गया कि ऑफर लेटर फर्जी है. नाराजगी के कारण वह न्यूज़लॉन्ड्री से इस बारे में विस्तार से बात करने के लिए भी तैयार नहीं थे, उन्होंने कहा, "मैंने अपनी कहानियां बहुत सारे मीडियाकर्मियों को बताई हैं लेकिन कुछ नहीं होता. मैं किसी से कुछ नहीं कहना चाहता." उनके पड़ोसी, पिंटू पर्च ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि उसी क्षेत्र के दो अन्य लोगों को भी “धोखा” दिया गया था, लेकिन हम इसकी पुष्टि नहीं कर सके.
शाहदरा के सब डिविजनल मजिस्ट्रेट के कार्यालय ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि वह “धोखाधड़ी” के किसी भी मामले से अनजान हैं.
और बावजूद इसके दिल्ली में हाथ से मैला ढोने वाले अनेक ऐसे लोग हैं जिनकी औपचारिक रूप से “पहचान” हाथ से मैला ढोने वालों के रूप में नहीं की जाती है और इसीलिए वे इनमें से किसी भी कार्यक्रम या योजना के लिए योग्य नहीं हैं.
नंद नगरी के रहने वाले 55 वर्षीय मुन्ना लाल और 50 वर्षीय शारदा ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि उन्होंने 10 साल पहले हाथ से मैला ढोने का काम छोड़ दिया था.
मुन्ना लाल ने कहा, "मेरे काम छोड़ने के कुछ दिनों बाद हमें थोड़े से राशन के अलावा कुछ नहीं मिला है." "अब हम क्या कर सकते हैं? कोई हमारी देखभाल नहीं करता. इसलिए हमारे पास अपनी रोजी-रोटी कमाने के लिए कचरा बीनने वालों के तौर पर काम करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.”
आरेख : शांभवी ठाकुर.
इन्फोग्राफिक्स : गोबिंद वीबी.
यह रिपोर्ट ठाकुर फाउंडेशन की सहायता से तैयार की गई है.